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    *संसार, जीव  दोनों अनादि से हैं और जीव के कर्म भी अनादि से हैं।  जिनके कारण जीव आज तक यह देह धरते-छोड़ते आया है। चींटी से हस्ती तक देह धरने का परिणाम केवल दुख है। भूख, प्यास, ठंडी, गर्मी, रोग, बुढ़ापा मान, अपमान, संयोग, वियोग, जन्म, मृत्यु  सब दुख है। आखिर यह जीव के विभिन्न दुखों का सिलसिला कब रुकेगा?*
    *जीव में दुख है ही नहीं। जगत में भी दुख नहीं है। लेकिन जब जीव-जगत के संबंध से मन में अहंकार, कामना उत्पन्न हुई तो यहीं से दुख शुरू हुआ। अतः हे दुख ना चाहने वालों मोह का त्याग करो। पूर्ण मोह विहीन स्थिति ही मोक्ष है।*

जय श्री कृष्ण🙏🙏: जीवन में कोई भी चीज इतनी खतरनाक नहीं जितना भ्रम में और डांवाडोल की स्थिति में रहना है। आदमी स्वयं अनिर्णय की स्थिति में रहकर अपना नुकसान करता है। सही समय पर और सही निर्णय ना लेने के कारण ही व्यक्ति असफल भी होता है।
यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं ? महत्वपूर्ण यह है कि आप स्वयं के बारे में क्या सोचते हैं ? स्वयं के प्रति एक क्षण के लिए नकारात्मक ना सोचें और ना ही निराशा को अपने ऊपर हावी होने दें।
सफ़ल होने के लिए 3 बातें बड़ी आवश्यक हैं। सही फैसले लें, साहसी फैसले लें और सही समय पर लें। आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है कि प्रयास की अंतिम सीमाओं तक पहुंचा जाए।

Զเधॆ Զเधॆ

    *जीवन को दो ही तरीके से जिया जा सकता है, तपस्या बनाकर या तमाशा बनाकर। तपस्या का अर्थ जंगल में जाकर आँखे बंद करके बैठ जाना नहीं अपितु अपने दैनिक जीवन में आने वाली समस्याओं को मुस्कुराकर सहने को क्षमता को विकसित कर लेना है।*

     *हिमालय पर जाकर देह को ठंडा करना तपस्या नहीं अपितु हिमालय सी शीतलता दिमाग में रखना जरुर है। किसी के क्रोधपूर्ण वचनों को मुस्कुराकर सह लेना जिसे आ गया, सच समझ लेना उसका जीवन तपस्या ही बन जाता हैं।* 

     *छोटी-छोटी बातों पर जो क्रोध करता है निश्चित ही उसका जीवन एक तमाशा सा बनकर ही रह जाता है। हर समय दिमाग गरम रखकर रहना यह जीवन को तमाशा बनाना है और दिमाग ठंडा रखना ही जीवन को तपस्या सा बनाना है।*

जय श्री कृष्ण🙏🙏
: मानसिक आलस्य बहुत खतरनाक होता है। शरीर द्वारा किसी काम को करने की असमर्थता व्यक्त करना, यह शारीरिक आलस्य है। मगर किसी काम को करने से पहले ही यह सोच लेना कि यह काम मेरे वश का नहीं है अथवा किसी काम को करने से पहले ही हार मानकर बैठ जाना, पीछे हट जाना यह मानसिक आलस्य है।
इस मानसिक आलस्य के कारण बहुत लोग दुखी होते हैं, असफल होते हैं और इसी निराशा के कारण डिप्रेशन तक पहुँच जाते हैं। इस मानसिक आलस्य को दूर करने का उपाय है सदचिन्तन, सकारात्मक चिन्तन और अच्छे लोगों का संग।
एक विचार आदमी के संसार को बदल देता है। यदि वह विचार शुभ है तो वह ना केवल स्वयं की प्रगति का कारण बनता है अपितु दूसरे लोगों के जीवन को भी बदलने तक की सामर्थ्य रखने वाला होता है। अतः हमेशा अच्छा सोचो ताकि मानसिक आलस्य से बच सको।

जय श्री कृष्ण🙏🙏
: आज हम सबके बीच में ये बात बहुत प्रासंगिक है कि हमारे कर्म क्या है और हम अपने कर्म के प्रति सजग, सावधान है या नहीं।

  *अपने कर्म के प्रति जिस दिन हम ईमानदार हो जायेंगे उस दिन सारी समस्यायें स्वतः समाप्त हो जायेंगी। हम बहुत सारे रिश्तों से बंधे हुए है। जिस दिन हम अपने कर्तव्यों को सही निर्वाह करने लगते हैं तो उस दिन से ही हमारे लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।*

 *जिस जीव का जगत का व्यवहार सुधरता है वही कृष्ण प्रेम को प्राप्त कर सकता है। तुम भक्ति मार्ग के पथिक हो, जिस मार्ग पर आप चल रहे हो तो कोई न कोई आपकी जिम्मेदारी है और जिस दिन आपने वह जिम्मेदारी समझ ली उसी समय आपके लिए धर्म पथ प्रशस्त हो जाता है।*

Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏
: कुछ लोगों को बुरा लग सकता है पर कुछ प्रतिशत सत्य है अगर कुछ गलत हो तो संख्या लिख कर उस का सही उत्तर हमे हमारे सम्पर्क पर लिख कर भेज सकते हैं🙏।

जय मातृभूमि…..
वैदिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण का पुत्र विद्या प्राप्ति में असफल रहने पर शूद्र कहलायेगा वैसे ही शूद्र का पुत्र भी विद्या प्राप्ति के उपरांत अपने ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण को प्राप्त कर सकता है। यह सम्पूर्ण व्यवस्था विशुद्ध रूप से गुणवत्ता पर आधारित है। जिस प्रकार शिक्षा पूरी करने के बाद आज उपाधियाँ दी जाती है उसी प्रकार वैदिक व्यवस्था में यज्ञोपवीत दिया जाता था। प्रत्येक वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्यकर्म का पालन व निर्वहन न करने पर यज्ञोपवीत वापस लेने का भी प्रावधान था।
वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण उपस्थित है, जैसे –
(1) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे परन्तु अपने गुणों से उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की थी। ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है |
(2) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे, जुआरी और हीन चरित्र भी थे, परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया था[xxxvi]।
(3) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए[xxxvii]।
(4) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया[xxxviii]।
अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?
(5) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए, पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया[xxxix]।
(6) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया[xl]।
(7) आगे उन्ही के वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए[xli]।
(8) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए।
(9) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने थे।
(10) हारित क्षत्रिय पुत्र से ब्राह्मण हुए थे[xlii]।
(11) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। वायु, विष्णु और हरिवंशपुराण कहते है कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए। इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण है[xliii]।
(12) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने थे[xliv]।
(13) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना था।
(14) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ था।
(15) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे।
(16) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया था, विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया था।
(17) विदुर दासी पुत्र थे तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया था, ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।
इन उदहारणों से यही सिद्ध होता हैं कि वैदिक वर्ण व्यवस्था में वर्ण परिवर्तन का प्रावधान था एवं जन्म से किसी का भी वर्ण निर्धारित नहीं होता था।
मनुस्मृति में भी वर्ण परिवर्तन का स्पष्ट आदेश है[xlv]।
शुद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शुद्र हो जाता है, इसी प्रकार से क्षत्रियों और वैश्यों कि संतानों के वर्ण भी बदल जाते है। अथवा चारों वर्णों के व्यक्ति अपने अपने कार्यों को बदल कर अपने अपने वर्ण बदल सकते है।
शुद्र भी यदि जितेन्द्रिय होकर पवित्र कर्मों के अनुष्ठान से अपने अंत: करण को शुद्ध बना लेता है, वह द्विज ब्राह्मण कि भांति सेव्य होता है। यह साक्षात् ब्रह्मा जी का कथन है[xlvi]।
देवी! इन्हीं शुभ कर्मों और आचरणों से शुद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त होता है और वैश्य क्षत्रियत्व को[xlvii]।
जन्मना जायते शुद्र: संस्कारों द्विज उच्यते। वेद पाठी भवेद् विप्र: बृह्मा जानेति ब्राह्मण: ।।
अर्थात जन्म सब शुद्र होते है, संस्कारों से द्विज होते है। वेद पढ़ कर विप्र होते हैं और ब्रह्मा ज्ञान से ब्राह्मण होते है[xlviii]।
शुभ संस्कार तथा वेदाध्ययन युक्त शुद्र भी ब्राह्मण हो जाता है और दुराचारी ब्राह्मण ब्राह्मणत्व को त्यागकर शुद्र बन जाता है[xlix]।
जिस में सत्य, दान, द्रोह का भाव, क्रूरता का अभाव, लज्जा, दया और तप यह सब सद्गुण देखे जाते हैं वह ब्राह्मण है[l]।
ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न होना, संस्कार, वेद श्रवण, ब्राह्मण पिता कि संतान होना, यह ब्राह्मणत्व के कारण नहीं है, बल्कि सदाचार से ही ब्राह्मण बनता है[li]।
कोई मनुष्य कुल, जाति और क्रिया के कारण ब्राह्मण नहीं हो सकता। यदि चंडाल भी सदाचारी हो तो वह ब्राह्मण हो सकता है[lii]।
: मनुष्य इतना अशांत इतना असहिष्णु इतना बैचेन क्यों है ?? उसे स्वार्थ और मोह ने इतना अंधा क्यों कर रखा है….क्योंकि मनुष्य का सारा चिंतन अहंकार पर केंद्रित है और धन उसके मूल में है ।मेरा धर्म , मेरा परमात्मा, मेरा देश, मेरा परिवार, मेरा घर सिर्फ मैं और , मैं , । सारा जीवन वह ,मैं , इकट्ठा करने में लगा देता है और मर कर तो मरता ही है ,जीते जी भी मर जाता है अहंकार को भरने का बहाना चाहिए आदमी को और अहंकार कभी भरता देखा नहीं गया । इसकी भुख बहुत ही बड़ी है वह अपने मालिक को ही खा जाता है ।
यदि आपके पास अहंकार भाव है तो समझ लेना फिर आपको किसी और शत्रु की जरुरत ही नही क्योंकि अहंकार वो सब काम कर देगा शायद जो काम कोई महाशत्रु भी न कर सके। अहंकार बड़ा ही शक्तिशाली होता है।

Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏
: कुंडली में केतु
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केतु भारतीय ज्योतिष में राहु ग्रह के सिर का धड़ है। यह सिर समुद्र मन्थन के समय मोहिनी अवतार रूपी भगवान विष्णु ने काट दिया था। यह एक छाया ग्रह है। माना जाता है कि इसका मानव जीवन एवं पूरी सृष्टि पर अत्यधिक प्रभाव रहता है। केतु को प्राय: सिर पर कोई रत्न या तारा लिये हुए दिखाया जाता है, जिससे रहस्यमयी प्रकाश निकल रहा होता है।

केतु की स्थिति
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भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु, सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सपेक्ष एक दूसरे के उलटी दिशा में (180 डिग्री पर) स्थित रहते हैं। चूंकि ये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है। सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के कारण ही राहु और केतु की स्थिति भी साथ-साथ बदलती रहती है।
ज्योतिष में केतु अच्छी व बुरी आध्यात्मिकता एवं प्राकृतिक प्रभावों का कार्मिक संग्रह का द्योतक है। केतु विष्णु के मत्स्य अवतार से संबंधित है। केतु, भौतिकीकरण के शोधन के आध्यात्मिक प्रक्रिया का प्रतीक है और हानिकर और लाभदायक, दोनों ही माना जाता है, क्योंकि ये जहां एक ओर दु:ख एवं हानि देता है, वहीं दूसरी ओर एक व्यक्ति को देवता तक बना सकता है। यह व्यक्ति को आध्यात्मिकता की ओर मोडऩे के लिये भौतिक हानि तक करा सकता है। यह ग्रह तर्क, बुद्धि, ज्ञान, वैराग्य, कल्पना, अंतर्दृष्टि, मर्मज्ञता, विक्षोभ और अन्य मानसिक गुणों का कारक है।
माना जाता है कि केतु, सर्पदंश या अन्य रोगों के प्रभाव से हुए विष के प्रभाव से मुक्ति दिलाता है। ये अपने भक्तों को अच्छा स्वास्थ्य, धन-संपदा व पशु-संपदा दिलाता है। मनुष्य के शरीर में केतु अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। ज्योतिष गणनाओं के लिए केतु को तटस्थ अथवा नपुंसक ग्रह मानते हैं। केतु स्वभाव से मंगल की भांति ही एक क्रूर ग्रह है तथा मंगल के प्रतिनिधित्व में आने वाले कई क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व केतु भी करता है। यह ग्रह तीन नक्षत्रों का स्वामी है अश्विनी, मघा एवं मूल नक्षत्र। यही केतु जन्म कुण्डली में राहु के साथ मिलकर कालसर्प योग की स्थिति बनाता है। केतु को सूर्य व चंद्र का शत्रु कहा गया हैं। केतु, मंगल ग्रह की तरह प्रभाव डालता है। केतु वृश्चिक व धनु राशि में उच्च का और वृष व मिथुन में नीच का होता है।

मत्स्य पुराण के अनुसार केतु बहुत-से हैं, उनमें धूमकेतु प्रधान है। भारतीय-ज्योतिष के अनुसार यह छायाग्रह है। व्यक्ति के जीवन-क्षेत्र तथा समस्त सृष्टि को यह प्रभावित करता है। ज्योतिष के अनुसार राहु की अपेक्षा केतु विशेष सौम्य तथा व्यक्ति के लिये हितकारी है। कुछ विशेष परिस्थितियों में यह व्यक्ति को यश के शिखर पर पहुँचा देता है।

यद्यपि राहु-केतु का मूल शरीर एक था और वह दानव-जाति का था। परन्तु ग्रहों में परिगणित होने के पश्चात उनका पुनर्जन्म मानकर उनके नये गोत्र घोषित किये गये। इस आधार पर राहु पैठीनस-गोत्र तथा केतु जैमिनि-गोत्र का सदस्य माना गया।

कुण्डली में केतु
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जन्म कुंडली में लग्न, षष्ठम, अष्ठम और एकादश भाव में केतु की स्थिति को शुभ नहीं माना गया है। इसके कारण जातक के जीवन में अशुभ प्रभाव ही देखने को मिलते हैं। जन्मकुंडली में केतु यदि केंद्र-त्रिकोण में उनके स्वामियों के साथ बैठे हों या उनके साथ शुभ दृष्टि में हों तो योगकारक बन जाते हैं। ऐसी स्थिति में ये अपने शुभ परिणाम जैसे लंबी आयु, धन, भौतिक सुख आदि देते हैं।

केतु के अधीन आने वाले जातक जीवन में अच्छी ऊंचाइयों पर पहुंचते हैं, जिनमें से अधिकांश आध्यात्मिक ऊंचाईयों पर होते हैं।

जातक की जन्म-कुण्डली में विभिन्न भावों में केतु की उपस्थिति भिन्न-भिन्न प्रभाव दिखाती हैं।

👉 प्रथम भाव में अर्थात लग्न में केतु हो तो जातक चंचल, भीरू, दुराचारी होता है। इसके साथ ही यदि वृश्चिक राशि में हो तो सुखकारक, धनी एवं परिश्रमी होता है।

👉 द्वितीय भाव में हो तो जातक राजभीरू एवं विरोधी होता है।

👉तृतीय भाव में केतु हो तो जातक चंचल, वात रोगी, व्यर्थवादी होता है।

👉 चतुर्थ भाव में हो तो जातक चंचल, वाचाल, निरुत्साही होता है।

👉 पंचम भाव में हो तो वह कुबुद्धि एवं वात रोगी होता है।

👉 षष्टम भाव में हो तो जातक वात विकारी, झगड़ालु, मितव्ययी होता है।

👉 सप्तम भाव में हो तो जातक मंदमति, शत्रु से डरने वाला एवं सुखहीन होता है।

👉 अष्टम भाव में हो तो वह दुर्बुद्धि, तेजहीन, स्त्री द्वेषी एवं चालाक होता है।

👉 नवम भाव में हो तो सुखभिलाषी, अपयशी होता है।

👉 दशम भाव में हो तो पितृद्वेषी, भाग्यहीन होता है।

👉 एकादश भाव में केतु हर प्रकार का लाभदायक होता है। इस प्रकार का जातक भाग्यवान, विद्वान, उत्तम गुणों वाला, तेजस्वी किन्तु रोग से पीडि़त रहता है।

👉 द्वादश भाव में केतु हो तो जातक उच्च पद वाला, शत्रु पर विजय पाने वाला, बुद्धिमान, धोखा देने वाला तथा शक्की स्वभाव होता है।

केतु के अन्य ग्रहों से युति के प्रभाव
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👉 सूर्य जब केतु के साथ होता है तो जातक के व्यवसाय, पिता की सेहत, मान-प्रतिष्ठा, आयु, सुख आदि पर बुरा प्रभाव डालता है।

👉 चंद्र यदि केतु के साथ हो और उस पर किसी अन्य शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो व्यक्ति मानसिक रोग, वातरोग, पागलपन आदि का शिकार होता है।

👉 वृश्चिक लग्न में यह योग जातक को अत्यधिक धार्मिक बना देता है।

👉 मंगल केतु के साथ हो तो जातक को हिंसक बना देता है। इस योग से प्रभावित जातक अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं रख पाते और कभी-कभी तो कातिल भी बन जाते हैं।

👉 बुध केतु के साथ हो तो व्यक्ति लाइलाज बीमारी ग्रस्त होता है। यह योग उसे पागल, सनकी, चालाक, कपटी या चोर बना देता है। वह धर्म विरुद्ध आचरण करता है।

👉 केतु गुरु के साथ हो तो गुरु के सात्विक गुणों को समाप्त कर देता है और जातक को परंपरा विरोधी बनाता है। यह योग यदि किसी शुभ भाव में हो तो जातक ज्योतिष शास्त्र में रुचि रखता है।

👉 शुक्र केतु के साथ हो तो जातक दूसरों की स्त्रियों या पर पुरुष के प्रति आकर्षित होता है।

👉 शनि केतु के साथ हो तो आत्महत्या तक कराता है। ऐसा जातक आतंकवादी प्रवृति का होता है। अगर बृहस्पति की दृष्टि हो तो अच्छा योगी होता है।

👉 किसी स्त्री के जन्म लग्न या नवांश लग्न में केतु हो तो उसके बच्चे का जन्म आपरेशन से होता है। इस योग में अगर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो कष्ट कम होता है।

