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यह संसार जड़ और चेतन दो भागों में विभक्त है, दोनों परस्पर मिल-जुलकर रहते हैं, एक दूसरे के पूरक भी है, यदि ऐसा न होता तो धरती का यह सुरम्य रूप जो आज हमें जो दिख रहा है, वह नहीं दिखता, फिर भी दोनों की अपनी-अपनी क्षमता और अपनी−अपनी मर्यादा है, पदार्थ में गति है, जबकि चेतन में मति।

गति के पीछे का उद्देश्य चाहे जैसा भी हो, लेकिन मति का समन्वय अगर न हो तो वह ऐसे ही निरर्थक परिश्रम की खिलवाड़ भर करना रह जाता हैं, अन्यान्य ग्रह पिण्ड न जाने कब से, और न जाने क्यों? ऐसे ही अपनी धुरी और कक्षा पर चक्कर काटने में निरत है, उनके भीतर का पदार्थ भी ऐसी स्थिति में ऐसे ही निरर्थक अपना समय गुजारना होगा, पर जब गति को मति का दिशा निर्देशन मिलता है तो उसका चमत्कार देखते ही बनता है।

जलयान, थलयान, वायुयान इसके साक्षी है, प्रक्षेपणास्त्रों से लेकर अन्तरिक्ष यानों तक की गतिविधियाँ यह बताती हैं कि शक्ति के पीछे बुद्धि का सहयोग बडा है, और यही बात मति के बारे में भी है, आकाँक्षा, कल्पना, उत्कंठा कुछ भी क्यों न हो, पर उसके लिये यदि साधन न मिले तो फिर रंगीली उड़ाने मस्तिष्क की तलैया में ही शेखचिल्ली की तरह लहरों की तरह उठती और विलीन होती रहेंगी, वैसा कुछ बन ही नहीं सकता, जैसा कि आपने चाहा है।

चेतना की निजी परिधि तो भावना विचारणा तक ही सीमित है, उसे बुद्धि कल्पना का रूप देने में अनुभवों की पृष्ठभूमि रहती है और, यही अनुभव परिस्थितिजन्य होते हैं, परिस्थितियाँ हलचलों पर निर्भर हैं, हलचल पदार्थ करता है, इस प्रकार प्रकारान्तर से मन, बुद्धि, चित्त का विकसित एवं व्यवस्थित स्वरूप भी पदार्थ जगत के सहारे ही बन पड़ता है, फिर शरीर तो प्रत्यक्ष पदार्थ ही है।

चेतना का मूल स्वरूप जो भी हो उसे प्राणी के रूप में विकसित होने लिए काया की नितान्त आवश्यकता रहती है, सभी जानते हैं कि स्थूल, सूक्ष्म और किसी कारण शरीर से छुटकारा मिल जाय तो फिर चेतना का स्वरूप उपनिषद्कार के अनुसार अचिन्त्य, अनिवर्चनीय परब्रह्म जैसा बन जाता है, उसकी सत्चित् आनन्द जैसी दिव्यानुभूतियों और देव मानवो जैसी विभूतियाँ शरीर के सहयोग से ही उपलब्ध होती है।

चेतन का सुखद सहयोग जिसने अपनी धरती का उस पर निर्वाह करने वाले वनस्पति समुच्चय से लेकर मानव समुदाय तक का अत्यन्त मनोरम कलात्मक स्वरूप विनिर्मित कर दिया है, यदि होना पृथक्−पृथक् रहते तो अपना यह भूलोक भी अन्यान्य ग्रह पिण्डों की तरह निस्तब्ध स्थिति में ही निर्वाह कर रहा होता, जड़ का स्वरूप और उपयोग समझने के कौशल को पदार्थ विज्ञान कहते हैं।

उसी की उपलब्धियों को वैज्ञानिकों ने खोजा, पकड़ा और घसीट कर मानवी सुविधा के लिए प्रस्तुत किया है, इस दृष्टि से विज्ञान प्रत्यक्ष मानवी सुविधा के लिए किसी अदृश्य क्षेत्र में किसी वरदान से कम नहीं, उसी के वरदानों ने मनुष्य को इतने सुख-साधनों से सुसम्पन्न किया है, जिनके आधार पर वह प्राणि जगत का मुकुट मणि होने जैसा दावा करता है, विज्ञान पर उसे गर्व है, और विश्वास भी।

