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आज दुनिया स्वास्थ के प्रति जागरूक हो गई है ,हम हमारा शारीरिक स्वास्थ ठीक रखने के लिए भिन्न-भिन्न तरह की विधिया अपना रहे है कोई योगासन कर रहा है तो कोई प्राणायाम कर रहा है तो कोई प्राकृर्तिक चिकित्सा का आधार लेकर स्वयं को तन मन से तंदुरस्त रहने का प्रयास कर रहा है हम ज्यादा तर तन की तंदुरस्ती पर अधिक ध्यान देते है ,शरीर बीमार होने पर डॉक्टर का परामर्श भी लेते है दवाई भी खाते है और कुछ समय के लिए ठीक भी हो जाते है परन्तु कुछ समय के बाद फिर से वही हाल नजर आते है क्योकि हमने सिर्फ तन की तंदुरस्ती के बारे में सोचा, लेकिन मन की तंदुरस्ती को अन देखा किया वास्तव में सबसे पहले बिमारी की शुरुवात हमारे मन से होती है फिर मन के गलत विचारों का असर तन पर पड़ता है हमारे व्यर्थ विचार एक गन्दी नाली के पानी जैसा है जो सतत बहने से इन व्यर्थ विचारों के संकल्प का विकल्प ( विकार से जन्मा विचार) में परिवर्तित हो जाता है जो विकल्प हमारे बुरे व्यवहार में दिखाई देते है , हमारे संकल्प हमेशा समर्थ हो सकारात्मक हो जो मन को सदा ख़ुशी दे, हमारे अंदर जो षड्विकार है जैसे काम ,क्रोध,लोभ ,मोह .अहंकार,ईर्ष्या इनमे ईर्ष्या हमारे मन की एक छिपी बिमारी जैसी है जो धीमा जहर का काम करती है ,आज इंसान इन मन की बुराइओ के साथ जीता है लेकिन इन जहरीली बिमारी का इलाज नहीं करते.
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💥🙏आज का संदेश🙏💥
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इस धरा धाम पर जीवन जीने के लिए जिस प्रकार हवा, अग्नि एवं अन्न/जल की आवश्यकता होती है उसी प्रकार एक सुंदर जीवन जीने के लिए मनुष्य में संस्कारों की आवश्यकता होती है। व्यक्ति का प्रत्येक विचार, कथन और कार्य मस्तिष्क पर प्रभाव डालता है इसे ही संस्कार कहा जाता है। इन संस्कारों का समष्टि रूप ही चरित्र कहलाता है। मनुष्य का चरित्र ही उसके उद्धार एवं पतन का कारक होता है, इन संस्कारों की जड़ें भूतकाल में जमती हैं, वर्तमान में विकास करती है और भविष्य में पल्लवित-पुष्पित होती हैं। आदिकाल से ही भारतीय सांस्कृतिक गौरव की जड़ें बहुत मजबूत है। मनुष्य का चरित्र विश्व की सबसे बड़ी शक्ति एवं संपदा हैं, अनेक साधन – सम्पदाओं का स्वामी होने पर भी यदि मनुष्य चरित्रहीन है तो वह विपन्न अर्थात दरिद्र ही माना जाएगा। रामचरितमानस में कविकुल शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी ने तीन प्रकार के मनुष्यों का वर्णन करते हुए उनकी श्रेणी बताई है :- साधक, सिद्ध एवं सुजान। इन तीनों श्रेणियों में साधक तो प्रत्येक मनुष्य बन सकता है परंतु सिद्ध वही हो सकता है जिसकी साधना अखंडित हो। साधक और सिद्ध हो जाने के बाद भी मनुष्य का सुजान होना परम आवश्यक है, सुजान अर्थात सुसंस्कार। अन्यथा मनुष्य का पतन निश्चित होता है, साधक और सिद्ध लिख देने के बाद बाबा जी को सुजान क्यों लिखना पड़ा/इसका कारण स्पष्ट है कि रावण बहुत बड़ा साधक था अनेक साधनायें करके वह सिद्ध भी हो चुका था परंतु सुजान अर्थात संस्कारित ना होने के कारण वह अपने सिद्धियों का दुरुपयोग कर बैठा और इन्हीं सिद्धियों के दुरुपयोग के कारण उसका सर्वनाश हो गया। इसीलिए किसी भी साधक को सिद्धियां प्राप्त हो जाना तो सरल कहा जा सकता है परंतु यदि मनुष्य सुजान नहीं है तो वह सिद्धियों का सदुपयोग नहीं कर पाएगा। किसी भी सिद्धि का सदुपयोग करने के लिए मनुष्य में संस्कार का होना परम आवश्यक है, इसीलिए बाबा जी ने मनुष्य के लिए साधक सिद्ध और सुजान तीनों लिखा है।
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“पवन गर्ग”
