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पिचकारी शब्द का मूल क्या हो सकता है। भारत में होली प्राचीनतम पर्व है तथा इसमें रंग डालते थे, पर रंग डालने वाली नली को क्या कहते थे।
पिच का अर्थ है दबाना (पिचकाना), पानी को एक तरफ से दबा कर दूसरे छोर की नली से निकालने वाला यन्त्र पिचकारी है। दवा की सूई तथा एनीमा देने की नली भी इसी प्रकार के हैं। इसके जैसे २ शब्द हैं-पिच्चट, पिच्छिला जिनका अर्थ शब्द कल्पद्रुम के अनुसार नीचे दिया है। पिच्चट का एक अर्थ रंग भी है। पिच्छिला का अर्थ है जल युक्त भोजन, जैसे ओड़िआ में पानी-भात को पखाल (प्रक्षाल = धोना) कहते हैं। जल में रंग का घोल भी पिच्छिला है।
कल्पद्रुमः
पिच्चटम्, क्ली, (पिच्चयतीति । पिच्च छेदने + अटन् ।) सीसकम् । रङ्गम् । (अस्य पर्य्यायो यथा, वैद्यकरत्नमालायाम् । “रङ्गं वङ्गञ्च कस्तीरं मृद्वङ्गं पुत्त्र पिच्चटम् ॥”) नेत्ररोगे, पुं । इति मेदिनी । टे, ५० ॥
कल्पद्रुमः
पिच्छिलम्, त्रि, (पिच्छा भक्तसम्भूतमण्डं अस्त्य- स्येति । पिच्छादित्वात् इलच् ।) भक्तमण्ड- युक्तम् । इति रायमुकुटः ॥ सरसव्यञ्जनादि । इति भरतः ॥ सूपादि । इति रमानाथः । स्निग्धसूपादि । इति भानुदीक्षितः ॥ मण्ड- युक्तभक्तम् । जलयुक्तव्यञ्जनम् । इति नील- कण्ठः ॥ तत्पर्य्यायः । विजिलम् २ । इत्यमरः । २ । ९ । ४६ ॥ विजयिनम् ३ विजिनम् ४ विज्ज- लम् ५ इज्जलम् ६ लालसीकम् ७ । इति वाचस्पतिः ॥ (यथा, छन्दोमञ्जर्य्याम् । “तरुणं सर्षपशाकं नवौदनानि पिच्छिलानि च दधीनि । अल्पव्ययेन सुन्दरि ! ग्राम्यजनो मिष्टमश्नाति ॥”) पिच्छयुक्तः ॥ (स्निग्धसरसपदार्थविशेषः । पेचल इति भाषा ॥ यथा, साहित्यदर्पणे १० । ५५ । “काले वारिधराणामपतितया नैव शक्यते स्थातुम् । उत्कण्ठितासि तरले ! नहि नहि सखि ! पिच्छिलः पन्थाः ॥”)
पिच्छिलः, पुं, (पिच्छं चूडास्त्यस्येति । पिच्छादि- त्वात् इलच् ।) श्लेष्मान्तकवृक्षः । इति राज- निर्घण्टः ॥

सुरक्षा की चिन्ता से हर वस्तु को शस्त्र अस्त्र बना लेने का विचार उपजेगा, मार्शल आर्ट्स में यही सिखाते हैं।
पूर्वोत्तर में बांस का उपयोग कर कुछ ऐसी वस्तुयें बनीं जो खेल, मनोरंजन के साथ साथ घातक अस्त्र भी हैं।
ऐसे ही दो आयुध हैं जिनका फूक और पीक से संबंध है।
पहला है फुकिया जिसे जापान तक में Fukiya ही कहते हैं, जैसा कि नाम है यह फूक मारने से जुड़ा हुआ है, पोले बांस की नली में एक छोटा कांटा जो विषयुक्त भी हो सकता है, रखकर दूसरे सिरे से फूक मारकर चला देते हैं। कुछ वनवासी जातियों में यह आज भी शिकार के लिये प्रयोग होता है।
दूसरा है पिचकारी इसे Mizuteppo कहते हैं, यह भी बांस से बनती है, और विषैला पानी छोड़ने में उपयोग होती थी, विषैले जल को आँख पर मारते ही शत्रु अन्धा हो जाता था । आजकल यह होली मनाने में काम आती है।
एक और वस्तु का निर्माण होता है जो इन दोनों को मिलाकर बनाया गया, उसे तुपकी कहा जाता है तेलुगु में तुपाकि और दक्षिण में भी तुपाकी ही है।
तुप् मारना , से ही यह शब्द बना है , तोप भी ।
तुपकी में पानी नहीं भरते , वायुदाब का उपयोग किया जाता है मालकांगनी के फल को मारने के लिये, यह खेल ही है, चलने पर आवाज भी होती है।
अस्त्राय फट्

