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ll समाधि के सात द्वार ll

१. मूलाधार चक्र:

जिस प्रकार पृथ्वी व्यक्ति का मूलाधार होता है ,उसी प्रकार मानव की जीवन शक्ति का आधार चक्र है -मूलाधार I

कुंडलिनी जागरण की क्रिया में यह यही पहला चक्र होता है ,जिस पर अधिकांश शक्तिया केंद्रित रहती है ,परन्तु उन शक्तियों का स्पंदन न्यून होता है ,क्योकि यह चक्र पृथ्वी तत्व प्रधान होता है ,इसका स्थान गुदा भाग एवं लिंग प्रदेश के मध्य होता है I

अतः यहाँ स्थित शक्तियां जिन्हे हम “सत्व”के नाम से सम्बोधित करते है ,वे गुरुत्वाकर्षण के फल स्वरूप ही नीचे की ओर अग्रसर होती है I यह सत्व तत्व पुरुषो में वीर्य और स्त्रियों में रज का रूप धारण कर लिंग और योनि प्रदेश की ओर प्रवाहित होता है I इसके सम्मिलन से ही एक नए मानव का जन्म होता है I
यदि इस सत्व तत्व का प्रवाह ऊर्ध्वमुखी हो जाये ,तब मानव की यही शक्ति उसे श्रेष्ठत्व प्रदान कर देती है I

मूलाधार का स्वरुप चार पंखुड़ियों वाले कमल के सदृश बताया गया है ,इन चारों दलों के चार बीज मंत्र है ,जिनको चैतन्यता प्रदान करने पर मनुष्य को चार विशिष्ट उपलब्धिया की प्राप्ति होती है I

वं – यह पहले दल का बीज मंत्र है ,इसके द्वारा “रस” अर्थात प्राण शक्ति की वृद्धि हो कर पूरा स्नायु तंत्र चैतन्य हो जाता है I

शं – द्वितीय दल के इस बीज के चैतन्य होने पर “रूप” अर्थात आत्मिक और मानसिक सौंदर्य , व तनाव मुक्ति की प्राप्ति होती है I

षं – यह तृतीय दाल का द्योतक है ,इसके चैतन्य होने होने पर “मज्जा “पुष्ट होती है I

सं – चौथे दल के कारण ” सौंदर्य ” मे वृद्धि होती है ,तथा एक चुंबकीय व्यक्तित्व प्राप्त होता हैI

मूलाधार का जागरण भस्त्रिका प्राणायाम द्वारा संभव होता है , भस्त्रिका का अर्थ है -एक लय बध्य रूप से अत्यधिक तीव्रता के साथ श्वास -प्रश्वास की क्रिया ,इस क्रिया के कारण शरीर में लचीलापन आ जाया है ,जिसका होना आवश्यक है ,क्योकि जब शक्ति चैतन्य हो तो उसे विस्तारित होने के लिए उचित स्थान मिल सके ,और मानव को कष्ट न हो I

मूलाधार के जाग्रत होने पर इस चक्र की सुप्त शक्तिया पहले जाग्रत होती है फिर धीरे-धीरे स्पंदन को प्राप्त होती है ,तत्पश्चात इसके स्पंदन में वृद्धि होती है ,और ये अगले चक्र की ओर अग्रसर होती है ,यही क्रम प्रत्येक चक्र के साथ चलता रहता है ,और क्रमश: आगे गतिशील होती यह क्रिया मस्तिष्क को चैतन्य कर नाड़ी को जाग्रत कर देती है ,जहाँ अमृत तत्व एकत्र होता है ,जिससे मानव में अनंत शक्तियों का उदय होता है

मूलाधार के जागरण पर मानव की आत्मा और शरीर ज्ञान की पहली किरण का प्रादुर्भाव होता है ,जिसका रंग हल्का जामुनी होता है ,यह किरण तीव्र तेज युक्त होती है

मूलाधार का मूल बीज मंत्र है -“लं” इसके जप द्वारा ही इस चक्र को जाग्रत किया जाता है ,जिसके कारण उपरोक्त वर्णित चारो बीज स्वतः जाग्रत हो जाते है I इसके अलावा गुरु से दीक्षा प्राप्त कर भी इसे जाग्रत करते है I

२.स्वाधिष्ठान चक्र :

तीव्र भस्त्रिका की क्रिया द्वारा मूलाधार में स्थित जाग्रत होती है ,और अंदर निहित विशेषताओ के अनुसार उस व्यक्ति विशेष में परिवर्तन कर देती है फिर यह शक्ति अपने पथ पर आगे की ओर गतिशील होती हुई स्वाधिष्ठान चक्र पर पहुँचती है और उस चक्र पर सुप्त शक्तियों को प्रेरित कर जाग्रत करती है I

स्वाधिष्ठान चक्र “जल तत्व ” प्रधान है ,जल तत्व का स्पंदन भू-तत्व से अधिक होता है ! मूलाधार की शक्ति जब स्वाधिष्ठान की शक्ति से मिलती है ,तो उसका भी स्पंदन बढ़ जाता है ,और दोनों शक्तिया एक हो जाती है I

इस चक्र पर पहुंचने पर साधक को “प्राणायाम “सिद्ध करने की आवश्यकता होती है ,क्योकि प्राणायाम ही वह माध्यम है ,जिसके द्वारा हम इन शक्तियों पर नियंत्रण प्राप्त कर सकते है ,अन्यथा अवस्था में यह शक्ति पुनः अधोगामी हो जाती है I

