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प्राणायाम एवं योगासन शुरू करने से पहले जानने योग्य जरुरी नियम

1-अभ्यास के समय शरीर स्वच्छ, अक्लान्त तथा सामान्य होना चाहिए। यदि किसी प्रकार की थकावट अथवा शारीरिक पीड़ा (रोग) हो तो अभ्यास न करें परन्तु जिन योगासनों का अभ्यास विशेष रूप से रोग-निवारणार्थ ही किया जाता हो, उन्हें किया जा सकता है।

2- अभ्यास से पहले मल त्याग, दाँतों और मुँह की सफाई और हाथ-पैरों को धोकर स्वच्छ कर लेना आवश्यक है। यदि स्नान भी कर लिया जाए तो सर्वोत्तम रहेगा। यदि चाहें तो स्नान बाद में भी कर सकते हैं।

3-अभ्यास का स्थान साफ-सुथरा, हवादार, रुचिकर और शान्तिपूर्ण होना चाहिए। यदि स्थान एकान्त में हो तो सर्वोत्तम है। गन्दे, दुर्गन्धयुक्त, सीलनयुक्त, गीले और भीड़भाड़ वाले स्थानों में अभ्यास न करें।

4-अभ्यास का समय सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच कभी भी रखा जा सकता है। परन्तु यह समय निश्चित एवं नियमित होना चाहिए। एक दिन जिस समय अभ्यास किया जाए, अगले दिन भी ठीक उसी समय अभ्यास करना उचित रहता है। यह समय नियमित दिनचर्या से पूर्व का अथवा बाद का निश्चित किया जा सकता है, परन्तु प्रातःकाल का समय सर्वोत्तम रहता है। समय जो भी हो-वह भोजन से 2 घण्टे पूर्व अथवा 4 घण्टे बाद ही होना चाहिए। अभ्यास के समय पेट खाली रहना सर्वोत्तम है।

5- 24 घण्टे में 1 बार अभ्यास करना चाहिए । अभ्यास कम-से-कम 15 मिनट और अधिक-से-अधिक 1 घण्टा रखना उचित एवं पर्याप्त है। एक घण्टा का अभ्यास का समय यदि रखना हो तो 30 मिनट के अभ्यास के बाद बीच में 30 मिनट का विश्राम करना भी आवश्यक है। लगातार 1 घण्टे तक अभ्यास नहीं करना चाहिए।

6- अभ्यास समाप्ति के बाद जितना समय अभ्यास में लगाया गया हो उसका चौथाई समय विश्राम के लिए अवश्य ही देना चाहिए। उदाहरणार्थ-यदि 30 मिनट तक अभ्यास किया गया हो तो 8 मिनट और यदि 40 मिनट अभ्यास किया गया हो तो-10 मिनट और यदि 1 घण्टा तक अभ्यास किया गया हो तो कम-से-कम 15 मिनट तक विश्राम अवश्य करना चाहिए।

7- अभ्यास के समय अपने मन को क्रोध, चिन्ता, घबराहट, घृणा, ईर्ष्या, भय, अहंकार, प्रतिरोध भावना आदि उद्वेगों से पूर्णतयः मुक्त बनाए रखना चाहिए। साथ ही मन पर किसी प्रकार का दबाव भी नहीं पड़ने देना चाहिए। यदि अभ्यास में मन न लगे अथवा अभ्यास करते समय बीच में ही उकताहट हो जाए तो अभ्यास क्रिया बन्द कर देनी चाहिए

8- अभ्यासकाल में ताजा, हल्का, सुपाच्य तथा अनुत्तेजक भोजन लेना आवश्यक है । यदि भोजन निरामिष ही लिया जाए तो सर्वोत्तम रहेगा । यदि सामिष भोजन लेना आवश्यक ही हो तो उसे अल्पमात्रा में ही लेना चाहिए। भोजन में अधिक मिर्च-मसालों का प्रयोग निषेध है।

ताजा फल, हरी सब्जियाँ, सलाद, दूध, मक्खन आदि पौष्टिक तथा सुपाच्य पदार्थों का अधिक सेवन हितकर रहता है। एक पहर से अधिक समय के पके बासी भोजन का सेवन हानिकर रहता है। सड़ी-गली, दुर्गन्धयुक्त, जूठी और कड़वी कसैली वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। जितनी भूख हो उससे 20 प्रतिशत कम ही भोजन करना चाहिए। यदि सामान्य भूख 6 रोटियों की हो तो अभ्यास काल में 4 या 5 रोटियाँ ही खानी चाहिएँ।

9- शराब, भाँग, गाँजा, अफीम, चरस तथा तम्बाकू का सेवन सर्वथा त्याग दिया जाए। तो उचित रहेगा। यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो मादक पदार्थों का सेवन अल्पमात्रा में तथा यदा-कदा ही करें ।