स्वयंवह यन्त्र Automatic machine
सूर्यसिद्धान्त, भोजकृत ग्रन्थ आदि अनेक ग्रन्थों में जीव-शक्ति के बिना चलने वाली मशीनों और विमानों तक के उल्लेख हैं।
भास्कराचार्य को ऐसे यन्त्र कहीं दिखाई नहीं पड़े और इनको ग्राम्य-यन्त्र कह दिया।
यद्यपि वे पूर्वग्रन्थों में पठित ऐसे कुछ यन्त्रों की चर्चा सिद्धान्त शिरोमणि के गोलाध्याय में करते हैं। जिसमें वे लिखते हैं कि स्वयंवह यन्त्रों में पारा और पानी का उपयोग होता है, सुषिर (जिससे तेजी से वायु या गैस प्रवाहित हो), नली आदि होती हैं।
लेकिन भास्कराचार्य को कोई यन्त्र प्रत्यक्ष देखने को नहीं मिला और न पढ़ पढ़कर वे बना ही सके। इसलिये इसे कोई जादू-विद्या मानकर कह बैठे-
एवं बहुधा यन्त्रं स्वयंवहं कुहकविद्यया भवति। कुहक विद्या यानी जादुई बात।
थोड़ा विचार करने की आवश्यकता है कि यदि कभी स्वचालित मशीनें बनाई न गई होतीं तो उनकी स्मृति भी न होती और न ही ग्रन्थों में उनका विवरण और उल्लेख होता।
हम भी पहले ऐसी बातों को गप्प ही मानते थे किन्तु जिस प्रकार से विमानों का विवरण तथा उल्लेख साहित्य में हुआ है वह आँखों को खोल देने वाला है।

यदि पानी के साथ साथ पारे और तेल का भी प्रयोग किया जाये तो अधिक बल प्राप्त होगा. थर्मामीटर में आपने देखा ही है किस प्रकार थोड़ा सा ही ताप पाकर बल्ब में भरा हुआ पारा पतली नली में कैसे चढ़ता है। व्यवस्थापन व संयोजन इस प्रकार रहना चाहिये कि पारा तथा पानी वापस उसी स्थान पर आ जाये।
बड़ी ही साधारण सी मेकेनिक्स और मेकेनिज्म है, देखिये, सोचिये, बनाइये।

चक्‍की – तक्‍खिला या तक्षशिला से?

Chakki

*श्रीकृष्ण “जुगनू”
अक्‍सर यह गलती हो जाती है- ‘आटा पिसवाने जा रहा हूं।’ कहना चाहिए था- ‘गेहूं पिसवाने जा रहा हूं।’ बात की चक्‍की की है। उसमें भी हाथ चक्‍की की जिस पर अनाज पीसना बड़ा कठिन था मगर जब चक्‍की नहीं थी तब? तब अनाज को कूटा जाता, भिगाेया जाता और गूंथकर देर तक रख दिया जाता। चक्‍की ने राह आसान की, मगर चक्‍की आई कब ?
जरूर यह कबीर से पुरानी है जो अपने घर में इसे चलती देखकर कह उठे-
चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।
या फिर –
पाहन पूजत हरि मिलै, तो मैं पूजूं पहार।
ताते ये चाकी भली, पीस खाये संसार ।।

