परमात्मा का स्मरण आप चाहे जिस संबद्ध से करें उसे कहते हैं। सिमरन।। यह पैरो से नहीं होता है। वर्ना विकलांग कभी नहीं कर पाते। सिमरन न ही आँखो से होता है।। वर्ना सूरदास जी जैसे कभी नहीं कर पाते। ना ही सिमरन बोलने सुनने से होता है।। वर्ना गूँगे बहरे कभी नहीं कर पाते।। और अगर सिमरन केवल धन से सम्भव होता तो यह रईसों का शौक बन के रह जाता। सिमरन भावना, प्रेम से होता है।। एक अहसास है। सिमरन जो हृदय से मन से बुद्धि विचारों में आता है।। और हमारी आत्मा परमात्मा से जुड़ जाता है। सिमरन भाव का सच्चा सागर है।।
: 🙏आत्म मन्थन
🌹दर्पण बहुत कमजोर होता है, लेकिन सच दिखलाने से घबराता नहीं है; और हम सच सुनने से ही घबरा जाते हैं🥰क्या यह सच नहीं?🌹
क्योंकि मन की सत्ता आत्मा के साथ ही शुरू होती है और आत्मा के साथ ही विश्राम भी । इसे समझने के लिए मन की उत्पत्ति को समझने की आवश्यकता है । मन एक ऐसा विषय है जिसे हम जीवन रुपी ताले की चाबी कह सकते हैं जिस प्रकार किसी ताले को खोलने और बन्द करने के लिए सदैव एक ही चाबी होती है उसी प्रकार इस जीवन को मुक्त कराने के लिए मन रुपी चाबी का होना आवश्यक है । ये ही वो चाभी है जो हमारे जीवन को हमेशा विषयों में फंसाकर हमेशा के लिए बंद कर सकती है और इसी से हम इन विषयों से ऊपर उठकर परमानन्द प्राप्त कर सकते हैं अर्थात स्वयं को मुक्त कर सकते हैं ।
मन की उत्पत्ति हमारे द्वारा चयनित आहार से होती है और हमारी सङ्गति उसका पालन पोषण करती है । बुद्धि इसकी स्वामिनी है अर्थात इसकी ईश्वर है । इसलिए बुद्धि का एक नाम मनीषा भी है । और ये मन सभी इन्द्रियों का सेनापति है इसके निर्देश के बिना कोई भी इन्द्रिय कार्य करने का दुस्साहस नहीं कर सकती । लेकिन जब कोई अपने कर्म का त्याग कर देता है तो उसकी आलोचना और दुर्गति निश्चित रूप से होती है । बस इसी बीच का अन्तर जिसने समझ लिया वो गोस्वामी हो जाता है अर्थात वह समस्त इन्द्रियों का स्वामी हो जाता है । फिर वह विषयों के बीच रहते हुए भी उनसे परे रहता है । जिस प्रकार एक कमल कीचड़ में रहते हुए भी अपनी निर्लिप्तता को संसार के सामने चरितार्थ करता है उसी प्रकार वह भी स्वयं को सुरक्षित कर लेता है और इह लोक और परलोक में उसकी सदा जय होती है ।। किन्तु यह कार्य इतना सरल नहीं जितना प्रतीत होता है । आज मनुष्य दुःख और असहनीय पीड़ा को भोग रहा है इसका कारण केवल एक ही है वह है मन का बुद्धि पर जबरदस्ती शासन करना । बुद्धि की बात को अनसुनी कर अपनी मनमानी करना ।। किन्तु यहाँ मन का दोष नहीं है असली दोषी तो बुद्धि है जिसने अपने और मन के बीच के सम्बन्ध को भुलाकर अपनी जिम्वेदारियों से मुँह मोड़ लिया और जैसा मन ने बताया वैसा मान लिया स्वयं विचार नहीं किया कि मन गलत भी हो सकता है फिर भी बुद्धि का एक मित्र हैं जिसे हम हृदय अर्थात दिल कहते हैं । यह हृदय बार बार बुद्धि को जागरूक करता आया लेकिन बुद्धि नहीं मानी । पता है ऐसा क्यों होता है जब तामसिक भोजन से मन बना हो तो उसकी सङ्गति बुद्धि को चरित्र हीन कर देती है उसे सोचने समझने के लायक नहीं छोड़ती । और जब यही मन राजसिक भोजन से बनता है तो मन बुद्धि को प्रलोभन देता है और बुद्धि लालच का शिकार हो जाती है वह चाहती तो है कि दिल से राय लूँ लेकिन सोचकर घबरा जाती है की कहीं हृदय से पुछने के चक्कर में अच्छा खासा अवसर हाथ से न चला जाए । अन्त में जब यही मन सात्त्विक आहार से जन्म लेता है तो सदैव बुद्धि का कवच बनकर पूरी जिन्दगी उसे सुरक्षित और सुन्दर आचरण करने को मजबूर कर देता है ।। बस ऐसा मेरा अनुभव है जी ।
