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माना कि जीवन का उद्देश्य परम शांति को प्राप्त करना है मगर बिना संघर्ष के जीवन में शांति की प्राप्ति हो पाना कदापि सम्भव नहीं है। शांति मार्ग नहीं अपितु लक्ष्य है। बिना संघर्ष पथ के इस लक्ष्य तक पहुँचना असम्भव है।। जो लोग पूरे दिन को सिर्फ व्यर्थ की बातों में गवाँ देते हैं वे रात्रि की गहन निद्रा के सुख से भी वंचित रह जाते हैं। मगर जिन लोगों का पूरा दिन एक संघर्ष में, परिश्रम में, पुरुषार्थ में गुजरता है। वही लोग रात्रि में गहन निद्रा और गहन शांति के हकदार भी बन जाते हैं।। जीवन भी ठीक ऐसा ही है। यहाँ यात्रा का पथ जितना विकट होता है लक्ष्य की प्राप्ति भी उतनी ही आनंद दायक और शांति प्रदायक होती है। मगर याद रहे लक्ष्य श्रेष्ठ हो, दिशा सही हो और प्रयत्न में निष्ठा हो फिर आपके संघर्ष की परिणिति परम शांति ही होने वाली है।।
[संसार में तीन अनादि, अविनाशी तथा नित्य सत्ताएं ईश्वर, जीव तथा प्रकृति हैं। ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्व शक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, सृष्टिकर्त्ता, जीवों को कर्मानुसार फल प्रदाता व उन सबका जन्मदाता, वेदज्ञान का दाता तथा सृष्टि का प्रलयकर्ता है। उसके सत्य स्वरूप को जानकर उसकी उपासना करना और सुखी होना मनुष्यों का कर्तव्य है। सभी वेद की आज्ञाओं का पालन करना भी मनुष्यों का कर्त्तव्य है।
[मनुष्य की उन्नति स्वाध्याय द्वारा सत्य का अन्वेषण व अध्ययन करने, सत्य का ग्रहण करने तथा असत्य का त्याग करने से होती है। विद्वानों का संग, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना एवम् ऋषियों के सत्य सिद्धांतो से युक्त ग्रंथों का अध्ययन करने से भी जीवन की उन्नति होती है। सत्यार्थ प्रकाश को पढ़कर भी वेदाध्ययन के अनेक लाभों को प्राप्त किया जा सकता है। संसार में जो व जितना सत्य ज्ञान है, वह वेदों से ही प्रकाशित, विस्तारित व प्रचारित हुआ है। अतः मनुष्य जीवन के सात्विक विकास व उन्नति के लिए वेद और वेदानु कूल ग्रंथों का अध्ययन किया जाना चाहिए। इससे हम देश विरोधी भाह्य एवम् भीतरी शक्तियों के योजना बद्ध दुष्प्रचार से बच सकेंगे।
[ संसार में सब हमारे मित्र बन जाये यह किन्चित सम्भव नहीं है।। लेकिन कोई हमारा शत्रु ना बनें, यह प्रयास किया जा सकता हैं। हमारे मुख से सबके लिए प्रशंसा के शब्द ना निकलें कोई बात नहीं, पर हमारे मुख से किसी की निंदा ना हो। यह तो किया जा सकता है। आप किसी को अपनी थाली में से रोटी निकलकर नहीं खिला सकते तो किसी के निवाले को छीनने वाले भी ना बनो।। अगर हमसे पुन्य नहीं बनें तो पाप ना हो, ऐसा प्रयत्न जरूर करें। आप सत्य नहीं बोल सकते तो असत्य ना बोलने का संकल्प लें। विकार से विचार एवं विकास की यात्रा पर चलने वाला ही सत्य की अनुभूति कर सकता है।।
