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कुंडली में शिक्षा योग

जैसे एक मकान का आधार अर्थात नींव मजबूत होने पर भविष्य के लिए निश्चिंतता मिल जाती है वैसे ही हमारे जीवन में शिक्षा भविष्य के लिए नींव का कार्य करती है और केवल अर्थोपार्जन के लिए ही नहीं बल्कि व्यक्ति के संपूर्ण चरित्र के विकास के लिए शिक्षा एक आधार का कार्य करती है। वर्तमान में हर एक माता-पिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने का पूर्ण प्रयास करते है पर हम अपने आस-पास बहुत से उदाहरण देखते है जहाँ कुछ बच्चे सरलता से शिक्षा पूर्ण करलेते हैं और कुछ को शिक्षा में बाधाओं का सामना करना पड़ता है, कुछ बच्चे बुद्धिमान होने पर भी पढाई में मन नहीं लगा पाते तो कुछ अधिक बुद्धिमान न होने पर भी अपनी शिक्षा को पूरा कर लेते हैं, वास्तव में हमारी कुंडली में बने ग्रह-योग जीवन के प्रत्येक पक्ष को उजागर करते हैं जिससे हम लाभान्वित हो सकते हैं
” जन्मकुंडली का पांचवा भाव हमारे ज्ञान, शिक्षा, और बुद्धि को दर्शाता है। बृहस्पति , ज्ञान , शिक्षा और विवेक का नैसर्गिक कारक है। बुध बुद्धि और कैचिंग-पावर का कारक होता है तथा चन्द्रमाँ मन की एकाग्रता को नियंत्रित करता है अतः कुंडली में पंचम भाव, बृहस्पति, और बुध की स्थिति शिक्षा को नियंत्रित करती है तथा चन्द्रमाँ की इसमें सहायक भूमिका होती है” –

