पर्यावरणकेसंकटसेउभरनेकाराममंत्र
▪️पर्यावरण विनाश आज मनुष्य या कहें कि समस्त जीव जगत् का भीषणतम संकट बन चुका है । पर्यावरण का प्रदुषण तथा आज #कोरोना जैसे संकट मनुष्य के द्वारा प्रकृति के विकृतीकरण का खामियाजा ही है। मट्टी , जल तथा वायु , कुछ भी शुद्ध नहीं रहे । सभी में भाँति – भाँति के रसायन घुलकर उन्हें विषाक्त बना रहे हैं ।
▪️अमृतोपम जल देने वाली नदियाँ मृतप्राय होती जा रही हैं । वायु की प्राणदायिनी शक्ति क्षीण होती जा रही है तथा वसुधा की उर्वरा शक्ति समाप्त होती जा रही है । वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध हैं कि देवभूमि भारत का लगभग एक तिहाई भू – भाग ( 105480 लाख हेक्टेयर ) धीरे – धीरे मरुभूमि बनने की ओर अग्रसर है ।
▪️दक्षिण अमरीका महाद्वीप के एक देश बोलिविया का चालीस प्रतिशत भाग तो पूर्ण रूप से मरु प्रदेश बन भी चुका है । ऐसी भयंकर स्थिति के लिए उत्तरदायी हैं – विश्व के मौसम चक्र में परिवर्तन , प्राकृतिक स्रोतों का अंधाधुंध दोहन और उपभाग की बेलगाम आकांक्षा ।
▪️स्थिति यह है कि धरा के लगभग एक – चौथाई स्तनपायी एवं एक बहुत बड़ी संख्या में अन्य प्रकार के जीव – जन्तुओं के अस्तित्व के समाप्त होने का खतरा ही उत्पन्न हो गया है । हो भी क्यों न एक आकलन के अनुसार प्राकृतिक साधनों का जितना अधिकतम उपभोग मानवता को करना चाहिए । उसका डेढ़ गुना किया जा रहा है ।
▪️यह सब इसलिए क्योंकि हमने विकास का जो मॉडल अपनाया , उसका आधार बाइबिल का यह कथन है कि :-
“परमेश्वर ने मनुष्य को आशीष दी और कहा कि फूलो , फलो , धरती में भर जाओ और उसे अपने वश में कर लो । समुद्र की महिलाओं , आकाश के पक्षियों तथा पृथ्वी पर रेंगने वाले जन्तुओं सभी पर अधिकार स्थापित कर लो । “
▪️निर्विवाद रूप से इस सोच में प्रकृति के लिए किंचित भी आदर भाव न हो कर , उसके निस्सीम दोहन का स्पष्ट संकेत है । प्रकृति की स्थिति मातृवत न होकर एक शत्रु के समान है जिस पर विजय प्राप्त कर उसे पूरी तरह लूटने का सुझाव है । इसी का परिणाम है कि प्रकृति , जिसमें हमें एक स्वस्थ और सुखी जीवन प्रदान करने की पूर्ण क्षमता थी , अब मनुष्य के व्यवहार के कारण प्रत्याक्रमण पर उतर आई है । इसका दुष्परिणाम तो हमें भुगतना ही होगा ।
▪️प्रभु श्री राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम थे । उनका समस्त जीवन और सारे ही कार्यकलाप ऐसे थे , जो मनुष्य मात्र को स्वस्थ जीवन जीने की कला का शिक्षण तथा समस्त ब्रह्मांड के लिए असीम शांति का मंत्र देते हैं । उनके जीवन की विभिन्न बातों से हमें प्रकृति के साथ सहजीवन का संदेश तथा आज के पर्यावरणीय संकट से निपटने के प्रभावी निर्देश प्राप्त होते हैं ।
▪️चक्रवर्ती साम्राज्य के अधिपति श्रीराम को केवल अश्वमेध ही नहीं बल्कि जगहों जगहों पर रामायण में यज्ञ का कर्ता या यजमान बताया हुआ है, जो कि प्रकृति के रक्षा का मूल मंत्र है। समुद्र के तट पर भी श्रीराम जी ने यज्ञ किया था या शिव पुजन किया था। उसकाल में राजयुस जैसे भव्य यज्ञ करने की परंपरा थी। यज्ञ से वर्षा होती है (गीता), वातावरण शुध्द तथा वायु बैक्टीरिया से मुक्त हो जाती है। सुक्ष्म मंत्र वित्ज्ञान और ध्वनि आकाश तत्व से यज्ञ को सुक्ष्म अनुविद तत्वो से अपने अभिष्ट को पुर्ण करने में सहायक होते हैं। उस युग में यज्ञ के प्रख्यात जानकार मनिषी याज्ञवल्क्य हो गये जिन्होंने अपने कयी वैज्ञानिक आध्यात्मिक प्रयोग किए, यज्ञ का अनुसंधान किया । यज्ञ द्वारा रामराज्य में रोग चिकित्सा पद्धति भी विकसित थी। वह युग यज्ञ के लिए प्रसिद्ध था। रामराज्य यज्ञ परंपरा का द्योतक है।
” निश्चित रूप से यह आकस्मिक नहीं था कि अहिल्या प्रकरण में प्रभु के पाद स्पर्श मात्र से प्रकृति जीवंत हो उठी थी ।” फिर मानव उसके साथ कसाई का सा व्यवहार क्यों करे ? यदि हम रामचरित मानस को राम के जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज मानकर चलें तो स्पष्ट हो जायेगा कि उनके मन में प्रकृति के प्रति कितना आदरभाव था । स्थान – स्थान पर उसके प्रति साहचर्य और अपूर्व आत्मीयता का प्रदर्शन है एवं प्रत्येक कोटि के प्राणी के प्रति उनका स्नेहिल व्यवहार ” #वसुधैव_कुटुंबकम ” की भावना का जीवंत उदाहरण है ।
