प्रहसितं प्रिय प्रेम वीक्षितम् वितरणं च ते ध्यान मङ्गलम्। रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ll
हृदय रूपी गढ़ में प्रेम रूपी माखन को व्यक्ति ने शताब्दियों से संभाल रखा है; क्योंकि उसको ग्रहण करने वाला कोई अधिकारी पात्र ही नहीं है। जब अधिकारी पात्र आता है तब वह किस प्रकार से हृदयस्थ प्रेम नवनीत को चुरा लेता है, इसका पता तक नहीं चलता है और हम पूरे के पूरे लुट जाते हैं। हृदयस्थ प्रेम को ग्रहण करने के लिए अन्य किसी भी साधन की जरूरत नहीं है। जो प्रेम का दान करता है, वही प्रेम रूपी नवनीत को ग्रहण भी करता है। प्रेम देने वाले को ही प्रति प्रेम प्राप्त होता है।। हम संसार में चिल्लाते रहते हैं, मुझे सब कुछ मिला। किसी चीज की कमी नहीं है; परन्तु मुझे किसी का प्रेम नहीं मिला। परन्तु जिसने इस संसार में प्रेम देना नहीं सीखा है, वह भला प्रेम को पाने का अधिकारी भी कैसे हो सकता है? सभी प्रेम के लिये रोते देखे गये हैं। निन्यानवे प्रतिशत लोगों को यही शिकायत है। मेरी माँ मुझे प्रेम नहीं करती। मेरे पिता मुझे प्रेम नहींकरते। मेरा भाई मुझे प्रेम नहीं करता, मेरे पति मुझे प्रेम नहीं करते हैं, मेरी पत्नी मुझे प्रेम नहीं करती है।” निन्यानवें प्रतिशत लोगों का एक ही दर्द है। मेरे दर्द को समझने वाला दुनियाँ में कोई नहीं है।” परन्तु सच्चे प्रेमी कभी भी शिकवा शिकायत नहीं करते हैं।। उनके हृदय में फरियाद उत्पन्न ही नहीं होती है। उसमें केवल याद ही याद होती है और होता है हृदय का दान। सर्वस्व समर्पण की भावना। जिस प्रेम में फरियाद आकर घुस जाती है उसके हृदय में पुनः पुनः वास्तविक सच्चे प्रेम की याद नहीं आती है।।
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प्रेम लौटता ही है। हजार गुना होकर लौटता है।।अगर न लौटे, तो सिर्फ एक प्रमाण होगा कि आपने दिया ही नहीँ होगा। अगर दिया था तो निश्चित लौटता। यह प्रकृति का नियम है।। जो आप देते हैं, वही लौट कर आता है। घृणा तो घृणा, प्रेम तो प्रेम।। अगर आप गीत गुनगुनाते हैं, तो गीत लौट आता है। अगर गाली देते हैं तो गाली लौट आती है।। जो लौटे, समझ लेना कि वही आपने दिया था। जो बोयेंगे, वही काटेंगे भी।।
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श्रावण मास शिव तत्व
भगवान शिव का स्वरूप देखने में बड़ा ही प्रतीकात्मक और सन्देशप्रद है। हाथों में त्रिशूल यानि तीनों ताप दैहिक, दैविक और भौतिक को धारण किए हैं। मगर यह क्या हाथों में त्रिशूल और त्रिशूल पर भी डमरू ? डमरू मतलब आनंद और त्रिशूल मतलब वेदना दोनों एक दूसरे के विपरीत।। जीवन ऐसा ही है। यहाँ वेदना तो है ही मगर आनंद भी कम नहीं। आज आदमी अपनी वेदनाओं से ही इतना ग्रस्त रहता है कि आनंद उसके लिए मात्र एक काल्पनिक वस्तु बनकर रह गया है। दुखों से ग्रस्त होना यह अपने हाथों में नहीं मगर दुखों से त्रस्त होना यह अवश्य अपने हाथों में है। भगवान शिव के हाथों में त्रिशूल और उसके ऊपर लगा डमरू हमें इस बात का सन्देश देता है कि भले ही त्रिशूल रुपी तापों से तुम ग्रस्त हों मगर डमरू रुपी आनंद भी साथ होगा तो फिर नीरस जीवन भी उत्साह से भर जाएगा जिन्दगी तो हार जीत का नाम है। हर पल खुशी गम का पैगाम है।। मत छोड़ना कभी हौसलों का हाथ। चलते रहना ही हैं, जिंदगी का काम है।।
*जय श्री राधेकृष्णा।।*
: हर व्यक्ति सुखी एवं शांति पूर्ण जीवन की चाह रखता है, लेकिन उसके प्रयास अपनी इस इच्छा के अनुरूप नहीं होते। यह एक सत्य है।। कि शरीर में जितने रोम होते हैं, उनसे भी अधिक होती हैं- इच्छाएं। ये इच्छाएं सागर की उछलती-मचलती तरंगों के समान होती हैं।।मन-सागर में प्रति क्षण उठने वाली लालसाएं वर्षा में बांस की तरह बढ़ती ही चली जाती हैं। अनियंत्रित कामनाएं आदमी को भयंकर विपदाओं की जाज्वल्यमान भट्टी में फेंक देती हैं। वह प्रतिक्षण बेचैन, तनाव ग्रस्त, बड़ी बीमारियों का उत्पादन केंद्र बनता देखा जा सकता है। वह विपुल आकांक्षाओं की सघन झाड़ियों में इस कदर उलझ जाता है कि निकलने का मार्ग ही नहीं सूझता। वह परिवार से कट जाता है, स्नेहिल रिश्तों के रस को नीरस कर देता है। समाज-राष्ट्र की हरी-भरी बगिया को लील देता है।। न सुख से जी सकता है। न मर सकता है।।
°°°°🌀✨🌹तीन सबसे बड़े आश्चर्य:🌹✨🌀°°°°
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हर जीव अपने आप को अमर मानता है।
हर क्षण प्रत्येक जीव अपनी आखो से दूसरे जीवो को मरते हुए देख रहा है परन्तु अपने बारे में नहीं सोचता की हम भी अगले क्षण जा सकते है। मन भगवान गुरु में लगा दे क्यों की अंतिम समय में
जहा मन होगा वहीं गति मिलेगी मरने के बाद।
जो जीव माया बद्ध है, तो माया के सब दोष भी उसमे होंगे ही। काम,क्रोध,लोभ,मोह,ईर्षा, द्वेष,मद,त्रिगुन, त्रिकर्म, त्रिदोष, पंच क्लेश, पंच कोश,त्रिताप सब होंगे ही सेंट परसेंट। लेकिन फिर भी जीव अपने आप को दोष रहित मानता है।कोई मूर्ख कह दे तो आग बबूला हो जाता है।
भगवान अंदर बैठे है और भगवान को बाहर ढूंढ़ रहे है।ये तो ऐसी मूर्खता हो गई की हाथ में लड्डू है और वो नहीं खाते, उसको फेक कर अपनी कोहनी चाट रहे है भला कोहनी से पेट भरेगा। नक़ली मा बाप को मा बाप मानते है कोई प्रमाण है ,नहीं बार बार सुनकर के ये पक्का हो गया है यही मा है यही बाप है।
नक़ली के लिए तो इतनी पक्की फीलिंग है और असली के लिए नहीं जो अंदर बैठा हमारी हेल्प कर रहा है ये सबसे बड़ा आश्चर्य है*।
*बाहर ढूंढे क्यों मना,उर में है तेरा सजना*
अभ्यास करो! अभ्यास करो
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