  1. पंचम भाव- पंचम भाव हमारी शिक्षा और ज्ञान का भाव होता है, यदि पंचमेश केंद्र, त्रिकोण आदि शुभ भावों में हो, स्व , उच्च , मित्र राशि में हो पंचम भाव पाप प्रभाव से मुक्त हो शुभ ग्रह पंचम भाव और पंचमेश को देखते हों तो शिक्षा अच्छी होती है परन्तु यदि पंचमेश दुःख भाव(6,8,12) में हो अपनी नीच राशि में बैठा हो पंचम भाव में पाप-योग बना हो, षष्टेश, अष्टमेश, द्वादशेश पंचम भाव में हो या पंचम भाव में कोई पाप ग्रह अपनी नीच राशि में बैठा हो तो ऐसे में शिक्षा में बाधाओं का सामना करना पड़ता है या संघर्ष के बाद शिक्षा पूरी होती है।
  2. बृहस्पति – बृहस्पति ज्ञान और शिक्षा का कारक ग्रह है अतः कुंडली में बृहस्पति का शुभ भावों (केंद्र, त्रिकोण आदि) में होना स्व, उच्च, मित्र राशि में बैठना अच्छी शिक्षा दिलाता है और व्यक्ति विवेकशील होता है। परन्तु बृहस्पति का दुःख-भाव(6,8,12) में जाना अपनी नीच राशि(मकर) में बैठना, राहु से पीड़ित होना या अन्य प्रकार से कमजोर होना शिक्षा और ज्ञान प्राप्ति में बाधक होता है।
  3. बुध – बुध ग्रह का आज के समय में बड़ा महत्व है क्योंकि बुद्ध हमारी बुद्धि क्षमता को नियंत्रित करता है अतः शिक्षा पक्ष में बुध का मजबूत होना बहुत शुभ होता है यदि कुंडली में बुध अपनी उच्च राशि स्व राशि में हो तो व्यक्ति बुद्धिमान और तर्क-कुशल होता है ऐसा जातक किसी भी बात को बहुत जल्दी समझ लेता है और उसकी स्मरणशक्ति भी अच्छी होती है। बलि बुध वाला व्यक्ति तार्किक विषयों में बहुत आगे निकलता है। परन्तु यदि बुध नीच राशि(मीन) में हो, दुःख-भाव(6,8,12) में हो, केतु के साथ हो तो ये स्थितियां भी शिक्षा में बाधक होती हैं।
  4. चन्द्रमाँ – चन्द्रमाँ का शिक्षा से सीधा सम्बन्ध तो नहीं है परन्तु हमारे मन की एकाग्रता को चन्द्रमाँ ही नियंत्रित करता है अतः जिन जातकों की कुंडली में चन्द्रमाँ शुभ स्थिति में हो उनका मन स्थिर रहता है परन्तु यदि कुंडली में चन्द्रमाँ नीच राशि(वृश्चिक) में हो, दुःख भाव में हो या राहु , शनि से पीड़ित हो ऐसे व्यक्ति का मन सदैव अस्थिर रहता है , एकाग्रता नहीं बन पाती, जमकर किसी काम को नहीं कर पाते जिससे शिक्षा में रुकावटें आती है और जातक बुद्धिमान होने पर भी शिक्षा में पीछे रह जाता है।
    अतः उपरोक्त घटकों के आधार पर हम जातक के जीवन में शिक्षा की स्थिति या शिक्षा में आने वाली बाधाओं के कारण को समझकर उसका समाधान निकाल सकते हैं।
    कुछ महत्वपूर्ण तथ्य –
  5. जिन बच्चों की कुंडली में बुध कमजोर होता है उन्हें गणनात्मक विषयों में समस्याएं आती हैं। ऐसे बच्चों की हैंड-राइटिंग भी अच्छी नहीं होती। ऐसे बच्चों का उच्चारण भी अक्सर गलत होजाता है।
    उपाय – गणेश जी की पूजा करें , बुधवार को गाय को हरा चारा खिलाएं , ॐ बुम बुधाय नमः का जाप करें।
  6. जिन बच्चों की कुंडली में बृहस्पति कमजोर होता है वो व्याकरण(ग्रामर) में कमजोर होते है। ऐसे बच्चों की स्वविवेक क्षमता कम होती है तथा मैच्योरिटी कम होती है।
    उपाय – ॐ बृम बृहस्पते नमः का जाप करें, गाय को भीगी चने की दाल खिलाएं, केले के पेड़ में जल दें।
  7. जिन बच्चों की कुंडली में चन्द्रमाँ कमजोर हो तो ऐसे बच्चे पढाई में मन नहीं लगा पाते उनकी एकाग्रता कमजोर होती है।
    उपाय – ॐ सोम सोमाय नमः का जाप करें, शिवलिंग का अभिषेक करें, सफ़ेद चन्दन का तिलक लगायें।
    [कुंडली में केतु
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    केतु भारतीय ज्योतिष में राहु ग्रह के सिर का धड़ है। यह सिर समुद्र मन्थन के समय मोहिनी अवतार रूपी भगवान विष्णु ने काट दिया था। यह एक छाया ग्रह है। माना जाता है कि इसका मानव जीवन एवं पूरी सृष्टि पर अत्यधिक प्रभाव रहता है। केतु को प्राय: सिर पर कोई रत्न या तारा लिये हुए दिखाया जाता है, जिससे रहस्यमयी प्रकाश निकल रहा होता है।

केतु की स्थिति
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भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु, सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सपेक्ष एक दूसरे के उलटी दिशा में (180 डिग्री पर) स्थित रहते हैं। चूंकि ये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है। सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के कारण ही राहु और केतु की स्थिति भी साथ-साथ बदलती रहती है।
ज्योतिष में केतु अच्छी व बुरी आध्यात्मिकता एवं प्राकृतिक प्रभावों का कार्मिक संग्रह का द्योतक है। केतु विष्णु के मत्स्य अवतार से संबंधित है। केतु, भौतिकीकरण के शोधन के आध्यात्मिक प्रक्रिया का प्रतीक है और हानिकर और लाभदायक, दोनों ही माना जाता है, क्योंकि ये जहां एक ओर दु:ख एवं हानि देता है, वहीं दूसरी ओर एक व्यक्ति को देवता तक बना सकता है। यह व्यक्ति को आध्यात्मिकता की ओर मोडऩे के लिये भौतिक हानि तक करा सकता है। यह ग्रह तर्क, बुद्धि, ज्ञान, वैराग्य, कल्पना, अंतर्दृष्टि, मर्मज्ञता, विक्षोभ और अन्य मानसिक गुणों का कारक है।
माना जाता है कि केतु, सर्पदंश या अन्य रोगों के प्रभाव से हुए विष के प्रभाव से मुक्ति दिलाता है। ये अपने भक्तों को अच्छा स्वास्थ्य, धन-संपदा व पशु-संपदा दिलाता है। मनुष्य के शरीर में केतु अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। ज्योतिष गणनाओं के लिए केतु को तटस्थ अथवा नपुंसक ग्रह मानते हैं। केतु स्वभाव से मंगल की भांति ही एक क्रूर ग्रह है तथा मंगल के प्रतिनिधित्व में आने वाले कई क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व केतु भी करता है। यह ग्रह तीन नक्षत्रों का स्वामी है अश्विनी, मघा एवं मूल नक्षत्र। यही केतु जन्म कुण्डली में राहु के साथ मिलकर कालसर्प योग की स्थिति बनाता है। केतु को सूर्य व चंद्र का शत्रु कहा गया हैं। केतु, मंगल ग्रह की तरह प्रभाव डालता है। केतु वृश्चिक व धनु राशि में उच्च का और वृष व मिथुन में नीच का होता है।

