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सोमवार ही शिव का दिन क्यों?

सनातन धर्म में हर दिवस का संबंध किसी न किसी देवता से है। रविवार को भगवान भास्कर की उपासना की जाती है। मंगलवार को भगवान् मारूतिनन्दन का दिन माना जाता है। कहीं कहीं इसे मंगलमूर्ति गणपति का भी दिवस मानते हैं। बुधवार को बुध की पूजा का विधान है क्योंकि यह शांति का दिवस है। बृहस्पतिवार को कदली वृक्ष में गुरु की पूजा की जाती है। शुक्रवार भगवती संतोषी का दिवस प्रसिद्ध है तो शनिवार को महाकाल रूप भैरव एवं महाकाली की सपर्या संपन्न की जाती है।

ठीक ऐसे ही भगवान् शंकर सोमवार को सबसे ज्यादा पूजे जाते हैं। हर सनातनधर्मी का आग्रह होता है कि और किसी दिन शिव मंदिर जाएँ या न जाएँ लेकिन सोमवार को दर्शन अवश्य करेंगे। आखिर ऐसा क्यों? शिव के लिए सोमवार का आग्रह ही क्यों? आईए! इस पर कुछ विचार करें।

सबसे पहले दिनों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में विचार करते हैं। वास्तव में ये सारे दिवस भगवान् शंकर से ही प्रकट माने जाते हैं। शिव-महापुराण के अनुसार प्राणियों की आयु का निर्धारण करने के लिए भगवान् शंकर ने काल की कल्पना की। उसी से ही ब्रह्मा से लेकर अत्यन्त छोटे जीवों तक की आयुष्य का अनुमान लगाया जाता है।

उस काल को ही व्यवस्थित करने के लिए महाकाल ने सप्तवारों की कल्पना की। सबसे पहले ज्योतिस्वरूप सूर्य के रूप में प्रकट होकर आरोग्य के लिए प्रथमवार की कल्पना की-
संसारवैद्यः सर्वज्ञः सर्वभेषजभेषजम्।
आय्वारोग्यदं वारं स्ववारं कृतवान्प्रभुः॥

अपनी सर्वसौभाग्यदात्री शक्ति के लिए द्वितीयवार की कल्पना की। उसके बाद अपने ज्येष्ठ पुत्र कुमार के लिए अत्यन्त सुन्दर तृतीयवार की कल्पना की। तदनन्तर सर्वलोकों की रक्षा का भार वहन करने वाले परम मित्र मुरारी के लिए चतुर्थवार की कल्पना की। देवगुरु के नाम से पञ्चमवार की कल्पना कर उसका स्वामी यम को बना दिया।

असुरगुरु के नाम से छठे वार की कल्पना करके उसका स्वामी ब्रह्मा को बना दिया एवं सप्तमवार की कल्पना कर उसका स्वामी इंद्र को बना दिया। नक्षत्र चक्र में सात मूल ग्रह ही दृष्टिगोचर होते हैं, इसलिए भगवान् ने सूर्य से लेकर शनि तक के लिए सातवारों की कल्पना की। राहु और केतु छाया ग्रह होने के कारण दृष्टिगत न होने से उनके वार की कल्पना नहीं की गई।

ऐसे तो भगवान् शंकर की उपासना हर वार को अलग फल प्रदान करती है। पुराणशिरोमणि शिवमहापुराण के अनुसार-
आरोग्यंसंपद चैव व्याधीनांशांतिरेव च।
पुष्टिरायुस्तथाभोगोमृतेर्हानिर्यथाक्रमम्॥

अर्थात स्वास्थ्य, संपत्ति, रोग-नाश, पुष्टि, आयु, भोग तथा मृत्यु की हानि के लिए रविवार से लेकर शनिवार तक भगवान् शङ्कर की आराधना करनी चाहिए। सभी वारों में जब शिव फलप्रद हैं तो फिर सोमवार का आग्रह क्यों? ऐसा लगता है की मनुष्य मात्र को सम्पत्ति से अत्यधिक प्रेम होता है, इसलिए उसने शिव के लिए सोमवार का चयन किया।