स्वाधिष्ठान चक्र मानव शरीर में लिंग मूल में पीछे स्थित होता है ,और यही कारण बनता है ,नयी पीढ़ी को जन्म देने का ,यहाँ स्थित शक्तियों के सम्मिलन से एक नए मानव का निर्माण होता है ,यदि इस सत्व का प्रवाह उर्ध्गामी हो जाये ,तब मानव की यह शक्ति उसे श्रेस्थत्व प्रदान कर देती है I
जब यह चक्र जाग्रत होता है ,तो मानव में काम-वासना अत्यधिक तीव्रता से बढ़ती है ,यब उसको अपने आप में नियंत्रित करने के लिए प्राणायाम की आवश्यकता पड़ती है ! इस चक्र पर सुप्त शक्तियों का जाग्रत होने पर व्यक्ति को मनोनुकूल संतान उत्पन्न करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है

संतान तो सभी पैदा कर लेते है ,लेकिन उसी संतान को पैदा करना के लिए विवश है ,जो गर्भ में है ,चाहे दुष्ट आत्मा हो या पुण्य आत्मा हो लड़का हो या लड़की हो I

तार्किक बुद्धि वालो के गले की नीचे मेरी बात नहीं उतरेगी ,किन्तु जो सत्य है,प्रामाणिक है ,उसे तो बताऊंगा ही ! मैं तो बस इतना कह सकता हूँ ,कि विश्वास न हो तो वे स्वयं अपनी कुंडलिनी जाग्रत कर मेरी बात परख सकते है ,उन्हें अवश्य भरोसा हो जायेगा I

स्वाधिष्ठान चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति का व्यक्तित्व चुम्बकत्व प्रधान हो जाता है ,वह किसी से बात करे या न करे लोग उससे बात करने के लिए लालायित बने रहते है I इसके साथ ही आध्यात्मिक दृष्टि से देखे ,तो उसे जल पर नियंत्रण प्राप्त हो जाता है , सरल शब्दों में जल गमन प्रक्रिया सिद्ध हो जाती है I

मैं जानता हूँ आपकी तार्किक बुद्धि ,मेरी बातो को सत्य मानने से रोकेगी ,किन्तु “ऐसा कैसे संभव है ” सोचने में अपना अमूल्य समय व्यतीत करने की अपेछा इसे स्वयं परख कर देख ले I

यदि थोड़ी सी दृष्टि आप अपने आस-पास के लोगो पर डालेंगे तो पाएंगे कुछ मानव शरीर धारी है ,जो सैकड़ो किलो का सामान एक फूल की तरह उठा लेते है ,मिलो दौड़ आते है कुछ मिनटों में , वही कुछ ऐसे मानव शरीर भी है जो किलो- दो किलो सामान उठाने में भी थक जाते है ,और १ किलो मीटर चलना पड़े तो पसीने से तर-ब-तर हो जाते हैI

क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता ,कि मानव शरीर में अनंत शक्तिया और संभावनाएं है छिपी है ,जो इसे पहचान लेता है ,वही इनका उपयोग कर लेता है I

स्वाधिष्ठान चक्र का रंग सिन्दूरी होता है और इसका मूल बीज मंत्र है “वं”I

यह चक्र छः कमल दल होता है ,अर्थात इस चक्र के जाग्रत होने पर छः उपलब्धियां मानव को प्राप्त को प्राप्त होती है जो निम्नवत है –

बं -इस चक्र के प्रथम दल ,प्रथम शक्ति का बीज मंत्र है “बं” होता है ,
इसके चैतन्य होने से व्यक्ति का गृहस्थ जीवन सुखी होता है ,इस शक्ति के जागृत होने से चाहे स्त्री हो या पुरुष हो सुखी दाम्पत्य जीवन का आनंद पूर्ण निरोगी बन कर उठाते है ! इस शक्ति द्वारा पूर्ण पूर्ण पुरुषत्व और पूर्ण स्त्रीत्व प्राप्त होता है I

भं – इस द्वितीय दाल की शक्ति जाग्रत होने होने पर “वंश” की उपलब्धि होती है ,मनोकूल इच्छित संतान की प्राप्ति इसके द्वारा ही संभव है I

मं – इस तृतीय दल या शक्ति के द्वारा प्राप्त होने वाली क्षमता है -“पौरुष” अर्थात निर्भयता ,निडरता ! जीवन में आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा पर विजय प्राप्त करने की क्रिया आ जाती है ,फिर यह बात कोई मायने नहीं रखती कि उसका शारीरिक डील-डाल कैसा है I

यं – चर्तुथ दल में निहित शक्ति के द्वारा “ब्रम्हचर्य ” की उपलब्धि होती है ,ब्रम्हचर्य का अर्थ यह कदापि नहीं है ,कि काम-भावना का त्याग करे ,
ब्रम्हचर्य का अर्थ है- काम भावना पर पूर्ण नियंत्रण एवं एक सुनियोजित विवहिक जीवन I

