Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

आहार के सहज आयुर्वेदिक सूत्र

🍇🥥🍌🌶️🍓🍎🍉🥑🍆🍋🥭🍍

हाल में हुई शोध स्पष्ट करती है कि अहितकारी और असम्यक भोजन की हालत यह है कि एक ओर लगभग 1 बिलियन लोग भूखे हैं, और दूसरी ओर लगभग 2 बिलियन लोग बहुत अधिक किन्तु अहितकारी भोजन खा रहे हैं। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी के अनुसार कुपोषण, मोटापा और अधिक वजन वजन आहार सम्बन्धी ऐसे कारक हैं जिनके कारण गैर-संचारी रोगों का बोझ बढ़ रहा है| अहितकारी आहार दुनिया में सालाना 11 मिलियन लोगों के समय-पूर्व मृत्यु का कारण है (द लैंसेट, 393, 447-492, 2019)। अतः आज की चर्चा एक बार पुनः आयुर्वेद के आहार-विषयक महावाक्यों पर केन्द्रित है| मेरे ध्यान में केवल चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता और अष्टांगहृदय में ही भोजन से संबंधित लगभग 1000 महावाक्य हैं। उनमें से कुछ बेहद उपयोगी जानकारी अद्यतन करते हुये पुनः प्रस्तुत है| इस ज्ञान का प्रयोग कीजिये, स्वस्थ रहिये और प्रसन्न रहिये।

