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माता कैकेयी ने भगवान राम जी के लिए चौदह वर्ष का ही वनवास क्यों माँगा था हमेशा के लिए क्यों नही माँगा ?

दो वर का तात्पर्य ईश्वर और जीव के मिलन तथा सहयोग से है। जब कैकेयी ने दुर्वासा की सेवा की और उन्हे प्रसन्न किया तो उन्होने एक अंग (हाथ) को बज्र होने का वरदान दिया और कहा हे कैकेय कन्या ! भविष्य में तुम ही होगी जो जीव और ईश्वर को एक कर सकती हो। तब उसने पूछा कि यह कब होगा ?

तब ऋषि ने कहा था कि देवासुर संग्राम में महाराज दशरथ की मदद करते समय काल प्रेरित हो कर दशरथ दो ही वरदान मांगने को कहेंगे पर तत्क्षण मत मांगना। ईश्वर तुम्हारी गोद में खेलेगा और तुम्हे प्रेरित करेगा।तब तुम्हारे स्वप्न पूरे होंगे और वरदान तब माँगना।

उत्तर के प्रमाण हेतु कम्ब रामायण अवलोकन करें!!!!!

पुनश्च, दश इंद्रिय और चार वृत्ति मिला के चौदह ही शुद्ध होती है और अयोध्या जैसे राज गद्दी पर वैठने वाला राजा जब तक चौदह वृत्तियो को शुद्ध नही करेगा तो राज सिंहासन पर विराज तो जायेगा पर राज नही चला पयेगा यह पहला कारण है।

एक तो रावण की उम्र सीमा समापन पर थी, दूसरी बात कि जिस समय भगवान राम विश्वामित्र जी के साथ सिद्धाश्रम को गए तो मार्ग में ताड़का का वध किया तो मरते समय ताड़का ने राम से कहा कि– ‘हे राम ! रघुवंशी कभी झूठ नहीं बोलते परंतु आज मेरे बध से तुम्हारा वंश झूठा साबित हो जायेगा।’तब प्रभु ने कहा कि क्यों।

तो उसने पुरानी कथा सुनाई जो इस प्रकार है उसने कहा, “राक्षस राज रावण को पता चल गया की कौशिल्या के पेट से जन्म लेने वाला बालक ही रावण की मृत्यु का कारण होगा। तो उसने कौशिल्या और दशरथ का विवाह नही होने देने के विचार से अपहरण करना चाहा लेकिन तब तक दशरथ जी चार फेरे ले चुके थे।

तो रावण जबरन उन्हें और सुमन्त को काठ की पेटी में बन्द करके समुद्र में डाल दिया और कौसल्या को सिंघल दीप पर छोड़ दिया जो कि लंका के समीप में था उसने सोचा भूख प्य्यास से मर जायेगी आखिर मानव ही तो है।
पर मुझ ताड़का ने, अयोध्या (अवध जो किसी के द्वारा जीती नही जा सकती थी) पर राज्य करना चाहा और दशरथ के सुंदर रूप गुण युद्ध कौशल पर मोहित होने के कारण, भूल से उन्हे काष्ठ पेटिका से निकाल कर सिंघल द्वीप पर ही ले गयी।

प्रसन्न हो कर दसरथ ने मुझसे कुछ मांगने को कहा तो मैंने उनकी पटरानी बनने की बात कही। महराज जी ने, वो स्थान किसी को दे चुका हूँ — ऐसा कहा तो चौदह वर्ष की राज गद्दी मांग ली।

किंतु मेरी सिंहासन पाने की लालसा को तुमने मेरा वध करके अधूरी कर दिया।” तब राम जीने अपने वंश की कीर्ति बचाने के लिए शरभंग जी से निवेदन किया कि ताड़का के मस्तक के खोपड़ी की खड़ाऊं बना के देवें।जब तक वह तैयार होती, राम ने कैकेयी को प्रेरित करके बनवास मंगवा लिया। वही खड़ाऊं भरत जी चौदह वर्ष सिंहासन पर रखकर राज्य सेवा किये। कथा विस्तृत है।

14 वर्ष वनवास के चार कारण दिए गए हैं जो संकलित करके यहाँ प्रेषित है। शायद इससे कुछ सन्तुष्टि प्राप्त हो, यथा —
माता कैकयी ने महाराज दशरथ से भरत जी को राजगद्दी और श्री राम को चौदह वर्ष का वनवास माँगा | हो सकता हैं कि बहुत से विद्वानों के लिए ये साधारण सा प्रश्न हो।
लेकिन जब भी ये प्रश्न मस्तिष्क में आता हैं संतोष जनक उत्तर प्राप्त करने के लिए मन बेचैन हो जाता हैं | प्रश्न ये हैं की श्री राम को आखिर चौदह वर्ष का ही वनवास क्यों ? क्यों नहीं चौदह से कम या चौदह से ज्यादा ?