रं – चतुर्थ दल के जागरण के कारण जब व्यक्ति को काम-भावना पर नियंत्रण की क्षमता प्राप्त हो जाती है ,तब उसका वीर्य सत्व में परिवर्तित हो जाता है ,और उसके पूरे शरीर को कांति युक्त बना देता है !इसके बाद पंचमदल की शक्ति जाग्रत होती है ,तब उसे स्वतः “आकर्षण ” की शक्ति की प्राप्ति होती है I

लं- षष्ठम दाल की उपलब्धिता है -“जाग्रति ” इसके द्वारा व्यक्ति भौतिक संसाधनों का किशलता पूर्वक उपयोग करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है I
इस प्रकार स्पष्ट है ,कि स्वाधिष्ठान चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति को समस्त सांसारिक व भौतिक सुखों के सदुपयोग का ज्ञान प्राप्त होता है ,और स्वतः ही उसकी समस्त कामनाएं पूर्ण होने लगती है I

३.मणिपुर चक्र :

अग्नि तत्व से प्रतिनिधित्व प्राप्त यह चक्र मानव शरीर में नाभि स्थल पर स्थित होता है ! नाभि का महत्त्व का ज्ञान प्रत्येक मनुष्य को होता है ,नाभि स्थल ही वह स्थान है जिसके द्वारा गर्भस्थ शिशु माँ से भोजन और वायु अर्थात जीवन शक्ति प्राप्त करता है I

इस चक्र का जागरण भस्त्रिका और प्राणायाम के मिश्रित प्रयोग के द्वारा ही संभव है ,इस क्रिया को किसी योग्य गुरु के सानिध्य में सीखना चाहिए ,ऐसे गुरु के सानिध्य में ,जिसके स्वयं का नाभि चक्र जाग्रत हो I

यह चक्र जाग्रत होने पर व्यक्ति पूर्ण रूप से मनुष्यत्व प्राप्त कर लेता है ,यह चक्र सीमा रेखा है मनुष्यत्व और देवत्व के बीच I

इस चक्र के जाग्रत होने के बाद जब कुंडलिनी शक्ति आगे बढ़ती है ,तब मनुष्य तो मनुष्य का प्रत्येक कदम देवत्व की ओर अग्रसर हो जाता है ,
वह पूर्ण भौतिकता का उपयोग दैवीय गुणों के आधार पर करता है ,तब मानव का चिंतन ,और विचार ,आध्यात्मिकता से स्वतः ही प्रेरित होने लगता है I
इस चक्र के जागरण से व्यक्ति सभी पापो से मुक्त हो जाता है और उसके ह्रदय में दया ,ममता ,करुणा ,सौहार्द का उदय होने लगता है ,फिर उस पर सांसारिक दोष- क्रोध,ईर्ष्या ,झूठ, कपट ,मिथ्याचार आदि का कोई प्रभाव व्याप्त नहीं होता I

समस्त दोषो से मुक्त होने के कारण उसकी वाणी ओजस्वी हो जाती है I चेहरे और पूरे शरीर के चारो तरफ ,व्याप्त चुंबकीय शक्ति दैवीय गुणित हो जाती है तथा उसके मुख से उच्चारित प्रत्येक शब्द सत्य होता है ! विचारो में परिवर्तन होने के कारण उसके ह्रदय में शांति व्याप्त हो जाती है I
उसे ध्यान की प्रथम अवस्था प्राप्त होती है I

मणिपुर चक्र शरीर का केंद्र बिंदु है ,यहाँ पर कई नाडिया आ कर मिलती है इस चक्र के जागरण पर दस उपलब्धिया प्राप्त होती है ,क्योकि इस दल में दस नीले रंग के कमल सदृश होते है I

इस चक्र का मूल बीज मंत्र है -“रं”

इससे प्राप्त उपलब्धिया निम्नवत है –

डं – इस दल के जागरण पर पाचक क्रिया से सम्बंधित नाड़ियों को पूर्ण चैतन्यता प्राप्त होती है ,इससे पेट से सम्बंधित व्याधियों का शमन हो जाता है ,और व्यक्ति को पूर्ण शारीरिक स्वस्थ प्राप्त होता है I

ढं – इस दल के जाग्रत होने पर ,व्यक्ति को योग बल का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता प्राप्त होता है ,और वह अपने शरीर को शरीस्थ समस्त नाड़ियों को नियंत्रित करने की क्षमता प्राप्त कर आध्यात्म के पथ पर अग्रसर होता है जिसके कारन वह एक ही आसन पर बैठ घंटो बैठ सकता है ,श्वास को पूर्ण नियंत्रित कर सकता है ,कई दिनों तक बिना भोजन के रह सकता है I
एक प्रकार से उसे अपनी शारीरिक शक्तियों पर नियंत्रण प्राप्त हो जाता है I

णं -आकाश मार्गद्वारा कही भी आने जाने की क्षमता इस दल के जागरण द्वारा ही प्राप्त होती है I

तं – इस चतुर्थ दल के जाग्रत होने पर वह जल पर उसी प्रकार चलने की क्षमता प्राप्त ,जैसी भूमि की क्षमता होती है I

थं -इस दल के द्वारा प्राप्ति है स्वयं को अदृश्य बनाने की क्रिया I

दं – पृथ्वी की सतह पर अत्यंत तीव्रगति अर्थात वायु वेग चलने की क्षमता इस दल के जाग्रत होने पर होती है I

धं – इस दाल के जाग्रत होने पर व्यक्ति को पशु-पक्षियों से वार्तालाप अर्थात उनकी भाषा समझने का ज्ञान प्राप्त होता है I