👉 भतीजे एवं भांजे का दिल दुखाने एवं उनका हक छीनने पर केतु अशुभ फल देता है। कुत्ते को मारने एवं किसी के द्वारा मरवाने पर, किसी भी मंदिर को तोडऩे अथवा ध्वजा नष्ट करने पर इसी के साथ ज्यादा कंजूसी करने पर केतु अशुभ फल देता है। किसी से धोखा करने व झूठी गवाही देने पर भी केतु अशुभ फल देते हैं।

अत: मनुष्य को अपना जीवन व्यवस्थित जीना चाहिए। किसी को कष्ट या छल-कपट द्वारा अपनी रोजी नहीं चलानी चाहिए। किसी भी प्राणी को अपने अधीन नहीं समझना चाहिए जिससे ग्रहों के अशुभ कष्ट सहना पड़े।

केतु का सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव:
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गुरु के साथ नकारात्मक केतु अपंगता का इशारा करता है, उसी तरह से सकारात्मक केतु साधन सहित और जिम्मेदारी वाली जगह पर स्थापित होना कहता है, मीन का केतु उच्च का माना जाता है और कन्या का केतु नकारात्मक कहा जाता है, मीन राशि गुरु की राशि है और कन्या राशि बुध की राशि है। गुरु ज्ञान से सम्बन्ध रखता है और बुध जुबान से, ज्ञान और जुबान में बहुत अन्तर है। इसी के साथ अगर शनि के साथ केतु है तो काला कुत्ता कहा जाता है, शनि ठंडा भी है और अन्धकार युक्त भी है, गुरु अगर गर्मी का एहसास करवा दे तो ठंडक भी गर्मी में बदल जाती है, चन्द्र केतु के साथ गुरु की मेहरबानी प्राप्त करने के लिये जातक को धर्म कर्म पर विश्वास करना जरूरी होता है, सबसे पहले वह अपने परिवार के गुरु यानी पिता की महरबानी प्राप्त करे, फिर वह अपने कुल के पुरोहित की मेहरबानी प्राप्त करे, या फिर वह अपने शरीर में विद्यमान दिमाग नामक गुरु की मेहरबानी प्राप्त करे।

मंगल एवं केतु में समानता
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मंगल व केतु दोनों ही जोशीले ग्रह हैं, लेकिन इनका जोश अधिक समय तक नहीं रहता है। दूध की उबाल की तरह इनका जोश जितनी चल्दी आसमान छूने लगता है उतनी ही जल्दी वह ठंडा भी हो जाता है। इसलिए, इनसे प्रभावित व्यक्ति अधिक समय तक किसी मुद्दे पर डटे नहीं रहते हैं, जल्दी ही उनके अंदर का उत्साह कम हो जाता है और मुद्दे से हट जाते हैं। मंगल एवं केतु का यह गुण है कि इन्हें सत्ता सुख काफी पसंद होता है। ये राजनीति में एवं सरकारी मामलों में काफी उन्नति करते हैं। शासित होने की बजाय शासन करना इन्हें रूचिकर लगता है। मंगल एवं केतु दोनों को कष्टकारी, हिंसक, एवं कठोर हृदय वाला ग्रह कहा जाता है। परंतु, ये दोनों ही ग्रह जब देने पर आते हैं तो उदारता की पराकष्ठा दिखाने लगते हैं यानी मान-सम्मान, धन-दौलत से घर भर देते हैं।
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: शनि के लग्न/राशि अनुसार फलों का अध्ययन
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शनि के फलों का विभिन्न दृष्टियों से अध्ययन रामप्रवेश मिश्र शास्त्रों में वर्णन है कि शनि वृद्ध, तीक्ष्ण, आलसी, वायु प्रधान, नपुंसक, तमोगुणी, और पुरुष प्रधान ग्रह है। इसका वाहन गिद्ध है। शनिवार इसका दिन है। स्वाद कसैला तथा प्रिय वस्तु लोहा है। शनि राजदूत, सेवक, पैर के दर्द तथा कानून और शिल्प, दर्शन, तंत्र, मंत्र और यंत्र विद्याओं का कारक है। ऊसर भूमि इसका वासस्थान है। इसका रंग काला है। यह जातक के स्नायु तंत्र को प्रभावित करता है। यह मकर और कुंभ राशियों का स्वामी तथा मृत्यु का देवता है। यह ब्रह्म ज्ञान का भी कारक है, इसीलिए शनि प्रधान लोग संन्यास ग्रहण कर लेते हंै। शनि सूर्य का पुत्र है। इसकी माता छाया एवं मित्र राहु और बुध हैं। शनि के दोष को राहु और बुध दूर करते हैं। शनि दंडाधिकारी भी है। यही कारण है कि यह साढ़े साती के विभिन्न चरणों में जातक को कर्मानुकूल फल देकर उसकी उन्नति व समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है। कृषक, मजदूर एवं न्याय विभाग पर भी शनि का अधिकार होता है। जब गोचर में शनि बली होता है तो इससे संबद्ध लोगों की उन्नति होती है। कुंडली की विभिन्न भावों में शनि की स्थिति के शुभाशुभ फल- शनि 3, 6,10, या 11 भाव में शुभ प्रभाव प्रदान करता है। प्रथम, द्वितीय, पंचम या सप्तम भाव में हो तो अरिष्टकर होता है। चतुर्थ, अष्टम या द्वादश भाव में होने पर प्रबल अरिष्टकारक होता है। यदि जातक का जन्म शुक्ल पक्ष की रात्रि में हुआ हो और उस समय शनि वक्री रहा हो तो शनिभाव बलवान होने के कारण शुभ फल प्रदान करता है। शनि सूर्य के साथ 15 अंश के भीतर रहने पर अधिक बलवान होता है। जातक की 36 एवं 42 वर्ष की उम्र में अति बलवान होकर शुभ फल प्रदान करता है। उक्त अवधि में शनि की महादशा एवं अंतर्दशा कल्याणकारी होती है। शनि निम्नवर्गीय लोगों को लाभ देने वाला एवं उनकी उन्नति का कारक है। शनि हस्त कला, दास कर्म, लौह कर्म, प्लास्टिक उद्योग, रबर उद्योग, ऊन उद्योग, कालीन निर्माण, वस्त्र निर्माण, लघु उद्योग, चिकित्सा, पुस्तकालय, जिल्दसाजी, शस्त्र निर्माण, कागज उद्योग, पशुपालन, भवन निर्माण, विज्ञान, शिकार आदि से जुड़े लोगों की सहायता करना है। यह कारीगरों, कुलियों, डाकियों, जेल अधिकारियों, वाहन चालकों आदि को लाभ पहुंचाता है तथा वन्य जन्तुओं की रक्षा करता है। शनि से अन्य लाभ शनि और बुध की युति जातक को अन्वेषक बनाती है। चतुर्थेश शनि बलवान हो तो जातक को भूमि का पूर्ण लाभ मिलता है। लग्नेश तथा अष्टमेश शनि बलवान हो तो जातक दीर्घायु होता है। तुला, धनु, एवं मीन का शनि लग्न में हो तो जातक धनवान होता है। वृष तथा तुला लग्न वालो को शनि सदा शुभ फल प्रदान करता है। वृष लग्न के लिए अकेला शनि राजयोग प्रदान करता है। कन्या लग्न के जातक को अष्टमस्थ शनि प्रचुर मात्रा में धन देता है तथा वक्री हो तो अपार संपति का स्वामी बनाता है। शनि यदि तुला, मकर, कुंभ या मीन राशि का हो तो जातक को मान-सम्मान, उच्च पद एवं धन की प्राप्ति होती है। शनि से शश योग- शनि लग्न से केंद्र में तुला, मकर या कंुभ राशि में स्थित हो तो शश योग बनता है। इस योग में व्यक्ति गरीब घर में जन्म लेकर भी महान हो जाता है। यह योग मेष, वृष, कर्क, सिंह, तुला वृश्चिक, मकर एवं कुंभ लग्न में बनता है। भगवान राम, रानी लक्ष्मी बाई, पं. मदन मोहन मालवीय, सरदार बल्लभ भाई पटेल, आदि की कुंडली में भी यह योग विद्यमान है।

विभिन्न लग्नों में शनि की स्थिति के शुभाशुभ फल
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मेष:🐐
इस लग्न में शनि कर्मेश तथा लाभेश होता है। इस लग्न वालों के लिए यह नैसर्गिक रूप से अशुभ है, लेकिन आर्थिक मामलों में लाभदायक होता है।

वृष:🐂
इस लग्न में केंद्र शनि तथा त्रिकोण का स्वामी होता है। उसकी इस स्थिति के फलस्वरूप जातक को राजयोग एवं संपति की प्राप्ति होती है।

मिथुन💏
इस लग्न में यदि शनि अष्टमेश या नवमेश होता है। यह जातक को दीर्घायु बनाता है।

कर्क:🦀
इस लग्न में शनि अति अकारक होता है।

सिंह:🦁
इस लग्न में यह षष्ठ एवं सप्तम घर का स्वामी होता है। इस स्थिति में यह रोग एवं कर्ज देता है तथा धन का नाश करता है।

कन्या:👩
इस लग्न में शनि पंचम् तथ षष्ठ स्थान का स्वामी होकर सामान्य फल देता है। यदि इस लग्न में अष्टम स्थान में नीच राशि का हो तो व्यक्ति को करोड़पति बना देता है।

तुला:⚖️
इस लग्न के लिए शनि चतुर्थेश तथा पंचमेश होता है। यह अत्यंत योगकारक होता है।