पुराणों के अनुसार सोम का अर्थ चंद्रमा होता है और चंद्रमा भगवान् शङ्कर के शीश पर मुकुटायमान होकर अत्यन्त सुशोभित होता है। लगता है कि भगवान् शङ्कर ने जैसे कुटिल, कलंकी, कामी, वक्री एवं क्षीण चंद्रमा को उसके अपराधी होते हुए भी क्षमा कर अपने शीश पर स्थान दिया वैसे ही भगवान् हमें भी सिर पर नहीं तो चरणों में जगह अवश्य देंगे। यह याद दिलाने के लिए सोमवार को ही लोगों ने शिव का वार बना दिया।

अथवा सोम का अर्थ सौम्य होता है। भगवान् शङ्कर अत्यन्त शांत समाधिस्थ देवता हैं। इस सौम्य भाव को देखकर ही भक्तों ने इन्हें सोमवार का देवता मान लिया। सहजता और सरलता के कारण ही इन्हें भोलेनाथ कहा जाता है।

अथवा सोम का अर्थ होता है उमा के सहित शिव। केवल कल्याणरी शिव की उपासना न करके साधक भगवती शक्ति की भी साथ में उपासना करना चाहता है क्योंकि बिना शक्ति के शिव के रहस्य को समझना अत्यन्त कठिन है। इसलिए भक्तों ने सोमवार को शिव का वार स्वीकृत किया।

अथवा सोम में ॐ समाया हुआ है। भगवान् शंकर ॐकार स्वरूप हैं। ॐकार की उपासना के द्वारा हीं साधक अद्वय स्थिति में पहुँच सकता है। इसलिए इस अर्थ के विचार के लिए भगवान् सदाशिव को सोमवार का देव कहा जाता है।
अथवा वेदों ने सोम का जहाँ अर्थ किया है वहाँ सोमवल्ली का ग्रहण किया जाता है। जैसे सोमवल्ली में सोमरस आरोग्य और आयुष्यवर्धक है वैसे ही शिव हमारे लिए कल्याणकारी हों, इसलिए सोमवार को महादेव की उपासना की जाती है।

अथवा सोम का अर्थ चंद्रमा है और चंद्रमा मन का प्रतीक है। जड़ मन को चेतनता से प्रकाशित करने वाला परमेश्वर ही है। मन की चेतनता को पकड़कर हम परमात्मा तक पहुँच सकें, इसलिए देवाधिदेव भूतभावन पूतपावन परमेश्वर की उपासना सोमवार को की जाती है।

    

[द्वादश ज्योतिर्लिंग के महान् प्रतीक श्री पशपुति नाथ

नेपाल में नागमती के किनारे स्थित कांतिपुर में पशुपतिनाथ विराजमान हैं। पशुपति नाथ का मंदिर धर्म, कला, संस्कृति की दृष्टि से अद्वितीय है। काशी के कण-कण जैसैसे शिव माने जाते हैैं ,,वैसे ही नेेपाल में पग-पग पर मंदिर हैैं, जहां कला बिखरी पड़ी है..इस कला के पीछे धर्म और संस्कृति की जीवंतता छिपी हुई है।

नेपाल का सुरम्य नगर काठमांडू अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहां का मौसम प्रकृति को हर माह हरा-भरा रखने के लिए अनुकूल है। चारों तरफ बागमती, इंदुमती और विष्णुमती अनेक कल-कल करती नदियां, जो कभी वर्षा के पानी से उछलती-चलती हैं, तो कभी पहाड़ों से निकलने वाले बारहमासी जल स्रोतों का निर्मल जल ले कर मंद-मंद मुस्कुराती, बल खाती चलती हैं, वे देखने में अत्यंत मोहक और लुभावनी लगती हैं।

प्रायः हर मौसम में यहां फूलों की बहार रहती है, जो देखने में अत्यंत मोहक है। इस अनुपम प्राकृतिक छटा और भगवान पशुपति के दर्शनार्थ हजारों पर्यटक विश्व के कोने-कोने से यहां के सौंदर्य की अमिट छाप ले कर लौटते हैं और कुछ दिन यहां रुकने पर एक अलौकिक शांति अनुभव करते हैं।