भगवान् राम ने एक आदर्श पुत्र, भाई, शिष्य, पति, मित्र और गुरु बन कर यही दर्शाया की व्यक्ति को रिश्तों का निर्वाह किस प्रकार करना चाहिए। राम का दर्शन करने पर हम पाते है कि अयोध्या हमारा शरीर है जो कि सरयू नदी यानि हमारे मन के पास है. अयोध्या का एक नाम अवध भी है ,(अ वध) अर्थात जहाँ कोई या अपराध न हों।

जब इस शरीर का चंचल मन सरयूजल-सा शांत हो जाता है और इससे कोई अपराध नहीं होता तो ये शरीर ही अयोध्या कहलाता है। शरीर का तत्व (जीव), इस अयोध्या का राजा दशरथ है। दशरथ का अर्थ हुआ वो व्यक्ति जो इस शरीर रूपी रथ में जुटे हुए दसों इन्द्रिय रूपी घोड़ों (५ कर्मेन्द्रिय ५ ज्ञानेन्द्रिय) को अपने वश में रख सके।

तीन गुण सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण दशरथ की तीन रानियाँ कौशल्या, सुमित्रा और कैकई हैं। दशरथ रूपी साधक ने अपने जीवन में चारों पुरुषार्थों धर्म, अर्थ काम और मोक्ष को राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के रूपमें प्राप्त किया था।

तत्वदर्शन करने पर हम पाते है कि धर्मस्वरूप भगवान् राम स्वयं ब्रह्म हैं। शेषनाग भगवान् लक्ष्मण वैराग्य है, माँ सीता शांति और भक्ति है और बुद्धि का ज्ञान हनुमान जी हैं। रावण घमंड, कुभंकर्ण अहंकार, मारीच लालच और मेंघनाद काम का प्रतीक है। मंथरा कुटिलता, शूर्पनखा काम और ताडका क्रोध है।

चूँकि काम, क्रोध और कुटिलता ने संसार को वश में कर रखा है इसलिए प्रभु राम ने सबसे पहले क्रोध यानि ताडका का वध ठीक वैसे ही किया जैसे भगवान् कृष्ण ने पूतना का किया था । नाक और कान वासना के उपादान माने गए है, इसलिए प्रभु ने शुपर्नखा के नाक और कान काटे ।

भगवान् ने अपनी प्राप्ति का मार्ग स्पष्ट रूप से दर्शाया है। उपरोक्त भाव से अगर हम देखें तो पाएंगे कि भगवान् सबसे पहले वैराग्य (लक्ष्मण) को मिले थे, फिर वो भक्ति (माँ सीता) से और सबसे बाद में ज्ञान (भक्त शिरोमणि हनुमान जी) के द्वारा हासिल किये गए थे।

जब भक्ति (माँ सीता) ने लालच (मारीच) के छलावे में आ कर वैराग्य (लक्ष्मण) को अपने से दूर किया तो घमंड (रावण) ने आ कर भक्ति की शांति (माँ सीता की छाया) हर ली और उसे ब्रह्म (भगवान्) से दूर कर दिया।

भगवान् ने चौदह वर्ष के वनवास के द्वारा ये समझाया कि अगर व्यक्ति युवावस्था में चौदह [पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (कान, नाक, आँख, जीभ, त्वचा), पांच कर्मेन्द्रियाँ (वाक्, पाणी, पाद, पायु, उपस्थ), तथा मन, बुद्धि,चित और अहंकार] को वनवास (एकान्त आत्मा के वश) में रखेगा तभी प्रत्येक मनुष्य अपने अन्दर के घमंड या रावण को मार पायेगा।

रावण की आयु में 14 ही वर्ष शेष थे। प्रश्न उठता है कि ये बात कैकयी कैसे जानती थी ? ये घटना घट तो रही थी अयोध्या में, परन्तु योजना देवलोक की थी। कोप भवन में कोप का नाटक हुआ था, त्रिया चरित्र का। सत्य यह था कि राजमुकुट को बाली से वापस लाने की दोनों में मन्त्रणा हुई थी।

