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भागवत कथा सात दिन ही क्यों ?..

हम सात दिन की कथा सुनके अपने जीवन के सभी सातो दिनों को पवित्र कर लेते हैं! पाप रहित बनें! राजा परीक्षित को सात दिन का शाप मिला तो तुरंत अपने पुत्र जनमेजय को सौंपकर चलपड़े! पर मन में एक प्रश्न है? जीवन में प्रश्नो का होना बहुत महत्वपूर्ण है, अबोध बालक जो कुछ नहीं जनता वह भी एक दिन में न जाने कितने सारे प्रश्न करता है! फिर हम भी तो परमात्मा के विषय में अबोध हैं, कुछ जानते नहीं, हमारे पण्डित जी ने जो कहा उसी के आधार पर हमारी पूजा बढ़ जाती है!

तो हमें अपनी पूजा नहीं बढा़नी हमें तो श्रद्धा बढा़नी है, जब तक जानकारी नहीं होगी, तब तक श्रद्धा भी नहीं बढे़गी! इसलिए परमात्मा की प्रीति के लिए प्रश्न जरूरी है, परन्तु प्रश्न करने से पहले ध्यान दें की हम प्रश्न किससे कर रहे है! और प्रश्न कहां कर रहे हैं! दूसरी बात हम जिनसे प्रश्न करते हैं! उनके प्रती आदर भाव आवश्यक है! महाभारत में जब अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया, तो प्रश्न के पहले अर्जुन ने अपने आपको शिष्य माना! इसलिए आप जब शिष्य भाव से प्रश्न करेंगे, तो आपको प्रश्नों के उत्तर अवश्य मिलेंगे! राजा परीक्षित के जीवन में भी प्रश्न आया, और प्रश्न था की अब तक तो मैं जिया, खूब ऐश्वर्य भी पाया, पर अब मेरी जिन्दगी सिर्फ सात दिन की है, और मुझे मरना भी होगा? पर मैं मरूं कैसे? और मरने बाले को करना क्या चाहिए? अपनी मृत्यु को सुधारने के लिए राजा, राज्य को त्याग​कर गंगा नदी के तट पर अनसन में बैठगया! और शुक देव जी ने उसे मरने की विधी बताई!

पहले वर्तमान सुधारो, राजा परीक्षित अपना भूत भूलगया और वर्तमान को सुधारने का प्रयास किया! भविष्य की चिन्ता मत करो यदी वर्तमान अच्छा है, तो भविष्य भी उज्वल होगा, वर्तमान की चिन्ता करते जो बैठा रहता है, वह मूर्ख है! दूसरी बात की ठाकुर जी की बड़ी कृपा है की हम अन्धे नहीं हैं! हमारे पास एक नहीं पूरी दो आंखें हैं हम बहुत भाग्यशाली हैं, परन्तु आंख है पर द्रष्टी नहीं है! आंख तो भगवान ने दी, पर द्रष्टी हमें सत्संग से मिलती है! हम इन सात दिन के सत्संग से दृष्टी प्राप्त करें,
अरे दृष्टी होगी तभी तो दर्शन प्राप्त होगा!

देखने में और दर्शन में अन्तर है! हम देखते हैं जगत को और दर्शन जगदीश का करें, देखने के लिए आंख की आवश्यकता है पर दर्शन के लिए दृष्टी जरूरी है! यदी दृष्टी नहीं तो दर्शन नहीं! तो हम दृष्टी श्रीमद्भागवत कथा से प्राप्त करें!

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनके पास आंख तो है पर दृष्टी नहीं! वही इस संसार में भटकते रहते हैं! और कुछ ऐसे भी होते हैं जिनको आंख नहीं पर दृष्टी है, और वो उसी दृष्टी से समूचे संसार का दर्शन करते हैं! देखने और दर्शन करने में बहुत अन्तर है!

