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एकान्त और एकाकीपन
अकेलापन दो प्रकार का होता है – एकान्त और एकाकीपन। इस शब्द का अर्थ है – अपने होने के रस मे निमग्न रहना,जिस दशा मे दूसरे की याद भी नहीं आती और न ही दूसरे का अभाव खलता है ।जहाँ अपना होना इतना विस्तीर्ण है ,इतना गहरा है कि चुकता ही नहीं, जहाँ कोई अपने ही रस में डूबा रहता है ,स्वयं मे ही लीन रहता है।स्वयं के होने की यह दशा बड़ी सकारात्मक होती है क्योंकि दूसरे का न तो पता है,न तो कोई पता है ,न कोई स्मृति है और न दूसरे का अभाव ही खलता है।
दूसरी दशा है – एकाकीपन। यह बड़ी नकारात्मक दशा है।इसमे भी अकेलापन होता है परन्तु इस अकेले होने मे कोई रस नहीं है ,इस दशा मे दूसरे की याद सताती है ,दूसरे की कमी खलती है। इस अकेलेपन में दूसरे पर नजर लगी रहती है कि दूसरा नहीं है, फिर वह पत्नी हो,मित्र हो या कोई भी हो ।एकाकीपन व्यक्ति से बर्दाश्त नहीं होता इसलिए तो वह स्वयं को अखबार, टीवी ,सिनेमा, क्लब,होटल आदि किसी न किसी मे उलझा लेता है ।दरअसल दूसरे की गैरमौजूदगी मे जीवन मे सार नही लगता क्योंकि हमने अपना सार नहीं जाना ,हमारे जीवन का सारा सार दूसरे से संयुक्त है ,दूसरे पर आधारित हैं। हम किसी की भी कम्पनी यानी संगत मे रह सकते है सिवाय अपनी संगत के ।तो दूसरे की मौजूदगी के अभाव की दशा को एकाकीपन कहते हैं और अपनी मौजूदगी के भाव की दशा को एकान्त कहते हैं।

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