वृश्चिकः🦂
इस लग्न में शनि तृतीयेश एवं चतुर्थेश होकर अकारक होता है, किंतु बुरा फल नहीं देता।

धनु:🏹
इस लग्न के लिए शनि निर्मल होने पर धनदायक होता है, लेकिन अशुभ फल भी देता है।

मकर:🐊
इस लग्न के लिए शनि अति शुभ होता है।

कुंभ:🍯
इस लग्न के लिए भी यह अति शुभ होता है।

मीनः🐳
शनि मीन लग्न वालों को धन देता है, लेकिन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।

भाव के अनुसार शनि का फल
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प्रथम👉 भाव में शनि तांत्रिक बनाता है, किंतु शारीरिक कष्ट देता है और पत्नी से मतभेद कराता है।

द्वितीय👉 भाव में शनि संपति देता है, लेकिन लाभ के स्रोत कम करता है तथा वैराग्य भी देता है।

तृतीय👉 भाव में शनि पराक्रम एवं पुरुषार्थ देता है। शत्रु का भय कम होता है।

चतुर्थ👉 भाव में शनि हृदय रोग का कारक होता है, हीन भावना से युक्त करता है और जीवन नीरस बनाता है।

पंचम 👉 भाव में शनि रोगी संतान देता है तथा दिवालिया बनाता है।

षष्ठ👉 भाव में शनि होने पर चोर, शत्रु या सरकार जातक का कोई नुकसान नहीं कर सकता है। उसे पशु-पक्षी से धन मिलता है।

सप्तम👉 भाव में स्थित शनि जातक को अस्थिर स्वभाव का तथा व्यभिचारी बनाता है। उसकी स्त्री झगड़ालू होती है।

अष्टम👉 भाव में स्थित शनि धन का नाश कराता है। इसकी इस स्थिति के कारण घाव, भूख या बुखार से जातक की मृत्यु होती है। दुर्घटना की आशंका रहती है।

नवम्👉 भाव में शनि जातक को संन्यास की ओर प्रेरित करता है। उसे दूसरों को कष्ट देने में आनंद मिलता है। 36 वर्ष की उम्र में उसका भाग्योदय होता है।

दशम👉 स्थान का शनि जातक को उन्नति के शिखर तक पहुंचाता है। साथ ही स्थायी संपति भी देता है।

एकादश👉 भाव में स्थित शनि के कारण जातक अवैध स्रोतों से धनोपार्जन करता है। उसकी पुत्र से अनबन रहती है।

द्वादश👉 भाव में शनि अपनी दशा-अतंर्दशा में जातक को करोड़पति बनाकर दिवालिया बना देता है।

लघु कल्याणी या ढैया जब शनि गोचर में जन्म राशि से चतुर्थ भाव में भ्रमण करता है तो इस अवधि को लघु कल्याणी ढैया कहा जाता है। दो वर्ष छः माह की इस अवधि में जातक को अधिक कष्ट नहीं होता है। थोड़ी मानसिक परेशानी होती है। किंतु यदि शनि तुला, धनु, मकर, कुंभ या मीन का हो तो भवन और वाहन देता है।

ढैया के अन्य शुभाशुभ फल:👉 जब शनि गोचर में जन्म राशि से अष्टम भाव में जाता है तो व्यक्ति वात रोग से ग्रस्त होता है। उसके पैरों में दर्द की संभावना होती है, लेकिन दशा एवं महादशा अच्छी हो तो दर्द का अनुभव नहीं होता है। कन्या लग्न वाले को यह ढैया अपार संपति देती है, क्योंकि द्वितीय भाव पर शनि की उच्च दृष्टि होती है।

शनि की साढ़े साती:👉 दीर्घायु लोगों के जीवन में साढ़े साती तीन बार आती है।

प्रथमबार की साढे़ साती जातक के शरीर एवं मां-बाप को प्रभावित करती है।
द्वितीय साढ़े साती कार्य, रुचि, आर्थिक स्थिति एवं पत्नी पर प्रभाव डालती है।
तृतीय साढ़े साती जातक के स्वास्थ्य पर अत्यधिक प्रभाव डालती है। किसी-किसी जातक की मृत्यु भी हो जाती है। साढ़े साती का भी अनुकूल प्रभाव: शनि की साढ़े साती हमेशा अशुभ ही हो, यह जरूरी नहीं। अपने विभिन्न चरणों में यह शुभ फल भी देती है। विभिन्न राशियो में इसके शुभ प्रभाव का विश्लेषण यहां प्रस्तुत है।

मेष: इस राशि के लोगों को अंतिम ढाई वर्षों के दौरान शुभ फल मिलता है।

वृष: इस राशि वालों के लिए मध्य तथा अंत के ढाई वर्ष शुभ होते हैं। इस दौरान जातक की उन्नति होती है और उस संपति की प्राप्ति होती है।

मिथुन: इस राशि के लिए आरंभ के ढाई वर्ष अनुकूल होते हैं। इस दौरान जातक की तीर्थ यात्रा होती है एवं शुभ कार्य पर धन खर्च होता है।

कर्क: आरंभ के ढाई वर्ष शुभ होते हैं।

सिंह: अंत के ढाई वर्ष शुभ होते हैं।

कन्या: अंत के ढाई वर्ष शुभ होते हैं, आर्थिक कष्ट नहीं होता है।

तुला: मध्य के ढाई वर्ष शुभ होते है।

वृश्चिक: आरंभ के ढाई वर्ष शुभ होते हैं।

धनु: मध्य के ढाई वर्ष शुभ होते हैं।

मकर: आरंभ तथा अंत के ढाई वर्ष शुभ होते है।

कुंभ: मध्य एवं अंत के ढाई वर्षों के दौरान सुख-शांति मिलती है।

मीन: इस राशि के लिए मध्य के ढाई वर्ष शुभ होते है।

विशेष:👉 इस तरह ढैया एवं साढ़े साती शुभ तथा अशुभ दोनों फल प्रदान करती हैं। लेकिन जब गोचर में शनि तृतीय, षष्ठ या एकादश भाव में प्रवेश करता है तो पूर्ण अनुकूल फल प्रदान करता है।

शनि की कुछ अन्य स्थितियों के शुभाशुभ फल
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ तृतीय भाव का शनि स्वास्थ्य लाभ, आराम तथा शांति प्रदान करता है। साथ ही, शत्रु पर विजय दिलाता है। षष्ठ भाव का शनि सफलता, भूमि भवन, संपति एवं राज्य लाभ कराता है। एकादश भाव का शनि पदोन्नति, लाभ तथा मान सम्मान में वृद्धि कराता है। साथ ही भूमि तथा मशीनरी का लाभ देता है। जिन जातकों के जन्म काल में शनि वक्री होता है वे भाग्यवादी होते हैं। उनके क्रिया-कलाप किसी अदृश्य भक्ति से प्रभावित होते है वे एकांतवासी होकर प्रायः साधना में लगे रहते हैं। धनु, मकर, कुंभ और मीन राशि में शनि वक्री होकर लग्न में स्थित हो, तो जातक राजा या गांव का मुखिया होता है और राजतुल्य वैभव पाता है। द्वितीय स्थान का शनि वक्री हो तो जातक को प्रदेश तथा विदेश से धन की प्राप्ति होती है। तृतीय भाव का वक्री शनि जातक को गूढ़ विद्याओं का ज्ञाता बनाता है, लेकिन माता के लिए अच्छा नहीं होता है। चतुर्थ भावस्थ शनि मातृ हीन, भवन हीन बनाता है। ऐसा व्यक्ति घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी नहीं निभाता और अंत में संन्यासी बन जाता है। लेकिन, चतुर्थ में शनि तुला, मकर या कुंभ राशि का हो तो जातक को पूर्वजों की संपति प्राप्त होती है। पंचम भाव का वक्री शनि प्रेम संबंध देता है। लेकिन जातक प्रेमी को धोखा देता है। वह पत्नी एवं बच्चे की भी परवाह नहीं करता है। षष्ठ भाव का वक्री शनि यदि निर्बल हो तो रोग, शत्रु एवं ऋण कारक होता है। सप्तम भाव का वक्री शनि पति या पत्नी वियोग देता है। यदि शनि मिथुन, कन्या, धनु या मीन का हो तो एक से अधिक विवाहों अथवा विवाहेतर संबंधों कारक होता है। अष्टम भाव में शनि हो तो जातक ज्योतिषी दैवज्ञ, दार्शनिक एवं वक्ता होता है। ऐसा व्यक्ति तांत्रिक, भूतविद्या, काला जादू आदि से धन कमाता है। नवमस्थ वक्री शनि जातक की पूर्वजों से प्राप्त धन में वृद्धि करता है। उसे धर्म परायण एवं आर्थिक संकट आने पर धैर्यवान बनाता है। दशमस्थ शनि वक्री हो तो जातक वकील, न्यायाधीश, बैरिस्टर, मुखिया, मंत्री या दंडाधिकारी होता है। एकादश भाव का शनि जातक को चापलूस बनाता है। व्यय भावस्थ वक्री शनि निर्दयी एवं आलसी बनाता है।