नं – इस दल के जागरण द्वारा व्यक्ति को प्रकृति पर नियंत्रण की क्षमता प्राप्त होती है ,वह ऋतुओ के प्रभाव से रहित होता है ,और किसी भी प्राकृतिक विपदा को नियंत्रित करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है वह अपनी सुविधा अनुसार प्रकृति को अपनी इच्छा के अनुरूप ढाल सकता है I

पं – इस दल के जागरण पर नेतृत्व की क्षमता प्राप्त होती है और गुणों की उपलब्धियों के कारण उसके विचार मानव कल्याण के लिए ही होते है तथा वह एक सछम मार्ग दर्शक सिद्ध होता है ! इस दल के जाग्रत होने होने के कारन ही “विवेकानंद” विश्वविख्यात हुए I

फं – इस दल के जाग्रत होने पर सर्वोच्च उपलब्धि “ध्यान ” की होती है ! इसके कारण ही ध्यान की क्रिया द्वारा दिव्य आनंद की अनुभूति होती है और वह प्रत्येक प्रकार की आध्यात्मिक उन्नति के लिए तैयार हो जाता है I

मणिपुर चक्र के जागरण के द्वारा ,ध्यान के साथ ही प्रकति प्रदत्त समस्त उपहारों का समुचित लाभ उठाने में वह समछ हो जाता है I

४.अनाहत चक्र:

मणिपुर चक्र के आगे यात्रा करते हुए कुंडलिनी शक्ति ह्रदय में स्थित “वायु तत्व” प्रधान अनाहत चक्र में सुप्त शक्तियों पर प्रहार कर उसे जाग्रत करती है ! इस शक्ति के जाग्रत हो कर ,पूर्ण स्पंदन प्राप्त करने पर आत्मा का ब्रम्हांड में सर्वत्र व्याप्त ब्रम्ह की वह शक्ति से सम्बन्ध जुड़ जाता है ,और व्यक्ति को भूत-भविष्य-और वर्तमान का ज्ञान प्राप्त हो जाता है ,! उसे यह क्षमता प्राप्त हो जाती है कि पूर्वकाल में घटित प्रत्येक घटना -चाहे महाभारत का युद्ध हो,या शकुंतला-दुष्यंत का प्रेम विवाह -इन सभी क्रियाओं को देख सकता है I

इसी प्रकार भविष्य काल की घटनाओ के बारे में भी जानकारी प्राप्त कर सकता है I यह बात सत्य है , कि वे घटनाये अभी घटित नहीं हुयी है ,किन्तु उनका अंकन तो काल के गर्भ में होता ही है ! इस प्रकार स्पष्ट है ,कि इस चक्र के जागरण द्वारा व्यक्ति की आत्मा का परब्रम्ह से प्रथम परिचय ,प्रथम मिलन होता है ,जिसके फल स्वरुप व्यक्ति त्रिकालदर्शी अर्थात भूत,भविष्य और वर्तमान ,तीनो कालों का ज्ञाता हो जाता है I

अनाहत चक्र लाल रंग के कमल की बारह पंखुड़ियों से निर्मित होता है
इस चक्र का मूल बीज मंत्र है “यं”

अनाहत चक्र द्वारा निम्न उपलब्धिया प्राप्त होती है –

कं -ध्यान के आगे की स्थिति होती है -समाधि ,इस दल के द्वारा के द्वारा उपलब्ध होती है निविर्कल्प समाधि I

खं -मानव की आत्मा अत्यंत शक्ति संपन्न है ,रथा सभी ब्रम्हरूपी शक्तियों का केंद्र है ,इसके माध्यम से ही ,सम्पूर्ण ब्रम्हांड पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है इस दल के जागरण से आत्मा “स्वः” की अवस्था से निकल कर “मह” में पहुंच जाती है ,और व्यक्ति को ब्रम्ह से निकटता प्राप्त होने का आभास होने लगता है I

गं -इस दल की शक्ति जाग्रत होने पर व्यक्ति को भूत काल का ज्ञान हो जाता है ,और वह किसी भी व्यक्ति के जीवन काल में घटित घटनाओ को सहजता से जान लेता है I

घं -इस दल की उपलब्धि -वर्तमान समय में घटित हो रही घटनाओ को क्षुमता से देखना, हजारो मिल दूर रह कर भी I

ङं – इस दल की शक्ति के जाग्रत होने से पर व्यक्ति को भविष्य का ज्ञान प्राप्त होता है I

चं – जीवन के प्रत्येक क्षण का अपना एक अलग अस्तित्व और महत्त्व होता है ,यदि जीवन में कोई सुनहरा अवसर निकल जाये ,तो वह वापस नहीं मिलता ! इस तरह की चूक न हो इसके लिए “काल-ज्ञान” होना आवश्यक है और इस षस्टम दल की शक्ति के जाग्रत होने पर यही क्षमता प्राप्त होती है

छं – इस दाल में निहित है “विचार संक्रमण की क्षमता ” जिसके कारन किसी भी व्यक्ति के मस्तिष्क में व्याप्त विचारो को जाना जा सकता है और अपने अनुसार परिवर्तन किया जा सकता है ! इस क्षमता को टैलीपैथी के नाम से जाना जाता है I