  1. आरोग्यं भोजनाधीनम् (काश्यपसंहिता, खि. 5.9): सबसे पहले तो हमें यह जान लेना चाहिये, जैसा कि महर्षि कश्यप कहते हैं, कि आरोग्य भोजन के अधीन होता है। सारा खेल भोजन का है। इस महावाक्य का अर्थ यह मानिये कि खाने को खानापूर्ति की तरह मत लीजिये।
  2. एकाशनभोजनं सुखपरिणामकराणां श्रेष्ठम् (च.सू.25.40): तात्पर्य यह है कि 24 घंटे में केवल एक बार भोजन तत्समय में सुख देने में श्रेष्ठ है क्योंकि यह सुखपूर्वक पच जाता है|
  3. कालभोजनमारोग्यकराणां श्रेष्ठम् (च.सू.25.40): नियत काल या समय पर भोजन करना श्रेष्ठ है| एककालं भवेद्देयो दुर्बलाग्निविवृद्धये| समाग्नये तथाऽऽहारो द्विकालमपि पूजितः|| (सु.उ.64.62) एक जून की रोटी उन लोगों के लिये उत्तम है जिनकी पाचनशक्ति कमजोर है| इससे दुर्बल पाचकाग्नि की वृद्धि होती है| जिन लोगों की अग्नि सम है, उनके लिये दोनों समय का भोजन ठीक है, लेकिन आयुर्वेद की किसी संहिता में 24 घंटे में 2 बार से अधिक भोजन की सलाह नहीं दी गई है।
  4. अन्नं वृत्तिकराणां श्रेष्ठम् (च.सू. 25.40, चयनित अंश): शरीर में दृढ़ता लाने वाले पदार्थों में अन्न सबसे श्रेष्ठ है|
  5. सर्वरसाभ्यासो बलकराणाम् श्रेष्ठम् (च.सू. 25.40, चयनित अंश) सभी रसों से युक्त भोजन (मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय) बल करने वालों में श्रेष्ठ है| ध्यान दीजिये, नमक और चीनी कम खाइये, साबुत अनाज और फलों की मात्रा भोजन में बढ़ाइये| आयुर्वेद के अनुसार, मीठे में रोज केवल शहद, द्राक्षा, और अनार ही खाये जा सकते हैं, रिफाइंड चीनी, गुड़, या मिठाइयाँ तो कतई नहीं| भोजन में घी से परहेज़, पर रिफांइड वसा से बने आहार को दिन भर बार बार लेना, भारत को पित्त, कफ व वात रोगों की राजधानी बना रहा है। घी खाइये, घी खाने की आयुर्वेदिक सलाह सबको याद रहती है, पर यह मत भूलिये कि वही आयुर्वेद रोज व्यायाम करने की सलाह भी तो देता है।
  6. आमलकं वयः स्थापनानां श्रेष्ठम् (च.सू. 25.40, चयनित अंश): वय:स्थापन या आयु-स्थिर करने वालों में आँवला श्रेष्ठ है| आँवला अकेला ऐसा द्रव्य है जो सर्वश्रेष्ठ आहार, रसायन व औषधि है|
  7. द्राक्षाखर्जूरप्रियालबदरदाडिमफल्गुपरूषकेक्षुयवषष्टिका इति दशेमानि श्रमहराणि भवन्ति (च.सू.4.16): स्वस्थ व्यक्ति थका हुआ हो तो मुनक्का, खजूर, चिरौंजी, बेर, अनार, अंजीर, फालसा, गन्ना, जौ और साठी-चावल श्रमहर महाकषाय का आनंद लेना चाहिये|
  8. नाप्रक्षालितपाणिपादवदनो (च.सू.8.20): महर्षि चरक ने कम से कम पांच हजार साल पहले यह महत्वपूर्ण सूत्र दिया था। आचार्य वाग्भट ने भी इसे सातवीं-आठवीं शताब्दी में धौतपादकराननः (अ.हृ.सू. 8.35-38) के रूप में पुनः लिखा। इसका साधारण अर्थ यह है कि भोजन करने के पूर्व हाथ, पाँव व मुंह धोना आवश्यक है। इसके वैज्ञानिक महत्त्व पर बड़ी शोध हुई है। लन्दन स्कूल ऑफ़ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के वैज्ञानिकों द्वारा की गयी एक शोध से पता लगा है कि हाथ धोये बिना भोजन लेने की आदत के कारण अकेले डायरिया से ही सालाना 23.25 अरब डॉलर की हानि भारत को हो रही है। यह हानि भारतीय अर्थव्यवस्था के कुल जीडीपी का 1.2 प्रतिशत है। हाथ धोने में लगने वाले कुल खर्च को समायोजित करने के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था को सालाना 5.64 अरब डॉलर की बचत हो सकती है। यह हाथ धोने में संभावित लागत का 92 गुना है।
  9. न कुत्सयन्न कुत्सितं न प्रतिकूलोपहितमन्नमाददीत (च.सू.8.20): दूषित अन्न या भोजन या दुश्मन या विरोधियों द्वारा दिया गया भोजन नहीं खाना चाहिये।
  10. न नक्तं दधि भुञ्जीत (च.सू.8.20): रात में दही नहीं खाना चाहिये। असल में दही यदि ताज़ा न हो तो उसके लाभदायक गुण नष्ट हो जाते हैं। इसीलिये यह महावाक्य बहुत उपयोगी है।
  11. पूर्वं मधुरमश्नीयान् (सु.सू.46.460): भोजन में सबसे पहले मधुर या मीठे पदार्थ खाना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि भोजन पूरा करने के बाद मिठाई या आइसक्रीम में हाथ मारना नुकसानदायक है। भोजन का अंत सदैव कटु, तिक्त या कषाय रस से करना चाहिये।
  12. आदौ फलानि भुञ्जीत (सु.सू.46.461): फल भोजन के प्रारंभ में खाना चाहिये। भोजन के अंत में फल खाने की परंपरा अनुचित है।
  13. पिष्टान्नं नैव भुज्जीत (सु.सू.46.494): पीठी वाले भोजन प्रायः नहीं लेना चाहिये। अगर बहुत भूखे हैं तो कम मात्रा में पिष्टान्न लेकर उससे दुगनी मात्रा में पानी पीना चाहिये।