शनि दोष निवारण के सरल उपाय
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शनिवार को सूर्योदय से पूर्व स्नानादि से निर्वति होकर गुड़ मिश्रित जल पीपल के वृक्ष की जड़ में दें एवं शाम को तिल के तेल का दीप पीपल के नीचे जलाएं। अगर जातक को कष्ट बहुत हो, तो उसे शनिवार को भोजन में नमक नहीं लेना चाहिए और आचरण पवित्र रखना चाहिए घर में दशरथ कृत शनि स्तोत्र का पाठ श्रद्धापूर्वक करें। जब तक शनि की महादशा अंतर्दशा, साढ़े साती अथवा ढैया का प्रकोप हो, तब तक मांस, मछली, शराब आदि का सेवन न करें। कौए एवं काले कुते को प्रति दिन एक बार भोजन दें। स काले घोड़े की नाल की अंगूठी सप्ताह भर गोबर में रखकर पवित्र करें और फिर उसे बायें हाथ की मध्यमा में शनिवार को धारण करें। यथाशक्ति काले उड़द, काले तिल, कुलथी, लोहा, काले कपड़े, जूते और छाते दक्षिणा सहित दान करें। शनिवार को ब्रह्मचर्य का पालन करें।
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: सूर्य और सात घोडो का रहस्य
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रोचक तथ्य
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हिन्दू धर्म में देवी-देवताओं तथा उनसे जुड़ी कहानियों का इतिहास काफी बड़ा है या यूं कहें कि कभी ना खत्म होने वाला यह इतिहास आज विश्व में अपनी एक अलग ही पहचान बनाए हुए है। विभिन्न देवी-देवताओं का चित्रण, उनकी वेश-भूषा और यहां तक कि वे किस सवारी पर सवार होते थे यह तथ्य भी काफी रोचक हैं।

सूर्य रथ
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हिन्दू धर्म में विघ्नहर्ता गणेश जी की सवारी काफी प्यारी मानी जाती है। गणेश जी एक मूषक यानि कि चूहे पर सवार होते हैं जिसे देख हर कोई अचंभित होता है कि कैसे महज एक चूहा उनका वजन संभालता है। गणेश जी के बाद यदि किसी देवी या देवता की सवारी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है तो वे हैं सूर्य भगवान।

क्यों जुते हैं सात घोड़े
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सूर्य भगवान सात घोड़ों द्वारा चलाए जा रहे रथ पर सवार होते हैं। सूर्य भगवान जिन्हें आदित्य, भानु और रवि भी कहा जाता है, वे सात विशाल एवं मजबूत घोड़ों पर सवार होते हैं। इन घोड़ों की लगाम अरुण देव के हाथ होती है और स्वयं सूर्य देवता पीछे रथ पर विराजमान होते हैं।

सात की खास संख्या
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लेकिन सूर्य देव द्वारा सात ही घोड़ों की सवारी क्यों की जाती है? क्या इस सात संख्या का कोई अहम कारण है? या फिर यह ब्रह्मांड, मनुष्य या सृष्टि से जुड़ी कोई खास बात बताती है। इस प्रश्न का उत्तर पौराणिक तथ्यों के साथ कुछ वैज्ञानिक पहलू से भी बंधा हुआ है।

कश्यप और अदिति की संतानें
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सूर्य भगवान से जुड़ी एक और खास बात यह है कि उनके 11 भाई हैं, जिन्हें एकत्रित रूप में आदित्य भी कहा जाता है। यही कारण है कि सूर्य देव को आदित्य के नाम से भी जाना जाता है। सूर्य भगवान के अलावा 11 भाई ( अंश, आर्यमान, भाग, दक्ष, धात्री, मित्र, पुशण, सवित्र, सूर्या, वरुण, वमन, ) सभी कश्यप तथा अदिति की संतान हैं।

वर्ष के 12 माह के समान
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पौराणिक इतिहास के अनुसार कश्यप तथा अदिति की 8 या 9 संतानें बताई जाती हैं लेकिन बाद में यह संख्या 12 बताई गई। इन 12 संतानों की एक बात खास है और वो यह कि सूर्य देव तथा उनके भाई मिलकर वर्ष के 12 माह के समान हैं। यानी कि यह सभी भाई वर्ष के 12 महीनों को दर्शाते हैं।

सूर्यदेव की दो पत्नियां
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सूर्य देव की दो पत्नियां – संज्ञा एवं छाया हैं जिनसे उन्हें संतान प्राप्त हुई थी। इन संतानों में भगवान शनि और यमराज को मनुष्य जाति का न्यायाधिकारी माना जाता है। जहां मानव जीवन का सुख तथा दुख भगवान शनि पर निर्भर करता है वहीं दूसरी ओर शनि के छोटे भाई यमराज द्वारा आत्मा की मुक्ति की जाती है। इसके अलावा यमुना, तप्ति, अश्विनी तथा वैवस्वत मनु भी भगवान सूर्य की संतानें हैं। आगे चलकर मनु ही मानव जाति का पहला पूर्वज बने।

सूर्य भगवान का रथ
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सूर्य भगवान सात घोड़ों वाले रथ पर सवार होते हैं। इन सात घोड़ों के संदर्भ में पुराणों तथा वास्तव में कई कहानियां प्रचलित हैं। उनसे प्रेरित होकर सूर्य मंदिरों में सूर्य देव की विभिन्न मूर्तियां भी विराजमान हैं लेकिन यह सभी उनके रथ के साथ ही बनाई जाती हैं।

कोणार्क मंदिर
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विशाल रथ और साथ में उसे चलाने वाले सात घोड़े तथा सारथी अरुण देव, यह किसी भी सूर्य मंदिर में विराजमान सूर्य देव की मूर्ति का वर्णन है। भारत में प्रसिद्ध कोणार्क का सूर्य मंदिर भगवान सूर्य तथा उनके रथ को काफी अच्छे से दर्शाता है।

सात से कम या ज्यादा क्यों नहीं
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लेकिन इस सब से हटकर एक सवाल काफी अहम है कि आखिरकार सूर्य भगवान द्वारा सात ही घोड़ों की सवारी क्यों की जाती हैं। यह संख्या सात से कम या ज्यादा क्यों नहीं है। यदि हम अन्य देवों की सवारी देखें तो श्री कृष्ण द्वारा चालए गए अर्जुन के रथ के भी चार ही घोड़े थे, फिर सूर्य भगवान के सात घोड़े क्यों? क्या है इन सात घोड़ों का इतिहास और ऐसा क्या है इस सात संख्या में खास जो सूर्य देव द्वारा इसका ही चुनाव किया गया।

सात घोड़े और सप्ताह के सात दिन
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सूर्य भगवान के रथ को संभालने वाले इन सात घोड़ों के नाम हैं – गायत्री, भ्राति, उस्निक, जगति, त्रिस्तप, अनुस्तप और पंक्ति। कहा जाता है कि यह सात घोड़े एक सप्ताह के सात दिनों को दर्शाते हैं। यह तो महज एक मान्यता है जो वर्षों से सूर्य देव के सात घोड़ों के संदर्भ में प्रचलित है लेकिन क्या इसके अलावा भी कोई कारण है जो सूर्य देव के इन सात घोड़ों की तस्वीर और भी साफ करता है।

सात घोड़े रोशनी को भी दर्शाते हैं
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पौराणिक दिशा से विपरीत जाकर यदि साधारण तौर पर देखा जाए तो यह सात घोड़े एक रोशनी को भी दर्शाते हैं। एक ऐसी रोशनी जो स्वयं सूर्य देवता यानी कि सूरज से ही उत्पन्न होती है। यह तो सभी जानते हैं कि सूर्य के प्रकाश में सात विभिन्न रंग की रोशनी पाई जाती है जो इंद्रधनुष का निर्माण करती है।

बनता है इंद्रधनुष
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यह रोशनी एक धुर से निकलकर फैलती हुई पूरे आकाश में सात रंगों का भव्य इंद्रधनुष बनाती है जिसे देखने का आनंद दुनिया में सबसे बड़ा है।

प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न
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सूर्य भगवान के सात घोड़ों को भी इंद्रधनुष के इन्हीं सात रंगों से जोड़ा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि हम इन घोड़ों को ध्यान से देखें तो प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न है तथा वह एक-दूसरे से मेल नहीं खाता है। केवल यही कारण नहीं बल्कि एक और कारण है जो यह बताता है कि सूर्य भगवान के रथ को चलाने वाले सात घोड़े स्वयं सूरज की रोशनी का ही प्रतीक हैं।

पौराणिक गाथा से इतर
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यदि आप किसी मंदिर या पौराणिक गाथा को दर्शाती किसी तस्वीर को देखेंगे तो आपको एक अंतर दिखाई देगा। कई बार सूर्य भगवान के रथ के साथ बनाई गई तस्वीर या मूर्ति में सात अलग-अलग घोड़े बनाए जाते हैं, ठीक वैसा ही जैसा पौराणिक कहानियों में बताया जाता है लेकिन कई बार मूर्तियां इससे थोड़ी अलग भी बनाई जाती हैं।

अलग-अलग घोड़ों की उत्पत्ति
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कई बार सूर्य भगवान की मूर्ति में रथ के साथ केवल एक घोड़े पर सात सिर बनाकर मूर्ति बनाई जाती है। इसका मतलब है कि केवल एक शरीर से ही सात अलग-अलग घोड़ों की उत्पत्ति होती है। ठीक उसी प्रकार से जैसे सूरज की रोशनी से सात अलग रंगों की रोशनी निकलती है। इन दो कारणों से हम सूर्य भगवान के रथ पर सात ही घोड़े होने का कारण स्पष्ट कर सकते हैं।

सारथी अरुण
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पौराणिक तथ्यों के अनुसार सूर्य भगवान जिस रथ पर सवार हैं उसे अरुण देव द्वारा चलाया जाता है। एक ओर अरुण देव द्वारा रथ की कमान तो संभाली ही जाती है लेकिन रथ चलाते हुए भी वे सूर्य देव की ओर मुख कर के ही बैठते है !