मत्स्य पुराण के अनुसार केतु बहुत-से हैं, उनमें धूमकेतु प्रधान है। भारतीय-ज्योतिष के अनुसार यह छायाग्रह है। व्यक्ति के जीवन-क्षेत्र तथा समस्त सृष्टि को यह प्रभावित करता है। ज्योतिष के अनुसार राहु की अपेक्षा केतु विशेष सौम्य तथा व्यक्ति के लिये हितकारी है। कुछ विशेष परिस्थितियों में यह व्यक्ति को यश के शिखर पर पहुँचा देता है।

यद्यपि राहु-केतु का मूल शरीर एक था और वह दानव-जाति का था। परन्तु ग्रहों में परिगणित होने के पश्चात उनका पुनर्जन्म मानकर उनके नये गोत्र घोषित किये गये। इस आधार पर राहु पैठीनस-गोत्र तथा केतु जैमिनि-गोत्र का सदस्य माना गया।

कुण्डली में केतु
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जन्म कुंडली में लग्न, षष्ठम, अष्ठम और एकादश भाव में केतु की स्थिति को शुभ नहीं माना गया है। इसके कारण जातक के जीवन में अशुभ प्रभाव ही देखने को मिलते हैं। जन्मकुंडली में केतु यदि केंद्र-त्रिकोण में उनके स्वामियों के साथ बैठे हों या उनके साथ शुभ दृष्टि में हों तो योगकारक बन जाते हैं। ऐसी स्थिति में ये अपने शुभ परिणाम जैसे लंबी आयु, धन, भौतिक सुख आदि देते हैं।

केतु के अधीन आने वाले जातक जीवन में अच्छी ऊंचाइयों पर पहुंचते हैं, जिनमें से अधिकांश आध्यात्मिक ऊंचाईयों पर होते हैं।

जातक की जन्म-कुण्डली में विभिन्न भावों में केतु की उपस्थिति भिन्न-भिन्न प्रभाव दिखाती हैं।

👉 प्रथम भाव में अर्थात लग्न में केतु हो तो जातक चंचल, भीरू, दुराचारी होता है। इसके साथ ही यदि वृश्चिक राशि में हो तो सुखकारक, धनी एवं परिश्रमी होता है।

👉 द्वितीय भाव में हो तो जातक राजभीरू एवं विरोधी होता है।

👉तृतीय भाव में केतु हो तो जातक चंचल, वात रोगी, व्यर्थवादी होता है।

👉 चतुर्थ भाव में हो तो जातक चंचल, वाचाल, निरुत्साही होता है।

👉 पंचम भाव में हो तो वह कुबुद्धि एवं वात रोगी होता है।

👉 षष्टम भाव में हो तो जातक वात विकारी, झगड़ालु, मितव्ययी होता है।

👉 सप्तम भाव में हो तो जातक मंदमति, शत्रु से डरने वाला एवं सुखहीन होता है।

👉 अष्टम भाव में हो तो वह दुर्बुद्धि, तेजहीन, स्त्री द्वेषी एवं चालाक होता है।

👉 नवम भाव में हो तो सुखभिलाषी, अपयशी होता है।

👉 दशम भाव में हो तो पितृद्वेषी, भाग्यहीन होता है।

👉 एकादश भाव में केतु हर प्रकार का लाभदायक होता है। इस प्रकार का जातक भाग्यवान, विद्वान, उत्तम गुणों वाला, तेजस्वी किन्तु रोग से पीडि़त रहता है।