जो नर-नारी यहां तपस्या, जप, भगवान आशुतोष की श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पूजा-अर्चना करते हैं, उनकी सभी कामनाएं पूरी होती हैं। पशुपति के देदीप्यमान चतुर्मुखी लिंग को कुछ विद्वान ज्योतिर्लिंग मानते हैं और कुछ विद्वान इसे ज्योतिर्लिंग नहीं मानते। सर्वस्वीकृत शिव पुराण के अनुसार तो ज्योतिर्लिंग बारह ही हैं, परंतु शिव पुराण के 351 वें श्लोक में श्री पशुपति लिंग का उल्लेख ज्योतिर्लिंग के समान ही किया गया है।

भगवान् आशुतोष, ऐसी सुंदर तपोभूमि के प्रति आकर्षित हो कर, एक बार कैलाश छोड़ कर यहीं आ कर रम गये। इस क्षेत्र में यह 3 सींग वाले मृग बन कर, विचरण करने लगे। अतः इस क्षेत्र को पशुपति क्षेत्र, या मृगस्थली कहते हैं। शिव को इस प्रकार अनुपस्थित देख कर ब्रह्नाा, विष्णु को चिंता हुई और दोनों देवता शिव की खोज में निकले।

इस सुंदर क्षेत्र में उन्होंने एक देदीप्यमान, मोहक 3 सींग वाले मृग को चरते देखा। उन्हें मृग रूप में शिव होने की आशंका हुई। ब्रह्नाा ने योग विद्या से तुरंत पहचान लिया कि यह मृग नहीं, बल्कि शिव ही हैं। तत्काल ही उछल कर उन्होंने मृग का सींग पकड़ने का प्रयास किया। इससे सींग के 3 टुकड़े हो गये।

उसी सींग का एक टुकड़ा इस पवित्र क्षेत्र में गिरा और यहां पर महारुद्र उत्पन्न हुए, जो श्री पशुपति नाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए। शिव की इच्छानुसार भगवान् विष्णु ने नागमती के ऊंचे टीले पर, शिव को मुक्ति दिला कर, लिंग के रूप में स्थापना की, जो पशुपति के रूप में विखयात हुआ।

नेपाल माहात्म्य में तथा सुनी जाने वाली जनश्रुति के अनुसार नित्यानंद नाम के किसी ब्राह्मण की गाय नित्य एक ऊंचे टीले पर जा कर स्वयं दूध बहा देती थी। नित्यानंद को भगवान् ने स्वप्न में दर्शन दिया। तब उस स्थान की खुदाई की गयी और यह भव्य लिंग प्राप्त हुआ। भगवान् पशुपति नेपाल के शासकों और जनता-जनार्दन के परम आराध्य देवता हैं। इस शिव लिंग की ऊंचाई लगभग 1 मीटर है।

यह काले रंग का पत्थर है, जो अवश्य ही कुछ विशेष धातुओं से युक्त है। इसकी चमक, आभा और शोभा अद्धितीय हैं। नेपालवासियों का ऐसा विश्वास है कि इस लिंग में पारस पत्थर का गुण विद्यमान है, जिससे लोहे को स्पर्श करने से वह सोना बन जाता है। जो भी हो, इस भव्य पंचमुखी लिंग में चमत्कार अवश्य है, जो समस्त नेपाल के जनता-जनार्दन एवं भारतवासियों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है।

नेपालवासी अपने हर शुभ कार्य के प्रारंभ में भगवान पशुपति का आशीर्वाद प्राप्त करना अनिवार्य मानते हैं। कुछ लोगों का विश्वास है कि यह मंदिर पहली शताब्दी का है। इतिहासकार इसे तीसरी शताब्दी का बताते हैं। मंदिर अति प्राचीन है। समय-समय पर इसमें मरम्मत होती रहती है एवं इसका रखरखाव होता रहा है।