10- उत्तेजक, गरिष्ठ, कुपाच्य तथा हानिकारक पदार्थों का सेवन सर्वथा त्याग देना चाहिए। अन्यथा इन्हें अल्पमात्रा में लें । किसी प्रकार की गिरी जैसे-नारियल की गिरी का सेवन त्याग दें, परन्तु काजू, बादाम, अखरोट, चिलगोजा आदि। सूखी मेवाओं का सेवन किया जा सकता है।

11- भोजन कड़ी भूख लगने पर ही करना चाहिए। यदि कभी कोष्ठबद्धता हो जाए तो 2-3 गिलास गुनगुने पानी में थोड़ा-सा नमक डालकर पी लें तथा कुछ देर टहलने के बाद पवन-मुक्तासन, ताड़ासन, भुजंगासन आदि कब्जनाशक आसनों का अभ्यास करने के बाद ही शौच जाएँ। इन आसनों के करने से शीघ्र लाभ होगा। जब तक कब्ज दूर न हो भोजन का सर्वथा त्याग कर दें । उस स्थिति में यदि भूख का अनुभव हो तो फलों का रस अथवा दूध का सेवन करें। कब्ज हटाने के लिए जुलाब आदि किसी औषधि का भी सेवन न करें।

12- भोजन खूब चबा-चबाकर और शान्तिपूर्वक करना चाहिए ताकि वह शीघ्र फ्च जाए। नमककी मात्रा भी यथासंभव कम ही रखनी चाहिए।

13- प्रातःकाल सोकर उठते ही एक गिलास ठण्डा ताजा पानी पीएँ तथा मुख और दाँतों की भली-भाँति सफाई अवश्य कर लिया करें।

14- यदि आप रोगी हों और रोग निवारणार्थ आसनों का अभ्यास कर रहे हों तो उस स्थिति में खान-पान आदि में उन्हीं वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए, जिनकी अनुमति आपके चिकित्सक ने दी हो । यों दूध तथा फल-प्रत्येक अवस्था में हितकर रहते हैं परन्तु किसी-किसी बीमारी में इनका सेवन भी निषेध हो सकता है।

15- रात्रि में 9-10 बजे तक सो जाना चाहिए और प्रातः सूर्योदय से पूर्व जाग जाने का अभ्यास डालना चाहिए। सोते समय अपने चित्त को चिन्ताओं से मुक्त कर लेना चाहिए, ताकि नींद खूब गहरी आए । गहरी नींद के अभाव में शरीर तो शिथिल रहता ही है। मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

16- आसनों के नियमित अभ्यास के कुछ दिनों बाद अच्छी भूख लगना और गहरी नींद आना आदि स्वतः ही प्रकट हो जाएगा, परन्तु यह निर्देश प्रारम्भिक स्थिति के लिए है। सोते समय मुँह, कोहनी तक हाथ-घुटनों तक पैरों को धो लेने से अच्छी नींद आती है।

17- स्नान नित्यप्रति शीतल जल से ही करें। ग्रीष्म ऋतु में 2-3 बार स्नान किया जा सकता है। अधिक ठण्ड के दिनों में एक बार स्नान अवश्य ही करना चाहिए। यदि शीतल जल सहन न हो तो स्नान हेतु सामान्य गुनगुने पानी का प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु सिर को सदैव ठण्डे पानी से ही धोना चाहिए।

18- स्नान के बाद शरीर को रोएँदार मुलायम तौलिया आदि से भली-भाँति रगड़कर पोंछ लेना चाहिए। ऐसा करने से शरीर के रोम-छिद्र खुल जाते हैं जिससे शरीर में वायु के प्रवेश तथा अशुद्ध वायु के निष्कासन में बाधा नहीं पड़ती।

19- सदैव नाक द्वारा ही श्वास लें और छोडें । मुँह द्वारा श्वास लेना तथा छोड़ना स्वास्थ्य के लिए अहितकर है। श्वास खूब गहरी लेनी चाहिए। प्राकृतिक श्वास सीने से नहीं अपितु पेट से ली जाती है। श्वास जल्दी-जल्दी नहीं लेनी चाहिए।

20- सदैव ही मौसम के अनुकूल परन्तु ढीले तथा स्वच्छ वस्त्रों को ही पहनें। ओढ़ने-बिछाने तथा उपयोग में आने वाले अन्य सभी वस्त्रों का भी स्वच्छ होना आवश्यक है।

21- आसन करने से पूर्व एक गिलास ठण्डा तथा ताजा पानी पी लेने से वह सन्धि स्थलों का मल निकालने में अत्यन्त सहायक होता है।

22-आसनों का अभ्यास समाप्त करने के तुरन्त बाद तेज या ठण्डी हवा में बाहर नहीं निकलना चाहिए। जिस स्थान पर आसनों का अभ्यास किया जाए वहाँ भी तेज हवा का प्रवेश नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार आसनों का अभ्यास समाप्त करने के बाद स्नान करना भी वर्जित है।