का यह मानना है कि आज के वर्तमान युग में अनेक देशों के वैज्ञानिकों ने अपनी साधना के बल पर आणविक शक्ति रूपी सिद्धियाँ प्राप्त कर ली हैं। यह परमाणु शक्तियां इतनी सिद्ध हैं कि पृथ्वी को कई बार नष्ट करने में सक्षम है, उसका दुरुपयोग रोकने के लिए सुजानता अर्थात संस्कारों की परम आवश्यकता है। वैसे तो हमारे भारतीय संस्कार बहुत ही सुदृढ़ रहे हैं परंतु आज पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध मनुष्य को विवेकहीन बनाती जा रही है। आज के वर्तमान युग में हमारा युवा वर्ग पश्चिम की प्रत्येक चीज को बिना विवेक के अच्छा कह कहके अंधभक्तों की ही भाँति उसका अनुसरण करने में लगी हुई है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हमारी संस्कृति की बागडोर युवा वर्ग के हाथ में जाने के बाद आज ही टूटने लगी है तो फिर भविष्य में इससे कैसे फूल और फल मिलेंगे यह चिंतनीय है। आज समस्त विश्व में जिस प्रकार प्रदूषण एक भयानक समस्या बनी हुई है उसी प्रकार हमारे देश भारत में भी अनेक प्रदूषण के साथ सांस्कृतिक प्रदूषण भी भयानक रूप ले चुका है। जिस प्रकार सभी प्रदूषण से निपटने का प्रयास सरकार द्वारा किया जा रहा है उसी प्रकार सांस्कृतिक प्रदूषण को रोकने का प्रयास सनातन के पुरोधाओं के द्वारा किया जाना चाहिए, परंतु आज दुखद यह है कि हमारे सनातन के पुरोधा भी इस सांस्कृतिक प्रदूषण से स्वयं को नहीं बचा पा रहे हैं। सदाचार, सत्यता एवं सच्चरित्रता आज दिवास्वप्न की भांति होती जा रही है | बाबाजी के अनुसार साधक, सिद्ध एवं सुजान की श्रेणी में आने वाला आज कोई भी नहीं दिख रहा है। मनुष्य को सर्वप्रथम साधक बनने की आवश्यकता करनी चाहिए, साधक की साधना यदि अनवरत चलती रहती है तो वह एक दिन सिद्ध अवश्य हो जाता है, और सिद्धियां प्राप्त होने के बाद उनका उपयोग करने के लिए सुजानता अर्थात संस्कारों की परम आवश्यकता पड़ती है और आज हमारे संस्कार विलुप्त होते जा रहे हैं यह घोर चिंता का विषय है।
आज की शिक्षा पद्धति मनुष्य को ज्ञानवान तो बना रही है परंतु सांस्कृतिक संस्कार बिगड़ते चले जा रहे हैं, इसलिए आज फिर आवश्यकता है कि मनुष्य अपने पास उपलब्ध साधन का सदुपयोग करते हुए चरित्रवान एवं संस्कार संपन्न बनने का प्रयास करें।
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आज का चिन्तन
जीवन को दो ही तरीके से जिया जा सकता है, तपस्या बनाकर या तमाशा बनाकर। तपस्या का अर्थ जंगल में जाकर आँखे बंद करके बैठ जाना नहीं अपितु अपने दैनिक जीवन में आने वाली समस्याओं को मुस्कुराकर सहने को क्षमता को विकसित कर लेना है।
हिमालय पर जाकर देह को ठंडा करना ही तपस्या नहीं अपितु हिमालय सी शीतलता दिमाग में रखना जरुर है। किसी के क्रोधपूर्ण वचनों को मुस्कुराकर सह लेना जिसे आ गया, सच समझ लेना उसका जीवन तपस्या ही बन जाता हैं।
छोटी-छोटी बातों पर जो क्रोध करता है निश्चित ही उसका जीवन एक तमाशा सा बनकर ही रह जाता है। हर समय दिमाग गरम रखकर रहना यह जीवन को तमाशा बनाना है और दिमाग ठंडा रखना ही जीवन को तपस्या सा बनाना है।
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राधे राधे ॥। आज का भगवद चिन्तन
मनुष्य के भीतर दैवीय गुणों को जाग्रत करना ही देवोत्थान एकादशी व्रत का मुख्य संदेश है। यह शास्त्रों की और हमारे मनीषियों की हमारे ऊपर बड़ी कृपा रही है कि जब जब हमारे भीतर का देवत्व सुषुप्त अवस्था में चला जाता है तथा आसुरी वृत्तियाँ हमारे चित्त पर हावी होने लगती है तब तब कोई न कोई ऐसा पर्व या व्रत जरुर आ जाता है जो हमें हमारे देवत्व का बोध करा जाता है।
हमारी चेतना में सुषुप्त देवत्व को जागृत करना यह आज के व्रत का मुख्य उदेश्य है। निराहार रहना आज के व्रत का उदेश्य नही निर्विकार रहना जरुर है। सत्कर्म करने की भावना जग जाए। सत्य के मार्ग पर चलने का भाव जग जाए, यही वास्तविक जगना है।
नारायण माने धर्म, हमारे भीतर धर्म जाग्रत हो जाये। भगवान का बैकुंठ में जागना तो महत्व रखता ही है, उनसे प्रार्थना करें कि वे हमारे ह्रदय रूपी बैकुंठ में भी जग जाएँ।
देवोत्थान एकादशी की बहुत बहुत बधाई।
🚩जय श्री राधे कृष्णा🚩
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