👉 द्वादश भाव में केतु हो तो जातक उच्च पद वाला, शत्रु पर विजय पाने वाला, बुद्धिमान, धोखा देने वाला तथा शक्की स्वभाव होता है।

केतु के अन्य ग्रहों से युति के प्रभाव
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👉 सूर्य जब केतु के साथ होता है तो जातक के व्यवसाय, पिता की सेहत, मान-प्रतिष्ठा, आयु, सुख आदि पर बुरा प्रभाव डालता है।

👉 चंद्र यदि केतु के साथ हो और उस पर किसी अन्य शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो व्यक्ति मानसिक रोग, वातरोग, पागलपन आदि का शिकार होता है।

👉 वृश्चिक लग्न में यह योग जातक को अत्यधिक धार्मिक बना देता है।

👉 मंगल केतु के साथ हो तो जातक को हिंसक बना देता है। इस योग से प्रभावित जातक अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं रख पाते और कभी-कभी तो कातिल भी बन जाते हैं।

👉 बुध केतु के साथ हो तो व्यक्ति लाइलाज बीमारी ग्रस्त होता है। यह योग उसे पागल, सनकी, चालाक, कपटी या चोर बना देता है। वह धर्म विरुद्ध आचरण करता है।

👉 केतु गुरु के साथ हो तो गुरु के सात्विक गुणों को समाप्त कर देता है और जातक को परंपरा विरोधी बनाता है। यह योग यदि किसी शुभ भाव में हो तो जातक ज्योतिष शास्त्र में रुचि रखता है।

👉 शुक्र केतु के साथ हो तो जातक दूसरों की स्त्रियों या पर पुरुष के प्रति आकर्षित होता है।

👉 शनि केतु के साथ हो तो आत्महत्या तक कराता है। ऐसा जातक आतंकवादी प्रवृति का होता है। अगर बृहस्पति की दृष्टि हो तो अच्छा योगी होता है।

👉 किसी स्त्री के जन्म लग्न या नवांश लग्न में केतु हो तो उसके बच्चे का जन्म आपरेशन से होता है। इस योग में अगर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो कष्ट कम होता है।

👉 भतीजे एवं भांजे का दिल दुखाने एवं उनका हक छीनने पर केतु अशुभ फल देता है। कुत्ते को मारने एवं किसी के द्वारा मरवाने पर, किसी भी मंदिर को तोडऩे अथवा ध्वजा नष्ट करने पर इसी के साथ ज्यादा कंजूसी करने पर केतु अशुभ फल देता है। किसी से धोखा करने व झूठी गवाही देने पर भी केतु अशुभ फल देते हैं।

अत: मनुष्य को अपना जीवन व्यवस्थित जीना चाहिए। किसी को कष्ट या छल-कपट द्वारा अपनी रोजी नहीं चलानी चाहिए। किसी भी प्राणी को अपने अधीन नहीं समझना चाहिए जिससे ग्रहों के अशुभ कष्ट सहना पड़े।

केतु का सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव:
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गुरु के साथ नकारात्मक केतु अपंगता का इशारा करता है, उसी तरह से सकारात्मक केतु साधन सहित और जिम्मेदारी वाली जगह पर स्थापित होना कहता है, मीन का केतु उच्च का माना जाता है और कन्या का केतु नकारात्मक कहा जाता है, मीन राशि गुरु की राशि है और कन्या राशि बुध की राशि है। गुरु ज्ञान से सम्बन्ध रखता है और बुध जुबान से, ज्ञान और जुबान में बहुत अन्तर है। इसी के साथ अगर शनि के साथ केतु है तो काला कुत्ता कहा जाता है, शनि ठंडा भी है और अन्धकार युक्त भी है, गुरु अगर गर्मी का एहसास करवा दे तो ठंडक भी गर्मी में बदल जाती है, चन्द्र केतु के साथ गुरु की मेहरबानी प्राप्त करने के लिये जातक को धर्म कर्म पर विश्वास करना जरूरी होता है, सबसे पहले वह अपने परिवार के गुरु यानी पिता की महरबानी प्राप्त करे, फिर वह अपने कुल के पुरोहित की मेहरबानी प्राप्त करे, या फिर वह अपने शरीर में विद्यमान दिमाग नामक गुरु की मेहरबानी प्राप्त करे।