जं – परकाया प्रवेश के अनेक दृष्टान्त पढ़ने और सुनने में आते है ,इस दल में निहित शक्ति के द्वारा ही यह क्रिया संपन्न होती है I

झं – इस दल की उपलब्धि है ,ब्रम्हांड भेदन की क्रिया का ज्ञान होना ,जिसके द्वारा व्यक्ति किसी भी ग्रह ,किसी भी लोक में आने जाने में सछम होता है I

ञं – अनाहत चक्र के दसवे दल के द्वारा ब्रम्हांड के किसी भी भाग को ,वह वहां पर हो रही क्रियाओं को घर बैठे देखना संभव होता है ,इस शक्ति से संपन्न व्यक्ति के सामने देवी -देवता सदेह उपस्थित हो अपना सानिध्य प्रदान करते है I

टं – इस दल में निहित शक्ति की उपलब्धि है ,”कायाकल्प” अथवा देह परिवर्तन की क्रिया ,जिसके द्वारा व्यक्ति चिर यौवनवान बना रह सकता है I

ठं- इस दल की उपलब्धि है “अष्टगंध”I श्री कृष्ण की तरह व्यक्ति की देह में दिव्य गंध प्रवाहित होने लगती है ,जिसके कारण कोई भी मनुष्य ,जीव-जंतु यहाँ तक कि पेड़-पौधे भी आकर्षित व उल्लसित हो उठते है I

५.विशुद्ध चक्र:

अनाहत चक्र पर सुप्त शक्तियों के जागरण फलस्वरूप व्यक्ति की आत्मा का ब्रम्हांड से संयोग स्थापित होता है किन्तु घनिष्ठता का क्रम इस चक्र के आगे ,जब कुण्डिलिनी शक्ति धीरे-धीरे अग्रसर होती हुई विशुद्ध चक्र पर पहुँचती है ,तब प्रारम्भ होता है I

विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने पर दैवीय शक्तियों का प्रभाव त्वरित वेग से व्याप्त होता है ,किन्तु स्थायित्व प्राप्त होने के लिए यहाँ आवश्यकता पड़ती है ” सदगुरु”द्वारा प्रदत्त “शक्तिपात ” क्रिया की , जिसके कारण विशुद्ध चक्र का स्पंदन अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर लेता है ,विशुद्ध चक्र कंठ प्रदेश में स्थित होता है ,और यह चक्र आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व प्राप्त है I

इस चक्र के जागरण के फलस्वरूप व्यक्ति के कंठ में वाक् देवी -सरस्वती की स्थापना हो जाती है ,और उसके जैसा विद्वान दूसरा नहीं होता है ! एक साधारण से गड़रिये के शरीर में इस विशुद्ध चक्र के जागरण के फलस्वरूप ही हमें कालिदास के रूप में एक अन्यतम विद्वान प्राप्त हुआ जिसकी बराबरी का विद्वान अभी तक प्राप्त नहीं हो सका !
ऐसा नहीं है कि ऐसा अब संभव नहीं हो सकता ,ऐसी क्रिया अभी भी संभव है ,आवश्यकता तो मात्र इतनी ,की व्यक्ति पूर्ण निष्ठा और लगन से विशुद्ध चक्र को जाग्रत करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हो I

विशुद्ध चक्र के सोलह दलों वाला पीले रंग का कमल है I

इसका मूल बीज मंत्र है “हं “I

इस दल द्वारा निम्न उपलब्धिया प्राप्त होती है –
अं – इस दाल के जाग्रत होने पर सरस्वती की स्थापना होती है ,और व्यक्ति को प्राचीन व आधुनिक विद्याओ का ज्ञान प्राप्त होता है I

आं – इस दल की उपलब्धि है -“वाक् सिद्धि ” अर्थात व्यक्ति के मुँह से जाने अनजाने में निकले वाला शब्द भी सत्यापित होता ही है I

इं – इस तृतीय दाल की उपलब्धि है -श्राप तथा वरदान देने की क्षमता प्राप्त होना ! मानव शरीर में ३६० दैवीय शक्तियों का वास होता है I,जिसमे से अद्धे वाम भाग में और आधे दक्षिण भाग में स्थित होते है ! इस चक्र के जागरण के फलस्वरूप व्यक्ति का इन पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है ! श्राप देने पर वाम के देवी देवता और वरदान देने पर दक्षिण भाग के देवी देवता उसे फली भूत कर देते है I

ईं – विशुद्ध चक्र के चतुर्थ दल के फलवरूप मुर्ख व अनपढ़ व्यक्ति भी सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता हो जाता है और उसे शुद्ध और सात्विक जीवन का महत्त्व ज्ञात हो जाता है I

उं – धरम प्रवाह बोलने की क्षमता इस दल की उपलब्धि है ,व्यक्ति किसी भी विषय पर पूर्ण प्रमाणिकता के साथ प्रवचन कर सकता है I

ऊं -कभी कभी व्यक्ति के बारे में यह कहते सुना जाता है ,कि वह जन्मजात लेखक है ,इसका तात्पर्य यह है कि उस व्यक्ति में विशुद्ध चक्र का षष्ठम दल चैतन्य है ! यह चैतन्यता प्रकृति प्रदत्त भी होती है ,और गुरु प्रदत्त भी !
यदि कोई व्यक्ति गद्य ,पद्य ,दर्शन या किसी भी विषय में श्रेष्ठ लेखक बनना चाहे ,तो इस दल की चैतन्यता प्राप्त कर अपनी इच्छा पूरी कर सकता है यदि कोई लेखक है तब भी वह इस दल को पुनः स्पंदन प्रदान कर अपनी लेखन प्रतिभा में और अधिक निखार ला कर श्रेष्ठ एवं अद्वितीय साहित्य की रचना कर सकता है I

