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ईश्वर की

भक्ति करना श्रेष्ठ हैं या सेवा करना, यदि सब लोग भक्ति मे लग जाएगें तो सेवा कौन करेगा, संसार कैसे चलेगा।
संसार भगवान की दो शक्तियों से मिलकर बना हैं-
एक मायाशक्ति, एक जीवशक्ति…
भगवान ही पंच तत्व ( मायाशक्ति ) बना करते हैं और समस्त जीव भगवान की जीवशक्ति के अंश हैं।
इस प्रकार,
संसार भगवान का ही स्वरूप हैं, इसमें सब जड़ चेतन भगवान की शक्तियों के रूप मे, भगवान की प्रेरणा से, एक दुसरे का सहयोग करते हुए एक दुसरे के कल्याण के लिए कार्य कर रहे हैं।
मोटे तौर पर हम समझ सकते हैं कि भगवान ने जीवों के सहयोग से जीवों के कल्याण के लिए ही संसार का ताना बाना बुना हैं।

इसलिए सद्गुरू ने कभी भी किसी को भी संसार के सब काम छोड़- छाड़कर बैठ जाने और सिर्फ भक्ति करने का उपदेश नही दिया। उन्होंने सदा यही कहा हैं कि संसार मे सभी लोग अपनी सब ड्यूटी करते हुए मन को निरंतर भगवान मे लगाएँ रखें, यही कर्मयोग हैं। वे स्वयं गृहस्थ रहे हैं और अपनी सब संसारी ड्यूटी व रिश्तेदारियाँ तक बड़ी कुशलता से निभाते रहे हैं।

समझने की मुख्य बात यह हैं कि संसार शरीर के लिए बना हैं, आत्मा के लिए यह संसार नही हैं।

संसार न भ्रम हैं, न सपना हैं, न मिथ्या हैं, न कोरी माया ही हैं। भगवान का बनाया यह संसार वास्तविकता हैं तथा जीवों के लिए बहुत उपयोगी हैं।

परंतु जैसे किसी भी जीव के लिए एक न एक दिन उसका शरीर उसके लिए अनित्य हो जाता हैं, व्यर्थ हो जाता हैं, उसी प्रकार मृत्यु के दिन उस जीव के लिए यह संसार भी अनित्य हो जाता हैं।

अब हमारे सोचने की बात यह हैं कि हमें अनित्य ( शरीर ) पर अधिक ध्यान देना चाहिए या नित्य ( आत्मा ) पर।
जीव के कल्याण के लिए साधना की आवश्यकता होती हैं।
साधना के लिए सेवा की आवश्यकता होती हैं और सेवा के लिए संसार चाहिए।
यानी साधना मे अंतःकरण को शुद्ध करने हेतु जो सेवा करनी हैं, वह भी तो संसार मे ही करनी हैं।
इस प्रकार आत्मकल्याण के लिए जीव को शरीर और संसार की बहुत बहुत आवश्यकता हैं।
तुलसीदास जी लिखते हैं-
तनु बिनु भजन बेद नही बरना।
अर्थात
वेद मे शरीर के बिना सेवा, भक्ति करने का कोई वर्णन नही हैं।
भगवान के लोक मे भी सेवा करने के लिए ( दिव्य ) शरीर मे रहना होता हैं।

जब तक भगवान की दिव्य सेवा नही मिलती, तब तक मायिक संसार की सेवा करते हुए अंतःकरण को शुद्ध करना हैं।
इसलिए संसार की एकदम उपेक्षा कर देना नासमझी हैं।
क्योंकि यदि हमें शरीर की आवश्यकता हैं, तो फिर संसार की भी आवश्यकता हैं।
हम लोग इसी बिंदु पर चूक जाते हैं।
सेवा और भक्ति और भजन इन्हें पर्यायवाची शब्द ही जानना चाहिए।
संस्कृत मे ” भज् सेवायाम्” एक धातु हैं। इसी से भक्ति शब्द निकला हैं। यानी सेवा और भक्ति दोनों एक ही हैं, यहाँ संक्षेप मे तीन बातें विचारणीय हैं-
पहली बात,
हम जिसकी सेवा, भक्ति करना चाहते हैं, उसमें प्रगाढ़ प्रेम होना अनिवार्य हैं। अन्यथा वहाँ कोई न कोई स्वार्थ खड़ा हो जायेगा।
जिसमें कोई स्वार्थ या कामना छुपी हैं, वह सेवा अथवा भक्ति नही हैं।
जो केवल निष्काम हो, वही सेवा होती हैं।