केवल एक ही पहिया
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रथ के नीचे केवल एक ही पहिया लगा है जिसमें 12 तिल्लियां लगी हुई हैं। यह काफी आश्चर्यजनक है कि एक बड़े रथ को चलाने के लिए केवल एक ही पहिया मौजूद है, लेकिन इसे हम भगवान सूर्य का चमत्कार ही कह सकते हैं। कहा जाता है कि रथ में केवल एक ही पहिया होने का भी एक कारण है।

पहिया एक वर्ष को दर्शाता है
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यह अकेला पहिया एक वर्ष को दर्शाता है और उसकी 12 तिल्लियां एक वर्ष के 12 महीनों का वर्णन करती हैं। एक पौराणिक उल्लेख के अनुसार सूर्य भगवान के रथ के समस्त 60 हजार वल्खिल्या जाति के लोग जिनका आकार केवल मनुष्य के हाथ के अंगूठे जितना ही है, वे सूर्य भगवान को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा करते हैं। इसके साथ ही गांधर्व और पान्नग उनके सामने गाते हैं औरअप्सराएं उन्हें खुश करने के लिए नृत्य प्रस्तुत करती हैं।

ऋतुओं का विभाजन
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कहा जाता है कि इन्हीं प्रतिक्रियाओं पर संसार में ऋतुओं का विभाजन किया जाता है। इस प्रकार से केवल पौराणिक रूप से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों से भी जुड़ा है भगवान सूर्य का यह विशाल रथ।
: ग्रहों की अवस्थाएं

राशि, अंशों, भावों तथा पारस्परिक सम्बन्धों के अनुसार ग्रहों की भिन्न-भिन्न प्रकार से अवस्थाएं मानी गयी हैं। ग्रह अपनी अवस्थानुसार ही फल देते हैं। ग्रहों की अवस्था का वर्गीकरण निम्नानुसार है:-

१. अंशों के आधार पर अवस्था

अंशों के आधार पर ग्रहों को पांच आयुवर्गों में बांटा गया है। विषम राशियों में बढ़ते हुए अंशों में बालक से मृत तथा सम राशियों में घटते हुए अंशों में बालक से मृत के क्रम में ग्रहों की आयु मानी गयी है।

क) ग्रह विषम राशियों में ६° तक बालक, ६° से १२° तक कुमार, १२° से १८° तक युवा, १८° से २४° तक वृद्ध तथा २४° से ३०° तक मृत अवस्था में रहता है।

ख) ग्रह सम राशियों में ३०° से २४° तक बालक, २४° से १८° तक कुमार, १८° से १२° तक युवा, १२° से ६° तक वृद्ध तथा ६° से नीचे मृत अवस्था में होता है।

बाल्यावस्था में ग्रह का फल कम, कुमारावस्था में आधा, युवावस्था में पूर्ण, वृद्धावस्था में कम तथा मृतावस्था में नगण्य रहता है।

२. चैतन्यता के आधार पर अवस्था

क) विषम राशि में ग्रह १०° तक जागृत, १०° से २०° तक स्वप्न तथा २०° से ३०° तक सुषुप्तावस्था में रहते हैं।

ख) सम राशि में ग्रह १०° तक सुषुप्त, १०° से २०° तक स्वप्न तथा २०° से ३०° तक जागृत अवस्था में रहता है।

ग्रह की जागृत अवस्था कार्यसिद्धि करती है, स्वप्नावस्था मध्यम फल देती है तथा सुषुप्तावस्था निष्फल होती है।

३. दीप्ति के अनुसार अवस्था

क) दीप्त – उच्च राशिस्थ ग्रह दीप्त कहलाता है। जिसका फल कार्यसिद्धि है।

ख ) स्वस्थ – स्वगृही ग्रह स्वस्थ होता है, जिसका फल लक्ष्मी व कीर्ति प्राप्ति है।

ग) मुदित – मित्रक्षेत्री ग्रह मुदित होता है, जो आनन्द देता है।

घ) दीन – नीच राशिस्थ ग्रह दीन होता है, जो कष्टदायक होता है।

ड़ ) सुप्त – शत्रुक्षेत्री ग्रह सुप्त होता है, जिसका फल शत्रु से भय होता है।

च) निपीड़ित – जो ग्रह किसी अन्य ग्रह से अंशो में पराजित हो जाये उसे निपीड़ित कहते हैं, यानि एक ग्रह की गति तीव्र हो तथा वह किसी दूसरे ग्रह से कम अंशों पर उसी राशि में हो, परन्तु गति वाला ग्रह उस ग्रह के बराबर अंशों में आगे आकर बढ़ जाए तो पीछे रहने वाला ग्रह पराजित अथवा निपीड़ित ग्रह कहलाता है, जिसका फल धनहानि है।

छ) हीन – नीच अंशोन्मुखी ग्रह हीन कहलाता है, जिसका फल धनहानि है।

ज) सुवीर्य – उच्च अंशोन्मुखी ग्रह सुवीर्य कहलाता है, जो सम्पत्ति वृद्धि करता है।

झ) मुषित – अस्त होने वाले ग्रह को मुषित कहते हैं, जिसका फल कार्यनाश है।

ञ) अधिवीर्य – शुभ वर्ग में अच्छी कांति वाले ग्रह को अधिवीर्य कहते हैं, जिसका फल कार्यसिद्धि है।

४. क्षेत्र, युति तथा दृष्टि के आधार पर अवस्था

क) लज्जित – पंचम स्थान में राहु-केतु के साथ अथवा सूर्य, शनि या मंगल के साथ अन्य ग्रह लज्जित होता है।

ख ) गर्वित – उच्च राशि या मूल त्रिकोण का ग्रह गर्वित होता है।

ग) क्षुधित – शत्रु के घर में, शत्रु से युक्त अथवा दृष्ट अथवा शनि से दृष्ट ग्रह क्षुधित होता है।

घ) तृषित – जल राशि (कर्क, वृश्चिक, मीन) में शत्रु से दृष्ट, परन्तु शुभ ग्रह से दृष्ट न हो तो ग्रह तृषित कहलाता है।

ड़ ) मुदित – मित्र के घर में, मित्र से युक्त, अथवा दृष्ट अथवा गुरु से युक्त ग्रह मुदित कहलाता है।

च) क्षोभित – सूर्य से युक्त, पाप या शत्रु से दृष्ट ग्रह क्षोभित कहलाता है।

फल –

क) जिस भाव में क्षुधित या क्षोभित ग्रह हों उस भाव की हानि करते हैं।

ख) गर्वित या मुदित ग्रह भाव की वृद्धि करते हैं।

ग) यदि कर्म स्थान में क्षोभित, क्षुधित, तृषित अथवा लज्जित ग्रह हों तो जातक दरिद्र तथा दुःखी होता है।

घ) पंचम स्थान में लज्जित ग्रह संतान नष्ट करता है।

ड़) सप्तम स्थान में क्षोभित, क्षुधित अथवा तृषित ग्रह पत्नी का नाश करता है।

कुल मिला कर गर्वित व मुदित ग्रह एक प्रकार से सुख देते हैं, जबकि लज्जित, क्षुधित, तृषित एवं क्षोभित ग्रह कष्ट देने वाले होते हैं।

५. सूर्य से दूरी के अनुसार अवस्था

क) अस्तंगत – सूर्य से युक्त ग्रह (राहु केतु को छोड़कर) अस्त कहलाते हैं। चंद्रमा सूर्य से १२°, मंगल १०°, वक्री बुध १२°, मार्गी बुध १४°, गुरु ११°, वक्री शुक्र ८°, मार्गी शुक्र १०° तथा शनि १५° की दूरी तक सूर्य की प्रखर किरणों के कारण अस्तंगत होते हैं। ऐसे ग्रहों को मुषित कहते हैं।

ख ) उदयी – सूर्य से उपरोक्त अंशों से अधिक दूर हो जाने पर ग्रह उदय हो जाते हैं।

पूर्वोदयी – जो ग्रह सूर्य से धीमा हो तथा सूर्य से अंशों में कम हो उसका उदय पूर्व में होता है।

पश्चिमोदयी – जो ग्रह सूर्य की अपेक्षा तीव्र हों तथा सूर्य से अधिक अंशों पर हो, उसका उदय पश्चिम से होता है।

पूर्वास्त – जो ग्रह सूर्य की अपेक्षा तीव्र हों और सूर्य से कम अंशों में हों, उसका अस्त पूर्व में होता है।

पश्चिमास्त – जो ग्रह सूर्य की अपेक्षा धीमा हो और सूर्य से अधिक अंशों में हों, उस ग्रह का अस्त पश्चिम में होता है।

६. गति के अनुसार अवस्था –

क) सूर्य तथा चंद्रमा सदैव मार्गी रहते हैं। मेष से वृषभ, मिथुन आदि के क्रम में चलने वाले।

ख) राहु और केतु सदैव वक्री रहते हैं। मिथुन से वृषभ आदि के क्रम में चलने वाले।

ग) शेष ग्रह मंगल, बुध, गुरु व शनि सामान्यतः मार्गी होते हैं पर बीच-बीच में वक्री भी हो जाते हैं।

घ) इन ग्रहों की गति मार्गी से वक्री तथा मार्गी से वक्री होते समय अति मंद हो जाती है।