23- शीत ऋतु में आसनों का अभ्यास करते समय छाती को खुला हुआ नहीं रखना चाहिए।

24- आसनों का अभ्यास समाप्त करने के बाद लघु शंका (पेशाब) त्याग के लिए। अवश्य जाना चाहिए। इससे एकत्रित मल, मूत्र द्वारा शरीर से बाहर निकल जाता है।

25- लकड़ी के तख्ते पर दरी आदि बिछाकर अथवा भूतल पर 4 तह वाला कम्बल बिछाकर आसनों का अभ्यास करने से शरीर में निर्मित होने वाला विद्युत प्रवाह नष्ट नहीं हो पाता।

26- यदि आँतों में सूजन, अम्लत्व (एसिडिटी), खुजली आदि विषाक्त तत्त्वों की शिकायत हो तो शीर्षासन नहीं करना चाहिए। जिन-जिन रोगों के लिए जिन-जिन आसनों को हितकारी बताया गया है। उनके लिए उन्हीं आसनों का प्रयोग करें। रोगमुक्त सामान्य स्थिति में किसी भी आसन का अभ्यास किया जा सकता है।

27- आरम्भ में अनेक आसनों को करने में कठिनाई का अनुभव होता है तथा हाथपैर आदि अंगों का मोड़ पाना असंभव जैसा प्रतीत होता है, परन्तु धैर्यपूर्वक निरन्तर अभ्यास करते रहने से कुछ ही दिनों में समस्त रुकावटें दूर हो जाती हैं, तब विभिन्न अंग स्वेच्छानुसार बड़ी सरलता से मुड़ जाते हैं। अभ्यास के प्रारम्भिक दिनों में जो क्रिया जितनी सम्पन्न हो सके उतनी ही करनी चाहिए तथा फिर बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ाना चाहिए।

28- सर्वप्रथम योगासन, तदुपरान्त प्राणायाम और अन्त में ध्यान का क्रम रखना उचित है, परन्तु जो लोग इनमें से किन्हीं एक अथवा दो क्रियाओं को ही करना चाहते हों, वे अपनी इच्छानुसार वैसा भी कर सकते हैं। केवल योगासन, केवल प्राणायाम अथवा केवल ध्यान भी हितकर रहते हैं, परन्तु योगासन और प्राणायाम अथवा योगासन और ध्यान की जोड़ी अच्छी रहती है। यदि इन तीनों क्रियाओं को एक ही साथ किया जा सके तब तो बहुत उत्तम है।

29- योगासनों के लिए 30 मिनट, प्राणायाम के लिए 10 मिनट और ध्यान के लिए 10 मिनट तथा प्रत्येक के बीच और अन्त में 10-10 मिनट का विश्राम रखना चाहिए। इस प्रकार कुल 80 मिनट का समय यदि नियमित रूप से इस कार्य को दिया जा सके तो उसके अप्रत्याशित लाभ दिखाई देंगे।

30- मल-मूत्र आदि के वेग को कभी भी नहीं रोकना चाहिए। इसी प्रकार छींक आदि का वेग रोकना भी वर्जित है। यदि अभ्यासकाल में कभी इनका वेग उद्वेलित करे तो सर्वप्रथम उसका निवारण करना चाहिए।

31- सप्ताह में कम-से-कम एक बार सम्पूर्ण शरीर पर सरसों के तेल की मालिश अवश्य करनी चाहिए।

32- ग्रीष्म ऋतु में प्रातःकाल सूर्योदय के समय तथा शीत ऋतु में मध्याह्न काल कुछ समय तक नंगे बदन धूप में बैठना स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हितकर है। इस धूप-स्नान से शरीर के अनेक रोग नष्ट हो जाते हैं। रक्त शुद्ध होता है तथा शरीर में बल और स्फूर्ति का संचार होता है।

33- बारह महीने सुबह-शाम खुली हवा में कुछ देर तक टहलने से स्वास्थ्य को अत्यन्त लाभ होता है।

34-अभ्यासकाल में चाय तथा कॉफी का सेवन न किया जाए तो अति उत्तम रहेगा।

निरोगी रहने हेतु महामन्त्र

मन्त्र 1 :-

• भोजन व पानी के सेवन प्राकृतिक नियमानुसार करें

• ‎रिफाइन्ड नमक,रिफाइन्ड तेल,रिफाइन्ड शक्कर (चीनी) व रिफाइन्ड आटा ( मैदा ) का सेवन न करें

• ‎विकारों को पनपने न दें (काम,क्रोध, लोभ,मोह,इर्ष्या,)

• ‎वेगो को न रोकें ( मल,मुत्र,प्यास,जंभाई, हंसी,अश्रु,वीर्य,अपानवायु, भूख,छींक,डकार,वमन,नींद,)