सूरदास बाबा जी के पास आंख तो नहीं पर दृष्टी थी, जिससे वे जगत के साथ​-साथ जगदीश​का भी दर्शन करते थे! एक बार बाबा सूरदास जी को पास के ही गांव से बुलाबा आया, रात्रि का समय था, तो बाबाजी ने एक हाथ में लाठी पकड़ी, दूसरे हाथ में चिमनी लिया और निकल पड़े! कुछ ही दूरी पर एक आंख​वाला मिला, बाबा को देखा! बाबा जय श्रीकृष्णा !
बाबा, शब्द पहचानते हुए बोले- जय श्रीकृष्णा!
आंख बाला- बाबा इतनी रात को कहां जा रहे हैं!
बाबा- बस यहीं पास में भजन होना है, वहीं जा रहा हूँ!
आंख बाला- अच्छा-अच्छा! पर बाबा के हाथ में चिमनी देख वह चकित हुआ और बोला-
बाबा बुरा न मानों तो एक बात कहूं?
बाबा- हां हां बोलो क्या बात है?
आंख बाला- बाबा! आपको तो दिन में भी कुछ दीखता नहीं, तो रात में क्या! आपने ये चिमनी क्यों लिया है?
बाबा- मुस्कुराते हुए! हां तू ठीक कहता है, पर जिनको आंख है उनको तो दीखेगा! और वो मुझसे टकराएंगे नहीं! और बात भी सही है, आंख बाले ही यहां वहां भटकते हैं! ऐसा तीखा जबाब दियाबाबा ने की उस आंख बाले की आंख खुल ग​ई! सूरदास जी के पास आंखें नहीं थी, पर दृष्टी थी! बिना आंख बाले के पास यदी जीवन जीने की दृष्टी है तो बस उनको जीवन का सही मार्ग मिल जाता है!
श्रीमद्भागवत कथा क्या है?

श्रीमद्भागवत कोई पुस्तक नहीं, कोई साधारण ग्रंथ नहीं, श्रीमद्भागवत तो भगवान श्रीकृष्ण का साक्षात वांग्मय स्वरूप है! यहां पर एक परिभाषा देते हुए संत कहते है-

!!भगवता प्रोक्तं इति भागवतं !!
भगवान ने अपने मुख से कहा है जो वह भागवत! भगवान नारायण ही भागवत के प्रथम प्रवक्ता हैं! भगवान नारायण ने सर्वप्रथम भागवत कथा ब्रह्मा जी को सुनाई! जिसे कहते है चतुश्लोकी भागवत! ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र नारद जी को सुनाई, नारदजी ने व्यास जी को सुनाई! व्यासजी ने उसका विस्तार किया, व्यास का एक अर्थ विस्तार भी है! तो व्यासजी ने विस्तार किया, भागवत को बारह (12) स्कन्ध और 335 अध्याय तथा 18000 श्लोकों का विस्तार किया!

फिर व्यासजी ने यह भागवत कथा अपने ही पुत्र शुकदेव जी को सुनाई, और शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को सुनाई, और उसी समय यह कथा सूतजी ने सुनी, तो सूतजी ने शौनकादि सहित 88000 ऋषियों को भागवत कथा सुनाया! इस तरह से यह कथा परंपरागत रूप से आज आप भी इस कथा का रसपान कर रहें हैं! इतनी चर्चा के बाद अब हम कथा की ओर चलते हैं! सबसे पहले हम आपका परिचय भागवतजी से कराते हैं, और भागवतजी की महिमा का श्रवण करते हैं! कथा प्रारंभ करने से पहले हम महात्म की चर्चा करते हैं, क्योंकि जब तक हम किसी की महिमा न सुनें, तब तक बात असर नहीं करती! इसलिए पहले भागवतजी से परिचय हो, भागवतजी अपनी महिमा स्वयं नहीं करते, तो भागवतजी की महिमा गाता कौन है?

भागवतजी का परिचय हमसे पद्मपुराण करा रहे हैं! व्यासजी की यह आज्ञा है, कि वक्ता पहले पद्मपुराण के अन्तर्गत महात्म्य के जो छ​: अध्याय का महात्म्य वर्णन है, वह पहले कहें और भागवत जी का परिचय करायें! क्योंकि-

बड़े बड़ाई न करें, बड़े न बोलें बोल !
हीरा मुख से न कहे, लाख हमारा मोल !!
अपने ही मुख कोई अपनी बड़ाई प्रसंशा नहीं करता, बस यही कारण है की दूसरे ग्रंथ भागवत जी की महिमा गाते हैं, हमसे परिचय कराते हैं! तो आईये हम भागवत जी की महिमा का रसपान करें, पद्मपुराण के माध्यम से, आरम्भ में वेदव्यासजी ने मंगलाचरण किया तो हम भी यहां पर मंगलाचरण करें!
कोई शुभ कार्य करने से पहले मंगल कामना की जाती है या मंगल आचरण किया जाता है, यही तो मंगलाचरण है!
सच्चिदाऽनन्दरूपाय

हमारे वेदों ने, शास्त्रों ने, संतो ने दो बात बताई है! एक बात तो यह की परम तत्व का परिचय, और दूसरी बात उसकी प्राप्ती का उपाय! जब परिचय हुआ की यह रसगुल्ला है, तो फिर उसकी प्राप्ती की इच्छा होती है! तो….प्रश्न उठता है, की गुरूदेव हम परमतत्व की प्राप्ती कैसे करें?