इसीलिए भविष्य में स्वर्गोपम सुविधाओं की कल्पना करते हुयें वह विज्ञान की ओर ही आशा भरी दृष्टि से देखता है, जिसने इतना दिया वह आगे भी देता रह सकता है, बच्चा विश्वास कर सकता है कि पात्रता बढ़ने पर बिना उसके लिए वे सभी साधन जुटा देगा जो आवश्यक एवं सामर्थ्य के अंतर्गत हैं, मनुष्य बच्चा है तो विज्ञान उसका अभिभावक।

प्रकृति माता के अमृतोपम दूध को दुहने में थन निचोड़ने वाले विज्ञान की भी भूमिका रही है, यदि वैसा सुयोग न बना होता तो प्रकृति ने मनुष्य को भी मनुष्य प्राणियों की तरह पेट प्रजनन की सुविधा वाले खिलौने देकर बहका और भगा दिया होता, जो विशिष्ट उपलब्ध है, उसके लिए विज्ञान अभिभावक के अनुग्रह को ही कृतज्ञतापूर्वक सराहा जायगा।

यह उस क्षेत्र की चर्चा हुई जिसे गति, शक्ति और सुविधा साधनों वाला पदार्थ सोपान कहना चाहियें, एक शब्द में इसे उपलब्ध सुविधाओं का आधारभूत कारण कह सकते हैं, जड़ कहलाते हुयें भी वह इतना समर्थ है कि मनुष्य की वासना, तृष्णा, ममता को उद्दीप्त करने वाले साधन समुचित मात्रा में जुटाता रहे।

भाई-बहनों, यहाँ तक ही है विज्ञान की मर्यादा, न वह उससे आगे बढ़ता है, न पीछे हटता है, अब दूसरे पक्ष चेतना के बारे में समझा जाना चाहियें, उसकी विशेषता है “मति” आकाँक्षाएयें, कल्पनायें, विचारणायें, आदतें उसी के साथ लिपटी रहती हैं, काय-कलेवर के अंग अवयव तो इन भीतरी ललक लिप्साओं के साधन जुटाने भर में लगे रहते हैं, इन्द्रियाँ उस स्तर का रसास्वादन कराने की भूमिका निभाती हैं।

चेतना का गुण धर्म चिन्तन है, तृप्ति, तुष्टि और शान्ति के तथाकथित साधन जुटाने वाला चिन्तन, यहाँ तथाकथित शब्द का उपयोग इसलिये किया गया है कि जिन साधनों को तृप्ति का कारण समझा जाता है, वे वस्तुतः वैसे होते नहीं, यहाँ मृगतृष्णा और कस्तूरी भ्रान्ति वाला भटकाव ही आड़े आ जाता है, जो हो चेतना की प्रक्रिया यानी चिन्तन और उसके द्वारा अन्तराल की उमंगों को परितृप्त करने वाली दिशाधारा अपनाते रहने की बात माननी पड़ेगी।

इस संदर्भ में सही निर्णय तक पहुँचाने में मात्र विवेक ही कारण होता है और उसे भी चेतना की उच्चस्तरीय क्षमता में सम्मिलित रखा गया है, प्रज्ञा की सराहना इसी संदर्भ में होती है, विज्ञान का अनुदान है सुविधा, और यह अध्यात्म का वरदान है, प्रतिभा दोनों को अपनी-अपनी उपयोगिता और आवश्यकता है, इसलिए इनमें से जिसे जिस मात्रा में उपलब्ध करना अभीष्ट हों।

उसी क्षेत्र का प्रधान रूप से यहाँ दोनों का वर्गीकरण भर किया जा रहा है, किसी की निन्दा या प्रशंसा का प्रश्न ही नहीं है, वरिष्ठता, कनिष्ठता की बात सोचनी हो तो बात दूसरी है, सुविधा साधनों को उपलब्ध करने के लिए विज्ञान का आश्रय लेना होगा, पदार्थ अपनी अनगढ़ स्थिति में अधिक उपयोगी नहीं होते, उन्हें उपयोगी बनाने के लिए विज्ञान की प्रक्रिया में होकर गुजरना पड़ता है।