मंगल एवं केतु में समानता
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मंगल व केतु दोनों ही जोशीले ग्रह हैं, लेकिन इनका जोश अधिक समय तक नहीं रहता है। दूध की उबाल की तरह इनका जोश जितनी चल्दी आसमान छूने लगता है उतनी ही जल्दी वह ठंडा भी हो जाता है। इसलिए, इनसे प्रभावित व्यक्ति अधिक समय तक किसी मुद्दे पर डटे नहीं रहते हैं, जल्दी ही उनके अंदर का उत्साह कम हो जाता है और मुद्दे से हट जाते हैं। मंगल एवं केतु का यह गुण है कि इन्हें सत्ता सुख काफी पसंद होता है। ये राजनीति में एवं सरकारी मामलों में काफी उन्नति करते हैं। शासित होने की बजाय शासन करना इन्हें रूचिकर लगता है। मंगल एवं केतु दोनों को कष्टकारी, हिंसक, एवं कठोर हृदय वाला ग्रह कहा जाता है। परंतु, ये दोनों ही ग्रह जब देने पर आते हैं तो उदारता की पराकष्ठा दिखाने लगते हैं यानी मान-सम्मान, धन-दौलत से घर भर देते हैं।


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#कलयुगमेंप्रबलशुक्रहैतोमिट्टीभीलाएगीसोनेकादाम …… #जानिएकैसे-

कुंडली मे बेहतर शुक्र की स्थिति सुख और समृद्धि का कारक है इस प्रकार शुक्र कीमत (वैल्यू) है ये जिस कारक के साथ होगा उसकी कीमत बढ़ा देगा- समझते है कैसे-

शनि देशी शराब है , परन्तु बेहतर शुक्र मिल गया तो जातक ब्रांडेड पसन्द करेगा उस दशा काल मे, जबकि नशा दोनों में है ।

#राहु तकनीकी संचार है , परन्तु बेहतर शुक्र मिल गया तो व्यक्ति साधारण फोन का उपयोग न कर i phone प्रयोग करना पसंद करेगा, जबकि संचार सेवा दोनों से है।

केतु मोक्ष है , परन्तु बेहतर शुक्र मिल गया तो जातक AC में मोक्ष को ढूंढेगा, जैसे – आशाराम, रामपाल , आदि

चन्द्रमा राज दरबार से सम्बंधित है , बेहतर शुक्र मिला तो राजदरबार के उच्च पद पर प्रतिनिधित्व करेगा।

सूर्य चिकित्सा है , परन्तु बेहतर शुक्र साथ हुआ तो चिकित्सा ब्रांडेड हो जाएगी, कम्पनी labled, जबकी genetic दवाइयों का भी असर उतना ही है जितना कम्पनी labaled.

बुध तर्क है वकालत है , शुक्र बेहतर साथ हुआ तो जातक की फीस बढ़ जाएगी, जबकि जिरह क्षमता का फीस से कोई सम्बन्ध नही ।

मंगल सम्पत्ति है , बेहतर शुक्र मिला तो जातक झोपड़ी से अलग अपार्टमेंट , फार्म हाउस का उपयोग करेगा, जबकि घर का कार्य दोनों करते है ।

गुरु शिक्षा है , परन्तु बेहतर शुक्र मिल गया तो शिक्षा केवल दिखावे की होगी, शिक्षण से ज्यादा पहनावा , status, पर फोकस दिखेगा , जबकि शिक्षा का सम्बन्ध सिर्फ ज्ञान से होता है, न कि इन सबसे।