तो यहां पर गुरूदेव ने प्राप्ती का साधन बताया! पहले तो परिचय दिया, वो भी एक नहीं पूरे तीन प्रकार से! (१)स्वरूप परिचय (२)कार्य परिचय (३)स्वभाव परिचय! तो पहला स्वरूप परिचय-सच्चिदाऽनन्दरूपाय

यह हुआ स्वरूप परिचय! स्वरूप कैसा है ?…. सत चित और आनन्द स्वरूप! सत शब्द से सास्वता बताई है, अब सत है ठीक है, पर सत के साथ चित याने चेतन्यता, तो चेतन्यता का होना परम आवश्यक है, नहीं तो सत जड़ हो जायेगा! जैसे- माईक है पर बिजली नहीं है! तो?.. माईक जड़ हो गया न! इसलिए सत के साथ चित भी आवश्यक है! अब चलो ठीक है सत है चित भी है, पर आनन्द नहीं है, हां सत और चित के साथ आनन्द का होना अतिआवश्यक है! क्यों?.. क्योंकी माईक है और बिजली भी है पर वक्ता अर्थात बोलने बाला नहीं है, तो ये दोनों व्यर्थ हैं!

इसलिए यदी माईक है तो लाईट का होना आवश्यक है और माईक लाईट दोनों हैं तो वक्ता का होना जरूरी है! अत्: सत है तो चित का होना आवश्यक है और सत चित दोनों हैं तो आनंद की अनुभूति होनी ही है! इसमें संका नहीं, तो परमात्मा कैसा है? सत्य चित्य और आनन्द स्वरूप, यह हुआ स्वरूप परिचय! किसी ने पूछा- गुरुदेव वो करते क्या हैं? तो यहां पर कार्य का परिचय दिया!
विश्वोत्पत्यादि हेतवे
क्या करते हैं?… विश्व की उत्पत्ती करते हैं! आगे आदि शब्द भी जुड़ा है, तो आदि का मतलब…?उत्पत्ती ही नहीं करते और भी कुछ करते हैं, क्या…? उतपत्ती, स्थिती और लय, मतलब जन्म भी देते हैं, पालन, पोषण भी करते हैं, और फिर विनाश भी कर देते हैं!

किसी ने कहा महाराज​! उत्पत्ती, स्थिती, और लय तो हम भी करते हैं! अच्छी बात है, पर उसकी उत्पत्ती, स्थिती, लय में और उत्पत्ती, स्थिती, लय में बहुत अंतर है! हमारी उत्पत्ती में मोह है, पालन में अपेक्षा है, और लय में सोक है! कैसे?.. हम उत्पत्ती करते हैं तो संतान से मोह होता है, हम उसका पालन, पोषण करते हैं, पढा़ते- लिखाते हैं, योज्ञ बनाते हैं! फिर हम उससे अपेक्षा रखते हैं, की अब तो हम बूढे़ हो ग​ए हैं, अब पुत्र ही हमारी सेवा करेगा, ये अपेक्षा है! पर हमें मिलता क्या है?.. उपेक्षा! हमारा ही बेटा हमें, अपनाने से मना कर देता है! मोह हुआ, अपेक्षा भी हुई, अब यदी दैव बस किसी दुर्घटना में वह पुत्र मारा गया, तो शोक भी हो गया!

परन्तु परमात्मा को, न तो अपनी उत्पत्ती पर मोह होता है, न ही अपेक्षा और न शोक, क्योंकि जहां मोह है, वहां शोक, और जहां अपेक्षा वहां उपेक्षा का होना अनिवार्य है! भगवान सूर्य नारायण, हमने जब से देखा वे समय से उदय समय से अस्त होते हैं, पूरी पृथ्वी को प्रकाशित करते हैं! जिस कारण ही हमारा जीवन है, तो क्या उन्होंने आपको कभी विल भेजा! पवन देवता, वरुण देवता ने कभी किराया मांगा, हमारी हवा लेते हो, हमारा पानी पीते हो लो ये विल चुकाओ! ब्रम्ह को अपनी श्रृष्टी में न तो मोह है, और न ही अपेक्षा! उत्पत्ती, स्थिती, और लय यह परमात्मा का कार्य परिचय हुआ! अब इनका स्वभाव कैसा है?..

तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम​:
तो स्वभाव कैसा है?..

महाराज नमस्कार करने मात्र से मानव के तीनों तापों को मिटा देतें हैं! इतने दयालू स्वभाव के हैं! केवल नमस्कार करने मात्र से सारे दु:ख दूर हो जाते हैं!

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