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भगवान विष्णु के दशावतार

हिन्दू धर्म में अवतारों की बड़ी महत्ता है। वैसे तो कई देवताओं ने अवतार लिए किन्तु भगवान विष्णु के अवतार का महत्त्व सबसे अधिक माना जाता है। भगवान शिव के भी कई अवतार हैं किन्तु उनके लिए ज्योतिर्लिंगों को अवतार पर प्रधानता दी जाती है।

भगवान विष्णु के दस अवतारों में पहले चार अर्थात मत्स्य, कूर्म, वराह एवं नृसिंह (अमानवीय) सतयुग में, अगले तीन अर्थात वामन, परशुराम एवं श्रीराम (मानवीय) त्रेतायुग में, श्रीकृष्ण द्वापर में तथा बुद्ध एवं कल्कि का अवतरण कलियुग में माना जाता है। यहाँ पर एक विरोध भी है। वैष्णव समाज बुध्द को विष्णु का नवां अवतार मानता है किन्तु कई ग्रन्थ बलराम को विष्णु का आठवाँ और कृष्ण को विष्णु का नवां अवतार मानते हैं। इस तथ्य के अनुसार बलराम और कृष्ण का अवतार द्वापर में माना जाता है।

मत्स्य अवतार (सतयुग): – मत्स्य (मछ्ली) के अवतार में भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नांव की रक्षा की थी। पुराणों एवं मनुस्मृति में ऋषि के स्थान पर ब्रम्हा के पुत्र मनु का वर्णन आता है। इसके पश्चात ब्रह्मा ने पुनः जीवन का निर्माण किया।

एक दूसरी मन्यता के अनुसार एक राक्षस ने जब वेदों को चुरा कर सागर में छुपा दिया, तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को प्राप्त किया और उन्हें पुनः स्थापित किया।

कूर्म अवतार (सतयुग): – कूर्म के अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुन्द्रमंथन के समय मंदर पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। जब समुद्र मंथन शुरू हुआ तो मंदार पर्वत समुद्र में डूबने लगा. उसे सँभालने के लिए भगवान विष्णु ने कच्छप अवतार लिया और मंदार की नीव बने. इस प्रकार भगवान विष्णु, मंदर पर्वत और वासुकि नामक सर्प की सहायता से देवों एंव असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्नोंकी प्राप्ती की। समुद्र मंथन के घर्षण से कच्छप रूपी भगवान की पीठ पर छाले पड़ गए जिसे कछुए के कवच के रूप में भी देखा जाता है। इस समय भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप भी धारण किया था पर उसकी गणना दशावतार में नहीं की जाती।

वराहावतार (सतयुग): – वराह के अवतार में भगवान विष्णु ने महासागर में जाकर भूमि देवी कि रक्षा की थी, जो महासागर की तह में पँहुच गयीं थीं। एक मान्यता के अनुसार इस रूप में भगवान ने हिरन्याक्ष नाम के राक्षस का वध भी किया था। दिति के गर्भ से दो पुत्र उत्पन्न हुये जिनका नाम प्रजापति कश्यप ने हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष रखा। इन दोनों यमल के उत्पन्न होने के समय तीनों लोकों में अनेक प्रकार के भयंकर उत्पात होने लगे। हिरण्यकशिपु ने तप करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया।

ब्रह्मा जी से उसने वरदान ले लिया कि उसकी मृत्यु न दिन में हो न रात में, न घर के भीतर हो न बाहर। इस तरह से अभय हो कर और तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर के वह एक छत्र राज्य करने लगा। उसका छोटा भाई हिरण्याक्ष उसकी आज्ञा का पलन करते हुये शत्रुओं का नाश करने लगा। एक दिन घूमते घूमते वह वरुण की पुरी में जा पहुँचा। पाताल लोक में पहुँच कर हिरण्याक्ष ने वरुण देव से युद्ध की याचना करते हुये कहा, “हे वरुण देव! आपने जगत के सम्पूर्ण दैत्यों तथा दानवों पर विजय प्राप्त किया है।

मैं आपसे युद्ध की भिक्षा माँगता हूँ। आप मुझसे युद्ध करके अपने युद्ध कौशल का प्रमाण दें। उस दैत्य की बात सुन कर वरुण देव को वरुण देव को क्रोध तो बहुत आया पर समय को देखते हुये उन्होंने हँसते हुये कहा, “अरे भाई! अब लड़ने का चाव नहीं रहा है, और तुम जैसे बलशाली वीर से लड़ने के योग्य अब हम रह भी नहीं गये हैं। तुम को तो यज्ञपुरुष नारायण के पास जाना चाहिये।

