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सा विद्या या विमुक्तये
सुकरात का बड़ा बहुमूल्य वचन है: ज्ञान ही चरित्र है। जिसने जान लिया, वह बदल गया। और अगर जानकर भी न बदले हो, तो समझना कि जानने में कहीं खोट है।
अक्सर मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, जानते तो हम हैं, लेकिन जीवन बदलता नहीं। यह तो उन्होंने मान ही लिया है कि जानते हैं; अब जीवन बदलने की राह देख रहे हैं।
मैं उनसे कहता हूं पहली बात ही बेबुनियाद है, दूसरे की प्रतीक्षा ही न करो। तुमने अभी बुनियाद ही नहीं रखी और भवन उठाने की कोशिश में लग गए हो। पहले फिर से सोचो, तुम जानते हो? 
क्योंकि ऐसा कभी होता नहीं कि जो जानता हो और बदल न जाए। बदलाहट जानने के पीछे अपने आप चली आती है। वह सहज परिणाम है, उसके लिए कुछ करना भी नहीं पड़ता।
अगर बदलने के लिए जानने के अतिरिक्त भी कुछ करना पड़े तो समझना कि जानने में कोई कमी रह गई थी। जितनी कमी हो, उतना ही करना पड़ता है। वह जो कमी है, उसकी पूर्ति ही कृत्य से करनी पड़ती है। बोध की कमी कृत्य से पूरी करनी पड़ती है; अन्यथा बोध पर्याप्त है।
बुद्ध का सारा संदेश यही है कि बोध पर्याप्त है। ठीक से देख लेना—जिसको बुद्ध सम्यक दृष्टि कहते हैं, जिसको महावीर ने सम्यक दर्शन कहा है—ठीक से देख लेना काफी है, काफी से ज्यादा है। ठीक से देख लेना इतनी बड़ी आग है कि तुम उस में ऐसे जल जाओगे, जैसे छोटा तिनका जल जाए। राख भी न बचेगी। तुम बचते चले जाते हो, क्योंकि आग असली नहीं है। आग—आग चिल्लाते जरूर हो, लगी कहीं नहीं है। आग शब्द ही है तुम्हारे लिए।”
यह कर्ता ही है जो बुद्धि का उपयोग करता है जानकर या बिना जाने। वह सात्विक, राजसी या तामसी हो सकता है। गीता कहती है-
“जो कर्ता आसक्ति से रहित और अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त एवं कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष शोकादि विकारों से रहित है वह कर्ता तो सात्विक कहा जाता है।
और जो आसक्ति से युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्धाचारी और हर्षशोक से लिपायमान है वह कर्ता राजस कहा गया है।
तथा जो विक्षेप युक्त चित्त वाला, शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त और दूसरों की आजीविका का नाशक एवं शोक करने के स्वभाव वाला, आलसी और दीर्घ सूत्री है वह कर्ता तामस कहा जाता है।’
जैसा कर्ता है उसके सामने जो बात आती है उसे वह उसी दृष्टि से देखता है।
अत:हमें मालूम होना चाहिए कि हम किस आदमी से बात कर रहे हैं। हम सात्विक कर्ता से बात कर रहे हैं तो उसकी दोहरी भाषा न होगी कि जानते तो हैं पर जीवन बदलता नहीं।
उन्होंने क्या और कैसा जान रखा है? किसे जानना मान लिया है जिसके बावजूद परिवर्तन नहीं होता जबकि जानना ऐसा है कि फिर परिवर्तन होता ही है। किसी उपलब्धि के लिए हम पूर्व दिशा में जाते हैं। जब जानने में आता है कि उसकी उपलब्धि पश्चिम दिशा में जाने से संभव है तो अब हम जानबूझकर पूर्व दिशा में नहीं जा सकते।अब कदम पश्चिम की ओर ही उठेंगे।
कोई पूछे कि क्या प्रेम से शांति संभव है? तो इसका मतलब बिना जाने वह ऐसा पूछ रहा है क्योंकि यह संभव नहीं कि प्रेम हो मगर अशांति हो। असंभव। वहां शांति होगी ही। अशांति है तो इसका अर्थ है वहां प्रेम नहीं है।
ऐसे जानने को बहुत चीजें बहुत लोग जान लेते हैं मगर सत्य में निष्ठा न होने से यह संभव नहीं होता। गीता कहती है-हृदय में ईश्वर विद्यमान है उसकी शरण में जाओ उसके अनुग्रह से शांति और शाश्वत पद की प्राप्ति होगी।
हम कहते हैं क्या यह संभव है मानों हमने पता लगा लिया हो फिर कह रहे हों।या हम जानते हैं और फिर अशांत रहते हैं। तो इस जानने का क्या मूल्य है? यह जानना, जानना है ही नहीं। जानना वह है जिससे परिणाम घट गया हो या उसके लिए प्रयत्न जारी हो।