• ‎एल्मुनियम बर्तन का उपयोग न करें ( मिट्टी के सर्वोत्तम)

• ‎मोटे अनाज व छिलके वाली दालों का अत्यद्धिक सेवन करें

• ‎भगवान में श्रद्धा व विश्वास रखें

मन्त्र 2 :-

• पथ्य भोजन ही करें ( जंक फूड न खाएं)

• ‎भोजन को पचने दें ( भोजन करते समय पानी न पीयें एक या दो घुट भोजन के बाद जरूर पिये व डेढ़ घण्टे बाद पानी जरूर पिये)

• ‎सुबह उठेते ही 2 से 3 गिलास गुनगुने पानी का सेवन कर शौच क्रिया को जाये

• ‎ठंडा पानी बर्फ के पानी का सेवन न करें

• ‎पानी हमेशा बैठ कर घूँट घूँट कर पिये

• ‎बार बार भोजन न करें आर्थत एक भोजन पूणतः पचने के बाद ही दूसरा भोजन करें


[अनुलोम-विलोम प्राणायाम

          अनुलोम-विलोम प्राणायाम नासिका द्वारा किया जाने वाला अभ्यास है। इसके अभ्यास से कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है तथा इसके ध्यान को धारण करने की भी शक्ति बढ़ती है। इसमें नासिका के दोनों छिद्रों को बारी-बारी से बंद कर श्वास (सांस लेना और छोड़ना) क्रिया की जाती है। इस क्रिया में पहले एक छिद्र से सांस लेकर कुछ क्षण तक अंदर रखने के बाद दूसरे छिद्र से बाहर छोड़ दी जाती है।

अभ्यास की विधि- 

          इस प्राणायाम का अभ्यास शांत व स्वच्छ हवादार वातावरण में करें। इसके अभ्यास के लिए नीचे दरी या चटाई बिछाकर बैठ जाएं और बाएं पैर को मोड़कर दाईं जांघ पर और दाएं पैर को मोड़कर बाई जांघ पर रखें। अब अभ्यास बाईं नासिका से शुरू करें। दाहिने हाथ के नीचे बाईं हथेली को लगाकर रखें और दाएं हाथ के अंगूठे से दाएं नासिका छिद्र (दाहिने) नाक के छेद को) बंद कर दें। इसके बाद धीरे-धीरे सांस अंदर खींचें। पूरी तरह सांस अंदर भर जाने पर अनामिका या मध्यमा अंगुली से नाक के बाएं छिद्र को बंद कर दें और दाहिने छिद्र से सांस को बाहर छोड़े। सांस लेने व छोड़ने की गति पहले धीरे-धीरे और बाद में तेजी से करें। सांस की तेज गति के समय सांस तेज गति से ले और तेज गति से छोड़ें। श्वासन क्रिया (सांस लेने व छोड़ने) की क्रिया अपनी शक्ति के अनुसार धीरे, मध्यम और तेज करें। तेज गति से सांस लेने व छोड़ने से प्राण की गति तेज होती है। इस तरह नाक के बाएं छिद्र से सांस लेकर दाएं से सांस पूरी तरह बाहर छोड़ते ही नाक के बाएं छिद्र को बंद कर दें और दाएं से सांस लें। फिर दाएं को बंद करके बाएं से सांस को बाहर निकाल दें। इस तरह दोनों छिद्रों से इस क्रिया को 1 मिनट तक करने के बाद थकावट महसूस होने पर कुछ देर तक आराम करें और पुन: इस क्रिया को करें। इस तरह इस क्रिया को पहले 3 मिनट तक और फिर धीरे-धीरे बढ़ाते हुए 10 मिनट तक करें। इस प्राणायाम का अभ्यास सभी को कम से कम 5 मिनट तक और अधिक से अधिक 10 मिनट तक करना चाहिए। 10 मिनट से अधिक समय तक इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। गर्मी के मौसम में अनुलोम-विलोम प्राणायाम का अभ्यास 3 से 5 मिनट तक ही करना चाहिए। इस प्राणायाम को करने से कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है। इस क्रिया में श्वसन करते समय ओम का ध्यान व चिंतन करते रहने से मन ध्यान के धारण योग्य बन जाता हैं।