संसार मे कोई भी जीव क्षभगवद् प्राप्ति से पहले निष्काम कर्म करने की बात सोच भी नही सकता, क्योंकि जब तक जीव का आनंद प्राप्ति का अपना ही लक्ष्य पूरा नही होगा।
तब तक उसका निष्काम हो पाना असंभव हैं, यह बात वेद कहता हैं।
दुसरी बात,
संसार मे सेवा करने का एक ही लक्ष्य हैं- मन बुद्धि की शुद्धि करना, अब हमारे अंतःकरण को शुद्ध करने के लिए कैसी सेवा उपयोगी रहेगी, यह बात यदि हम अपनी बुद्धि लगाकर सोचेंगे तो नित्यप्रति भ्रम के शिकार होकर एक दुसरे के देखा देखी अपनी सेवाओं को बदलते रहेंगे और सदा विचलित रहेंगे। आज कुछ, कल कुछ, परसों कुछ। कई बार बिना तत्व को जाने समझें देखा देखी सेवा करने से बहुत बड़ा अहित भी हो जाता हैं, जैसे यदि कोई सेवा करके पुण्य कमा बैठे, तो वह स्वर्ग मे जा पहुँचेगा फिर वहाँ कुछ दिन सुख भोगने पर उसे हीन योनियों मे पटक दिया जायेगा इस प्रकार वह मानव देह पाकर भी अनजाने मे ही अपने हाथों अपना विनाश लिख बैठेगा।
तीसरी बात,
सेवा भी एक कर्म हैं और कर्म का फल अवश्य मिलता है।
कर्म और फल सदा बंधन कारक ही होते हैं। चूकि मायाबद्ध के लिए निष्काम हो पाना संभव नही हो होता, इसलिए विद्वान लोग भगवद् प्रीति के लिए कर्म करने और उसे भगवान को अर्पित कर देने का विधान भी बताते हैं। परंतु प्रैक्टिकल मे यह सब करना आसान नही होता।
मन मे भगवान का प्रगाढ़ प्रेम प्रकट हुए बिना भगवद् प्रीत्यर्थकर्म करना असंभव हैं।
हम जिसकी सेवा करेंगे, उसी का फल पाएगें नश्वर संसार की सेवा का फल नश्वर शरीर तक सीमित रहता हैं, आत्मा को उससे कोई लाभ नही होता।
🌹🌿
[हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

मनुष्य के भाग्य में क्या है ??

एक बार महर्षि नारद वैकुंठ की यात्रा पर जा रहे थे, नारद जी को रास्ते में एक औरत मिली और बोली।

मुनिवर आप प्रायः भगवान नारायण से मिलने जाते है। मेरे घर में कोई औलाद नहीं है आप प्रभु से पूछना मेरे घर औलाद कब होगी?

नारद जी ने कहा ठीक है, पूछ लूंगा इतना कह कर नारदजी नारायण नारायण कहते हुए यात्रा पर चल पड़े ।

वैकुंठ पहुंच कर नारायण जी ने नारदजी से जब कुशलता पूछी तो नारदजी बोले जब मैं आ रहा था तो रास्ते में एक औरत जिसके घर कोई औलाद नहीं है। उसने मुझे आपसे पूछने को कहा कि उसके घर पर औलाद कब होगी?

नारायण बोले तुम उस औरत को जाकर बोल देना कि उसकी किस्मत में औलाद का सुख नहीं है।

नारदजी जब वापिस लौट रहे थे तो वह औरत बड़ी बेसब्री से नारद जी का इंतज़ार कर रही थी।

औरत ने नारद जी से पूछा कि प्रभु नारायण ने क्या जवाब दिया ?

इस पर नारदजी ने कहा प्रभु ने कहा है कि आपके घर कोई औलाद नहीं होगी।

यह सुन कर औरत ढाहे मार कर रोने लगी नारद जी चले गये ।

कुछ समय बीत गया। गाँव में एक योगी आया और उस साधू ने उसी औरत के घर के पास ही यह आवाज़ लगायी कि जो मुझे 1 रोटी देगा मैं उसको एक नेक औलाद दूंगा।

यह सुन कर वो बांझ औरत जल्दी से एक रोटी बना कर ले आई। और जैसा उस योगी ने कहा था वैसा ही हुआ।

उस औरत के घर एक बेटा पैदा हुआ। उस औरत ने बेटे की ख़ुशी में गरीबो में खाना बांटा और ढोल बजवाये।

कुछ वर्षों बाद जब नारदजी पुनः वहाँ से गुजरे तो वह औरत कहने लगी क्यूँ नारदजी आप तो हर समय नारायण , नारायण करते रहते हैं ।

आपने तो कहा था मेरे घर औलाद नहीं होगी। यह देखो मेरा राजकुमार बेटा।

फिर उस औरत ने उस योगी के बारे में भी बताया।

नारदजी को इस बात का जवाब चाहिए था कि यह कैसे हो गया?