और #शुक्र अकेला बेहतर हुआ व 5वे भाव से सम्बन्ध बनाया तो जातक अंग प्रदर्शन खुलेआम करेगा , छोटी सी भी क्रिएटिविटी बहुमूल्य बनेगा और सराहनीय होगा, और उत्तम धन वैभव भी मिलेगा। जबकि पेट के लिए मजबूर होकर कलाकृत्य का प्रदर्शन करने वाले कमजोर शुक्र के जातक को लोग पथभ्रष्ट कहेगे।

ये #शुक्र ही है जिसने मीडिया को इतना रंगीन बना रखा है। जहां शुक्र बढ़ेगा वहां वर्चस्व और कीमत आसमान पर होगी।

        

[शनि-चंद्र जनित विषयोग पारिभाषित
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ज्योतिष मतानुसार शनि और चंद्रमा का योग जातक के लिए बेहद कष्टकारी माना जाता है। शनि अपनी धीमी प्रकृति के लिए बदनाम है और चंद्रमा अपनी द्रुत गति के लिए विख्यात। किंतु शनि क्षमताशील होने की वजह अक्सर चंद्रमा को प्रताड़ित करता है। यदि चंद्र और शनि की युति कुंडली के किसी भी भाव में हो, तो ऐसे में उनकी आपस में दशा-अंतर्दशा के दौरान विकट फल मिलने की संभावना बलवती होती है।

शनि धीमी गति, लंगड़ापन, शूद्रत्व, सेवक, चाकरी, पुराने घर, खपरैल, बंधन, कारावास, आयु, जीर्ण-शीर्ण अवस्था आदि का कारक ग्रह है जबकि चंद्रमा माता, स्त्री, तरल पदार्थ, सुख, सुख के साथ, कोमलता, मोती, सम्मान, यश आदि का कारकत्व रखता है।

शनि और चंद्र की युति से विष योग नामक दुर्लभ अशुभ योग की सृष्टि होती है। ये विष योग जातक के जीवन में यथा नाम विषाक्तता घोलने में पूर्ण सक्षम है। जिस भी जातक की कुण्डली में विष योग का निर्माण होता है, उसे जीवन भर अशक्तता, मानसिक बीमारी, भ्रम, रोग, बिगड़े दाम्पत्य आदि का सामना करना पड़ता है। हां, जिस भी भाव में ऐसा विष योग निर्मित हो रहा हो, उस भाव अनुसार भी अशुभ फल की प्राप्ति होती है।

जैसे यदि किसी जातक के लग्न चक्र में शनि-चंद्र के संयोग से विष योग बन रहा हो तो ऐसा जातक शारीरिक तौर पर बेहद अक्षम महसूस करता है। उसे ताउम्र कंगाली और दरिद्रता का सामना करना पड़ता है।

लग्न में शनि-चंद्र के बैठ जाने से उसका प्रभाव सप्तम भाव पर बेहद नकारात्मक होता है, जिससे जातक का घरेलू दाम्पत्य जीवन बेहद बुरा बीतता है। लग्न शरीर का प्रतिनिधि है इसलिए इस पर चंद्र और शनि की युति बेहद नकारात्मक असर छोड़ती है। जातक जीवन भर रोग-व्याधि से पीड़ित रहता है।

द्वितीय भाव में शनि-चंद्र का संयोग बने तो जातक जीवन भर धनाभाव से ग्रसित होता है।

तृतीय भाव में यह युति जातक के पराक्रम को कम कर देती है।

चतुर्थ भाव में सुख और मातृ सुख की न्यूनता तथा

पंचम भाव में संतान व विवेक का नाश होता है।

छठे भाव में ऐसी युति शत्रु-रोग-ऋण में बढ़ोत्तरी।

सप्तम भाव में शनि-चंद्र का संयोग पति-पत्नी के बीच सामंजस्य को खत्म करता है।

अष्टम भाव में आयु नाश।

नवम भाव में भाग्य हीन बनाता है।

दशम भाव में शनि-चंद्र युति पिता से वैमनस्य व पद-प्रतिष्ठा में कमी एवं

ग्यारहवें भाव में एक्सिडेंट करवाने की संभावना बढ़ाने के साथ लाभ में न्यूनता लाती है।

बारहवें भाव में शनि-चंद्र की युति व्यय को आय से बहुत अधिक बढ़ाकर जातक का जीवन कष्टमय बना देने में सक्षम है।