इस क्रिया से रोगों में लाभ-

          इस प्राणायाम के अभ्यास से स्वच्छ वायु का शरीर में प्रवेश होने से समस्त नाड़ियां जिनकी संख्या 72000 है, की शुद्धि होती है। जिससे शरीर स्वस्थ, कांतिमय एवं शक्तिशाली बनता है। इससे मन में उत्पन्न होने वाली चिंता दूर होती है और मन में अच्छे विचार उत्पन्न होते हैं। इससे मन प्रसन्न और चिंता से उत्पन्न होने वाला डर दूर हो जाता है। इससे कॉलेस्ट्रोल, ट्रग्लिसराइडस, एच.डी.एल या एल.डी.एल आदि की अनियमिताएं दूर होती हैं। यह सर्दी, जुकाम, पुराना नजला, खांसी, टॉन्सिल (गले की गांठे) ठीक करता है तथा इससे त्रिदोष (वात, कफ, पित्त) आदि के विकार दूर होते हैं। इसके नियमित अभ्यास से 3 से 4 महीने में ही हृदय में उत्पन्न रुकावट 30 से 40 प्रतिशत समाप्त हो जाती है।

          अनुलोम-विलोम प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने से सन्धिवात (आमवात, गठिया, जोड़ों का दर्द), कम्पवात, स्नायु दुर्बलता आदि सभी रोग दूर हो जाते हैं तथा  साइनस, अस्थमा आदि में लाभ होता है। यह वात रोग, मूत्ररोग, धातुरोग, शुक्र क्षय (वीर्यपतन), अम्लपित्त, शीतपित्त आदि सभी रोगों को दूर करता है।
[कपालभाति

          कपालभाति वास्तव में प्राणायाम का ही एक अंग है। परंतु कुछ योगियों ने इसे क्रिया को षटकर्म का भी अंग माना है। कपालभाति के अभ्यास से धारणा शक्ति का विकास होता है और कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है। इससे मन प्रसन्न और शांत रहता है तथा व्यक्ति में धार्मिक ज्ञान की वृद्धि होती है। कपालभाति और भस्त्रिका प्राणायाम में अधिक अंतर नहीं है। दोनों में फर्क सिर्फ इतना है कि कपालभांति में सांस छोड़ने की क्रिया तेज होती है जिससे पेट की वायु झटके के साथ बाहर निकलती है तथा पेट अपनी स्वभाविक अवस्था में धीरे-धीरे आता है। इस क्रिया से मस्तिष्क का अगला भाग साफ होता है और श्वसन क्रिया में सुधार होता है। इस क्रिया में सांस लेने व छोड़ने की क्रिया जल्दी-जल्दी की जाती है।

कपालभाति के अभ्यास की विधि-

          कपालभाति का अभ्यास स्वच्छ हवा वाले स्थान पर करें। अभ्यास के लिए पद्मासन में बैठकर सांस को नियंत्रित करें। अब सांस को अंदर खींचते हुए वायु को फेफड़ों में भर लें। जब पूर्ण रूप से वायु अंदर भर जाए तो आवाज के साथ तेज गति से नासिका छिद्र से सांस बाहर छोड़ें। सांस छोड़ते समय नासिका छिद्र (नाक के छेद) से आवाज आना चाहिए। सांस छोड़ते हुए बीच में बिल्कुल सांस न लें। फिर सांस लें और आवाज के साथ तेज गति से सांस बाहर छोड़ें। इस तरह इस क्रिया को 10 से 15 बार करें। इस क्रिया में सांस लेने व छोड़ने की गति को जितना तेजी से कर सकें उतना लाभकारी होता है। पहले 1 सैकेंड में एक बार सांस ले और छोड़ें और बाद में इस क्रिया को बढ़ाते हुए 1 सैकेंड में 2 से 3 बार सांस लेने व छोड़ने की कोशिश करें। इस तरह 1 मिनट में 100 से 120 बार सांस लेने व छोड़नें का अभ्यास करें। इस क्रिया में सांस लेने में जितना समय लगे, उसका आधा समय सांस छोड़ने में लगाना चाहिए।

विशेष-
          इस क्रिया को करते समय मन को तनाव मुक्त रखें और अच्छे विचारों के साथ इसका अभ्यास करें। शुरू-शुरू में कपालभाति का अभ्यास 3 से 5 मिनट तक करें। इसके अभ्यास के क्रम में थकान अनुभव हो तो बीच में थोड़ा आराम कर लें। अभ्यास के क्रम में जुकाम होने से श्वास नलिका द्वारा कफ बार-बार बाहर आ रहा हो तो अभ्यास से पहले कपालभाति का अभ्यास करें। इससे नाक साफ हो जाएगी। इसके अभ्यास के लिए नाक को साफ करने के लिए सूत्रनेति या धौति क्रिया भी की जाती है, परंतु इसके लिए योग गुरू से सलाह लें।

सावधानी-

पीलिया या जिगर के रोगी को तथा हृदय रोग के रोगी को इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। इस क्रिया को करने से हृदय पर दबाव व झटका पड़ता है, जो व्यक्ति के लिए हानिकारक होता है। गर्मी के दिनों में पित्त प्रकृति वाले इसे 2 मिनट तक ही करें। इस क्रिया के समय कमर दर्द का अनुभव हो सकता है, परंतु धीरे-धीरे वह खत्म हो जाएगा।