ऋ- विशुद्ध चक्र की उपलब्धि है-संगीत और गायन के क्षेत्र में पूर्ण अधिपत्य संगीत की शक्ति से प्राचीन काल से हो लोग परिचित है Iसंगीत के द्वारा,मानव ,देव,पशु -पक्षी को भी वशवर्ती बनाया जा सकता है I इस दल के जाग्रत होने पर व्यक्ति को स्वतः रागो का सही ज्ञान प्राप्त हो जाता है और उसके कंठ में आकर्षण और सुरीलापन आ जाता जाता है ! इस चक्र के जागरण का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है तानसेन ,जिन्होंने संगीत के माध्यम से प्रकृति को भी अपने नियंत्रण में कर रखा था
इस चक्र की एक और उपलब्धि है -गायन क्षेत्र में प्रवीण गन्धर्वो को बुला कर उनके गायन का श्रवण किया जा सकता हैI

ऋं -इस अष्टम दल की उपलब्धि है -नृत्य प्रवीणता ,
नृत्य की उत्पत्ति भगवन शिव के तांडव नृत्य से हुई है और तांडव नृत्य से ही विभिन्न भाव-भंगिमाओं की उत्पत्ति हुई है ,इस दल की सुप्त शक्ति जाग्रत होने से प्रत्येक नृत्य की विद्या स्वतः व्यक्ति को ज्ञात हो जाती है! नृत्य में सभी को मुग्ध करने ओर एवं प्रकति को नियंत्रित कर आनंदायक वातावरण निर्माण करने की क्षमता होती है I

लृ -विशुद्ध के इस दल की उपलब्धि है “अनेक शरीर धारण करने की क्षमता “जिसमे प्रत्येक शरीर मूल शरीर की तरह ही समस्त गुणों से युक्त होता है ,इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति एक ही समय में अनेक स्थानों पर विभिन्न कार्यो को संपन्न कर सकता है I भगवान कृष्ण द्वारा रासलीला के समय प्रत्येक गोपी के साथ नृत्य करना ,इस चक्र की उपलब्धि का अन्यतम उदहारण है ,ऐसा उन्होंने अपने मूल शरीर के ही विब्भिन्न रूप धारण कर किया था I

लृं – इस दल की उपलब्धि है -इच्छानुसार अपने शरीर को छोटा-बड़ा ,छोटा एक चींटी की तरह बड़ा एक पर्वत की तरह I लंका जाते समय हनुमान ने इसी चक्र के माध्यम से सुरसा के मुख के अनुसार विशाल रूप धारण किया और तुरंत ही चींटी की तरह लघु रूप धारण कर उसके मुँह से निकल कर अपने लक्ष्य कि ओर बढ़ गए , I रामायण में वर्णित यह कथा कपोल-काल्पनिक नहीं है ,अपितु इससे सिद्ध होता है ,कि हनुमान एक सिद्द योगी व श्रेष्ठ तांत्रिक थे I

ऎं -विशुद्ध चक्र के ग्यारहवे दल में सुप्त होती है वह शक्ति ,जिसके जाग्रत होने पर व्यक्ति ब्रम्हांड की सूछ्म रहस्यों को जान लेता है ,उसे पदार्थ का ज्ञान होता है ,और उसे वह क्षमता मिल जाती है ,कि शून्य से कोई भी पदार्थ प्राप्त कर ले ,किसी भी एक पदार्थ को दुसरे पदार्थ में परिवर्तित कर दे,और इसके साथ ही किसी भी पदार्थ का निर्माण क्यों और कैसे हुआ है ,इस तथ्य को भी जान लेता है I

ऐं – मनचाहे रूप परिवर्तन की क्षमता ,विशुद्ध चक्र के बारहवे दल की उपलब्धि है ! इस क्षमता के कारन ,किसी भी अन्य नर-नारी ,पशु -पक्षी का रूप धारण कर सकता है ! इसी क्षमता का उपयोग कर योगी एक ग्रह से दुसरे ग्रह पर जाते समय अपने स्वरूप में परिवर्तन कर लेते है I
ओ – आस पास के वातावरण से प्रभावित हुए बिना व्यक्ति पूर्ण ध्यान की अवस्था प्राप्त कर ब्रम्ह के दर्शन कर लेता है ,तथा ,भोजन,जल के बिना भी वर्षो ध्यानस्थ रह सकता है I
औं -इस दल की शक्ति जब पूर्ण स्पंदन प्राप्त कर लेती है ,तो व्यक्ति को इच्छा मृत्यु की उपलब्धि प्राप्त होती है ,व्यक्ति का अपने शरीर के प्रत्येक अंग – नाड़ियो पर पूर्ण नियंत्रण होता है ,वह चाहे तो अपने ह्रदय की धड़कन को भी रोक सकता है I