[ आँख खोलकर दूसरों की बुराई देखने की बजाय आँख बंद करके स्वयं की बुराई को देखना ज्यादा बेहतर है। दूर दृष्टा बनो मगर दोष दृष्टा कभी मत बनो। जो दोष हम दूसरों में ढूंढते हैं अगर वही दोष स्वयं में ढूँढे जाएं तो जीवन के परिमार्जन का इससे श्रेष्ठतम कोई साधन नहीं हो सकता शास्त्रों में एक बात पर विशेष जोर दिया कि मनुष्य को अंतर द्रष्टा होना चाहिए।। जिसकी दृष्टि भीतर की तरफ मुड़ जाती है। उसे स्वयं के भीतर ही उस अखंड ब्रह्म की सत्ता का आभास होने लगता है।। अंतर द्रष्टा होने का अर्थ मात्र इतना है कि दोष बाहर नहीं अपितु स्वयं के भीतर देखे जाएं। जब हमारे स्वयं के द्वारा स्वयं का मुल्यांकन होने लगता है। स्वयं द्वारा स्वयं को अच्छे और बुरे की कसौटी पर परखा जाता है।। और स्वयं द्वारा स्वयं का छिद्रान्वेषण किया जाता है। तो उस स्थिति में हमारा मन स्वतः शोधित होकर निर्मल और पावन होने लगता है।।
[ योग और प्राणायाम को नियमित करे ,ऐसा करने से शरीर हमेशा निरोग रहता है, प्रातः अपने माता पिता गुरुजनों और अपने से बड़ों का आशीर्वाद ले भोजन के लिए बनाई जा रही रोटी में से पहली रोटी गाय को दें। प्रति दिन चीटियों को शक्कर मिला हुआ आटा खिलाएं। घर को साफ-स्वच्छ रखें।। रोज जब भी घर से निकले तो उसके पहले अपने माता-पिता और घर के बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद लें।। बाहर से जब भी आप घर में प्रवेश करें तो कभी खाली हाथ ना जाएं।। घर में हमेशा कुछ ना कुछ लेकर प्रवेश करें, चाहे वह पेड़ का पत्ता ही क्यों न हो। पक्षियों को दाना डाले। शनिवार और अमावस्या को सारे घर की सफाई करें, कबाड़ बाहर निकले और जूते-चप्पलों का दान कर दे। बुधवार को किसी को भी उधार न दे, वापस नहीं आएगा। राहू काल में कोई कार्य शुरू न करें। घर के हर सदस्य को अपने-अपने इष्ट का जाप व पूजन अवश्य करना चाहिए। जहाँ तक हो सके अन्न, वस्त्र, तेल, कंबल, अध्ययन सामग्री आदि का दान करें। दान करने के बाद उसका उल्लेख न करें।। अपने राशि या लग्न स्वामी ग्रह के रंग की कोई वस्तु अपने साथ हमेशा रखे। सोते समय अपना सिरहाना (सर ) पूर्व या दक्षिण दिशा की ओर रखने से धन व आयु की बढ़ोत्तरी होती है। उत्तर की ओर सिरहाना रखने से आयु की हानि होती है. कभी भी बीम या शहतीर के नीचे न बैठें और न ही सोयें इससे देह पीड़ा या सिर दर्द होता है।।
🙏🌹 आज का चिन्तन-ईश्वर और-…🌹🙏
💐🌹याद रखना परिश्रम का फल और समस्या का हल बिलम्ब से ही सही परन्तु मिलता जरूर है🌹
आज हम जिस विषय पर विचार चिन्तन और मनन करेंगे वह विषय कदाचित प्रत्येक व्यक्ति के हृदय और मस्तिष्क में कभी न कभी अवश्य विचार का केन्द्र बनता है और वो विषय है “ईश्वर और देवी देवता” । वास्तव में यह एक महत्वपूर्ण विषय है कि हमारे धर्म में ईश्वर और देवी देवताओं का एक अलग ही स्थान है । क्या ये सब एक हैं ? क्या अन्तर होता है ईश्वर और देवी देवताओं में ? क्या ईश्वर एक है या अनेक ? अथवा वह साकार है या निराकार ? आज हम और आप इन सभी प्रश्नों पर विचार चिन्तन और मनन करेंगे । तो क्या हम सज्ज है ? ईश्वर और देवी देवताओं में बस एक ही अन्तर है देवी देवता उस उन छोटे बड़े नदी अथवा चिन्गारियों के समान है जो जो अगाध समुद्र या ज्वालामुखी से उत्पन्न हुऐ हैं । और उनके स्वभाव से ही परिपूर्ण है । यह सब एक होकर भी अनेक रूपों में दृष्टिगत होते हैं । अर्थात यह सब एक कल्प वृक्ष के सामान है मानो जिसकी शाखाएँ देवी देवताओं के स्वरुप तो है किन्तु इस वृक्ष का मूल ईश्वर है । जो सबका पोषण और विकास करता है ।