वह जल्दी जल्दी नारायण धाम की ओर गए और प्रभु से ये बात कही कि आपने तो कहा था कि उस औरत के घर औलाद नहीं होगी।

क्या उस योगी में आपसे भी ज्यादा शक्ति है?

नारायण भगवान बोले आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है ।

मैं आपकी बात का जवाब बाद में दूंगा पहले आप मेरे लिए औषधि का इंतजाम कीजिए,

नारदजी बोले आज्ञा दीजिए प्रभु, नारायण बोले नारदजी आप भूलोक जाइए और एक कटोरी रक्त लेकर आइये।

नारदजी कभी इधर, कभी उधर घूमते रहे पर प्याला भर रक्त नहीं मिला।

उल्टा लोग उपहास करते कि नारायण बीमार हैं ।

चलते चलते नारद जी किसी जंगल में पहुंचे , वहाँ पर वही साधु मिले , जिसने उस औरत को बेटे का आशीर्वाद दिया था।

वो साधु नारदजी को पहचानते थे, उन्होंने कहा अरे नारदजी आप इस जंगल में इस वक़्त क्या कर रहे है?

इस पर नारदजी ने जवाब दिया। मुझे प्रभु ने किसी इंसान का रक्त लाने को कहा है यह सुन कर साधु खड़े हो गये और बोले कि प्रभु ने किसी इंसान का रक्त माँगा है।

उसने कहा आपके पास कोई छुरी या चाक़ू है।

नारदजी ने कहा कि वह तो मैं हाथ में लेकर घूम रहा हूँ।
उस साधु ने अपने शरीर से एक प्याला रक्त दे दिया। नारदजी वह रक्त लेकर नारायण जी के पास पहुंचे और कहा आपके लिए मैं औषधि ले आया हूँ।

नारायण ने कहा यही आपके सवाल का जवाब भी है।

जिस साधू ने मेरे लिए एक प्याला रक्त मांगने पर अपने शरीर से इतना रक्त भेज दिया।

क्या उस साधु के दुआ करने पर मैं किसी को बेटा भी नहीं दे सकता।

मनुष्य का भाग्य केवल प्रारभ्ध से निर्मित नहीं होता, अपितु साधु,गुरु, वैष्णव, की कृपा और कृष्ण भक्ति से बदल जाता है।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

हरे कृष्ण 🙌🙌
[जन्माष्टमी की शुभकामनाएं

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

प्रभुपरभरोसाहीभजन_है

1.कर्म – यह मानव जीवन कर्म जीवन है. यह ना केवल स्वयं के कल्याण और उत्थान के लिए है अपितु और भी बहुत लोगों के जीवन का भी भला करने के लिए है.
जिस प्रकार एक पिता उद्यमी पुत्र के प्रति विशेष प्रेम रखता है और उसकी प्रशंसा भी चहुँओर करता है.
बैसे ही प्रभु को भी कर्मशील व्यक्ति बहुत प्रिय है. कर्म करते-करते ज्ञान को अनुभव करो. कई लोग सोचते हैं कि संतोष माने कर्म ना करना, जो है सो ठीक है.
संतोष रखने का अर्थ यह है कि जब मेंहनत करने पर किसी कारणवश हम सफल ना हों या कम सफल हों तब उस समय मानसिक विक्षोभ के ऊपर काबू किया जाए.
चिंता, दुःख, निराशा, स्ट्रेस, और डिप्रेशन से बचने के लिए भगवान की इच्छा समझकर संतोष किया जाए. लेकिन स्मरण रखना प्रभु को अकर्मण्य बिलकुल भी प्रिय नहीं नहीं है.
2.अनन्यता – अनन्यता शब्द आपने जरूर सुना होगा, इसका अर्थ है अपने आराध्य देव के सिवा किसी और से किंचित अपेक्षा ना रखना.
आपने उपास्य देव के चरणों में पूर्ण निष्ठ और पूर्ण समर्पण ही वास्तव में अनन्यता है.
“एक भरोसो एक बल , एक आस विश्वास…..!!
समय कैसा भी हो, सुख- दुःख, सम्पत्ति, विपत्ति जो भी हो हमें धैर्य रखना चाहिए. धर्म के साथ धैर्य जरूरी है. प्रभु पर भरोसा ही भजन है.
अनन्यता का अर्थ है अन्य की ओर ना ताकना.श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि जो मेरे प्रति अनन्य भाव से शरणागत हो चुके हैं
. मै उनका योगक्षेम वहन करता हूँ अर्थात जो प्राप्त नहीं है वो दे देता हूँ और जो प्राप्त है उसकी रक्षा करता हूँ.
अनन्यता का मतलव दूसरे देवों की उपेक्षा करना नहीं अपितु उनसे अपेक्षा ना रखना है

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
हरे कृष्ण दंडवत प्रणाम और मेरा नमस्कार हरे कृष्ण
[ना “कर” ना “कार”, फिर भी चलती है सरकार!!!

