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      ‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼

       🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴

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                                *इस संसार में आदिकाल से लेकर आज तक अनेक ज्ञानी - विज्ञानी एवं महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने ज्ञानप्रकाश से समस्त विश्व को आलोकित किया है | हमारे ज्ञानग्रंथों के अनुसार इन ज्ञानियों को तीन श्रेणियों में रखा गया है :- १- भौतिक ज्ञानी , २- मानसिक ज्ञानी एवं ३- आध्यात्मिक ज्ञानी | बाहरी विषयों को आत्मसात करने को ही ज्ञान कहा गया है | ज्ञान ही मनुष्य को स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर अग्रसर करता है | भौतिक ज्ञान का आधार मन है तो आध्यात्मिक ज्ञान का आधार आत्मा होती है | ज्ञान ही वह तत्व है जो मन को आत्मा से संयुक्त करता है | जो भी ज्ञान मन को आत्मा से नहीं मिला पाता वह ज्ञान नहीं बल्कि ज्ञान का भ्रम मात्र है | प्राय: यह देखने को मिलका है कि जिसको दो चार ग्रंथों का अनुभव या कुछ सामाजिकता का ज्ञान हो जाता है वह स्वयं को ज्ञानी समझने लगता है और उसमें अहंकार का प्राकट्य हो जाता है | ऐसे ज्ञानी को ज्ञानी न कहकर यह कहा जा सकता है कि इन तथाकथित ज्ञानियों को स्वयं के ज्ञानी होने का भ्रम मात्र है | मनुष्य के जन्म लेने के बाद प्रथम स्तर पर मन ही ज्ञान का आधार होता है | अविकसित मन भौतिक शासन द्वारा शासित होता है | सांसारिक ज्ञान सर्वप्रथम भौतिक मानसिक , फिर मानसिक  तथा भोतिक जगत में कार्यान्वित होने के बाद मानसिक भौतिक हो जाता है | इन सबसे अलग हटकर स्वयं के विषय में जानने का प्रयास करते हुए उस परमसत्ता के विषय में ज्ञानार्जन करना आध्यात्मिक ज्ञान कहा गया है |*

आज समाज में जबसे ज्ञानियों की बाढ़ सी आ गयी है | इन ज्ञानियों में सौम्यता की अपेक्षा अहंकार का पुट अधिक ही दिखाई पड़ता है क्योंकि इनके ज्ञान का आधार हमारे धर्मग्रंथों की अपेक्षा आज के आधुनिक युग में ज्ञान का स्रोत कहा जाने वाला इंटरनेट का गूगल ही है | आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करके स्वयं में आत्मसात करने वाले कहीं सौ में एकाध मिल सकते हैं , क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञानी कभी स्वयं को ज्ञानी दिखाने का प्रयास ही नहीं करता है | मैं “आचार्य अर्जुन तिवारी” यदि यह कहूँ कि आज के तथाकथित ज्ञानियों को ज्ञान नहीं बल्कि स्वयं के ज्ञानी होने का भ्रम मात्र है तो अतिशयोक्ति न होगी | क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञानी यह जानता है कि इस जगत में सभी कुछ सकारण है , अर्थात् कार्य कारण का परिणाम होता है और कारण का परिणाम कार्य होता है | यह इसी तरह चलता रहा है | जहां कार्य-कारण तत्व काम करता है, वहां अपूर्णता रहती है. इस ज्ञान से अथवा इस ज्ञान के आनेवाले स्त्रोतों पर कोई अहंकार नहीं कर सकता | भौतिक ज्ञान को अपने चरम पर पहुँचाकर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए | स्वयं या उस परमसत्ता के विषय में जानना एक विशेष मानसिक धारा प्रवाह है | परमसत्ता देश, काल और व्यक्ति के परे है | यह अपरिवर्तनीय होने के कारण यदि कोई व्यक्ति आध्यात्मिक-मानसिक ज्ञान अर्जित करने की चेष्टा करता है अपेक्षाकृत भौतिक-मानसिक ज्ञान के, अर्थात् यदि उसके ज्ञान का स्त्रोत बाह्य भौतिकता नहीं है, बल्कि आंतरिक आध्यात्मिकता है, तब उस अवस्था में वह ज्ञान यथार्थ ज्ञान होगा |

जिस आध्यात्मिक मानसिक ज्ञान का अंतिम बिंदु आध्यात्मिक ज्ञान हो, वही एकमात्र ज्ञान है | इसी ज्ञान के माध्यम से मनुष्य अहंकार रहित होकर अपने लक्ष्य तक पहुंच सकता है |

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