क्रिया से रोगों में लाभ-

          इस प्राणायाम से आध्यात्मिक लाभ अधिक मिलता है और मन में धारणा शक्ति की वृद्धि होती है। इस क्रिया को करने से सिरदर्द, सांस की बीमारी तथा मानसिक तनाव दूर होता है। इससे मन शांत, प्रसन्न और स्थिर होता है और यह मन से बुरे विचारों को नष्ट करता है, जिससे डिप्रेशन आदि रोगों से छुटकारा मिल जाता है। इस क्रिया से कफ का नाश होता है। इसके अभ्यास से फेफड़ों की कोशिकाओं की शुद्धि होती है और फेफड़े मजबूत होकर उनके रोग दूर होते हैं। यह सुषुम्ना, मस्तिष्क साफ करता है और चेहरे पर चमक, तेज, आभा व सौन्दर्य बढ़ाता है। यह आमाशय को साफ करके पाचनशक्ति को बढ़ाता है, जिससे आंतों की कमजोरी दूर होती है। यह पेट के सभी रोगों को दूर करता है तथा पेट की अधिक चर्बी को कम कर मोटापे को घटाता है। यह अजीर्ण, पित्त वृद्धि, पुराना बलगम, कृमि आदि को खत्म करता है। इसके अलावा यह रक्त विकार, आमवात (गठिया) विष विकार, त्वचा आदि रोगों को दूर करता है। इसको करने से दमा, श्वास, एलर्जी, मधुमेह, गैस, कब्ज, अम्लपित्त, किडनी तथा प्रोस्टेट संबन्धी सभी रोग खत्म होते हैं। सर्दी के मौसम में इसका अभ्यास करने से शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है। इस प्राणायाम से हृदय की शिराओं में आई रुकावट दूर हो जाती हैं। इस प्राणायाम से गले के ऊपर के सभी रोग जैसे सिरदर्द, अनिद्रा, अतिनिद्रा, बालों का झड़ना व पकना, नाक के अंदर फोड़े और बढ़ा मांस, नजला, जुकाम, आंखों के विकार, कम सुनना, मिर्गी आदि रोग दूर होते हैं।

          योग ग्रन्थ में कपालभांति प्राणायाम के अभ्यास को अन्य 4 प्रकार से करने की विधि बताई गई है- 1. बाहरी प्राणायाम 2. वात्क्रम क्रिया 3. व्युत्क्रम क्रिया 4. शीमक्रम क्रिया।

बाहरी प्राणायाम-

          इस क्रिया में सिद्धासन या पद्मासन में बैठ जाएं। फिर पूर्ण शक्ति के साथ सांस को बाहर छोड़ दें। इसके बाद अपने सिर को आगे की ओर झुकाकर ठोड़ी को कंठ में सटाकर रखें और कंधों को ऊपर की ओर भींचकर आगे की ओर करें। फिर मूलबंध करें और उसके बाद उड्डीयान बंध लगाएं। इस स्थिति में तब तक रहें, जब तक आप सांस को बाहर रोक सकें। जब सांस रोकना सम्भव न हो तो तीनों बंध को हटाते हुए सिर को ऊपर उठाकर धीरे-धीरे सांस लें। सांस लेकर पुन: सांस बाहर छोड़ दें और सांस को बाहर ही रोककर पहले की तरह ही तीनों बंधों को लगाकर रखें। इस तरह इस क्रिया को 3 बार करें और धीरे-धीरे इसका अभ्यास बढ़ाते हुए 21 बार तक इसका अभ्यास करें।

रोगों में लाभ-

          इस प्राणायाम से मन की चंचलता दूर होती है और जठराग्नि प्रदीप्त होती है। यह पेट के सभी रोगों को दूर करता है। इससे बुद्धि सूक्ष्म और तेज होती है। यह वीर्य को ऊर्ध्वगति (ऊपर की ओर) करके स्वप्नदोष, शीघ्रपतन, धातुविकार आदि को खत्म करता है। कपालभाति प्राणायाम करने से पेट की सभी मांसपेशियों की मालिश हो जाती है। इसके प्रारम्भिक अभ्यास के क्रम में पेट के कमजोर भाग में हल्के दर्द का अनुभव होता है। दर्द के समय आराम करना चाहिए तथा रोगों को खत्म करने के लिए सावधानी से यह प्राणायाम करना चाहिए।

वात्क्रम की विधि-

          इस क्रिया को सुखासन में बैठकर करना चाहिए। सुखासन में बैठने के बाद शरीर को सीधा करते हुए आंखों को बंद करके रखें। दाहिने हाथ के अंगूठे को नाक के दाईं ओर रखें और अन्य सारी अंगुलियों को बाईं ओर रखें। फिर शरीर को हल्का करते हुए नाक के दाएं छिद्र को बंद करके बाएं छिद्र से सांस खींचें और बाएं छिद्र को बंद कर दाएं छिद्र से सांस छोड़ें। फिर दाएं छिद्र से सांस लें और दाएं छिद्र को बंद कर बाएं से सांस को छोड़ें। इस तरह इस क्रिया को 3 से 5 मिनट तक करें।

