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जो हो रहा है, वह ठीक हो रहा है–यों समझकर सदा निश्चिन्त रहना चाहिये। एक क्षण के लिये भी अपना लक्ष्य नहीं भूलना चाहिये। मुझे इस जीवन में भगवान के पास पहुँचना है–अगर इस बात को कभी न भूलेंगे, तो फिर अपने-आप जीवन की सारी चेष्टाएँ भगवान के लिये होने लगेंगी। वस्तुतः यहाँ का कोई भी पदार्थ हमें इसलिये साथ में रखना चाहिये कि उसके सहयोग से भगवान् के मार्ग में अधिक-से-अधिक बढ़ा जा सके। जो पदार्थ हमें भगवान से अलग हटाता हो, वह तो सर्वथा त्याज्य है, चाहे वह कितना ही प्रिय क्यों न हो। यह कोई पढ़-सुन लेने की बात नहीं है, भगवान के इच्छुक भक्तों को सचमुच इसका क्रियात्मक प्रयोग करना पड़ता है। अवश्य ही भगवान् परम दयालु हैं और वे अपने ऊपर निर्भर करने वाले भक्त की सब प्रकार सहायता ही करते हैं, किंतु कभी-कभी प्रेम-परीक्षा के लिये ऐसा अवसर भी मिला देते हैं, जब भक्त को एक ओर भगवान् और दूसरी ओर प्रलोभन–इन दोनों में से किसी एक पथ को चुनना पड़ता है। भगवान के विश्वासी भक्त तो सारे जगत का ऐश्वर्य ठुकराकर भगवान को वरण करते हैं। अतः आपको भी सदा सावधान रहना चाहिये, जिससे भगवान् ही जीवन में मुख्य वस्तु हों और उनके लिये यदि आवश्यकता हो तो सब कुछ छोड़ दिया जाय।
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आपको पता नहीं कि अस्तित्व हर उस व्यक्ति की सुरक्षा करता है। जो सत्य की खोज में हैं।। आपको दिखेगा कि आप गिर नहीं सकते अस्तित्व उसकी अनुमति नहीं देगा।। अस्तित्व विवेक रहित नहीं हैं। जैसे ही आप इस सुरक्षा के प्रति सजग होते हैं।। फिर आप इस तलवार की धार पर, इस संकीर्णतम संभव मार्ग पर आँखें मूंद कर बढ़ सकते हैं। दर असल अधिकांश लोग जो पँहुचे हैं।। बन्द आँखों से ही पहुँचे हैं। अंतिम तल पर श्रद्धा इतनी गहन हो जाती है।। कि कौन फिक्र करता है। कुछ देखने की आँखें स्वतः बन्द हो जाती हैं।।

       
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यदि इंसान अपने देखने के भीतरी दृष्टि कोण को बदल ले तो बाहर सब कुछ अच्छा और सुन्दर नजर आएगा। जैसा हम स्वयं होते हैं वैसा ही हमें सर्वत्र नजर आने लगता है। सीधी सी बात है जैसा आँखों पर चश्मा लगा होगा बैसा ही नजर आने लगेगा। संसार में बहुत लोगों को केवल बुराईयाँ, दोष, गंदगी और गलत चीजें ही नजर आती है। यह सब उनकी ग़लत कट्टर धारणा के कारण होता है, स्वयं श्री कृष्ण भी सामने आकर प्रकट हो जाएँ तो उनमें भी सबसे पहले इन्हें दोष ही नजर आएगा।। संसार में अच्छे, सज्जन, सत्कर्मी और श्रेष्ठ लोग भी बहुत हैं। धरती पर कई लोग तो ईश्वर का चिन्तन करते-करते तीर्थ जैसे ही हो गए हैं। दोष दर्शन की जगह हम सबमें गुण दर्शन करने लग जाएँ तो हमारा स्वयं का विकास तो होगा ही दुनिया भी बड़ी खूबसूरत नजर आने लगेगी।।
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एक मार्मिक बात है, कि ‘सब कुछ भगवान ही हैं। ऐसा अनुभव करने के लिए क्रिया और पदार्थ की आवश्यकता नहीं है।। प्रत्युत विवेक तथा भाव की आवश्यकता है। विवेक में खोज होती है और भाव में स्वीकृति अथवा मान्यता होती है।। विवेक और भाव – दोनों ही अंत में तत्व ज्ञान में परिणित हो जाते हैं। ज्ञान मार्ग में विवेक की प्रधानता है।। और भक्ति मार्ग में भाव की प्रधानता है। ज्ञान मार्ग में जानकार मानते हैं।। भक्ति मार्ग में मानकर जानते हैं। दोनों का परिणाम एक ही होता है।। तात्पर्य है, कि तत्व से जानने का जो परिणाम होता है वही परिणाम दृढ़ता से मानने का भी होता है। भक्ति मार्ग में पहले भक्तों ‘सब कुछ भगवान ही हैं।। ऐसा दृढ़ता से मान लेता है फिर वह इस तत्व को जान लेता है। अर्थात उसको सब कुछ भगवान ही है ऐसा अनुभव हो जाता है।।
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एक ही बात को अनेक प्रकार से कहा जा सकता है। परंतु जब कोई बात सकारात्मक शब्दों में कही जाती है, तो वह उत्साहवर्धक होती है। और यदि आप नकारात्मक भाव से किसी चीज को कहते हैं, तो उसका प्रभाव निराशाजनक होता है।
उदाहरण के लिए, जैसे किसी ने कहा कि यह ग्लास पानी से आधा भरा हुआ है। यह सकारात्मक भाव से कथन है। इससे उत्साह बढ़ता है, कि चलो आधा पानी तो है।
अब इसी बात को दूसरे शब्दों में यूं भी कहा जा सकता है, कि, इस ग्लास में तो आधा ही पानी है! इस कथन में उत्साह नहीं बढ़ता, बल्कि भंग होता है, निराशा आती है।
तो हमें बोलते समय ध्यान रखना चाहिए कि हम किसी बात को इस प्रकार से अभिव्यक्त करें, कि लोगों का उत्साह बढ़े। लोग अच्छाई की ओर प्रवृत्त हों, और निराशा एवं बुराई से बचें।
यदि आप ऐसा कहते हैं कि संसार में बहुत से अच्छे लोग हैं, जो मनुष्यों की और प्राणियों की सेवा तथा रक्षा करते हैं। तो यह कथन उत्साहवर्धक है। और यदि आप इसी बात को इस प्रकार से कहें, कि दुनिया में कुछ ऐसे दुष्ट लोग हैं, जिन्होंने दुनियाँ का जीना हराम कर रखा है। इस कथन से उत्साह भंग होता है, और निराशा बढ़ती है।
इसलिए सब जगह पर विचारने तथा बोलने में ध्यान रखें। उत्तम जीवन जीने के लिए उत्साह की आवश्यकता है। अच्छे तथा सकारात्मक शब्द बोलें। अपना और दूसरों का उत्साह बढ़ाएं.

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