यह शायद पहले यंत्र समझा गया। जन्‍त इसी का नाम है। इस पर बैठकर गाये जाने वाले लोकगीतों को जंतसार के गीत कहा गया है। हमारे यहां इसको घट्टी कहा जाता है, यह नाम इसकी ‘गर्ड-गर्ड’ जैसी आवाज की बदौलत हुआ होगा। इसके भी कई रूप है दाल दलने वाली रामुड़ी और अनाज पीसने वाली श्‍यामुड़ी।

यह चक्‍की इतनी लोकप्रिय रही कि इसके निर्माण की विधि लिखने की जरूरत ही न पड़ी क्‍योंकि कहावत रही’ ‘घर घट्टी घर ओंखली, परघर पीसण जाए।’ इसको हमारे घर तक पहुंचाने का श्रेय उन यायावरों को है जिनको कारवेलिया के नाम से जाना गया और जिनका संबंध पश्चिमी भारत से अधिक रहा है। वे ही इसको बनाने, टांकने-टांचने, सुधारने का भी काम करते रहे थे। मुगलकाल में गांवों में बड़ी बड़ी चक्कियां गाड़ी में लेकर लोग अनाज पीसने का कार्य करते थे, ऐसा साक्ष्‍य मिलता है।
विश्‍वास किया जाता है कि यह करीब 2000 साल पुरानी है। भारत में हाथ से घुमाकर चलाई जाने वाली चक्‍की के प्रमाण पहली सदी के आसपास के ‘तक्षशिला’ या ‘तक्खिला’ से मिले हैं। यह मत सबसे पहले जाॅन मार्शल ने तक्षशिला पर अपनी किताब में दिया। यही नहीं, वहां से पत्‍थर का चूर्ण करने वाली चक्‍की के प्रमाण भी मिले हैं। तो, क्‍या यह मान लिया जाए कि चक्‍की तक्षशिला से चली, मगर उसमें तक्षशिला जैसा है क्‍या ?

इसमें हत्‍था सबसे रोचक चीज है जिसके साथ पूरा घूर्णन नियम जुड़ा है। रचनात्‍मक रूप में यह थाला अथवा आलवाल पर ‘नार पाट’ लिए होती है जिसकी नाभि के आरपार ‘खीला’ या कील होती है। नार पाट पर रखा जाने वाला ‘नर पाट’ होता। उसके बीचो बीच तीन या चार अंगुल का आरपार छेद जिसे ‘गला’ कहा जाता है, इसमें डाले गए अनाज के दाने गाला कहलाते हैं। इस गले के बीच में लगती है चाखड़ी। इसके अधोभाग में एकांगुल के बराबर छेद होता। इसी में खीले का मुंड भाग आ जाता। यह ऊपरी पाट को संतुलित करता। पूरे वजन को नार पाट पर रखना है या कुछ ऊपर। महीन या मोटा आटा इसी विधि से पीसा जाता।

इसको ऊपर-नीचे के करने के लिए थाले के नीचे ‘तक्‍ख’ या तोका होता। यह एक पटरी होती जो एक छोर से दूसरे छोर तक मोटी होती जाती। आगे सिरकाने पर खीला ऊपर उठता तो पाट को ऊंचा कर देता…। संतुलन और हत्‍थे के साथ गति का यही सिद्धांत इस चक्‍की यंत्र के निर्माण की प्रेरणा रहा है। मगर ये क्‍या कम अचरज है कि इसमें तक्‍ख और खीला खास अंग है और दोनों को मिलाकर ही चक्‍की पूरी होती है और दोनों शब्‍दों को मिलाएं तो ‘तक्‍खीला’ और संस्‍कृत में ‘तक्षशिला’ हो जाता है। ताज्‍जुब हुआ न। मगर हां, आप यह जरूर बताएं कि आपके पास इस यंत्र की क्‍या विशेष जानकारी है, यदि आप भी मेरी तरह चक्‍की चलाती मां की गोद में सोये होंगे तो जरूर याद आएगा यह यंत्र… ।

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