          यहां सांस लेने व छोड़ने की क्रिया सामान्य रूप से करनी चाहिए। इस अभ्यास के द्वारा बलगम संबंधी सभी विकार व रोग दूर हो जाते हैं।

व्युत्क्रम क्रिया की विधि-

          इस क्रिया में पहले की तरह ही बैठें और शरीर को तान कर रखें। अपने पास किसी बर्तन में पानी भरकर रखें। फिर पानी को अंजुली में डालकर सिर को हल्का नीचे झुकाकर नाक के दोनों छिद्रों से पानी को अंदर खींचें। यह पानी नाक के रास्ते धीरे-धीरे मुंह में आ जाएगा। इसे बाहर निकाल दें। इस क्रिया का अभ्यास सावधानी से करें, क्योंकि असावधानी से पानी मस्तिष्क में जाने पर अधिक हानि पहुंचा सकता है।

          यह क्रिया नाक के मार्ग व गुह्य से श्लेष्मा को निकालकर नाक के गुहा को साफ व स्वच्छ बनाता है।

शीमक्रम की विधि-

          इस क्रिया में भी बैठने की मुद्रा पहले की तरह ही बनाएं रखें और मुंह से आवाज के साथ पानी को मुंह में चूसें। फिर पानी को नाक के रास्ते आवाज के साथ छींकने के साथ नाक से बाहर निकाल दें।

          यह अभ्यास शरीर की प्रतिरक्षा की क्षमता को बढ़ाता है तथा बलगम संबंधी सभी समस्याओं को दूर करता है।

सावधानी-

          यह 4 विधियां अत्यंत कठिन क्रिया है। इसलिए इसका अभ्यास सावधानी से करें तथा किसी योग शिक्षक की देख-रेख में करें। गीली विधि द्वारा कपालभाति प्राणायाम का अभ्यास करते समय अचानक आई परेशानी का मुकाबला करने के लिए फेफड़ों में भरपूर मात्रा में ऑक्सीजन होनी चाहिए। ताकि पानी अंदर खींचते हुए वायु मार्ग में चला जाए तो उसे आसानी से निकाल सकें।

विशेष-

          कपालभांति की ´सूखी´ और ´गीली´ विधि द्वारा मस्तिष्क गुहारों की शुद्धि होती है। इस अभ्यास से रोगों को रोकने की क्षमता को बढ़ाया जाता है। सूखा या वायु प्राणायाम, प्राणायामों के अभ्यासों के आधार का कार्य करता है। यह नाड़ियों को साफ करके पूरे शरीर को शुद्ध बनाता है।
[भस्त्रिका प्राणायाम

भस्त्रिका प्राणायाम में सांस लेने व छोड़ने की गति अधिक तेजी से करनी होती है। संस्कृत में भस्त्रिक का अर्थ धमनी होता है। योग में इसका नाम भस्त्रिका इसलिए रखा गया है, क्योंकि इसमें व्यक्ति की सांस लेने व छोड़ने की गति लौहार की धमनी की तरह होती है। इस प्राणायाम से प्राण व मन स्थिर होता है और कुण्डलिनी जागरण में सहायक होता है। इस प्राणायाम के अभ्यास से योगी अपने विचलित वीर्य को पुन: वाष्प में परिवर्तित कर दिया करते थे।