🌹बस जैसा अनुभव हुआ गुरु कृपा से वही परोस दिया जी हम कोई ज्ञानी ध्यानी थोड़ी ना हैं कि सब कुछ जानते हों बस इतना ही जानते हैं कि हम कुछ नहीं जानते जी ।।🌹
जय जय श्री राधे राधे जी।।
💐जय जय श्री महादेव प्रभु जी💐
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चिंता संत के जीवन में भी होती है। और चिंता संसारी के जीवन में भी होती है।। मगर दोनों में एक बहुत बड़ा फर्क भी होता है और वो ये कि संत परमार्थ के लिए चिंतित रहता है और संसारी स्वार्थ के लिए।संसारी स्वयं के लिए चिंतित रहता है तो संत समष्टि के लिए चिंतित रहता है।। संत और संसारी के बीच का जो भेद होता है, वह कर्मगत नहीं अपितु भावगत होता है। दोनों में वाह्य स्थिति का नहीं अपितु अंतःस्थिति का भेद होता है।। संसारी भी क्रोध करता है और संत भी क्रोध करता है। संसारी लोभ करता है और संत में भी लोभ देखने को मिल जाता है। संसारी भी अर्जन करता है और संत भी अर्जन करता है। और तो और संसारी अगर संग्रह करता है तो संत भी संग्रह करता है। मगर दोनों में क्रिया भेद शून्य होने के बावजूद भी भावों में जमीन और आसमान जैसा अंतर निहित होता है।। संत का जीवन उस बादल के समान होता है जो समुद्र से अपने में अथाह जल का भंडारण और संग्रह करता हुआ प्रतीत होता है मगर वह अपने पास न रखकर उस जल को जग कल्याण हेतु वर्षा के माध्यम से सर्वत्र वितरित कर देता है। संत का जीवन तो उस पुष्प के समान होता है, जिसकी खुशबु और सौंदर्य दोनों दूसरों के लिए होता है। जो खिलता भी दूसरों के लिए है और टूटता भी दूसरों के लिए। यदि आपके जीवन में अर्जन है, संग्रह है, लोभ है। मगर आप अपने लिए नहीं अपितु दूसरों के लिए जीते हैं। आप उन सभी वस्तुओं का उपयोग स्वार्थ में नहीं अपितु परमार्थ में करते हैं।। और आप दूसरों की खुशी में ही अपनी खुशी मानते हैं। तो सच समझना फिर आप संसार में रहते हुए और संसारी दिखते हुए भी संत ही हैं।।
*जय श्री राधेकृष्णा*
[आदर्शों से असीम प्यार ही है, भक्ति भक्ति के लिए पूजा-उपासना के लिए आपने कोई इष्टदेव की मूर्ति बनाकर रखी होगी तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन उसको आप सिद्धांतों का समुच्चय मानिए, आदर्शों का समुच्चय मानिए। उसे व्यक्ति विशेष मत मानिए। अगर व्यक्ति विशेष मानेंगे तो भ्रम और जंजाल में घूम रहे होंगे। आपने अगर शंकर जी को एक आदमी माना होगा, जो बैल की सवारी करता हुआ, जहाँ-तहाँ घूमता रहता है और बेल के पते खाता है। आक के फूल और धतूरे के फल खाता है, तो आप गलती कर रहे हैं। शंकर ऊँचे आदर्शों का समुच्चय है। शंकर जी के सिर से गंगाजी निकलती हैं, जो आदर्शों की गंगा हैं। गले में मुण्डों की माला डाले फिरते हैं, जिसका अर्थ है कि वे मौत और जिन्दगी को एक मानते हैं। यह क्या है? सिद्धांत है। उनके मस्तक पर चन्द्रमा टिका हुआ है अर्थात वे मानसिक संतुलन बनाए हुए हैं। भूत प्रेतों को हमेशा साथ लिए फिरते हैं, इसका मतलब है कि वे गए -गुजरे और पिछड़े हुए आदमियों की बात करते हैं। श्मशान में रहते हैं अर्थात वहाँ रहते हैं जहाँ कि अस्तव्यस्तता छाई हुई है, जहाँ नीरसता छाई हुई है। जहाँ कोलाहल छाया है, वहाँ पर रह करके अपनी विशेषता के कारण शांति और भक्ति का वातावरण बना देते है। ये शंकर भगवान की विशेषता है। इस तरह शंकर भगवान क्या हैं? सिद्धांतों का समुच्चय हैं। ठीक इसी तरीके से भगवान का प्रत्येक रूप सिद्धांतों का एक समुच्चय है। चाहे वे गणेश जी हों, चाहे वे हनुमान जी हों, चाहे रामचंद्र जी हों, चाहे लक्ष्मण जी हो, कोई भी क्यों न हो! ये सारे के सारे देवी-देवता या भगवान का अवतार एक तरीके से सिद्धांतों का समुच्चय हैं, श्रेष्ठता के, दिव्य गुणों के, उच्च आदर्शों के समुच्चय हैं।।