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१. सांसारिक मोह के कारण ही मनुष्य ‘मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ — इस दुविधा में फँसकर कर्तव्यच्युत हो जाता है ‘। अतः मोह या सुखासक्ति के वशीभूत नहीं होना चाहिये।

२. शरीर नाशवान है और उसे जानने वाला शरीरी अविनाशी है — इस विवेक को महत्व देना और अपने कर्तव्य का पालन करना — इन दोनों में से किसी एक उपाय को काम में लाने से चिन्ता-शोक मिट जाते हैं।

३. निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरों के हित के लिए अपने कर्तव्य का तत्परतासे पालन करने मात्र से कल्याण हो जाता है।

४. कर्मबन्धन से छूटने के दो उपाय हैं — कर्मो के तत्व को जानकर निःस्वार्थभाव से कर्म करना और तत्वज्ञान का अनुभव करना।

५. मनुष्य को अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों केआने पर सुखी -दुःखी नहीं होना चाहिये; क्योंकि इसमें सुखी-दुःखी होनेवाला मनुष्य संसार से उठकर परम् आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता।

६. किसी भी साधन से अन्तःकरण में समता आनी चाहिए।समता आये बिना मनुष्य निर्विकार नहीं हो सकता।

७. सबकुछ भगवान ही हैं — ऐसा स्वीकार कर लेना सर्वश्रेष्ठ साधन है।

८. अन्तकालीन चिंतन के अनुसार ही जीव की गति होती है।अतः मनुष्य को हरदम भगवान का स्मरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, जिससे अन्तकाल में भगवान की स्मृति बनी रहे।

९. सभी मनुष्य भगवत्प्राप्ति के अधिकारी हैं, चाहे वे किसी भी सम्प्रदाय, देश, वेश आदि के क्यों न हों !

१०. संसार में जहां भी विलक्षणता, विशेषता, महत्ता, विद्वता, बलवत्ता आदि दीखे उसको भगवान का ही मानकर भगवान का ही चिन्तन करना चाहिए!

११. इस जगत को भगवान का ही स्वरूप मानकर प्रत्येक मनुष्य भगवान के विराटरूप का दर्शन कर सकता है ।

१२. जो भक्त शरीर-इन्द्रियाँ-मन बुद्धि — सहित अपने-आपको भगवान के अर्पण कर देता है, वह भगवान को प्रिय होता है!

१३. संसार में एक परमात्मतत्व ही जानने योग्य है। उसको जानने पर अमरता की प्राप्ति हो जाती है।

१४. संसार-बन्धन से छुटने के लिए सत्व, रज,और तम —इन तीनों गुणों से अतीत होना जरूरी है। अनन्यभक्ति से मनुष्य इन तीनों गुणों से अतीत हो जाता है!

१५. इस संसार का मूल आधार और अत्यंत श्रेष्ठ परमपुरुष एक परमात्मा ही है —ऐसा मानकर अनन्यभाव से उनका भजन करना चाहिए।

१६. दुर्गुण–दुराचारों से ही मनुष्य चौरासी योनियों एवं नरकों में जाता है और दुःख पाता है।अतः जन्म–मरण के चक्र से छुटने के लिए दुर्गुण–दुराचारों का त्याग करना आवश्यक है।

१७. मनुष्य श्रद्धापूर्वक जो भी शुभ कार्य करे, उसको भगवान का स्मरण करके, उनके नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ करना चाहिए ।

१८. सब ग्रन्थों का सार वेद हैं, वेदों का सार उपनिषद हैं, उपनिषदों का सार गीता है और गीता का सार भगवान की शरणागति है। जो अनन्यभाव से भगवान की शरण हो जाता है, उसे भगवान सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर देते हैं।

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