सज्जनों, न सूखे अन्न से पेट भरता है और न कपास से तन ढकता है, खाने योग्य रसोई बनाने और पहनने योग परिधान विनिर्मित करने में जिस कुशलता की आवश्यकता पड़ती है वह विज्ञान है, शरीर का निर्वाह इसी के सहारे होता है, उदर पोषण से लेकर प्रजनन उमंगों और सुरक्षा सुविधा के अन्य साधन इसी प्रक्रिया को अपनाने से सम्भव होते हैं, इसलिये उसका आश्रय लेना उचित भी है और आवश्यक भी।

शरीर यात्रा ही लक्ष्य हो तो उस क्षेत्र की उपलब्धियों से भी काम चल सकता है, किन्तु सम्मान यश, गौरव, उत्कर्ष जैसा कुछ उच्चस्तरीय प्राप्त करना हो तो उसके लिए उस आन्तरिक वरिष्ठता का उपार्जन करना होगा, जिसे बोलचाल की भाषा में प्रतिभा कहते हैं, आध्यात्मिक की भाषा में इसे गरिमा कहा जाता है।

उसका सीधा सम्बन्ध दृष्टिकोण, विश्वास, संकल्प, रुझान, गुण, कर्म, स्वभाव से है, संक्षेप में इसी समुच्चय को व्यक्तित्व भी कहते हैं, व्यक्तित्व के धनी ही अपने-अपने क्षेत्रों की मूर्धन्य भूमिका निभाते हैं, सुविधा अपनी जगह आवश्यक है और प्रतिभा अपनी जगह, शरीर की आवश्यकतायें अपनी हैं, और आत्मा की अपनी, जब दोनों मिलजुल साथ-साथ रहे हैं और परस्पर मिल कर जीवनचर्या चला रहे हैं।

तो आवश्यक यह भी है कि दोनों को समान रूप से प्रसन्न व सन्तुष्ट रहने का अवसर मिले, पर वैसा होता नहीं, शरीर दीखता है, पर चेतन नहीं, सुविधा आवश्यक लगती है और प्रतिभा के लिये उत्साह नहीं दीखता है, इस भूल के कारण मनुष्य पक्षापात पीड़ित की तरह आधे अंग से ही काम चलाता है, और लंगड़े, लूले, काने, कुबड़े की तरह अपंग स्थिति में निर्वाह करता है।

अच्छा होता समग्रता का स्वरूप, परिणाम और इसे आनन्द समझा गया होता और दोनों ही क्षेत्रों में समान प्रयत्न करते हुयें दोनों ही की ओर से कदम बढ़ाते हुए सुविधापूर्वक प्रगति के परम लक्ष्य तक पहुँचा गया होता, आज लोग एक पहिये की गाड़ी लिये फिरते हैं और जब उस पर लदना सम्भव नहीं होता, तो खीज और निराशा व्यक्त करते हैं।

सुविधा को वीरयता दी जाय और सम्पन्नता को ही सब कुछ माना जाय तो भी एक प्रश्न उठता है कि उसका सदुपयोग कैसे बन पड़े? अपव्यय और अनाचार में वैभव का दुरुपयोग कैसे रुके? सर्वविदित है, कि निरंकुश सम्पन्नता ही नहीं शिक्षा चतुरता का उपभोक्ता के लिए संपर्क में आने वाले समस्त लोगों के लिये भी विषैले परिणाम उत्पन्न करती है, आरम्भ में कुछ चमक दिखाकर परिणाम अँधेरे गर्त में गिरा देने जैसा भयावह उत्पन्न करती है।

चासनी पर टूट पड़ने वाली मक्खी किस प्रकार अपने पंखों को चासनी में चिपकाकर तड़पती है, मछली कैसे आटे की गोली के प्रलोभन में कांटे में फंसती है, चिड़िया दाने के लालच में किस प्रकार जाल में फँसती और जान गँवाती है उसे सभी जानते हैं, दुर्बुद्धि और समति का समन्वय, व्यक्ति विशेष के लिये उसके परिवार के लिए अन्ततः ऐसे ही दुःखद दुष्परिणाम उत्पन्न करता है।

