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विक्रम संवत और शक संवत का प्रारंभ कब और कैसे हुआ??

विक्रम संवत हिन्दू पंचांग में समय गणना की प्रणाली का नाम है। यह संवत 57 ई.पू. आरम्भ होती है। इसका प्रणेता नेपाल के लिच्छव वंशके प्रथम राजा धर्मपाल भूमिवर्मा विक्रमादित्य को माना जाता है। इस तथ्यको गुजरात के खोजकर्ता पं.भगवानलाल इन्द्रजी ने भी सही ठहराया है। कोई कोई कहते हैं कि ऐ संवत् भारतवर्ष के सम्राट विक्रमादित्य ने शुरु किया था लेकिन समय के गणना में वो सही नहीं रहता। क्योंकि मगधके सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उज्जयनी और अयोध्या पर विजय प्राप्त किया और खुद को ‘विक्रमादित्य’ सम्राटका उपाधि दी। उससे पहले कहीं और कभी भी विक्रमादित्य का उल्लेख नहीं है।

बारह महीने का एक वर्ष और सात दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से ही शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है। यह बारह राशियाँ बारह सौर मास हैं। जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है। पूर्णिमा के दिन, चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है। उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। चंद्र वर्ष सौर वर्ष से 11 दिन 3 घाटी 48 पल छोटा है। इसीलिए हर 3 वर्ष में इसमें 1 महीना जोड़ दिया जाता है।

ये संवत नेपाल काआधिकारिक संवत् है। आज भी नेपाल में यही संवत राष्ट्रीय संवत् है।

वर्ष 2017 में यह 13 मार्च (अंग्रेजी) को शुरू हुआ था और 18-मार्च-2018 को विक्रम संवत का प्रथम दिन रहेगा। जिस दिन नव संवत का आरम्भ होता है, उस दिन के वार के अनुसार वर्ष के राजा का निर्धारण होता है | जैसे 18 मार्च को रविवार होने से वर्ष का राजा सूर्य होगा |

शक संवत्

राष्ट्रीय शाके अथवा शक संवत भारत का राष्ट्रीय कलैण्डर है। यह 78 वर्ष ईसा पूर्व प्रारम्भ हुआ था। चैत्र 1, 1879 शक संवत को इसे अधिकारिक रूप से विधिवत अपनाया गया। 500 ई. के उपरान्त संस्कृत में लिखित सभी ज्योतिःशास्त्रीय ग्रन्थ शक संवत का प्रयोग करने लगे। इस संवत का यह नाम क्यों पड़ा, इस विषय में विभिन्न एक मत हैं। इसे कुषाण राजा कनिष्क ने चलाया या किसी अन्य ने, इस विषय में अन्तिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सका है। यह एक कठिन समस्या है जो भारतीय इतिहास और काल निर्णय की अत्यन्त कठिन समस्याओं में मानी जाती है। वराहमिहिर ने इसे शक-काल तथा शक-भूपकाल कहा है। उत्पल (लगभग 966 ई.) ने बृहत्संहिता की व्याख्या में कहा है – जब विक्रमादित्य द्वारा शक राजा मारा गया तो यह संवत चला। इसके वर्ष चान्द्र-सौर-गणना के लिए चैत्र से एवं सौर गणना के लिए मेष से आरम्भ होते थे। इसके वर्ष सामान्यतः बीते हुए हैं और सन 78 ई. के ‘वासन्तिक विषुव’ से यह आरम्भ किया गया है। सबसे प्राचीन शिलालेख, जिसमें स्पष्ट रूप से शक संवत का उल्लेख है, ‘चालुक्य वल्लभेश्वर’ का है, जिसकी तिथि 465 शक संवत अर्थात 543 ई. है। क्षत्रप राजाओं के शिलालेखों में वर्षों की संख्या व्यक्त है, किन्तु संवत का नाम नहीं है, किन्तु वे संख्याएँ शक काल की द्योतक हैं, ऐसा सामान्यतः लोगों का मत है। कुछ लोगों ने कुषाण राजा कनिष्क को शक संवत का प्रतिष्ठापक माना है। पश्चात्कालीन, मध्यवर्ती एवं वर्तमान कालों में, ज्योतिर्विदाभरण में भी यही बात है, शक संवत का नाम ‘शालिवाहन’ है। किन्तु संवत के रूप में शालिवाहन रूप 13वीं या 14वीं शती के शिलालेखों में आया है। यह सम्भव है कि सातवाहन नाम[5] ‘शालवाहन’ बना और ‘शालिवाहन’ के रूप में आ गया। कश्मीर में प्रयुक्त सप्तर्षि संवत एक अन्य संवत है, जो लौकिक संवत के नाम से भी प्रसिद्ध है। राजतरंगिणी के अनुसार लौकिक वर्ष 24 गत शक संवत 1070 के बराबर है। इस संवत के उपयोग में सामान्यतः शताब्दियाँ नहीं दी हुई हैं। यह चान्द्र-सौर संवत है और चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा को ई. पू. अप्रैल 3076 में आरम्भ हुआ। बृहत्संहिता ने एक परम्परा का उल्लेख किया है कि सप्तर्षि एक नक्षत्र में सौ वर्षों तक रहते हैं और जब युधिष्ठर राज्य कर रहे थे तो वे मेष राशि में थे। सम्भवतः यही सौ वर्षों वाले वृत्तों का उद्गम है। बहुत-से अन्य संवत् भी थे, जैसे – वर्धमान, बुद्ध-निर्वाण, गुप्त, चेदि, हर्ष, लक्ष्मणसेन बंगाल में, कोल्लम या परशुराम मलावार में, जो किसी समय कम से कम लौकिक जीवन में बहुत प्रचलित थे।

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