  14. भुक्त्वाऽपि यत् प्रार्थयते भूयस्तत् स्वादु भोजनम् (सु.सू.46.482): जिस भोजन को खाने के बाद पुनः माँगा जाये, समझिये वह स्वादिष्ट है।
  15. उष्णमश्नीयात् (च.वि.1.24.1): उष्ण आहार करना चाहिये। परन्तु ध्यान रखिये कि बहुत गर्म भोजन से मद, दाह, प्यास, बल-हानि, चक्कर आना व पित्त-विकार उत्पन्न होते हैं।
  16. स्निग्धमश्नीयात् (च.वि.1.24.2): स्निग्ध भोजन करना चाहिये। परन्तु घी में डूबे हुये तरमाल के रूप में नहीं। रूखा-सूखा भोजन बल, वर्ण, आदि का नाश करता है परन्तु बहुत स्निग्ध भोजन कफ, लार, दिल में बोझ, आलस्य व अरुचि उत्पन्न करता है।
  17. मात्रावदश्नीयात् (च.वि.1.24.3): मात्रापूर्वक भोजन करना चाहिये। भोजन आवश्यकता से कम या अधिक नहीं करना चाहिये।
  18. जीर्णेऽश्नीयात् (च.वि.1.24.4): पूर्व में ग्रहण किये भोजन के जीर्ण होने या पच जाने के बाद ही भोजन करना चाहिये।
  19. वीर्याविरुद्धमश्नीयात् (च.वि.1.24.5): वीर्य के अनुकूल भोजन करना चाहिये। अर्थात् विरुद्ध वीर्य वाले खाद्य-पदार्थों, जैसे दूध और खट्टा अचार आदि को मिलाकर नहीं खाना चाहिये।
  20. इष्टे देशे इष्टसर्वोपकरणं चाश्नीयात् (च.वि.1.24.6): मन के अनुकूल स्थान और सामग्री के साथ भोजन करना चाहिये। अभीष्ट सामग्री के साथ भोजन करने से मन अच्छा रहता है।
  21. नातिद्रुतमश्नीयात् (च.वि.1.24.7): बहुत तेज गति या जल्दबाज़ी में भोजन नहीं करना चाहिये।
  22. नातिविलम्बितमश्नीयात् (च.वि.1.24.8): अत्यंत विलम्बपूर्वक भोजन नहीं करना चाहिये।
  23. अजल्पन्नहसन् तन्मना भुञ्जीत (च.वि.1.24.9): बिना बोले बिना हँसे तन्मयतापूर्वक भोजन करना चाहिये। भोजन और तन्मयता का संबंध इतना प्रगाढ़ है कि भोजन के संबंध में आयुर्वेद में दी गई सम्पूर्ण सलाह निरर्थक जा सकती है, यदि भोजन तन्मयता के साथ न किया जाये।
  24. आत्मानमभिसमीक्ष्य भुञ्जीत (च.वि.1.25): पूर्ण रूप से स्वयं की समीक्षा कर भोजन करना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि शरीर के लिये हितकारी और अहितकारी, सुखकर और दुःखकर द्रव्यों का शरीर के परिप्रेक्ष्य में गुण-धर्म का ध्यान रखते हुये यहाँ दिये गये महावाक्यों के अनुरूप ही भोजन करने का लाभ है।
  25. अशितश्चोदकं युक्त्या भुञ्जानश्चान्तरा पिबेत् (सु.सू.46.482): भोजन के पश्चात युक्तिपूर्वक पानी की मात्रा लेना चाहिये। तात्पर्य यह है कि खाने के बाद गटागट लोटा भर जल नहीं चढ़ा लेना चाहिये।
  26. हिताहितोपसंयुक्तमन्नं समशनं स्मृतम्। बहु स्तोकमकाले वा तज्ज्ञेयं विषमाशनम्।। अजीर्णे भुज्यते यत्तु तदध्यशनमुच्यते। त्रयमेतन्निहन्त्याशु बहून्व्याधीन्करोति वा।। (सु.सू.46.494): हितकर और अहितकर भोजन को मिलाकर खाना (समशन), कभी अधिक कभी कम या कभी समय पर कभी असमय खाना (विषमाशन) या पहले खाये हुये भोजन के बिना पचे ही पुनः खाना (अध्यशन) शीघ्र ही अनेक बीमारियों को जन्म दे देते हैं।
  27. प्राग्भुक्ते त्वविविक्तेऽग्नौ द्विरन्नं न समाचरेत्। पूर्वभुक्ते विदग्धेऽन्ने भुञ्जानो हन्ति पावकम्। (सु.सू.46.492-493): सुबह खाने के बाद जब तक तेज भूख न लगे तब तक दुबारा अन्न नहीं खाना चाहिये। पहले का खाया हुआ अन्न विदग्ध हो जाता है और ऐसी दशा में फिर खाने वाला इंसान अपनी पाचकाग्नि को नष्ट कर लेता है।
  28. भुक्त्वा राजवदासीत यावदन्नक्लमो गतः। ततः पादशतं गत्वा वामपार्श्वेन संविशेत्।। (सु.सू.46.487): भोजन के बाद राजा की तरह सीधा तन कर बैठना चाहिये ताकि भोजन का क्लम हो जाये। फिर सौ कदम चल कर बायें करवट लेट जाना चाहिये।
  29. आहारः प्रीणनः सद्यो बलकृद्देहधारकः। आयुस्तेजः समुत्साहस्मृत्योजोऽग्निविवर्द्धनः। (सु.चि., 24.68): आहार से संतुष्टि, तत्क्षण शक्ति, और संबल मिलता है, तथा आयु, तेज, उत्साह, याददाश्त, ओज, एवं पाचन में वृद्धि होती है। सन्देश यह है कि साफ़-सुथरा, प्राकृतिक और पौष्टिक भोजन शरीर, मन और आत्मा की प्रसन्नता और स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है।
  30. हिताशीस्यान्मिताशीस्यात्कालभोजीजितेन्द्रयः| पश्यन्रोगान्बहून्कष्टान्बुद्धिमान्विषमाशनात्|| (च.नि.6.11): विषम भोजन से उत्पन्न तमाम अति-कष्टकारी रोगों को देखते हुये बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों पर काबू पाकर हिताशी (हितकारी भोजन करने वाला), मिताशी (अपनी पाचनशक्ति के अनुसार नपा-तुला भोजन करने वाला) और कालभोजी (नियत समय पर भोजन करने वाला) होना चाहिये|


(यह लेखक के निजी विचार हैं और ‘सार्वभौमिक कल्याण के सिद्धांत’ से प्रेरित हैं|)

Recommended Articles

Leave A Comment