विषयोग के प्रभाव को कम करने के वैदिक उपाय
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शास्त्रों के अनुसार यदि किसी ज्योतिषी से सलाह लेकर उचित उपाय किए जाये तो ‘विष योग’ के अशुभ फलों को कम किया जा सकता है।

आपके लिए कुछ आसान उपाय दिए जा रहे है इनका प्रयोग अवश्य ही लाभदायक रहेगा।

👉 पीपल के पेड़ के ठीक नीचे एक पानी वाला नारियल सिर से सात बार उतार कर फोड़ दें और नारियल को प्रसाद के रूप में बॉट दें।

👉 शनिवार के दिन या शनि अमावस्या के दिन संध्या काल सूर्यास्त के पश्चात् श्री शनि देव की प्रतिमा पर या शिला पर तेल चढ़ाए, एक दीपक सरसो के तेल को जलाए दीपक में थोड़ा काला तिल एवं थोड़ा काला उड़द डाल दें। इसके पश्चात् 10 आक के पत्ते ले और काजल पर थोड़ी सरसो का तेल मिला कर स्याही बना ले, और लोहे की कील के माध्यम से प्रत्येक पत्ते में नीचे लिखे मंत्र को लिखे।

मंत्र 👉 1. ऊॅ, 2. शं, 3. श, 4. नै, 5. श आधा (श्याम वाला) 6. च, 7. रा, 8. यै, 9. न, 10. मः इस प्रकार 10 पत्तो में 10 अक्षर हो जाते है,फिर इन पत्तो को काले धागे में माला का रूप देकर, शनि देव की प्रतिमा या षिला में चढ़ाये।तब इस क्रिया को करते समय मन ही मन शनि मंत्र का जाप भी करते रहना चाहिए।
गुड़, गुड़ की रेवड़ी, तिल के लड्डू किसी शनि मंदिर में प्रसाद चढ़ाये और प्रसाद को बॉट दे। तथा गाय, कुत्ते, एवं कौओ को भी खिलाए।

👉 शनि मंदिर में या हनुमान जी के मंदिर में घड़ा में पानी भरकर दान करें।
पूर्णिमा के दिन शिव मंदिर में रूद्राभिषेक करवाये।

👉 प्रतिदिन रूद्राक्ष की माला से कम से कम पाँच माला महामृत्युन्जय मंत्र का जाप करे।इस क्रिया को शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार से आरम्भ करें।

👉 माता एवं पिता अपने से उम्र में जो अधिक हो अर्थात पिता माता समान हो उनका चरण छूकर आर्षीवाद ले।

👉 शनिवार के दिन कुए में दूध चढ़ाये।
श्री सुन्दर कांड का 49 पाठ करें। किसी हनुमान जी के मंदिर में या पूजा स्थान में शुद्ध घी का दीपक जलाकर पाठ करें, पाठ प्रारम्भ करने के पूर्व अपने गुरू एवं श्री हनुमान जी का आवाहन अवश्य करें।

👉 श्री हनुमान जी को शुद्ध घी एवं सिन्दूर का चोला चढ़ाये श्री हनुमान जी के दाहिने पैर का सिन्दूर अपने माथे में लगाए।


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केतु के बुरे असर को कम करते हैं ये 8 आसान उपाय —

ज्योतिष शास्त्र में केतु को पाप ग्रह माना गया है। इसके प्रभाव से
व्यक्ति के जीवन में कई संकट आते हैं। कुछ साधारण
उपाय कर केतु के अशुभ प्रभाव को कम किया जा सकता है। ये उपाय
इस प्रकार हैं-
1- दोनों पक्षों की त्रयोदशी तिथि को व्रत
रखें।
2- भैरवजी की उपासना करें। उन्हें केले के
पत्ते पर चावल का भोग लगाएं।
3- प्रतिदिन शाम को गाय के घी का दीपक
तुलसी के पौधे के सामने लगाएं।
4- हरा रुमाल सदैव अपने साथ में रखें।
5- तिल के लड्डू सुहागिनों को खिलाएं और तिल का दान करें।
6- कन्याओं को रविवार के दिन
मीठा दही और हलवा खिलाएं।
7- बरफी के चार टुकड़े बहते पानी में
बहाएं।
8- कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन शाम को एक दोने में पके हुए चावल
लेकर उस पर मीठा दही व काले तिल डाल
कर दान करें। अगर दान न कर पाएं तो यह दोना पीपल
के नीचे रखकर केतु दोष शांति के लिए प्रार्थना करें।
{: दशम भाव द्वारा करे अपने कर्म का विचार :-

