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                              *ईश्वर की बनायी इस सृष्टि में जीव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है | अनेक जन्मों के किये हुए सत्कर्मों के फलस्वरूप जीव को यह दुर्लभ मानवयोनि प्राप्त होती है | जहाँ शेष सभी योनियों को भोगयोनि कहा गया है वहीं मानवयोनि को कर्मयोनि की संज्ञा दी गयी | इस शरीर को प्राप्त करके मनुष्य अपने कर्मों के माध्यम से जन्म जन्मान्तर में किये गये कर्म , अकर्म , विकर्म , दुष्कर्म आदि को भी सुधार सकता है | मनुष्य को पथभ्रष्ट करने वाले काम , क्रोध , मोह , लोभ एवं अहंकार सदैव तत्पर रहते हैं ! वैसे तो इनसे कोई भी नहीं बच पाता है परंतु प्रत्येक मनुष्य को इनसे बचने का उद्योग अवश्य करते रहना चाहिए | मनुष्य गल्तियों का पुतला कहा गया है | मनुष्य से भूल हो जाना स्वाभाविक भी है ! परंतु यहाँ यह विचार अवश्य करना चाहिए कि आखिर भूल क्यों हो रही है | यदि सूक्ष्म दृष्टि डाली जाय तो मनुष्य की गल्तियों के पीछे मुख्य कारण उपरोक्त षड्विकार (काम क्रोधादि) ही होते हैं | यदि मनुष्य से भूल हो जाना स्वाभाविक है तो उसका प्रायश्चित करके ही मनुष्य उस बोझ से छुटकारा भी पा सकता है | इन्द्रपुत्र जयन्त ने अभिमान में आकर भगवान श्रीराम की परीक्षा लेनी चाही परंतु परिणामत: उसके प्राण संकट में पड़ गये | अन्तत: वह प्रायश्चित हेतु भगवान श्रीराम की ही शरण में गया | क्रोध के वशीभूत होकर देवर्षि नारद ने अपने आराध्य श्रीहरि विष्णु को श्राप दे दिया परंतु उन्होंने भी अपनी भूल का प्रायश्चित किया | हमारे धर्मशास्त्र कहते हैं कि प्रायश्चित कर लेने मात्र से मनुष्य द्वारा किये गये कर्म तो नहीं मिट सकते परंतु उसका मिलने वाला फल अवश्य कम हो जाता है | प्रायश्चित करके मनुष्य के हृदय का बोझ अवश्य कम हो जाता है |*

आज समाज बदला , लोग बदले हैं और बदल गई है मनुष्य की सोंच | मनुष्य को यह लगता है कि मैं जो कर रहा हूं या मैं जो कह रहा हूं वही सत्य है बाकी सब झूठ है | अपनी बात को सही साबित करने के लिए मनुष्य अनेकों तर्क कुतर्क करते हुए गलत तथ्यों को प्रस्तुत करता रहता है | आज के तथाकथित कुछ विद्वानों के आचरण देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि जो विद्वान आम जनमानस को उपदेश देते हुए मानवीय भूल के लिए प्रायश्चित करने के प्रसंग प्रस्तुत कर रहे हैं उन्हें स्वयं के द्वारा की गयी भूल का आभास भी नहीं होता है | यदि किसी के द्वारा उन्हें उनकी भूल का आभास कराने का प्रयास भी किया जाता है तो वह उसको मानने को तैयार नहीं होते , क्योंकि कहीं ना कहीं से ऐसे लोग क्रोध , मोह , लोभ एवम् अहंकार के वशीभूत होकर के सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते | इस सत्य को स्वीकार न कर पाने के कारण ऐसे लोग अपने परिजनों , मित्रों एवं गुरुजनों से अलग होते चले जाते हैं | विचार कीजिए जो स्वयं अपनी भूल को नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं वह समाज को अपनी भूल स्वीकार करके प्रायश्चित करने का विधान यदि बता रहे हैं यह हास्यास्पद ही लगता है | किसी को कुछ बताने से पहले उस विधान को स्वयं के ऊपर अवश्य लागू करना चाहिए अन्यथा वह प्रभावी नहीं होता है |

भूल हो जाना मानव स्वभाव है परंतु प्रत्येक मनुष्य को समय रहते हुए अपनी भूल को स्वीकार करके प्रायश्चित कर लेना चाहिए | इससे उसका सम्मान तो बढता ही रहेगा साथ ही उसकी अंतरात्मा पर भी कोई बोझ नहीं रहेगा |


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