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना।।

कर बिनु करम- बिना टैक्स के जन कल्याणकारी कार्य

जरा कल्पना करें कि यदि आजकल की सरकार को यदि “कर” (टैक्स) न दिया जाए तो कोई काम करेगी क्या?
चाहे आय “कर” हो या वस्तु “कर” हो , वाहन “कर” हो या अन्य भाँति भाँति के कर (टैक्स), सरकार कर पर आश्रित है। ये आधुनिक धारणा है कि सरकार बिना कर के कोई कार्य नहीं कर सकती है। यदि सरकार वाहन कर न लेगी तो सड़क कैसे बनेगी। यदि सरकार आय कर न लेगी तो जन कल्याण के कार्य कैसे करेगी आदि आदि।मैं पूछता हूँ कि सरकार सभी प्रकार के कर ले रही है तो फिर समस्याओं का अंत क्यों नहीं होता,समाधान क्यों नहीं होता?
वास्तव में समस्या हमारी मानसिकता में है अतः हमें राम राज्य मन मोदकी कल्पना लगती है- “वस्तु बिनु गथ पाइए” अर्थात श्रीराम राज्य में बिना मू्ल्य के आवश्यक वस्तु मिलती थी। आश्चर्य तो देखिए कि बिना मू्ल्य के वस्तु देकर (बस्तु बिनु गथ पाइए) भी वे महाजन गरीब नहीं-बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते”
वे महाजन जमाखोर नहीं थे बल्कि- सरबसु दान दीन्ह सब काहू। और जिसे मिला वे आवश्यकता से अधिक रखते नहीं- जो पावा राखा नहिं ताहू।।
बिना कर के सरकार चलती है लेकिन कोई गरीब नहीं- नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
आजकल की भाँति बड़े बड़े अंग्रेजी माध्यम के स्कूल नहीं थे लेकिन कोई मूर्ख नहीं था- नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
न अबुध- कोई मूर्ख नहीं
न लच्छन हीना- कोई लक्षण हीन नहीं
क्योंकि राम राज्य में संस्कार रहित शिक्षा नहीं थी बल्कि संस्कार सहित शिक्षा व्यवस्था थी।
आजकल के सरकार के पास कार है फिर भी शबरी जैसों को (सरकारी योजनाओं से वंचित सुदूर क्षेत्र) उनके पहुँचने की इंतजार है।
आजकल के सरकार के पास कार है लेकिन कितने अहिल्या (पीड़ित नारी) को न्याय का इंतजार है।
आजकल के सरकार के पास कार है लेकिन (निसिचर निकर सकल मुनि खाए) दुष्ट लोगों से पीड़ित लोगों को सुरक्षा इंतजार है।

कर बिनु करम करइ “बिधि नाना”
बिना कर(टैक्स)के परमात्मा के कार्य-
हम एक बोतल दूध के लिए मू्ल्य देते हैं और परमात्मा जन्म लेने से पूर्व माँ के स्तन में दूध दे दिए।

हम एक बोतल पानी लेते हैं तो दस-बीस रुपये देते हैं और परमात्मा विभिन्न श्रोतों से हजारों लीटर पानी दे रहे हैं वह भी बिना मू्ल्य के।
अर्थात वे हमारे पालन-पोषण के लिए आवश्यक वस्तु, आवश्यक देखरेख बिना किसी कर के नाना प्रकार से करते हैं।
तो वे आखिर ऐसा क्यों करते हैं?
क्योंकि वे – बिनु पद चलइ
मेरे राम जी सरकार पर पदवी हावी नहीं है इसलिए।
उन पर पदवी हावी नहीं है अतः जगत पिता होकर भी संतान के पुत्र बनना सहर्ष स्वीकार करते हैं-ममैव च महत्प्रीतिः तव पुत्रत्व हेतवे।स्थिति प्रयोजने काले तत्र तत्र नृपोतम। त्वयि जाते त्वहमपि जातो$स्मि तव सुब्रतः।।(प०पु०)
बस यही कारण है कि आजकल के सरकार कुछ वर्ष भी नहीं चलती लेकिन हमारे राम जी के सरकार युगों युगों से कायम है।
ना “कर” ना “कार”, फिर भी चलती है ” सरकार”

सीताराम जय सीताराम…..सीताराम जय सीताराम

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