अं – विशुद्ध चक्र की पंद्रहवी उपलब्धि है -पूर्ण सांसारिक सफलता ,व्यक्ति को समस्त भौतिक सुख,धन.दौलत ,यश,मान,पतिस्ठा सभी कुछ प्राप्त हो जाता है ! जिस क्षेत्र में भी वह सर्वश्रेष्ठ बन सकता है I

अ:- “सम्मोहन ,विशुद्ध चक्र के जागरण की एक अद्वितीय उपलब्धि है ,इस दल के जाग्रत होते ही व्यक्ति का सम्पूर्ण शरीर आकषण युक्त हो जाता है लोग स्वतः ही उसकी ओर आकर्षित होते है ,और उसकी आज्ञा पालन का प्रयास करते ही है I

सम्मोहन शक्ति प्राप्त व्यक्ति अपराधियों के विचारो को परिवर्तित कर सृजन युक्त विचार दे सकते है ,मानसिक व्याधियों को समाप्त कर सकता है ,और जो व्यक्ति जीवन से हताश हो चुके है ,उनमे नव जीवन का संचार कर उनकी आत्म शक्ति जाग्रत कर सकता हैI

६.आज्ञा चक्र:

पांच तत्व में सबसे अधिक स्पंदन होता है ,”आकाश”तत्व का।
जो की विशुद्ध चक्र का प्रतिनिथित्व करना है ! विशुद्ध चक्र में निहित शक्ति अपने मूल स्पंदन से अधिक स्पंदन में प्राप्त करती हुई आगे की ओर अग्रसर होती है ,आकाश तत्व से अधिक या उच्च स्पंदन दिव्य शक्तियों का होता है ,ये दिव्या शक्तियों आज्ञा चक्र पर स्थित होती है ,जब कुंडलिनी शक्ति विशुद्ध चक्र से आगे बढ़ती हुई आज्ञा चक्र पर पहुँचती है ,तब वह की सुप्त सक्तियो का जागरण होता है और आत्म शक्तियों का दिव्य शक्तियों से तादात्म्य स्थापित होता है I

आज्ञा चक को ही “थर्ड आई ” या दिव्य नेत्र की संज्ञा दी गयी है साधारणतः लोग आज्ञा चक्र को ही छठी इन्द्रिय कहते है ,जबकि सहस्त्रार के चैतन्य होने पर ही छठी इन्द्रिय का जागरण होता है I
इस चक्र के जागरण होने पर किसी के भी भाग्य चक्र को ,कई जन्म को,कई जन्मो के उसके कर्म विशेष को फिल्म स्क्रीन पर आये दृश्य के समान देखा जा सकता है I
आज्ञा चक्र श्वेत कमल के समान होता है I इसमें दो दल होते है ,इन दोनों दलों का तात्पर्य सिर्फ दो उपलब्धिया नहीं है ,अपितु समस्त सिद्धियों में पूर्णता अर्थात ऋणात्मक और धनात्मक सभी शक्तिया प्राप्त होती है I
इस चक्र ,का मूल बीज मंत्र है “नं” I
इसके दोनों दलों क्रमश : “सूर्य” अर्थात अत्यंत दाहकता युक्त और “चंद्र ” अत्यंत शीतलता युक्त गुणों से संपन्न होते है I

इनकी उपलब्धिया निम्न है –

हं – इस दल की शक्ति के जागरण के कारण व्यक्ति के नेत्रों में अत्यंत तीक्ष्ण ऊष्मा शक्ति आ जाती है ,जिसके कारण व्यक्ति किसी भी वस्तु को क्षण में भस्म कर सकता है ,इतनी अधिक तेजस्विता आ जाती है कि वह चाहे तो ऊँचे ऊँचे पर्वत को तथा गहरे समुद्र का अस्तित्व पल भर में समाप्त कर दे I इसी शक्ति के कारण राम ने क्रोध युक्त होकर लंका जाते समय समुद्र को देखा ,तो समुद्र घबराकर प्रकट हुआ और क्षमा याचना की I इस तृतीय नेत्र की ज्वाला से भगवान् शंकर ने दक्ष का यज्ञ विध्वंस किया और कामदेव को भस्म किया I

क्षं – आज्ञा चक्र के द्वितीय दल के जागरण के कारण सृजनात्मक क्षमता प्राप्त होती है ,व्यक्ति के अंदर ,करुणा,प्रेम और ममत्व का अभुदय होता है जिसके कारण वह दुखी जीवो को सुख और शांति प्रदान करता है ,!मात्र दृष्टिपात के द्वारा ही वह निर्धन को संपन्न ,असफल को सफल बना सकता है

इसी शक्ति के कारण व्यक्ति में “गुरुत्व “की गरिमा आ जाती है I वह स्वयं को पूर्ण बनता ही है ,दूसरो को भी पूर्ण बना सकता है ,किसी भी सिद्धि और साधना को वह दूसरो को देने में समर्थ बन जाता है I

७.सहस्त्रार चक्र:

आज्ञा चक्र के जाग्रत होने के बाद कुंडलिनी शक्ति ऊपर की ओर उठती हुई मस्तिष्क भाग में पहुँचती I सिर के अंदर सहस्त्र नाडिंया का सगुम्फित स्वरूप होता है ,जिसे सिक्स सेंथ या छठी इन्द्रिय कहा जाता है I