▪️पिता की आज्ञा के अनुसार जब श्रीराम वन गमन करते हैं तो राह में यमुना नदी के पड़ने पर श्रद्धा से उसे प्रणाम करते हैं । शृंगवेरपुर पहुँचने पर गंगा के दर्शन होने पर वे उसकी वंदना करते हैं और सीता के सामने सुरसरि की महिमा का बखान करते हैं । प्रयाग में त्रिवेणी तट पर सीता वनवास की अवधि के पूरा होने पर पुनः अवगाहन का गंगा से आशीर्वाद माँगती हैं ।
▪️अपूर्व आत्मीयता का परिचय हमें तब मिलता है जब रावण द्वारा मां सीता को हर लिये जाने पर वे ( राम ) उन्हें बूढ़ते हुए राह की वनस्पतियों से भी सीता का पता पूछने लगते हैं – (कवि का अलंकारिक वर्णन)
__” पूछत चले लता तरु पाँतो ” और फिर अत्यंत बिरहाकुल हो कर विलाप करते हैं – ” हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी तुम्ह देखी सीता मृगनयनी ।
▪️प्रकृति की मर्यादा के संरक्षण का अप्रतिम उदाहरण तो तब मिलता है जब सागर तट पर पहुँचकर वे उससे लंका तक पहुँचने का मार्ग मानते हैं । प्रभु के बाण अर्थात् प्रक्षेपणास्त्रों में इतनी शक्ति है कि वे केवल एक बार में जलधि को सुखाकर मार्ग बना सकते हैं । लक्ष्मण ऐसा करने को कहते भी हैं । परंतु श्रीराम तीन दिन और तीन रात सागर तट पर बैठकर केवल उसकी अर्चना ही करते हैं । अंतत : जब उनके शस्त्र संधान से घबराकर सागर मनुष्य रूप में प्रकट होता है और उन्हें सेतु बंध का सुझाव देता है तो वे सहर्ष इसे स्वीकार कर लेते हैं । यद्यपि बाण से सागर को सुखाने की अपेक्षा यह कार्य अधिक दुष्कर और अधिक समय में पूरा होने वाला है । इस समस्त प्रकरणों में कहीं भी राम की अपनी शक्ति का दर्द नहीं , केवल प्रकृति के संरक्षण की उदात्त भावना भर है ।
▪️स्वर्ण मृग वध में यही भावना दूसरे रूप में प्रकट होती है । स्वर्ण मृग तो प्रतीक मात्र है – मनुष्य के लालच का , अपनी धन लिप्सा के लिए प्रकृति के अनैतिक दोहन का और प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की आसुरी भावना का । उसका वध कर प्रभु वस्तुत : इन सब ही का दमन करते हैं और प्रकृति के साथ स्वस्थ संबंध बनाने का संदेश देते हैं ।
▪️ गोधराज जैसे आमिष भोजी पाक्षी से भेंट और उसके अंतिम क्षणों में उसके शरीर पर अपने हाथों के कोमल स्पर्श से स्नेह की वर्षा , समस्त जीवों के साथ वसुधैव कुटुंबकम की नीति के पालन का संकेत देती प्रतीत होती है ।
▪️आज के विकास के मॉडल के आधार के सामने राम चरित्र से ये कुछ उदाहरण प्रकृति के प्रति कितनी भिन्न और कितनी उदार नीति प्रस्तुत करते हैं । यह नीति , यह भारतीय मॉडल , आधुनिकता के पश्चिमी आकाओं ने यदि अपना लिया होता तो आज पर्यावरणीय संकट का प्रेत मानवता को चबा जाने के लिए उद्यत न हो जाता ।
▪️ राम को अपनी इस नीति का समुचित प्रतिदान प्रकृति से मिलता भी है । #अयोध्याकांड में वन गमन में उन्हें कष्ट न हो , इसलिए –
” छाँह कराहिं धन विबुधगन बरपहिं सुमन सिहाहिं ।”
और जब प्रभु #पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर निवास करने लगते हैं तब
” गिरि बन नदी ताल छवि छाये ” – तथा ” खग मृग वृंद अनंदित रहहीं मधुप मधुर गुंजत छबि लहहीं “
▪️एक बार राम राज्य स्थापित हो जाने पर मनुष्य और प्रकृति के मध्य पूर्ण साहचर्य की अभिव्यक्ति होने लगती है –
" फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन , रहहिं एक संग गज पंचानन"
तथा
"लता बिटप मागें मधु चवहीं , मनभावतो धेनु पय सवहीं"
तथा राम राज्य में प्रकृति मानव पर सहदय है । मनुष्य का भी उसके प्रति अगाध आदर है एवं समाज वसुधैव कुटुंबकम की भावना से ओत – प्रोत है ।
यहाँ सभी प्रकार के जीवों का सुरक्षित अस्तित्व है , निर्मल जल है , प्राणदायिनी वायु है , उर्वरा मिट्टी पेस्टीसाइड रहित खाद्य का उत्पादन करती है और सम्पूर्ण बह्मांड में शांति का साम्राज्य है । यहाँ प्रकृति के प्रत्याक्रमण का प्रश्न निरर्थक है । यही आज का संकट से निपटने का राम मंत्र है ।