कैकेयी को राम पर भरोसा था, किंतु दशरथ को नहीं। इसलिए वे पुत्रमोह में प्राण गँवाए। और कैकेयी बदनाम हुईं।– अजसु पिटारी तासु सिर,गई गिरा मति फेरि। सरस्वती ने मन्थरा की मति में अपनी योजना की कैसेट फिट कर दी। उसने कैकयी को वही सब सुनाया, समझाया और कहने को उकसाया जो सरस्वती को इष्ट था।

इसके सूत्रधार हैं स्वयं श्रीराम। वे ही निर्माता निर्देशक तथा अभिनेता हैं –सूत्रधार उर अन्तरयामी।। मेघनाद को वही मार सकता था जो 14 वर्ष की कठोर साधना सम्पन्न कर सके, जो निद्रा को जीत ले, ब्रह्मचर्य का पालन कर सकें।
यह कार्य लक्ष्मण द्वारा सम्पन्न हुआ। आप कहेंगे वरदान में लक्ष्मण थे ही नहीं तो इनकी चर्चा क्यों ? परन्तु भाई राम के बिना लक्ष्मण रह ही नहीं सकते। श्रीराम का यश यदि झंडा है तो लक्ष्मण उस झंडा के डंडा हैं, बिना डंडा के झंडा कैसे टिकेगा ?

माता कैकयी यथार्थ जानती है। जो नारी युद्ध भूमि में दशरथ के प्राण बचाने के लिये अपना हाथ रथ के धुरे में लगा सकती है, रथ संचालन की कला में दक्ष है, वह राजनैतिक परिस्थितियों से अनजान कैसे रह सकती है ?
मेरे राम का पावन यश चौदहों भुवनों में फैल जाये। यह विना तप के और विन रावण वध के सम्भव न था। अतः मेरे राम केवल अयोध्या के ही सम्राट् न रह जाये विश्व के समस्त प्राणियों हृदयों के सम्राट बनें। उसके लिये अपनी साधित शोधित इन्द्रियों तथा अन्तःकरण को तप के द्वारा तदर्थ सिद्ध करें।

सारी योजना का केन्द्र राक्षस वध है अतः दण्डकारण्य को ही केन्द्र बनाया गया। महाराज अनरण्य के उस शाप का समय पूर्ण होने में 14 ही वर्ष शेष हैं। जो शाप उन्होंने रावण को दिया था कि मेरे वंश का राजकुमार तेरा वध करेगा।

वैसे भी जितने भी वध हुए हैं, सब आततायी की आयु की पूर्णता पर ही हुए है।अतः यहाँ रावण की १४ वर्ष आयु के अवशिष्टता पर संशय करना अनुचित है। पुनश्च लोभ या अहंकार रूप रावण का नाश एक साधक ही कर सकता है और वह साधक श्रीराम ने तपस्वी बन कर दिखा दिया।

ब्राह्मणत्त्व की चर्चा में हम कह चुके हैं कि जीवन ज्ञान के उत्कर्ष का ही दूसरा नाम है। राम ने मनुष्य की सीमा में ही कर्त्तव्य का सम्पादन किया। उन्होने सिद्ध किया कि ज्ञान के अभ्युदय में साधना मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के विविध संख्यक सोपानों को उत्तीर्ण करते हुए ही पंचमकोष अहंकार के द्वार को खोल कर ब्रह्म—पुच्छ प्रतिष्ठा का सायुज्य प्राप्त करने में समर्थ होती है।

मन के ७, बुद्धि के १४, चित्त के १०८ सोपानों को उन्होने तपश्चरण द्वारा लाँघ कर ही रावण का वध किया और स्वयं अवध (अवध्य) पद को प्राप्त किया। यहाँ मन की ७ विवाह पूर्व सिद्धियाँ थी जिनसे वे वानप्रस्थ तप में प्रवृत्त हो सके। वान तपस्या में १४ सोपान लाँघ कर रावण को मार सके।

इसप्रकार साधना की रीति को प्रत्यक्ष सिद्ध करके दिखा दिया। परंतु यह सिद्धि भी शान्ति(सीता) की प्राप्ति तक ही अभीष्ट थी। शान्ति को धारण करते ही भीतर से आनंद रूप राम का अभ्युदय हुआ।

इति ॐसीतारामाभ्यां नमः।।

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