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जीवन जीने की दो शैलियाँ हैं। एक जीवन को उपयोगी बनाकर जिया जाए और दूसरा इसे उपभोगी बनाकर जिया जाए। जीवन को उपयोगी बनाकर जीने का मतलब है उस फल की तरह जीवन जीना जो खुशबू और सौंदर्य भी दूसरों को देता है और टूटता भी दूसरों के लिए हैं।
अर्थात कर्म तो करना मगर परहित की भावना से करना। साथ ही अपने व्यवहार को इस प्रकार बनाना कि हमारी अनुपस्थिति दूसरों को रिक्तता का एहसास कराए।
जीवन को उपभोगी बनाने का मतलब है उन पशुओं की तरह जीवन जीना केवल और केवल उदर पूर्ति ही जिनका एक मात्र लक्ष्य है। अर्थात लिवास और विलास ही जिनके जिन्दा रहने की शर्त हो। मानव जीवन की सार्थकता के नाते यह परमावश्यक है कि जीवन केवल उपयोगी बने उपभोगी नहीं, तपस्या बने तमाशा नहीं, सार्थक बने, निरर्थक नहीं।
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जिस प्रकार एक वैद्य के द्वारा दो अलग- अलग रोग के रोगियों को अलग अलग दवा दी जाती है। किसी को मीठी तो किसी को अत्याधिक कड़वी दवा दी जाती है। लेकिन दोनों के साथ भिन्न-भिन्न व्यवहार किये जाने के बावजूद भी उसका उद्देश्य एक ही होता है, रोगी को स्वास्थ्य लाभ प्रदान करना।। ठीक इसी प्रकार उस ईश्वर द्वारा भी भले ही देखने में भिन्न-भिन्न लोगों के साथ भिन्न-भिन्न व्यवहार नजर आये मगर उसका भी केवल एक ही उद्देश्य होता है और वह है, कैसे भी हो मगर जीव का कल्याण करना।। सुदामा को अति दरिद्र बनाके तारा तो राजा बलि को सम्राट बनाकर तारा। शुकदेव जी को परम ज्ञानी बनाकर तारा तो विदुर जी को प्रेमी बना कर। पांडवों को मित्र बना कर तारा व कौरवों को शत्रु बनाकर। स्मरण रहे – भगवान केवल क्रिया से भेद करते हैं। भाव से नहीं।।

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[मधुर बोलना अच्छी बात है, मगर मधुरता के लिए झूठ बोलना कदापि अच्छा नहीं है। दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए बोला गया स्वार्थवश झूठ अपने व दूसरे दोनों के कल्याण में अति बाधक सिद्ध होता है।। शास्त्रों का आदेश है कि “ब्रुयात सत्यम प्रियम” अर्थात प्रिय और मधुर ही बोलो लेकिन केवल मधुर ही नहीं अपितु सत्य भी बोलो। अपनी प्रकृति को इस तरह बनाओ कि लोगों को तुमसे सत्य कहने में संकोच न करना पड़े और झूठ कहने का साहस भी न हो।। जो लोग मधुर सुनना तो पसंद करते हैं। मगर सत्य सुनने का साहस नहीं जुटा पाते वो लोग आत्मोन्नति से भी वंचित रह जाते हैं। अतः मधुर प्रिय ही नहीं सत्यप्रिय भी बनो।।
[ जिस प्रेम आनन्द भगवान को आप खोज रहे हो, वह आपके भीतर मौजूद है। जिसके लिए आप जन्मों-जन्मों से भटक रहे हो, उससे एक क्षण को भी आप दूर नहीं है, वह सदा से आपके अंदर बैठे है। बस आपको अपने अंदर लौट कर आना है। जरा लौटो, बस इतना ही समझना है यही सार है। दुनिया की तरफ आंख बहुत खोली अब अपनी तरफ आंख खोलो।। बहुत पढ़ लिया दुनिया को अब अपने स्वयं को पढ़ो। अपनी आत्मा को पहचानो। और फिर कोई असंतोष नहीं होगा कोई दुख नहीं होगा कोई दर्द नहीं होगा आप हो तो दुनिया है आप नही तो दुनिया नही ,आप हो तो आनन्द है आप नही तो आनन्द नही हमसे गलती यही हो रही है कि दुनिया के लिए आनन्द के लिए खुद से दूर जा रहे है। लौट आओ एकबार अपनी ओर जो बाहर ढूंढ रहे हो वह आपके अंदर है।।
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आत्म प्रेम कोई मामूली बात नहीं है, आत्म प्रेम मतलब, आत्मा में विलय होना। बड़े भाग्य से जीवन में घटता है।। आत्म प्रति रोध,अहंकार है। सर्वत्र आत्म प्रतिरोध की शिक्षा है। इसलिए आत्मप्रेम करने और आत्म प्रेम के लिए प्रोत्साहित करने वाले को,अपना परम हितैषी समझना चाहिए। आत्म प्रेम सर्वोपरि प्रेम का रूप है।। यही भेद रहित सर्वव्यापी प्रेम है। इसलिये पूरी तरह से आत्मप्रेम में डूब जाइये।। आत्मा का आनंद स्वतः प्रकट हो जायेगा। पर निर्भरता की समस्या समाप्त हो जाएग ऐसा आदमी जहाँ भी होगा आनंद ही बिखेरेगा।।


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[किसी को मकान बनाने में आनन्द आता है, तो बनाने दो अगर आपको अपने झोपड़े में प्रसन्नता है तो व्यर्थ में मकान बनाने की दौड़ में क्यों दौड़ रहे हो अगर आप अपने वर्तमान से संतुष्ट हो प्रसन्न हो तो दूसरे क्या कर रहे है उनसे तुलना करके खुद को परेशान न करें, क्योंकि कुछ पाने की आपकी यह दौड़ समय लेगी, शक्ति लेगी, जीवन लेगी और जो आप पा लोगे उससे आपको कभी तृप्ति सन्तुष्टि नही मिलेगी, क्योंकि आप जिसके लिए दौड़े हो वह आपकी चाह कभी भी नही थी आज कल हम दूसरों को देख कर दौड़ रहे हैं दुसरो से तुलना कर रहे हैं इसीलिए तो हम सब मे इतनी अतृप्ति है।। प्रभावित होके देखा देखी में दौड़ने के बाद कुछ न मिले तो तकलीफ होती है और कुछ मिल जाए तो हम पाते है। कि पाई हुई वस्तु में कोई सार ही नहीं है।।

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