वे ही तुमसे लड़ने योग्य हैं। वरुण देव की बात सुनकर उस दैत्य ने देवर्षि नारद के पास जाकर नारायण का पता पूछ। देवर्षि नारद ने उसे बताया कि नारायण इस समय वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिये गये हैं। इस पर हिरण्याक्ष रसातल में पहुँच गया। वहाँ उसने भगवान वाराह को अपने दाढ़ पर रख कर पृथ्वी को लाते हुये देखा।

उस महाबली दैत्य ने वाराह भगवान से कहा, “अरे जंगली पशु! तू जल में कहाँ से आ गया है?” हिरण्याक्ष के इन वचनों को सुन कर वाराह भगवान को बहुर क्रोध आया किन्तु पृथ्वी को वहाँ छोड़ कर युद्ध करना उन्होंने उचित नहीं समझा और उनके कटु वचनों को सहन करते हुये वे गजराज के समान शीघ्र ही जल के बाहर आ गये।

पृथ्वी को जल पर उचित स्थान पर रखकर और अपना उचित आधार प्रदान कर भगवान वाराह दैत्य की ओर मुड़े। भगवान वाराह और हिरण्याक्ष मे मध्य भयंकर युद्ध हुआ और अन्त में हिरण्याक्ष का भगवान वाराह के हाथों वध हो गया।

नरसिंहावतार (त्रेतायुग): – नरसिंह रूप में भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी और प्रहलाद के पिता हिरण्यकश्यप का वध किया था। इस अवतार से भगवान के निर्गुण होने की विद्या प्राप्त होती है। हिरण्यकश्यपु ने अजर अमर होने के लिये एक बार घोर तप किया। उसके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उससे वर माँगने के लिये कहा।

हिरण्यकश्यपु बोला, “हे प्रभु! आप मुझे यह वर दीजिये कि आपके द्वारा उत्पन्न किये किसी प्राणी से अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, देवता, दैत्य, नाग, किन्नर आदि से मेरी मृत्यु न हो सके। न मैं घर के भीतर मर सकूँ न बाहर। न मैं दिन में मर सकूँ न रात्रि में। न पृथ्वी में मर सकूँ न आकाश में” ब्रह्मा जी तथास्तु कह कर अपने लोक को चले गये।

“वर प्राप्त करने के पश्चात् हिरण्यकश्यपु ने अपने भाई हिरण्याक्ष की मृत्यु का बदला लेने का विचार किया और तीनों लोकों में देवता, असुर, नाग, गन्धर्व, मनुष्य, यक्ष, राक्षस आदि सभी को जीत लिया। वह इन्द्र को हराकर स्वर्ग में वास करने लगा। अमरावती का एकछत्र सम्राट होकर स्वतन्त्रतापूर्वक विहार करने लगा। देवता उसके चरणों की वन्दना करते थे। मतवाली मदिरा में वह मस्त रहता था।

हिरण्यकश्यपु के चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद सब से छोटे थे। प्रह्लाद ने बचपन में ही भगवद्भक्ति में अनुराग लगा लिया था। भगवान विष्णु के चरणों में उनका अटूट प्रेम था। किन्तु विष्णु से बैर रखने के कारण हिरण्यकश्यपु अपने पुत्र को अपराधी मान कर दण्ड देने पर उतारू हो गया। उसने दैत्यों को बुला कर कहा कि तुम लोग इसे शीघ्र मार डालो।

यह विष्णु की पूजा करता है। अपने राजा की आज्ञा सुन कर दैत्यहण त्रिशूल ले ले कर प्रह्लाद पर टूट पड़े। किन्तु प्रह्लाद का चित्त तो मन, वाणी और कर्म से सर्व शक्तिमान परमब्रह्म में लीन था। इसलिये उन दैत्यों के सभी प्रहार व्यर्थ रहे। यह देख कर हिरण्यकश्यपु को अति चिन्ता हुई। उसने प्रह्लाद को मारने के लिये मतवाले हाथियों के नीचे कुचलवाया।

