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      ‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼

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                                   *मनुष्य जीवन भर भगवान को ढूँढा करता है | उनकी एक झलक पाने के लिए अनेकों उद्योग किया करता है | यहाँ तक कि मनुष्य अपना भरा - पूरा परिवार छोड़कर संत बन जाता है , संयासी बन जाता है | हिमालय की कंदराओं में जाकर तपस्या करता रहता है , परंतु उसे परमात्मा के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं | अनेकों यज्ञ - अनुष्ठान परमात्मा का सानिध्य पाने के लिए मनुष्य करता रहता है लेकिन फिर भी उसे वह कृपा प्राप्त नहीं हो पाती | परमात्मा को या उनकी दिव्य झाँकी का दर्शन करने के लिए जिन दिव्य चक्षुओं की आवश्यकता होती है वह आज मनुष्यों के पास नहीं हैं | प्रत्येक मनुष्य को परमात्मा ने दो नेत्र दे रखे हैं परंतु जब मनुष्य के नेत्र खराब हो जाते हैं तो चिकित्सक उसमें लेंस डालकर पुन: देखने लायक बना देता है | ठीक उसी प्रकार आज मनुष्यों के दोनों नेत्रों में लेंस की आवश्यकता है | वे दोनों लेंस क्या हैं ?? आईये इन्हें जानने का प्रयास करते हैं | तुलसीदास जी ने मानस में लिखा ---- "भवानी शंकरौ वन्दे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ" ! लोगों ने पूछा कि ये भवानी शंकर कौन हैं तो तुलसीदास जी ने जबाब दिया कि भगवती पार्वती जी श्रद्धा स्वरूपा हैं और भूतभावन भोलेनाथ स्वयं विश्वासस्वरूप हैं | मनुष्य जीवन में इन दोनों का होना परमावश्यक है | बिना श्रद्धा विश्वास के जीवन में न तो कुछ सिद्ध ही हो सकता है और न ही मनुष्य स्थायित्व पा सकता है | मनुष्य को इसी श्रद्धा - विश्वास रूपी लेंस की आवश्यकता है | जब मनुष्य में श्रद्धा एवं विश्वास रूपी लेंस का प्रत्यारोपण हो जाता है तो उसे पत्थरों में भी परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं |* 

आज आधुनिकता के दौर में मनुष्य ने प्रगति तो बहुत कर ली परंतु उसके हृदय से श्रद्धा और विश्वास दोनों ही अन्तर्ध्यान होते चले जा रहे हैं ! जिनके अभाव में मनुष्य अंधों की तरह इधर से उधर धक्के खा रहा है | मनुष्य का जीवन जहाँ से प्रारम्भ होता है उस इकाई को परिवार कहते हैं | उसी परिवार में रहकर मनुष्य प्रगति करता है परंतु आज लगभग देखा जा सकता है कि परिवारों में न तो एक दूसरे के प्रति श्रद्धा (सम्मान) ही बचा है और न ही एक दूसरे पर विश्वास रह गया है जिसके चलते आज एकल परिवारों की संख्या बढ रही है | मैं विचार करता हूँ कि जिस माँ ने जन्म दिया , जिस पिता ने पुत्र की प्रगति के लिए दिन रात मेहनत की , जिस गुरू ने अपना सारा ज्ञान देकर मनुष्य को मनुष्य बनाने में अप्रतिम सहयोग दिया ! उन्हीं मनुष्यों के द्वारा आज इनकी उपेक्षा यदि हो रही है तो कहीं न कहीं से यह श्रद्धा और विश्वास की कमी ही है | मनुष्य हनुमान दी के मंदिरों में जाता है पूरी श्रद्धा के साथ अपनी मनौतियां मानता है | उसे पूर्ण विश्वास भी होता है कि हनुमान जी उसके कार्य सिद्ध करेंगे | फिर दूसरे ही दिन वह दुर्गा जी के मंदिर पहुँचकर अपनी वही मनौतियां पुन: दोहराता है | इसका अर्थ यह हुआ कि उसकी श्रद्धा एवं उसका विश्वास कहीं न कहीं से हनुमान जी के प्रति कमजोर हुआ है तभी वह दुर्गा जी के मन्दिर पहुँचा | आपको अपनी मनौती मानने के लिए मंदिर जाने की अपेक्षा अपने हृदय में सर्वप्रथम पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास को जागृत करना चाहिए |

जीवन में यदि किसी कार्य को सिद्ध करने में सफलता प्राप्त करनी है तो सर्वप्रथम अपने कार्य के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास जागृत कीजिए |

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