” जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु “
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महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ । अब श्रीकृष्ण! द्वारका जाने लगे तभी बुआ कुंती सम्मुख आयी । कृष्ण! ने चरण वन्दन कर अभिवादन किया, किन्तु उत्तर मे आशीर्वाद न सुन कारण पूछने लगे ।
बुआ कुन्ती बोली — कृष्ण! मुझे बुआ सम्बोधन का भुलावा न दो । अब मैंने तुम्हे जान लिया है, तुम न किसी के भाई हो न भतीजे । चराचर के पिता तुम्ही हो । तुम पूर्ण ब्रह्म परमात्मा हो । हर विपत्ति तुम हमारे सहायक रहे हो । हे निरपेक्ष! हमारे ऊपर तुम्हारा यह स्नेह क्यो रहा, यह मै नही जान पा रही , क्या बतलाओ ?
कृष्ण ने सहज मुसकान के साथ बुआ से कहा । जब तुमने मुझे जान ही लिया है तो आज मन- इच्छित वरदान माग लो बुआ!
देवी कुन्ती कुछ गम्भीर स्वर मे कहने लगी — कृष्ण! वर देना चाहते हो तो दे दो, संसार के नाना प्रकार के दुख मेरे जीवन मे सदा आते रहे ।
बुआ की वरदान याचना को सुन स्वयं भगवान भी स्तब्ध रह गए और बोले — संसार सुखो के पीछे दौड़ रहा है और तुम दुखो को माग रही हो बुआ क्यो?
कृष्ण तुम्हारा एक नाम दीनबंधु है — लोग तुम्हे आरतिहरन और दुखहारी भी कहते है , विपत्ति अवस्था मे तुमसे नाता बना रहता है । तुम्हारा निरंतर स्मरण होता रहता है, किंतु सुख मे जीव ईश्वर को प्राय: भूल जाता है । दुख सुख तो सांसारिक धर्म है । जीव का वास्तविक लाभ तो तुम्हारी ही प्राप्ति है ।
भगवान श्रीकृष्ण! यह सुनकर मुसकराये और कहने लगे, अपने प्रश्न का उत्तर तो तुमने स्वयं ही दे दिया, बुआ! मेरे स्नेह का एक मात्र कारण तुम्हारा यही भक्ति पूर्ण भाव है ।
✍ कल्याण पत्रिका क्रमश (73)
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