विषधर सर्पों से डसवाया। पर्वत से नीचे गिरवाया। विष दिया गया। बर्फ में दाबा गया। दहकती अग्नि में जलाया गया। किन्तु भगवत परायण भक्त प्रह्लाद का बाल भी बाँका नहीं हुआ। प्रह्लाद अभय होकर असुर बालकों को भगवान विष्णु की भक्ति का उपदेश देने लगा।

उसके इस कृत्य से हिरण्यकश्यपु अत्यन्त क्रोधित बोला, “रे नीच! तू स्वयं तो बिगड़ता ही जा रहा है और हमारे कुल के सभी बालकों को भी बिगाड़ना चाहता है। रे मूर्ख! तू किस के बल भरोसे पर निडरता पूर्वक मेरी आज्ञा का उल्लंघन करता है।” प्रह्लाद बोले, “हे पिताजी! मैं सर्व शक्तिमान परमात्मा के बल पर ही भरोसा करता हूँ।

वे सर्वज्ञ हैं। वे सर्वत्र हैं। आपको भी अपने आसुरी भाव को छोड़कर उन्हीं परमात्मा के शरण में जाना चाहिये।” हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद के ऐसे वचन सुनकर कहा, “रे नीच! अब तेरे सिर पर काल खेल रहा है। तेरा वह जगदीश्वर यदि सर्वत्र है तो इस खम्भे में क्यों दिखाई नहीं देता? इतना कहकर उसने बड़े जोर से खम्भे पर घूँसा मारा। उसी क्षण खम्भे में से एक बड़ा भयंकर नाद हुआ।

मानों ब्रह्रमाण्ड ही फट गय हो। उस खम्भे को फाड़ कर एक विचित्र रूपधारी भगवान प्रकट हो गये। वह स्वरूप न तो पूरा मनुष्य का था और न पूर्ण सिंह का था ब्रह्मा के वचन को सत्य करने के लिये भगवान ने नृसिंह अवतार लिया था। नृसिंह भगवान हिरण्यकश्पु को पकड़ कर द्वार पर ले गये और उसे अपनी जाँघों पर रख कर कहा, “रे असुर! देख न मैं मनुष्य हूँ न पशु हूँ। न तू घर के बाहर है, न भीतर है।

न तू पृथ्वी पर है न आकाश में। सूर्यास्त हो चुका है किन्तु रात्रि का पदार्पण नहीं हुआ है, अतः न रात है न दिन है।” इतना कहकर भगवाने नृसिंह ने अपने नखों से हिरण्यकश्यपु के शरीर को फाड़ कर उसका वध कर दिया।

वामन् अवतार (त्रेतायुग): – इसमें विष्णु जी वामन् (बौने) के रूप में प्रकट हुए। भक्त प्रह्लाद के पोते असुरराज बलि से देवताओ की रक्षा के लिए उन्होंने वमन अवतार लिया. भगवान विष्णु ने दानवीर बलि से दान में तीन पग भूमि मांगी. जब बलि वचन से पूर्व आचमन के लिए कमंडल से जल निकल रहे थे तो उन्हें रोकने के लिए उनके गुरु शुक्राचार्य ने सूक्ष्मरूप लेकर कमंडल कर मार्ग अवरुद्ध कर दिया।

इसपर वामन ने बलि को एक सींक देकर कमंडल का मार्ग साफ़ करने को कहा। बलि द्वारा कमंडल में सींक डालने पर शुक्राचार्य की एक आँख फूट गयी और उन्होंने क्रोध में आकर बलि को अपनी सारी संपत्ति से च्युत होने का श्राप दे दिया। उसके पश्चात बलि के हाँ कहने पर उन्होंने एक पग से धरती तथा दुसरे पग से आकाश को नाप लिया. जब तीसरा पग रखने के लिए कोई जगह नहीं बची तो बलि ने अपना मस्तक प्रस्तुत किया जिसपर भगवान वामन ने अपना तीसरा पग रखा. बलि की दानवीरता से प्रसन्न हो वामन देव ने उसे पातळ का स्थायी सम्राट घोषित किया। आज भी जब दानवीरता की बात होती है तो बलि एवं कर्ण का नाम सबसे ऊपर आता है।

परशुराम अवतार (त्रेतायुग): – भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा संपन्न पुत्रेष्टि-यज्ञ से प्रसन्न देवराज इंद्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को विश्ववंद्य महाबाहु परशुरामजी का जन्म हुआ। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा संपन्न नामकरण-संस्कार के अनन्तर राम, किंतु जमदग्निका पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किए रहने के कारण परशुराम कहलाए।

आरंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीकके आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यपजीसे विधिवत अविनाशी वैष्णव-मंत्र प्राप्त हुआ। तदनंतर कैलाश गिरिश्रृंगस्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया।

शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्यविजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मंत्र कल्पतरूभी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किए कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरांत कल्पान्त पर्यंत तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे।

उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्रम्भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-ॐ जामदग्न्याय्विद्महेमहावीराय्धीमहि,तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात।

वे पुरुषों के लिए आजीवन एक पत्नी-व्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि-पत्नी अनसूया,अगस्त्य-पत्नी लोपामुद्राव प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से नारी-जागृति-अभियान का विराट संचालन भी किया।

राम अवतार (त्रेतायुग): – श्रीराम अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बडे पुत्र थे। उनकी पत्नी का नाम सीता था और इनके तीन भाई थे – लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। हनुमान, भगवान राम के सबसे बडे भक्त माने जाते है। राम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया। धर्म के मार्ग पर चलने वाले राम ने अपने तीनो भाइयों के साथ गुरू वशिष्‍ठ से शिक्षा प्राप्‍त की।

किशोरवय में विश्‍वामित्र उन्‍हे वन में राक्षसों व्‍दारा मचाए जा रहे उत्‍पात को समाप्‍त करने के लिए गये। राम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्‍मण भी इस कार्य में उनके साथ हो गए। राम ने उस समय ताड़का नामक राक्षसी को मारा तथा मारिच को पलायन के लिए मजबूर किया। इस दौरान ही विश्‍वमित्र उन्‍हे मिथिला लेकर गये।

वहॉं के विदेह राजा जनक ने अपनी पुत्री के विवाह के लिए एक समारोह आयोजित किया था। भगवान शिव का एक धनुष था जिसपर प्रत्‍यंचा चढ़ा देने वाले शूर से सीता का विवाह किया जाना था। कोई भी राजा धनुष पर प्रत्‍यंचा चढ़ाना तो दूर धनुष उठा तक नहीं पाए। तब विश्‍वामित्र की आज्ञा पाकर राम ने ना केवल धनुष उठाया बल्कि प्रत्‍यंचा चढाने की कोशिश में वह महान धुनुष ही घोर ध्‍‍वनि करते हुए टूट गया।

महर्षि परशुराम ने जब वह घोर ध्‍वनि सुनि तो वहॉं आये और अपने गुरू (शिव) का धनुष टूटनें पर रोष व्‍यक्‍त करने लगे किन्तु श्रीराम की वास्तविकता जानकर वहाँ से प्रस्थान कर गए। उधर महाराज दशरथ ने राज्‍यभार राम को सौंपनें का सोचा।

कैकेयी चाहती थी उनके पु्त्र भरत राजा बनें, इसलिए उन्होने राम को १४ वर्ष का वनवास दिलाया। राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। राम की पत्नी सीता और उनके भाई लक्ष्मण भी वनवास गये थे। वनवास के समय रावण ने सीता का हरण कर लिया।

श्रीराम ने अपने भाई लक्ष्मण के साथ हनुमान और सुग्रीव की मदद से रावण का वध किया और देवी सीता को मुक्त करवाया।

बलराम अवतार (द्वापरयुग): – बुद्ध को विष्णु के अवतार मानने पर मतभेद है। कई जगह बलराम को विष्णु का आठवाँ अवतार माना जाता है। हालाँकि इन्हे निर्विवाद रूप से शेषनाग का दूसरा (लक्ष्मण के बाद) अवतार माना जाता है। ये श्रीकृष्ण के बड़े भाई थे जो देवकी के सातवें बालक के रूप में गर्भ में थे। जन्म लिया। कंस से रक्षा के लिए योगमाया ने देवकी के गर्भ को वासुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिया।

इस कारण बलराम संकर्षण भी कहलाये और अपने अतुलनीय बल के कारण बलराम के नाम से विख्यात हुए। बलराम श्रीकृष्ण के साथ सदैव रहे और युग परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये विश्व के सर्वश्रेष्ठ गदाधर एवं मल्ल थे जो अजेय होने के साथ साथ भीम और दुर्योधन जैसे योद्धाओं के गुरु भी थे।

महाभारत के सम्बन्ध में इनके और कृष्ण के बीच मतभेद था। इनका कहना था कि भाइयों के बीच इस प्रकार का युद्ध नहीं होना चाहिए और इसी कारण इन्होने किसी भी पक्ष से युद्ध लड़ने से इंकार कर दिया और तटस्थ रहे।