जब कुंडलिनी शक्ति इस प्रदेश में पहुँचती है ,तो सहस्त्रार में सुप्त शक्तियों के स्पंदन युक्त होने से अमृत झरने लगता है ,जिसके कारण मानव का सम्पूर्ण शरीर दैदिप्तमान हो उठता है Iऔर उसके सिर के चारो तरफ एक आभा मंडल का निर्माण हो जाता है ,ठीक वैसा ही ,जैसा राम,कृष्ण,ईसा मसीह ,आदि के चित्र में दिखाया जाता है I

सहस्त्रार चक्र “गुरु तत्व” प्रधान होता है ,इस चक्र का मूल बीज मंत्र है ॐ I

इसमें निहित शक्ति की अनगिनत उपलब्धिया है ,अर्थात व्यक्ति के लिए कुछ भी असंभव नहीं रहता ,वह स्वयं अपने विचार ,मन,वाणी ,और कर्मो के द्वारा देव तुल्य बन जाता है ,प्रकति उसके द्वारा दी गयी आज्ञा के पालन के लिए ललायित रहती है I

समाधि की जो प्रक्रिया मूलाधार चक्र से प्रारम्भ होती है ,वह यहाँ आ कर पूर्णता प्राप्त करती है ,आज्ञा चक्र जागरण तक वह केवल “गुरु” रहता है, किन्तु सहस्त्रार जाग्रत होने पर वह “सदगुरु ” और “जगतगुरु ” हो जाता है ,फिर उसका चिंतन विश्व के प्रत्येक प्राणी ,की शुभकामनाये के लिए और उनकी उन्नति के लिए होता है ,सम्पूर्ण ब्रम्हांड उस व्यक्ति के अंदर पूर्णता के साथ स्थापित हो जाता है I

सहस्त्रार जाग्रत व्यक्ति किसी भी व्यक्ति की कुंडलिनी को जाग्रत कर सकता है ,अपने समकछ बना सकता है I

इस च्रक्र के जागरण के बाद व्यक्ति,निरंतर ब्रम्हांड के रहस्यों में निमग्न प्रकृति के बंधन से परे ,कर्म बंधन से विमुख हो ,जीवन युक्त अवस्था प्राप्त कर लेता है I

  1. मूलाधार चक्र :

यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह “आधार चक्र” है। 99.9% लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है, उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।

कैसे जाग्रत करें : मनुष्य तब तक पशुवत है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है.! इसीलिए भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस चक्र पर लगातार ध्यािन लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।

प्रभाव : इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतरवीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है।

  1. स्वाधिष्ठान चक्र –

यह वह चक्र लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है, जिसकी छ: पंखुरियां हैं। अगर आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है, वह आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करने की प्रधानता रहेगी। यह सब करते हुए ही आपका जीवन कब व्यतीत हो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा और हाथ फिर भी खाली रह जाएंगे।

कैसे जाग्रत करें : जीवन में मनोरंजन जरूरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है। फिल्म सच्ची नहीं होती. लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं वह आपके बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते।

प्रभाव : इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हो, तभी सिद्धियां आपका द्वार खटखटाएंगी।

  1. मणिपुर चक्र :

नाभि के मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत “मणिपुर” नामक तीसरा चक्र है, जो दस कमल पंखुरियों से युक्त है। जिस व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित है उसे काम करने की धुन-सी रहती है। ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं। ये लोग दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।

कैसे जाग्रत करें: आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे। पेट से श्वास लें।

प्रभाव : इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष दूर हो जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए आत्मवान होना जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं। आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।

  1. अनाहत चक्र

हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही “अनाहत चक्र” है। अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील व्यक्ति होंगे। हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने की सोचते हैं.

कैसे जाग्रत करें : हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और “सुषुम्ना” इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है।

प्रभाव : इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण होता है। इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय ज्ञान स्वत: ही प्रकट होने लगता है। व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता हैं। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी एवं सर्वप्रिय बन जाता है।

  1. विशुद्ध चक्र

कंठ में सरस्वती का स्थान है, जहां “विशुद्ध चक्र” है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। सामान्यतौर पर यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र के आसपास एकत्रित है, तो आप अति शक्तिशाली होंगे।

कैसे जाग्रत करें : कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र Iजाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : इसके जाग्रत होने कर सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जाग्रत होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता है वहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।

  1. आज्ञाचक्र :

भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटी में) में “आज्ञा-चक्र” है। सामान्यतौर पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां ज्यादा सक्रिय है, तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमाग का बन जाता है लेकिन वह सब कुछ जानने के बावजूद मौन रहता है। “बौद्धिक सिद्धि” कहते हैं।

कैसे जाग्रत करें : भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : यहां अपार शक्तियां और सिद्धियां निवास करती हैं। इस “आज्ञा चक्र” का जागरण होने से ये सभी शक्तियां जाग पड़ती हैं, व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।

  1. सहस्रार चक्र :

“सहस्रार” की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है अर्थात जहां चोटी रखते हैं। यदि व्यक्ति यम, नियम का पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वह आनंदमय शरीर में स्थित हो गया है। ऐसे व्यक्ति को संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोई मतलब नहीं रहता है।

कैसे जाग्रत करें : “मूलाधार” से होते हुए ही “सहस्रार” तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह “चक्र” जाग्रत हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।

प्रभाव : शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है।

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