गुणों का बड़ा महत्व है। यदि कर्ता राजसी या तामसी है तो हजार सवाल उठेंगे। कर्ता सात्विक होना चाहिए या जिस काल में सत्वगुण विशेष बल को प्राप्त हुआ हो तब इस तरह की चीजें समझ में आ सकती हैं कि बात तो ठीक है परंतु इसके लिए जो योग्यता होनी चाहिए उसका अभाव है।
अब वह उसके लिए कोशिश करेगा। उसकी साधना शुरू हो जायेगी। इसलिए साधक का जानना महत्वपूर्ण है और सिद्ध का जानना तो जानना है ही। वहां परिवर्तन घट चुका है। जानना और परिवर्तन दोनों साथ साथ हैं।
साधक को देर लगती है। वह समझ तो जाता है पर रुकावटें होती हैं उसके लिए कुछ करना होता है।
कोई भी साधना समर्पण मांगती है चाहे वह भक्ति की हो, ज्ञान की या कर्म की। उसके बिना जानने की बात अधूरी है। बिना समर्पण जो जानने की बात कहते हैं वे बिना बदलाहट के कहते हैं जबकि सोचना चाहिए कि मैं जानता हूँ फिर बदलाहट क्यों नहीं? पता लगाये तो जरूर पता लगेगा।
इसी तरह मै कौन हूँ प्रश्न के लिए कह सकता है मैं जानता हूँ मै कौन हूँ? मै आत्मा हूँ-सेल्फ।
क्योंकि ज्ञानी यही कहते हैं-तुम आत्मा हो और उसे मान लिया। पर क्या मानना, जानना है?जो लोग मानने को ही जानना कहते हैं यह उनकी भूल है। उन्हें यह समस्या आती ही है कि हम जानते हैं फिर बदलाहट क्यों नहीं होती?
कैसे होगी? जानने के लिए जिस आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता होती है वह तो घटा ही नहीं। वह घटता है समर्पण से, साधना से। और जब यह घट जाता है तब वह कहता है मै जानता हूँ कि सत्य क्या है?
अगर कोई मान भी ले कि जहाँ प्रेम है वहां शांति है फिर भी उसे शांति का अनुभव नही होता तो इसका मतलब प्रेम घटा नहीं है। प्रेम घटना और अहंकार शून्य होना एक ही बात है। अहंकार है तो अशांति होगी भले ही प्रेम पर बहुत कुछ पढ, सुन रखा हो।
वे लोगों को डांट भी सकते हैं कि तुम लोगों में प्रेम तो है ही नहीं।
स्वयं प्रेमपूर्ण हो तब बात कुछ और है।
इसी तरह मै कौन हूँ का कोई चाहे जितना बौद्धिक समाधान करले उसके भीतर से अवसाद की वृत्ति जाती नहीं। सही समाधान तो तभी होता है जब हृदयस्थ आत्मा के प्रति समर्पित हुआ जाता है।किसी ओर को भेजने से नहीं होगा। किसीको कहदें अपने गहरे में उतरो।
Sink deep within and abide as self.
और स्वयं न उतरें तो कैसे होगा? हम कहाँ अनुभव हो रहे हैं? मस्तिष्क में।
नहीं। हम हृदय में अनुभव हो रहे हैं। तो बस यही करना है।
हृदय में अस्तित्व अनुभव स्वरूप बने रहना, बिना पलायन किये।
ऐसी स्थिति में जब कोई हमसे पूछे कि क्या तुम जानते हो तुम कौन हो?
तब हम कह सकते हैं-हां, मै जानता हूँ मैं कौन हूँ?
यह केवल मानना नहीं है। हृदय में अनुभव स्वरूप रहने से जो अनेक विशेष चीजें घटती हैं साथ साथ वे भी वहां मौजूद होती हैं और वे बदलाहट का प्रमाण होती हैं।
दूसरों को भी लगता है इसमें परिवर्तन आ गया है। वे भी उससे पूछते हैं-तुमने जो जाना है वह बताओ।
वे उससे नहीं पूछते जो कहता है -मै जानता हूँ, मगर बदलाहट उससे कोसों दूर होती है।

संसार में कई प्रकार के धन हैं। रुपया पैसा सोना चांदी जमीन मकान मोटर गाड़ी नौकर चाकर आदि। उत्तम व्यवहार भी एक धन है, यह धन सब के पास नहीं होता। बाकी धनों का भी अपना अपना मूल्य है। ये सब धन भी होने चाहिएँ। परंतु इन सबसे अधिक मूल्यवान धन है उत्तम व्यवहार. सोना चांदी रुपया पैसा आदि धन से भी सुख मिलता है। परंतु जितना सुख उत्तम व्यवहार से मिलता है उतना और किसी धन से नहीं मिलता। इसलिए इसको सबसे उत्तम धन मानना चाहिए। जिसके पास यह धन हो, वह सबसे बड़ा भाग्यशाली और धनवान व्यक्ति है।
तो आप संसार के अन्य धन रुपया पैसा आदि भी कमाएँ। परंतु उस से अधिक मूल्यवान धन उत्तम व्यवहार भी अवश्य अपने जीवन में लाएँ। यही आपको और दूसरों को सबसे अधिक सुख देने वाली संपत्ति है। –

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