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सूर्य सिद्धांत से उत्तरायण व दक्षिणायन

सूर्य सिद्धांत अनुसार उत्तरी ध्रुव पर देवता और दक्षिणी ध्रुव पर असुर रहते हैं जो परस्पर शत्रु है इस मेरु पर्वत को गेरे हुए पृथ्वी के चारों और लवण समुद्र है जो देवता और असुरों की भूमि को अलग अलग करता है और पृथ्वी की मेखला की तरह है । इस वर्णन में बहुत सी बातें कल्पना से उत्पन्न हुई जान पड़ती है इसलिए इन सब का अस्तित्व नहीं बतलाया जा सकता । राक्षस और देवता की परिभाषा उस समय मनुष्यों की कार्यशैली अनुसार जान पड़ता हैं। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव को सुमेरु पर्वत के ऊपर और नीचे वाले सिरे समझना चाहिए इसके बीच में विषुवत रेखा के पास लवण समुद्र माना गया है जो आजकल भी प्रायः इसी स्थिति में है।
मेरु पृथ्वी के बीच से होता हुआ दोनों और निकला हुआ बतलाया गया है इसलिए इसे पृथ्वी का अक्ष समझना चाहिए जिसका उत्तरी सिरा उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी सिरा दक्षिणी ध्रुव कहलाते हैं । इसी अक्ष के मध्य अर्थात भूकेंद्र के चारों ओर समान दूरी पर विषुवत रेखा मानी गई है जो जंबूदीप और लवण समुद्र की सीमा समझी गई थी।
यहां बतलाया गया है कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के ख मध्य में ध्रुव तारे हैं जो निरक्ष देश की क्षितिज पर हैं। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि प्राचीन काल में जब सूर्य सिद्धांत कहा गया था तब दो ध्रुव तारे रहे होंगे।
इसी प्रकार मेरुओं अर्थात ध्रुवों का अक्षांश 90 अंश है। सूर्य जब देव – भाग में अर्थात उत्तरी गोलार्ध में रहता है तब मेष के आदि स्थान में देवताओं को उसका प्रथम दर्शन होता है और जब सूर्य असुर भाग में अर्थात दक्षिणी गोलार्ध में रहता है तब तुला के आदि में वह असुरों को पहले पहल देख पड़ता है।
यह भी कहा जा सकता है कि जैसे उत्तरी ध्रुव के ख मध्य में एक तारा है वैसे ही दक्षिणी ध्रुव के ख मध्य में भी एक तारा समझा गया होगा । परंतु यह निश्चय है कि उत्तरी ध्रुव के ख मध्य में इस समय जो तारा देख पड़ता है वह प्राचीन काल में इस स्थान पर नहीं था क्योंकि अयन चलन के कारण इसका स्थान भी बदल रहा है । इसलिए यहां जिन ध्रुव तारों का वर्णन है वह आकाशीय ध्रुवों के स्थान है जो उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के खमध्य में है।
इसमें बतलाया गया है कि जब सूर्य मेष राशि के आदि में होता है तब देवताओं को पहले पहल देख पड़ता है अर्थात तब उत्तरी ध्रुव निवासियों के लिए सूर्य का उदय होता है और जब वह तुला राशि के आदि में होता है तब असुरों को पहले पहल देख पड़ता है अर्थात तब दक्षिण ध्रुव निवासियों के लिए उसका उदय होता है ।
इससे प्रकट होता है कि मेष राशि का आदि स्थान उसे ही समझना चाहिए जहां क्रांतिवृत और विषुवन मंडल का योग होता है और जहां पहुंचकर सूर्य उत्तर गोल में हो जाता है इसी स्थान को वसंत संपात बिंदु कहते हैं।
इसी प्रकार तुला का आदि बिंदु शरद संपात बिंदु है जहां पहुंचकर सूर्य दक्षिणी गोल में हो जाता है जब सूर्य मेष के आदि में विषुवनमंडल पर आता है तभी उत्तरी ध्रुव वालों के लिए सूर्य उदय होता है और इससे 6 महीने तक बराबर सूर्य दिख पड़ता है। इसी समय को देवताओं का दिन कहते हैं और असुरों की रात क्योंकि जब सूर्य उत्तर ध्रुव वालों को देख पड़ता है तब तक वह दक्षिण ध्रुव वालों के लिए अदृश्य रहता है और वहां रात रहती है । जिस समय सूर्य तुला राशि के आदि में पहुंचता है उस समय उत्तरी ध्रुव पर सूर्यास्त और दक्षिणी ध्रुव पर सूर्योदय होता है इस समय से 6 महीने तक सूर्य दक्षिणी ध्रुव पर बराबर देख पड़ता है और वहां 6 महीने का दिन होता है। जिस दिन सूर्य विषुवन मंडल पर होता है उस दिन देवता और असुर दोनों उसको क्षितिज पर देखते हैं, इनका दिन रात एक दूसरे से विपरीत होता है । मेष राशि के आदि में उदय होकर सूर्य उत्तर की तीन राशियों मेष ,वृषभ और मिथुन में उत्तर की ओर बढ़ता हुआ उत्तर मेरु निवासियों अर्थात देवताओं के दिन का पूर्वार्द्ध पूरा करता है। उसी प्रकार कर्क के राशि आदि से आगे बढ़ता हुआ तीन राशि कर्क, सिंह और तुला में वह उनके दिन का उत्तरार्ध पूरा करता है । इसी प्रकार तुला वृश्चिक और धनु राशियों में जाता हुआ वह असुरों के दिन का पूर्वार्द्ध तथा मकर ,कुंभ और मीन राशियों में जाता हुआ वह असुरों के दिन का उत्तरार्ध पूरा करता है। इसीलिए देवताओं और असुरों के अहोरात्र एक दूसरे के विपरीत होते हैं और सूर्य का एक भगण पूरा होने पर इनका एक अहोरात्र होता है। जिस दिन सूर्य वसंत संपात बिंदु पर आता है उस दिन को विषुव दिन कहते हैं। इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि मेष, वृषभ आदि राशियों का आरंभ वसंत संपात से माना गया है ना कि निरयण मेष से जो आजकल वसंत संपात से 24 अंश से भी कुछ आगे हैं और जो वसंत संपात से सदैव आगे होता जा रहा है इसी अंतर को अयनांश कहते हैं ।1735 वर्ष पहले 23 मार्च 285 को वसंत संपात और निरयण मेष साथ-साथ थे इसलिए इस समय में मेष का स्थान वही था जिसे आजकल निरयण मेष कहते हैं परंतु यह दशा अब नहीं है। इस कारण आजकल ज्योतिषियों में दो भेद हो गए हैं सायनवादी और निरयणवादी। जिन्हें सायनवादी कहा जाता है वे वसंत संपात को ही मेष का आदि स्थान मानते है। परंतु निरयणवादी लोग निरयण मेष को राशियों का आरंभ स्थान मानते हैं। इस सूर्य सिद्धांत से यह स्पष्ट है कि प्राचीन काल से ही यदि हम देखें तो उत्तरी ध्रुव देवताओं का स्थान हुआ व दक्षिणी ध्रुव राक्षसों का स्थान कहा गया है। भूमध्य रेखा को लंका रेखा भी कहा गया है।

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