जन्मकुंडली में दशम अथवा कर्म भाव
की महत्ता का विवरण महर्षि पराशर, मंत्रेश्वर और
वराहमिहिर ने विभिन्न ज्योतिष ग्रंथो में विस्तृत रूप से किया है | कर्म
भाव को यहाँ तक भाग्य भाव (नवम) पर
भी प्रधानता दी गयी है |
भगवान श्रीकृष्ण ने भी भगवत
गीता में अर्जुन को कर्मयोग के बारे में
ही उपदेश दिया है |
गोस्वामी तुलसीदास ने कर्म का विवरण कुछ
इस तरह किया है ..
कर्म प्रधान विश्व रची राखा |
जो जस करई सो तस फल चाखा ||
अर्थात भगवान ने इस विश्व
की रचना ही कर्म प्रधान
की है और जो जिस तरह का कर्म करेगा उसका फल
भी उसे उसी अनुकूल मिलेगा | मनुष्य अपने
प्रारब्ध जनित दोषो को भी अपने कर्म के द्वारा समाप्त
कर सकता है |
शुभाशुभ कर्म, कृषि, पिता, आजीविका, यश, व्यापार,
राजा का आसन, राजपद की प्राप्ति, उचा पद,
नींद, गहने, अभिमान, खानदान, सन्यास, शास्त्र ज्ञान,
आकाश, दूर देश में निवास, यात्रा, ऋण का विचार दसवे भाव से
करना चाहिए |
१. पूर्ण बली कर्मेश अपनी राशि, नवमांश
या उच्च में हो तो जातक पितृ सौख्य युक्त, पुण्य कार्य करने
वाला तथा यशस्वी होता है | वही कर्मेश
निर्बल हो तो जातक कर्महीन होता है |
२. कर्मेश शुभ स्थान में शुभ ग्रहो से युक्त हो तो जातक
को वाणिज्य अथवा राजाश्रय से लाभ होता है | इसके
विपरीत पापयुत कर्मेश अशुभ स्थान में स्थित
हो तो अशुभ फल होता है |
३. दशम तथा एकादश स्थान पापगृहकांत हो तो मनुष्य दुष्कर्म करने
वाला, स्वजन का द्वेषी होता है |
४. कर्मेश अष्टमस्थ होकर राहु युक्त हो तो जातक जन-
द्वेषी महामूर्ख तथा दुष्कर्म कारक होता है |
५. कर्मेश शनि या मंगल के साथ सप्तम में हो और सप्तमेश
भी पाप ग्रह युक्त हो तो जातक
व्यभिचारी तथा पेटू होता है |
६. लाभेश दशम में, कर्मेश लग्न में हो या दोनों केंद्रस्थ
हो तो मनुष्य सुखी होता है |
७. शुक्र युक्त गुरु मीनस्त हो, लग्नेश
भी प्रबल हो, चंद्रमा अपने उच्च राशिगत हो तो जातक
अच्छे ज्ञान और संपत्ति से परिपूर्ण होता है |
८. कर्मेश स्वयं की राशि में होकर केंद्र या त्रिकोण में
हो और गुरु से युक्त या दृष्ट हो तो जातक कार्यशील
होता है |
९. कर्मेश अष्टम में अष्टमेश कर्म स्थान में हो और पापग्रह
का संयोग हो तो जातक दुष्कर्म संलग्न होता है |
१०. नीचस्थ ग्रह के साथ शनि यदि दशम स्थान गत
हो, दशम का नवमांश भी पापग्रहकान्त हो तो जातक
कर्म रहित होता है |
११. दशम भाव गत चंद्रमा हो, दशमेश चंद्रमा से नवम पंचम में
हो और लग्नेश केंद्रस्थ हो तो जातक शुभ यश वाला होता है |
१२. कर्मेश भाग्यस्थ हो, लग्नेश कर्म स्थान गत हो, और लग्न
से पंचम में चंद्रमा रहे तो जातक विख्यात होता है |

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