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पदार्थों में समस्या नहीं है हमारे उपयोग करने में समस्या है। कभी-कभी विष की एक अल्प मात्रा भी दवा का काम करती है और दवा की अत्याधिक मात्रा भी विष बन जाती है। विवेक से, संयम से, जगत का भोग किया जाये तो कहीं समस्या नहीं है।
संसार का विरोध करके कोई इससे मुक्त नहीं हुआ। बोध से ही इससे ज्ञानीजनों ने पार पाया है। संसार को छोड़ना नहीं, बस समझना है। परमात्मा ने पेड़-पौधे, फल-फूल, नदी, वन, पर्वत, झरने और ना जाने क्या- क्या हमारे लिए नहीं बनाया ? हमारे सुख के लिए, हमारे आनंद के लिए ही तो सबकी रचना की है।
संसार की निंदा करने वाला अप्रत्यक्ष में भगवान् की ही निंदा कर रहा है। किसी चित्र की निंदा चित्र की नहीं अपितु चित्रकार की ही निंदा तो मानी जाएगी। हर चीज भगवान् की है, कब, कैसे, कहाँ, क्यों और किस निमित्त उसका उपयोग करना है यह समझ में आ जाये तो जीवन को महोत्सव बनने में देर ना लगेगी।

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किसी भी परिस्थिति में विचलित न हों

👉 जीवन में कई अवसरों पर बड़ी विकट परिस्थितियाँ आती हैं उनका आघात असह्य होने के कारण मनुष्य व्याकुल हो जाता है और अपनी विवशता पर रोता-चिल्लाता है । प्रिय और अप्रिय घटनाएँ तो आती हैं और आती ही रहेंगी ।
👉ऐसे अवसरों पर हमें विवेक से काम लेना चाहिए । ज्ञान के आधार पर ही हम उन अप्रिय घटनाओं के दुःखद परिणाम से बच सकते हैं । ईश्वर की दयालुता पर विश्वास रखना, ऐसे अवसरों पर बहुत ही उपयोगी है । हमारा ज्ञान बहुत ही स्वल्प है इसलिए हम प्रभु की कार्यविधि का रहस्य नहीं जान पाते । जिन घटनाओं को हम आज अप्रिय देख समझ रहें हैं, वे यथार्थ में हमारे कल्याण के लिए होती है ।
👉 हमें समझ लेना चाहिए कि हम अपने मोटे और अधूरे ज्ञान के आधार पर परिस्थितियों का असली हेतु नहीं जान पाते, तो भी उसमें कुछ न कुछ हमारा हित अवश्य छिपा होगा, जिसे हम समझ नहीं पाते । कष्टों के समय हमें ईश्वर की न्यायपरायणता और दयालुता पर अधिकाधिक विश्वास करना चाहिए । इससे हम घबराते नहीं और उस विपत्ति के हटने तक धैर्य धारण किए रहते हैं । संतोष करने का शास्त्रीय उपदेश ऐसे ही समय के लिए है । कर्तव्य करने में प्रमाद करना, “संतोष नहीं” , वरन् आई हुई परिस्थिति में विचलित न होना, “संतोष है ।” “संतोष” के आधार पर कठिन प्रसंगों का आधा भार हलका हो जाता है ।
[ भोग बुरे नहीं हैं अपितु उनकी आसक्ति बुरी है। भोगों को इस प्रकार भोगो कि समय आने पर इन्हें छोड़ा भी जा सके। श्री कृष्ण से बड़ा अनासक्त कोई नहीं हुआ। द्वारिका में राजसी सुखों में रहे तो वहीं जरुरत पड़ने पर अर्जुन का रथ भी हाँकने लगे। कभी सुदामा के चरणों में बैठ गए तो कभी विदुर की झोंपड़ी में डेरा डाल दिया।
जब तक द्वारिका की सत्ता पर आसीन रहे पूरी प्रजा को पुत्रवत पाला पर जब स्थिति, कुल और धर्म दोनों में से किसी एक को चुनने की आ गई तो बिना कुलासक्ति के धर्म को चुन लिया। विवाह किये तो इतिहास ही रच ड़ाला और त्यागने का समय आया तो ऐसे त्याग दिया जैसे उनसे कभी कोई सम्बन्ध ही ना रहा हो।
यह अनासक्ति ही भगवान् श्री कृष्ण की प्रसन्नता का कारण बनी। इस दुनिया में जो भी अनासक्त भाव से कर्म में लिप्त रहते हैं उन्हें आनंद प्राप्ति से कोई नहीं रोक सकता।।
[ हम खुद चाहे कितना ही झूठ बोल लें पर कोई दूसरा बोल दे तो हमे बर्दाश्त नहीं होता। हम दूसरों पर कितना भी गुस्सा कर लें पर जब कोई हम पर गुस्सा करता है तब हमे बड़ा बुरा लगता है। जबक हमें स्वयं के प्रति कठोर और दूसरों के प्रति सरल होना चाहिए।। ब्रह्मा जी की सृष्टि में पूर्ण तो कोई भी नहीं है। यहाँ सबमें कुछ ना कुछ कमीं हैं। सबकी सोच, सबके बिचार, सबके उद्देश्य, सबके कार्य करने का तरीका अलग- अलग है। अगर सारी दुनिया एक जैसी होती तो इसके दो ही परिणाम होते, या तो दुनिया स्वर्ग होती या नरक। विविधता ही इस दुनिया को खूबसूरत बनाती है।। ज्ञानी ऐसी चेष्टाओं से मुक्त होता है। वह किसी पर अपना आधि पत्य जमाने की कोशिश नहीं करता, ना ही वह किसी से टकराता है। लोग जैसे हैं उन्हें बैसे ही स्वीकार कर लेना ही सबसे बड़ा ज्ञान है। बुद्ध कहते है कि सत्य का पालन स्वयं करना तो धर्म है पर दूसरों से जबरदस्ती सत्य का पालन कराना हिंसा है।।

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