इस प्राणायाम का अभ्यास 2 विधियों द्वारा किया जाता है-

पहली विधि-

          इसके अभ्यास के लिए पद्मासन या सुखासन की स्थिति में बैठ जाएं। इसके बाद अपने बाएं हाथ की हथेली को नाभि के पास  ऊपर की ओर करके रखें। अब दाएं हाथ के अंगूठे को नाक के दाएं छिद्र के पास लगाएं और मध्यम व तर्जनी को बाएं छिद्र के पास लगाकर रखें। इसके बाद नाक के दाईं छिद्र को बंद कर बाएं छिद्र से आवाज के साथ तेज गति से सांस बाहर निकालें और फिर तेजी से लें। इस क्रिया में पेट को फुलाएं और पिचकाएं। फिर बाएं छिद्र को बंद करके दाएं से आवाज के साथ सांस बाहर निकालें और फिर तेजी से सांस अंदर लें। फिर दाएं छिद्र को बंद करके बाएं से सांस को आवाज के साथ बाहर निकालें। इस तरह 15 से 20 बार करने के बाद दोनों छिद्रों से सांस लें। इसके बाद बाएं छिद्र को बंद करके दाएं छिद्र से धीरे-धीरे सांस छोड़ें। अब बाएं छिद्र को बंद कर दाएं छिद्र से तेज गति से सांस को अंदर लें और फिर छोड़ें। इसे 10 से 15 बार करने के बाद पहले की तरह ही सांस लें और छोड़ें। इसके बाद दाएं को बंद कर बाएं से धीरे-धीरे सांस बाहर निकालें। इसके बाद दोनों छिद्रों से तेजी से आवाज के साथ सांस लें और छोड़ें। इस तरह इसे 10 से 15 बार करें। फिर सांस अंदर लेकर जितनी देर तक सम्भव हो सांस को रोककर रखें और फिर धीरे-धीरे दोनों छिद्रों से सांस को बाहर छोड़ें। इन तीनों का अभ्यास 10 से 15 बार करें और धीरे-धीरे इसका अभ्यास बढ़ाते हुए 50 बार तक करने की कोशिश करें। इस क्रिया में सांस लम्बी व गहरी तथा तेज गति से लेते हैं। ध्यान रहे कि आवाज के साथ सांस छोड़े और बिना आवाज के ही सांस लें। सांस लेने व छोड़ने के साथ-साथ ही पेट को पिचकाएं और फुलाएं। इस तरह इस क्रिया को 3 से 5 मिनट तक करें।

दूसरी विधि-

          इस आसन को करने के लिए पद्मासन में बैठ जाएं और दोनों हाथों को दोनों घुटनों पर रखें। इसके बाद तेजी से नाक के दोनों छिद्रों से सांस ले और बाहर छोड़े। फिर गहरी सांस लें और जितनी देर सम्भव हो सांस को रोककर रखें और जालंधर बंध करें। कुछ समय तक उसी अवस्था में रहें। इसके बाद सांस छोड़ दें। इस तरह इस क्रिया को 3 से 5 बार करें। इस क्रिया में आंखों को बंद कर ´ओम´ का ध्यान करें और मन में अच्छे विचार रखकर ध्यान करें।

विशेष-
          सांस अंदर लेते समय पेट को अंदर करके रखें। इसके अभ्यास के क्रम में मक्खन, घी तथा दूध की मात्रा अधिक खानी चाहिए। प्राणायाम के अभ्यास के समय आंखों को बंद कर लें और सांस लेने व छोड़ने के क्रम में ´ओम´ का जाप करें और मन में विचार व चिंतन करें। इस क्रिया को सर्दी के मौसम में 3 बार और तेज गर्मी के मौसम में एक बार करें।

सावधानी-
          गर्मी के दिनों में प्राणायाम का समय कम कर देना चाहिए और अभ्यास के क्रम में सांस लेने में कठिनाई हो तो पहले जल नेति से नासिका ग्रंथि को साफ करें। अभ्यास के समय आंखों के आगे अंधेरा छाना, पसीना अधिक आना या चक्कर आना या घबराहट होने पर अभ्यास को रोक दें। उच्च रक्तचाप व हृदय रोग के रोगी को इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। जिसकी दोनों नासिका छिद्र ठीक से न खुल रहे हों तो बारी-बारी से दोनों नासिका छिद्रों से सांस ले और छोड़ें और अंत में दोनो से सांस ले और छोड़ें। इस प्राणायाम का अभ्यास 3 से 5 मिनट तक करें।

अभ्यास से रोगों में लाभ-

          यह प्राणायाम कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करता है। इससे जठराग्नि तीव्र होती है, स्नायु तंत्र मजबूत बनता है तथा यह अजीर्ण, कब्ज, वायु विकार आदि रोगों को नष्ट करता है। इसका अभ्यास करने से सर्दी-जुकाम, एलर्जी, सांस रोग, दमा, पुराना नजला, साइनस आदि सभी रोग दूर होते हैं। यह हृदय और मस्तिष्क को शुद्ध कर शक्तिशाली बनाता है। यह फेफड़ों को मजबूत बनाकर फेफड़े के सभी रोग और क्षय (टी.बी.) को नष्ट करता है। इससे गले के रोग जैसे थायराइड व टान्सिल आदि खत्म होते हैं। यह त्रिदोष (वात, कफ, पित्त) के विकारों को दूर कर इन्हें संतुलित रखता है। इससे खून साफ होता है और शरीर के विषाक्त, विजातीय द्रव्य बाहर निकलते हैं। यह स्त्री-पुरुष दोनों के लिए लाभकारी है तथा यह सभी गुप्त रोगों को दूर करता है। इससे पेट के कीड़े खत्म होते हैं तथा मधुमेह का रोग खत्म होता है। इसके अभ्यास से मंदाग्नि का रोग दूर होता है, मोटापा कम होता है तथा नासिका व छाती के सभी रोग खत्म होते हैं। यह पैन्क्रियाज ग्रंथि को सुचारू रूप से कार्यशील बनाता है। 

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