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: जीवन में कष्ट सहने की क्षमता तो रखो मगर इसे कष्टकर ना बनाओ। जीवन को पर-पीड़ा में लगाने में भी कष्ट मिलता है। और पर-पीड़ा दायक बनाने से भी कष्ट ही मिलता हैं।। मगर एक कष्ट जहाँ आपको परोपकार रुपी सुख का आंनद देता है’ वहीँ दूसरा कष्ट सम्पूर्ण जीवन को ही कष्ट कारक व पीड़ा दायक बना देता है। कष्ट कारक नहीं कष्ट निवारक बनो।। पीड़ा दायक नहीं प्रेम दायक बनो। जीवन को क्षणभंगुर समझने का मतलब यह नहीं कि कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा विषयोपभोग कर लिया जाए, बल्कि यह है।। कि फिर दुवारा अवसर मिले ना मिले इसलिए इस अवसर का पूर्ण लाभ लेते हुए इसे सदकर्मों में व्यय किया जाए। जीवन जितना सादा रहेगा तनाव उतना ही आधा रहेगा योग करें या न करें पर जरूरत पड़ने पर एक दूसरे का (सह+योग) जरूर करें।।
[ ऋग्वेद में कहा गया है, कि दूसरों की निंदा करने से दूसरों का नहीं बल्कि खुद का ही नुकसान होता है। निंदा से ही मनुष्य की बर्बादी की शुरुआत होती है।। ऐसे व्यक्ति अन्य लोगों के सामने किसी को बुरा साबित करने के लिए चोरी, हिंसा जैसे काम करने में भी नहीं कतराते। कई लोगों की आदत होती हैं।। दूसरों की बुराई करना या उनमें कोई कमी निकालकर उनका अपमान करना ये दोनों ही काम हमें पतन की ओर ले जाते हैं। निंदा करना और अपमानित करना, इन दोनों कामों को ही हमारे शास्त्रों ने बहुत बड़ी बुराई माना है। इनको करने वाला इंसान अक्सर अपने मूल काम को भूल जाता है।। और बाकी लोगों से पीछे रह जाता है। अगर सफलता की राह में आगे बढ़ना हो तो दूसरों की बुराई और अपमान करने से हमेशा बचना चाहिए।।
[: “समत्व” में स्थिति ही वास्तविक “ज्ञान” है। समत्व का अभाव ही “अज्ञान” है।। इन्द्रिय सुखों की ओर प्रवृति हमारा अज्ञान है। जो हमें परमात्मा से दूर करता है।। परमात्मा से दूरी ही हमारे सब दुःखों का कारण है। एक ही अविनाशी परम तत्त्व का सर्वत्र दर्शन हमें समत्व में स्थित करता है।। “आत्म तत्व” का जो बोध कराये वह “विद्या” है। विद्या हमें सब दुःखों, कष्टों व पीड़ाओं से “मुक्त” कराती है।। विद्या हमें अज्ञान से “मुक्त” करती है। अन्य सब जिसे हम संसार में ज्ञान कहते हैं, वह “अविद्या” है।। दुःखों से निवृति ही “मोक्ष” है। मोक्ष के मार्ग पर भगवान सदा हमारे साथ हैं।।

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