कृष्णावतार (द्वापरयुग): – भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप मे देवकी और वसुदेव के घर मे जन्म लिया था। उनका लालन पालन यशोदा और नंद ने किया था। वैसे तो भगवान विष्णु ने कई अवतार लिए पर उनका सबसे महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का ही था। यह अवतार उन्होंने वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में लिया था।

धर्म को स्थापित करने के लिए श्रीकृष्ण अवतरित हुए थे। समस्त अवतारों में श्रीकृष्ण ही ऐसे थे जो इस पृथ्वी पर सोलह कलाओं से पूर्ण होकर अवतरित हुए थे। उन्होंने जो भी कार्य किया उसे अपना महत्वपूर्ण कर्म समझा। अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद सभी का उपयोग किया क्योंकि उनके अवतीर्ण होने का मात्र एक उद्देश्य था कि इस पृथ्वी को पापियों से मुक्त किया जाए।

अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जो भी उचित समझा वही किया। उन्होंने कर्मव्यवस्था को सर्वोपरि माना, कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को कर्मज्ञान देते हुए उन्होंने गीता की रचना की जो कलिकाल में धर्म में सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।

बुद्ध अवतार (कलियुग): कई जगह बलराम को बुद्ध की जगह विष्णु का अवतार माना जाता है। विष्णु जी बुद्ध के रूप में असुरों को वेद की शिक्षा के लिये तैयार करने के लिये प्रकट हुए। गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में उनका जन्म ५६३ ईस्वी पूर्व तथा मृत्यु ४८३ ईस्वी पूर्व मे हुई थी। उनको इस विश्व के सबसे महान व्यक्तियों में से एक माना जाता है।

हिन्दू धर्म ने बाद में बुद्ध को विष्णु का एक अवतार माना है। लेकिन इसे इस तरीके से पेश किया गया है जिसे ज़्यादातर बौद्ध अस्वीकार्य और बेहद अप्रिय मानते हैं। कुछ पुराणों में ऐसा कहा गया है कि भगवान विष्णु ने बुद्ध अवतार इसलिये लिया था जिससे कि वो “झूठे उपदेश” फैलाकर “असुरों” को सच्चे वैदिक धर्म से दूर कर सकें, जिससे देवता उनपर जीत हासिल कर सकें। बौद्ध लोग गौतम बुद्ध को कोई अवतार या देवता नहीं मानते, लेकिन उनके उपदेशों को सत्य मानते हैं।

कल्कि अवतार (कलियुग): – इसमें विष्णु जी भविष्य में कलियुग के अन्त में आयेंगे। कल्कि विष्णु का भविष्य में आने वाला अवतार माना जाता है जो कलियुग में पाप की सीमा पार होने पर विश्व में दुष्टों के संहार के लिये कल्कि अवतार प्रकट होगा जो कलियुग के अन्त के लिये होगा। जब कलियुग मै लोग धर्म का अनुसरण करना बन्द कर देगे तब ये आवतार होगा। कल्कि की कथा कल्कि पुराण में आती है जिसमे मार्कण्डेय जी और शुक्रदेव जी के संवाद का वर्णन है।

इसके अनुसार कलियुग का प्रारम्भ हो चुका है जिसके कारण पृथ्वी देवताओं के साथ भगवान विष्णु के सम्मुख जाकर उनसे अवतार की बात कहती है। भगवान विष्णु के अंश रूप में ही सम्भल गांव में कल्कि भगवान का जन्म होता है। भगवान् कल्कि विवाह के उद्देश्य से सिंहल द्वीप जाते हैं। वहां जलक्रीड़ा के दौरान राजकुमारी पद्यावती से परिचय होता है और बाद में उनसे विवाह होता है।

श्री विश्वकर्मा के द्वारा उनकी आलौकिक एवं दिव्य नगरी के रूप में निर्माण हुआ। हरिद्वार में कल्कि जी ने मुनियों से मिलकर सूर्यवंश का और भगवान् राम का चरित्र वर्णन किया। पाँच लक्षणों से युक्त यह पुराण संसार को आनन्द प्रदान करने वाला है जिसमे साक्षात् विष्णु स्वरूप भगवान् कल्कि के अत्यन्त अद्भुत क्रियाकलापों का सुन्दर व प्रभावपूर्ण चित्रण है

    

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