ड़) यह ग्रह वक्री होने के कुछ दिन पहले व कुछ दिन बाद तक स्थिर दिखाई पड़ते हैं।

७, सूर्य से भावों की दूरी के अनुसार अवस्था –

क ) सूर्य से दूसरे स्थान पर ग्रहों की गति तीव्र हो जाती है।

ख ) सूर्य से तीसरे स्थान पर सम तथा चौथे स्थान पर गति मंद हो जाती है।

ग) सूर्य से पांचवे व छठे स्थान पर ग्रह वक्री हो जाता है।

घ) सूर्य से सातवें व आठवें स्थान पर ग्रह अतिवक्री हो जाता है।

ड़ ) सूर्य से नवें व दसवें स्थान पर ग्रह मार्गी हो जाता है।

च) सूर्य से ग्यारहवें व बारहवें स्थान पर ग्रह पुनः तीव्र हो जाता है।

क्रूर ग्रह वक्री होने पर अधिक क्रूर फल देते हैं, परन्तु सौम्य ग्रह वक्री होने पर अति शुभ फल देते हैं।
: ग्रहों की स्थिति के आधार पर दशा का अवलोकन |

जन्म कुण्डली में महादशा के फल अथवा अन्तर्दशा के फल ग्रहों की कुंडली में स्थिति पर निर्भर करते हैं और महादशा में अन्तर्दशा के फल दोनो ग्रहों की एक-दूसरे से परस्पर स्थिति पर निर्भर करते हैं. आइए इसे कुछ बिंदुओ की सहायता से समझने का प्रयास करते हैं.

महादशानाथ यदि राहु/केतु अक्ष पर स्थित है तब यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है.
जब द्वादशेश की युति द्वित्तीयेश के साथ होती है या दृष्टि होती है तब वह अपनी दशा/अन्तर्दशा में वह एक बली मारक बन सकता है.
जन्म कुंडली में केन्द्र के शुभ स्वामी ग्रह अपने मित्र की दशा/अन्तर्दशा में शुभ फल प्रदान करते हैं.
सर्वाष्टकवर्ग में जिस ग्रह से 11वें भाव में अधिकतम बिंदु होते हैं या जो ग्रह स्वयं अधिक बिंदुओ के साथ कुंडली में स्थित होता है उस ग्रह की दशा/अन्तर्दशा शुभ फल प्रदान करती है.
यदि जन्म कुंडली में शुक्र तथा शनि दोनो ही बली अवस्था में स्थित हो तब यह दोनो अपनी दशा/अन्तर्दशा में व्यक्ति को असफलताएँ प्रदान कराते हैं. लेकिन यदि यह दोनो ग्रह एक-दूसरे से छठे, आठवें या बारहवें भाव में हों या एक-दूसरे से त्रिक भावों में स्थित हो तब यह यह एक-दूसरे की दशा में शुभ फल प्रदान करते हैं.
यदि जन्म कुंडली का उच्च का ग्रह नवांश में नीच का हो जाता है तब वह शुभ व अच्छे फल देने में असफल रहता है. यदि जन्म कुंडली का नीच का ग्रह नवांश में उच्च का हो जाता है तब वह अपनी दशा/अन्तर्दशा में शुभ फल प्रदान करता है.
राहु यदि त्रिक भाव में स्थित होकर केन्द्रेश अथवा त्रिकोणेश से युति करता है तब अपनी आरंभ की दशा में शुभ फल देता है लेकिन बाद की दशा में व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए अशुभ हो जाती है.
यदि जन्म कुंडली में शुक्र व बृहस्पति दोनो ही वृश्चिक राशि में स्थित हों या दोनो में से एक ग्रह वृश्चिक राशि में हो लेकिन एक-दूसरे की दृष्टि में हों तब शुक्र की दशा में शुभ परिणाम मिलते हैं.
यदि जन्म कुंडली में सूर्य तथा बुध की युति होती है तब बुध की दशा शुभता प्रदान करती है.
जन्म कुंडली में चंद्रमा तथा मंगल की युति होने पर या परस्पर दृष्टि संबंध बनने पर चंद्रमा की दशा अत्यधिक शुभ हो जाती है लेकिन मंगल की दशा सामान्य सी ही रहती है.
जन्म कुंडली में यदि शनि तथा बृहस्पति की युति अथवा दृष्टि संबंध बन रहा हो तब शनि की दशा तो शुभ हो जाएगी लेकिन बृहस्पति की दशा सामान्य लाभ देने वाली होगी.
इसी प्रकार यदि चंद्रमा व बृहस्पति युति कर रहे हो या दृष्टि संबंध बना रहे हों तब चंद्रमा की दशा शुभ हो जाएगी लेकिन बृहस्पति की दशा साधारण रह सकती है.
किसी भी भाव विशेष से आठवें भाव का स्वामी अपनी दशा में भाव का नाश करता है.
किसी भी भाव विशेष से 22वें द्रेष्काण का स्वामी ग्रह अपनी दशा में उस भाव के संबंध में अशुभ फल प्रदान करता है.
किसी भी भाव से छठे, आठवें अथवा बारहवें भाव में बैठे ग्रह यदि निर्बल अवस्था में हों तब अपनी दशा में अशुभ फल प्रदान करते हैं.
यदि महादशानाथ से अन्तर्दशानाथ दूसरे, चौथे, पांचवें, नवें, दसवें या ग्यारहवें भाव में हो तब शुभ फल मिलते हैं.
अन्तर्दशानाथ और महादशानाथ एक-दूसरे से समसप्तक हो तो इसे सामान्य स्थिति माना जाता है और यह हल्के परिणाम देती है.
यदि अन्तर्दशानाथ, महादशानाथ से तीसरे, छठे, आठवें या बारहवें भाव में स्थित होता है तब अशुभ फल मिलते हैं.
यदि महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ नैसर्गिक मित्र होते हैं तथा शुभ भावों के स्वामी होते हैं तब अपनी दशा में अच्छे परिणाम देते हैं.
जन्म कुंडली में महादशानाथ की उच्च राशि में यदि अन्तर्दशानाथ स्थित होता है तब यह अपनी दशा में अनुकूल फल प्रदान करता है.
महादशानाथ से चौथे, पांचवें, नवम व दशम भाव के स्वामियों की दशा व्यक्ति को अनुकूल फल प्रदान करती है.
महादशानाथ और उसके नक्षत्रेश(महादशानाथ जिस नक्षत्र में स्थित है) की दशा/अन्तर्दशा में जीवन की मई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटती हैं.
जन्म कुंडली में जिस ग्रह की महादशा चल रही है उसकी गोचर में स्थिति फलों का निर्धारण करती है अथवा महादशानाथ से गोचर के अन्य ग्रहों की स्थिति दशा के प्रभावों में परिवर्तन लाती है.
दशानाथ यदि त्रिक भाव का स्वामी ना होकर शुभ भाव का स्वामी होता है और गोचर में जब वह अपनी उच्च, स्वराशि, मूलत्रिकोण राशि में आता है या जिस भाव में दशानाथ स्थित है उस भाव से तीसरे, छठे, दसवें या ग्यारहवें भाव में आता है तब शुभ फलों की प्राप्ति होती है.।।
: काले घोड़े की नाल का प्रयोग
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शत्रु एवं शनि पीड़ित लोग काले घोड़े की नाल के छल्ले का प्रयोग करें तो उत्तम लाभ होता है। यह छल्ला दाहिने हाथ की बीच की (मध्यमा) उंगुली में धारण करना चाहिए। लोगों की बुरी नजर से बचने का अत्यन्त सटीक उपाय है ध्यान रखेंना चाहिए वह छल्ला एकदम शुद्व एवं प्रमाणिक होना चाहिए। तभी इसका पूर्ण लाभ मिलता है घर तथा कार्य स्थान के मुख्य दरवाजे के ऊपर अन्दर की ओर u के आकार में लगाई गई काले घोड़े के नाल उस स्थान की सभी प्रकार तांत्रिक प्रभाव जादू-टोने, नजर आदि से रक्षा करती है। तंत्र क्रियाओं में अनेक वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। काले घोड़े की नाल भी उन्हीं में से एक है। ऐसा मानते हैं कि तंत्र प्रयोग में यदि काले घोड़े की नाल का प्रयोग किया जाए तो असंभव कार्य भी संभव हो जाता है। तंत्र शास्त्र के अनुसार वैसे तो किसी भी घोड़े की नाल बहुत प्रभावशाली होती है लेकिन यदि काले घोड़े के अगले दाहिने पांव की पुरानी नाल हो तो यह कई गुना अधिक प्रभावशाली हो जाती है।काले घोड़े की नाल एक ऐसी वास्तु है जो शनि समबधित किसी भी पीड़ा जैसे शनि की अशुभ दशा, ढैया, साढ़ेसाती शनि का कोई अशुभ योग आदि..हर पीड़ा में सामान रूप से चमत्कारी है बशर्ते यह पूर्ण रूपेण सिद्ध हो….यहाँ सिद्ध से आशय पहले काले घोड़े के प्रयोग में हो फिर शुभ महूर्त में शनि मंत्रो से व वैदिक प्रक्रिया द्वारा प्रतिष्ठित की गई हो।सिद्ध या उर्जावान काले घोड़े की नाल को परखने का एक बहुत ही प्रमाणिक तरीका है।उसे आप कुछ घंटो (कम से कम ५ से ८ घंटे) के लिए मक्के में रख दिया जाये और फिर जब कुछ समय बाद देखा जाये तो सही सिद्ध घोड़े की नाल उस मक्के को पका देंती है।