स्पष्ट है कि कौशल, वैभव के साथ वह सुमति भी चाहिए जिसे प्रज्ञा कहते हैं, प्रज्ञा अध्यात्म क्षेत्र की उपलब्धि है, सही, विपुल और चिरस्थायी वैभव उपार्जन का सुयोग तभी बैठता है, जब उसके पीछे गुण, कर्म, स्वभाव की वरिष्ठता, प्रतिभा का सुयोग हो, चोरी, चाण्डाली से कुछ लूट-खसोट लेना एक बात है और पीढ़ियों तक सुखद परिस्थिति परम्परा बनाये रहने वाली उपलब्धियाँ अर्जित करने वाली विशिष्टता दूसरी बात।

किसी को गढ़ा खजाना मिले, लाटरी खुले, आँगन में हुण्डी गढ़ी मिले, बाप दौलत छोड़ मरे तो उस आकाश से कुबेर की अनुकम्पा बरसाने वाले संयोग को कोई क्या कहे? किन्तु जहाँ तक सही, यशस्वी और चिरस्थायी सफलताओं का प्रश्न है, वे प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को संकल्प एवं पराक्रम के बदले ही अर्जित होती है, यह आन्तरिक उत्कृष्टता का, सुसंस्कारों की साधना का परिणाम है।

संसार के इतिहास में ऐसे ही महामानवों की यश गाथा स्वर्णाक्षरों में चमकती है, बड़े काम करने में बड़े लोग ही समर्थ होते हैं, इस कथन में इतना और जोड़ा जाना चाहियें कि बड़े लोग व्यक्तित्व सम्पन्नों को कहते हैं, व्यक्तित्व सम्पन्न अर्थात् सदाशयता से भरी पूरी प्रतिभा होता है, पदार्थ विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान के क्षेत्रों को यथार्थवादी पर्यवेक्षण करने पर प्रतीत होता है, कि सुविधा सम्पादन में भौतिक विज्ञान काम आता है, फिर भी उसके वैभव अस्थिर है।

प्रकृति को उसका एक जगह जगे रहना अस्वीकार है, साथ ही उसे हजम करने वाला समर्थ तन्त्र भी तो चाहिये, उसके अभाव में उसकी बहुलता भी भारभूत होकर रह जाती है, अध्यात्म अपने आप में पूर्ण है, उसके वरदान भी समग्र हैं, आत्मशोधन और आत्म परिष्कार की दुहरी सफलता इसी क्षेत्र की प्रतिभा द्वारा अर्जित की जाती है, यह प्रत्यक्ष जीवन में अनेकानेक क्षेत्रों को उच्चस्तरीय सफलतायें दिलाने में अध्यात्म विज्ञान की उपलब्धियों का विवेचन हुआ है।

भाई-बहनों, रहस्यमयी प्रसुप्त दिव्य क्षमताओं के जागरण और उसके आधार पर चमत्कारी ऋद्धि−सिद्धियों का स्वर्ग मुक्ति का आनन्द लेने की बात इससे आगे की है, अध्यात्म ही है जो पदार्थ और चेतना के साथ जुड़ी हुई अनेकानेक सम्पत्तियों, सफलताओं एवं विभूतियों से व्यक्ति की सुसम्पन्न बनाने में सुनिश्चित रूप से सफल रहता है।

पदार्थ विज्ञान की शारीरिक सुविधा सम्वर्धन के लिये और अध्यात्म विज्ञान की आन्तरिक प्रतिभा विकसित करने, व्यक्तित्व सम्पन्न बनाने तथा देवोपम ऋद्धि−सिद्धियों से परिपूर्ण बनाने के सम्बन्ध में आवश्यकता इस बात की है, कि दोनों का महत्व समझा जायें और उन्हें अपनाने के लिए दूरदर्शितापूर्ण नीति अपनाने की दिशा में प्रयास जरूरी हैं।

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