महाभारत की सबसे चर्चित पात्र महारानी द्रोपदी!!!!!!!
द्रौपदी महाभारत में पाँच पांडवों की रानी थी। उसका जन्म महाराज द्रुपद के यहाँ यज्ञकुण्ड से हुआ था। अतः यह ‘यज्ञसेनी’ भी कहलाई। द्रौपदी पूर्वजन्म में किसी ऋषि की कन्या थी। उसने पति पाने की कामना से तपस्या की थी।
भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उसे वर देने की इच्छा की। उसने भगवान शंकर से पांच बार कहा कि “वह सर्वगुणसंपन्न पति चाहती है।” शंकर जी ने कहा कि अगले जन्म में उसके पांच भरतवंशी पति होंगे, क्योंकि उसने पति पाने की कामना पांच बार दोहरायी थी।
गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट ‘याज’ तथा ‘उपयाज’ नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई।
राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य को मारने का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा, “इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये, जिससे कि वे आपको महान बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।”
महाराज ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न होकर अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया, जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था तथा प्रकट होते ही रथ पर चढ़ गया, जैसे युद्ध के लिए उद्यत हो। उसका नाम ‘धृष्टद्युम्न’ रखा गया। उसी समय आकाश में अदृश्य महाभूत ने कहा- ‘यह बालक द्रोणाचार्य का वध करेगा।
‘ तदुपरांत वेदी से द्रौपदी नामक सुंदर कन्या का प्रादुर्भाव हुआ, जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के संहार और कौरवों के विनाश हेतु हुआ है। बालिका का नाम ‘कृष्णा’ रखा गया। आगे चलकर द्रोणाचार्य ने ही धृष्टद्युम्न को अस्त्रविद्या की शिक्षा दी।
भगवान श्रीकृष्ण की सखी आदर्श भगवद्-विश्वास की मूर्ति देवी द्रौपदी पांचाल नरेश राजा द्रुपद की अयोनिजा कन्या थी। इसकी उत्पत्ति यज्ञवेदी से हुई थी। इसका रूप-लावण्य अनुपम था। अंगकान्ति श्याम-सुन्दर होने से द्रौपदी को लोग ‘कृष्णा’ भी कहते थे। इसके शरीर से तुरंत खिले हुए कमल की मधुर सुगन्ध निकलकर एक कोस तक फैलती रहती थी। इसके प्राकट्य के समय आकाशवाणी हुई थी- “देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये क्षत्रियों के संहार के उद्देश्य से रमणी-रत्ना का प्राकट्य हुआ है।
इसके कारण कौरवों को बड़ा भय होगा।” पूर्वजन्म में दिये हुए भगवान शंकर के वरदान से इसे पाँच बलशाली पति प्राप्त होंगे। अकेले अर्जुन के द्वारा स्वयंवर में जीती जाने पर भी माता कुंती की आज्ञा से इसे पांचों भाइयों ने ब्याहा था।
लाक्षागृह से बच निकलने के पश्चात् जब पांडव अपनी माता कुंती सहित यहाँ-वहाँ घूम रहे थे, तब उन्होंने पांचाल राजकुमारी द्रौपदी के स्वयंवर के विषय में सुना। वे लोग भी इस स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिए धौम्य को अपना पुरोहित बनाकर पांचाल देश पहुँचे। कौरवों से छुपने के लिए उन्होंने ब्राह्मण वेश धारण कर रखा था। राजा द्रुपद द्रौपदी का विवाह अर्जुन के साथ करना चाहते थे।
लाक्षागृह की घटना सुनने के बाद भी उन्हें यह विश्वास नहीं होता था कि पांडवों का निधन हो गया है, अत: द्रौपदी के स्वयंवर के लिए उन्होंने यह शर्त रखी कि निरंतर घूमते हुए यंत्र के छिद्र में से जो भी वीर निश्चित धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर दिये गये पांच बाणों से, छिद्र के ऊपर लगे लक्ष्य को भेद देगा, उसी के साथ द्रौपदी का विवाह कर दिया जायेगा।
ब्राह्मणवेश में पांडव भी स्वयंवर-स्थल पर पहुँचे। कौरव आदि अनेक राजा तथा राजकुमार तो धनुष की प्रत्यंचा के धक्के से भूमिसात हो गये। कर्ण ने धनुष पर बाण चढ़ा तो लिया, किंतु द्रौपदी ने सूत-पुत्र से विवाह करना नहीं चाहा, अत: लक्ष्य भेदने का प्रश्न ही नहीं उठा। अर्जुन ने छद्मवेश में पहुँचकर लक्ष्य भेद दिया तथा द्रौपदी को प्राप्त कर लिया।
कृष्ण अर्जुन को देखते ही पहचान गये। शेष उपस्थित व्यक्तियों में यह विवाद का विषय बन गया कि ब्राह्मण को कन्या क्यों दी गयी है। अर्जुन तथा भीम के रण-कौशल तथा कृष्ण की नीति से शांति स्थापित हुई तथा अर्जुन और भीम द्रौपदी को लेकर डेरे पर पहुँचे। उनके यह कहने पर कि वे लोग भिक्षा लाये हैं, उन्हें बिना देखे ही कुंती ने कुटिया के अंदर से कहा कि- “सभी मिलकर उसे ग्रहण करो।”
पुत्रवधू को देखकर अपने वचनों को सत्य रखने के लिए कुंती ने पांचों पांडवों को द्रौपदी से विवाह करने के लिए कहा। द्रौपदी का भाई धृष्टद्युम्न उन लोगों के पीछे-पीछे छुपकर आया था। वह यह तो नहीं जान पाया कि वे सब कौन हैं, पर स्थान का पता चलाकर पिता की प्रेरणा से उसने उन सबको अपने घर पर भोजन के लिए आमन्त्रित किया।
द्रुपद को यह जानकर कि वे पांडव हैं, बहुत प्रसन्नता हुई, किंतु यह सुनकर विचित्र लगा कि वे पांचों द्रौपदी से विवाह करने के लिए उद्यत हैं। तभी वेदव्यास ने अचानक प्रकट होकर एकांत में द्रुपद को उन छहों के पूर्वजन्म की कथा सुनायी कि-
एक वार रुद्र ने पांच इन्द्रों को उनके दुरभिमान स्वरूप यह शाप दिया था कि वे मानव-रूप धारण करेंगे। उनके पिता क्रमश: धर्म, वायु, इन्द्र तथा अश्विनीकुमार (द्वय) होंगे। भूलोक पर उनका विवाह स्वर्गलोक की लक्ष्मी के मानवी रूप से होगा।
वह मानवी द्रौपदी है तथा वे पांचों इन्द्र पांडव हैं। व्यास मुनि के व्यवस्था देने पर द्रौपदी का विवाह क्रमश: पांचों पांडवों से कर दिया गया। व्यास ने उनके पूर्व रूप देखने के लिए द्रुपद को दिव्य दृष्टि भी प्रदान की। द्रुपद के दिये तथा कृष्ण के भेजे विभिन्न उपहारों को ग्रहण कर वे लोग द्रुपद की नगरी में ही विहार करने लगे।