वह स्वयं अदृश्य होकर सबको दृश्यात्मक कर देता है । अर्थात वह निराकार ब्रह्म ही साकार होता है वह साकार इसलिए होता है क्योंकि साकार के बिना हम निराकार ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते । अर्थात जिस प्रकार “सुर तथा ताल” दोनों ही निराकार रूप में होते हैं इनको आज तक देखा नहीं गया लेकिन इनके ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हमें साकार रूपी हारमोनियम अथवा तबले की आवश्यकता होती है ।तब जाकर हम उसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । अर्थात ईश्वर एक है लेकिन बाँकी सभी देवी देवता उनके ही अंश स्वरुप हैं । वही ईश्वर जब साकार हुआ तो श्री राम तथा श्री कृष्ण कहलाये । जबकि बाँकी देवी देवता उनकी ही इच्छा से उनकी सेवा करते हैं । श्रीमद्भागवत महापुराण जी में कहा गया है कि- “कृष्णस्तु भगवान् स्वयं” अर्थात भगवान श्रीकृष्ण ही स्वयं भगवान अर्थात ईश्वर हैं । वह गीता जी के माध्यम से भी कहते हैं कि सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अर्थात तुम सारे धर्मों का त्याग कर केवल मुझ परमेश्वर के शरणागत हो जाओ । और रामायण जी में भगवान श्रीराम जी के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते है की –
बिनु पग चलइ सुनहि बिनु काना ।
कर बिनु कर्म करहि विधि नाना ।।…
अर्थात जो निराकार ब्रह्म है वही साकार हुआ तो श्री राम नाम से जाना गया । जिस प्रकार हवा सर्वत्र है किन्तु अगर किसी के वाहन का टायर पञ्चर हो जाय तो वह सर्वत्र व्याप्त हवा से टायर में प्रवेश करने को कहें तो क्या वह भर जायेगा । नहीं ! उस वाहन स्वामी को उस स्थान पर जाना होगा जहाँ उस हवा को एकत्र किया गया है । उसी प्रकार (हरिः सर्वत्र सर्वदा) परमात्मा सदा सर्वत्र है किन्तु हम उनका दर्शन लाभ लेने हेतु उस मन्दिर में पूजा अर्चना करते हैं जहाँ उस परमात्म भाव पुन्ज को एकत्र कर वेद मन्त्रों के उच्चारण से प्राण प्रतिष्ठित किया गया है ।
अन्ततोगत्वा कहना ग़लत नहीं होगा कि जिस प्रकार मनुष्य योनि है उसी प्रकार देवी देवताओं की भी योनि होती है वह भी मनुष्य के समान शरीर को धारण और त्याग करते हैं ।। किन्तु शास्त्रों में देवी देवताओं के दर्शन को दुर्लभ नहीं कहा है बल्कि मनुष्य योनि प्राप्त होना दुर्लभ कहा है । क्योंकि यही वह योनि जो निर्वाण अर्थात मुक्ति प्रदान करती है । और परमात्मा को प्राप्त करने को एक मात्र योनि कहीं गई है । आशा करते हैं कि हमारा ये विषय हम सबके जीवन में कुछ अर्थ भरेगा ऐसी मङ्गलकामना करते हुए ।।
जय जय श्री राधे राधे जी ।।
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