नेपाल शासकों के अधिष्ठाता देव होने के कारण शासन की ओर से इसकी पूरी देखभाल सदैव होती रही है। इस मंदिर में केवल हिंदू ही प्रवेश कर सकते हैं। मुखय द्वार पर नेपाल सरकार का संगीनधारी पहरेदार हर समय रहता है। चमड़े की वस्तुएं मंदिर में ले जाना वर्जित है। अंदर फोटो लेना भी मना है। मंदिर की शोभा मंदिर के पूर्व भाग से, बागमती के पूर्वी तट से भी देखी जा सकती है। विदेशी पर्यटकों के लिए यह मंदिर आकर्षण का केंद्र माना जाता है।

हर मौसम में प्रायः हजारों विदेशी पर्यटक बागमती के पूर्वी तट से फोटो लेते देखे जाते हैं। बागमती के पवित्र जल से भगवान पशुपति का अभिषेक किया जाता है। बागमती के दाहिनी तट पर ही भगवान् पशुपति ज्योतिर्लिंग के गर्भ गृह के सामने ही, मरणोपरांत, हिंदुओं के शव को अग्नि में प्रज्ज्वलित किया जाता है।

नेपालवासी मरने से पूर्व अपने परिजनों को, अंतिम सांस से कुछ समय पहले, यहां ले आते हैं, जिससे पवित्र नदी के स्नान और गोदान के बाद ही मृत्यु प्राप्त हो, ताकि मोक्ष प्राप्त हो सके। मृत व्यक्ति के पैर बागमती में लटका देते हैं। कभी-कभी कोई मृतक इस प्रक्रिया से पुनर्जीवित भी हो जाता है, जैसा की लोगों में विश्वास है। आम तौर पर ब्राह्मण ही शव को स्नान कराते हैं और मस्तक पर पशुपति का चंदन लगाते हैं।

तत्पश्चात् कफ़न में लपेट कर दाह कर्म संपादित कराते हैं। भारत-नेपाल के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान की परंपरा, जो आदि काल से थी, वह आज भी विराजमान है। आज भी हर धर्मपरायण नेपाली नर-नारी श्री काशी विश्वनाथ के दर्शन और गंगा स्नान तथा चारों धाम यात्रा को जीवन की परम सार्थकता मानते हैं, तो भारत के तीर्थ स्थलों – बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामेश्वरम, द्वारिकाधीश, जगन्नाथपुरी, गंगा सागर आदि यात्रा करने वाले भारतीय बिना पशुपति दर्शन के अपने आपको पूर्ण नहीं मानते।

भारत के बिहार, उत्तरप्रदेश आदि राज्यों से सड़क मार्ग, गोरखपुर तथा रक्सोल आदि से बस द्वारा नेपाल की राजधानी काडमांडू पहुंच सकते हैं। भारत के दिल्ली, लखनऊ, कोलकाता, पटना, मुंबई आदि स्थानों से वायु मार्ग से भी जाने की व्यवस्था है। काठमांडू में यात्रियों के ठहरने के लिए साधारण से महंगे होटल उपलब्ध हैं। भारतीय मुद्रा में लगभग 25 रु. से 1000 रु. तक के होटल यहां उलबल्ध हैं।

फाल्गुनी कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को, शिव-पर्वती के विवाहोत्सव के उपलक्ष्य में, शिव रात्रि को पूजा-अर्चना का विशेष महत्व है। इस अवसर पर यहां भारत और अन्य राष्ट्र के लोग दर्शन-पूजन के लिए आते हैं। शिव रात्रि के उपलक्ष्य में यहां विराट मेला लगता है। यहां मंदिर में दर्शन करने वाले दर्शनार्थियों का तांता त्रयोदशी की अर्द्ध रात्रि से ही प्रारंभ हो जाता है।

यह समय पशुपति दर्शन के लिए उपयुक्त है। यहां के लोगों का विश्वास है कि पशुपति ही नेपाल की रक्षा करते हैं। पशुपति नाथ के दर्शन से आरोग्य, सुख, समृद्धि, शांति, संतोष प्राप्त होते हैं तथा मनुष्य का अगला जन्म पशु योनि में नहीं होता, ऐसा लोगों का विश्वास है।

       

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