१👉 काले वस्त्र में लपेट कर अनाज में रख दो तो अनाज में वृद्धि होती है।

२👉 काले वस्त्र में लपेट कर तिजोरी में रख दो तो धन में वृद्धि हो |

३👉 अंगूठी या छल्ला बनाकर धारण करे तो शनि के दुष्प्रभाव से मुक्ति मिलती है।

४👉 द्वार पर सीधा लगाये तो दैवीय कृपा प्राप्त होती है।

५👉 द्वार पर उल्टा लगाओ तो भूत, प्रेत, या किसी भी तंत्र मंत्र से बचाव करेगी।

६👉 शनि के प्रकोप से बचाव हेतु काले घोड़े की नाल से बना छल्ला सीधे हाथ में धारण करें।

७👉 काले घोड़े की नाल से चार कील बनवाये और शनि पीड़ित व्यक्ति के पलंग में चारो पायो में लगा दे।

८👉 काले घोड़े की नाल से चार कील बनवाये और शनि पीड़ित व्यक्ति के घर के चारो कोने पे लगाये।

९👉 काले घोड़े की नाल से एक कील बनाकर सवा किलो उरद की दाल में रख कर एक नारियल के साथ जल में प्रवाहित करे।

१०👉 काले घोड़े की नाल से एक कील या छल्ला बनवा ले, शनिवार के दिन पीपल के पेड़ के नीचे एक लोहे की कटोरी में सरसों का तेल भर कर उसमे छल्ला या कील डाल कर अपना मुख देखे और पीपल के पेड़ के नीचे रख दे।

🖕उपरोक्त उपायो से अवश्य ही शनि से होने वाली पीड़ा में राहत मिलती है।
〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️: ज्योतिष ज्ञान
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लग्नस्थ ग्रह फ्लाध्यायः
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लग्न में उच्च के शनि का फल
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यदि लग्न में शनि अपनी उच्च राशि तुला में स्थित हो तो ऐसे जातक का रंग साँवला होता है।

यदि लग्न में शनि अपने उच्च नवमांश में हो ऐसे जातक की रंगत मिश्रित वर्ण वाली होती है।

यदि लग्न में शनि षडवर्ग शुद्ध होकर स्थित हो तो मनुष्य के शरीर का वर्ण गोरा होता है।

लग्न में नीचस्थ शनि का फल
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यदि लग्न में शनि अपनी नीच राशि मेष में स्थित हो तो ऐसे जातक को सैदव खांसी अथवा अन्य स्वसन संबंधित शिकायत रहती है।

यदि लग्न में शनि अपनी नीच राशि के नवमांश में स्थित हो तो मनुष्य को कफ (बलगम) व वायु विकार होते है।

यदि शनि लग्न में पाप ग्रहों के वर्ण में गया हो तो जातक को पित्त विकार होते है।

लग्न में मित्र क्षेत्री शनि का फल
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यदि लग्न में शनि अपने मित्र ग्रह की राशि मे स्थित हो तो ऐसे जातक का रंग गोरा होता है।

यदि लग्न में शनि अपने मित्र ग्रह के नवमांश में हो तो ऐसे जातक की हड्डियों में विकार एवं शरीर मे चर्बी अधिक होती है।

यदि लग्न में शनि वर्गोत्तम नवमांश में गया हो तो ऐसे जातक मोटे शरीर वाले होते है।

लग्न में शत्रु क्षेत्री शनि का फल
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यदि लग्न में शनि अपने शत्रु ग्रह की राशि मे स्थित हो तो ऐसे जातक कुरूप होते है।

यदि लग्न में शनि अपने शत्रु ग्रह के नवमांश में स्थित हो जातक के नाखून मोटे होते है।

यदि लग्न में शनि अपनी मूल त्रिकोण राशि मे स्थित हो तो ऐसे जातक के घुटने एवं पिंडलियां लंबी होती है।

यदि लग्न में शनि सवोच्च या स्वक्षेत्र में हो तो ऐसे जातक राजा के समान व देश या नगर का अधिपति होता है।
यदि अन्य प्रकार से स्थित हो तो जातक बचपन मे गरीबी, घमंड, कामवासना, मलिनता, आलस्य से पीड़ित होता है।

महाभारतकालीनविमान

5000 साल पहले का “विमान” मिला है
ओसामा बिन लादेन नामक इस्लामी आतंकवादी को खोजते हुए अमेरिका के सैनिकों को अफगानिस्तान (कंधार) की एक गुफा में 5000 साल पहले का “विमान” मिला है ,जिसे महाभारत काल का बताया जा गया है !

सिर्फ इतना ही नहीं वरन्
Russian Foreign Intelligence ने साफ़ साफ़ बताया है कि ये वही विमान है जो संस्कृत रचित महाभारत में वर्णित है |जब इसका इंजन शुरू होता है तो बड़ी मात्रा में प्रकाश का उत्सर्जन होता है।
हालाँकि इस न्यूज़ को भारत के बिकाऊ मिडिया ने महत्व नहीं दिया क्यों कि, उनकी नजर में भारत के हम हिंदूओ ( आर्यो ) की महिमा बढ़ाने वाली ये खबर सांप्रदायिक है !!

ज्ञातव्य है कि Russian Foreign Intelligence Service (SVR) report द्वारा 21 December 2010 को एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी जिसमे बताया गया था कि ये विमान द्वारा उत्पन्न एक रहस्यमयी Time Well क्षेत्र है – जिसकी खतरनाक electromagnetic shockwave से ये अमेरिका के कमांडो मारे गये या गायब हो गये तथा इस की वजह से कोई गुफा में नहीं जा पा रहा।

शायद आप लोगों को याद होगा कि महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी एवं मामा शकुनि गंधार के ही थे |

महाभारत में इस विमान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि…

हम एक विमान जिसमे कि चार मजबूत पहिये लगे हुए हैं, एवं परिधि में बारह हाथ के हैं | इसके अलावा ‘प्रज्वलन पक्षेपात्रों ‘ से सुसज्जित है | परिपत्र ‘परावर्तक’ के माध्यम से संचालित होता है और उसके अन्य घातक हथियारों का इस्तेमाल करते हैं !

जब उसे किसी भी लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित कर पक्षेपित किया जाता है तो, तुरंत वह अपनी शक्ति के साथ लक्ष्य को भस्म कर देता है यह जाते समय एक ‘प्रकाश पुंज’ का उत्पादन करता हैं !

( स्पष्ट बात है कि यहां महाभारत काल में विमान एवं मिसाइल की बात की जा रही है )

हमारे महाभारत के इसी बात को US Military के scientists सत्यापित करते हुए यह बताते हैं कि ये विमान 5000 हज़ार पुराना (महाभारत कालीन) है,
और जब कमांडो इसे निकालने का प्रयास कर रहे थे तो ये सक्रिय हो गया जिससे इसके चारों और Time Well क्षेत्र उत्पन्न हो गया और यही क्षेत्र विमान को पकडे हुए है इसीलिए इस Time Well क्षेत्र के सक्रिय होने के बाद 8 सील कमांडो गायब हो गए।

जानकारी के लिए बता दूँ की Time Well क्षेत्र ” विद्युत-चुम्बकीय ” क्षेत्र होता है जो हमारे आकाश गंगा की तरह सर्पिलाकार होता है ।

वहीं एक कदम आगे बढ़ कर Russian Foreign Intelligence ने तो साफ़ साफ़ बताया कि ये वही विमान है जो संस्कृत रचित महाभारत में वर्णित है।

सिर्फ इतना ही नहीं SVR report का कहना है कि यह क्षेत्र 5 August को फिर सक्रिय हुआ था जिससे एक बार फिर electromagnetic shockwave नामक खतरनाक किरणें उत्पन्न हुई और ये इतनी खतरनाक थी कि इससे 40 सिपाही तथा trained German Shepherd dogs भी इसकी चपेट में आ गए।

ये प्रत्यक्ष प्रमाण है हमारे हिन्दू(आर्य) सनातन धर्म के उत्कृष्ट विज्ञान का और यह साफ साफ तमाचा है उन सेकुलरों के मुंह पर जो हमारे हिन्दू सनातन धर्म पर उंगली उठाते हैं और जिन्हें रामायण और महाभारत एक काल्पनिक कथा मात्र लगती है..!

भारतीय दर्शन और संस्कृति

वेदवाणी के आलोक में हमारा आचार और व्यवहार

        वेद शब्द का अर्थ है – जानना । जानना अर्थात् ज्ञान प्राप्त करना; विद्या प्राप्त करना; किसी विषय या किसी तथ्य को संशयरहित अवस्था में तत्वतः जान लेना । वेदवाणी में श्रुति कथन आया है कि - यह समस्त जगत प्रकाशरूप परमात्मा का प्रकटरूप है – “पुरुष एवेदं सर्वं ।” (ऋग्वेद 10.90.1) तथा उपनिषदवाणी प्रकट करती है कि वह एक ‘परमपुरुष परमात्मा ही विश्वरूप को धारण करने वाला है – ‘पुरुष एवेदं विश्वं ।’ (मुण्डकोपनिषद 2.1.10) अतः इस जगत के प्रकट विश्वरूप को भलीभंति जान लेना ही वेदवाणी की विषय सामाग्री है, और इस जगत के ‘संचरण रहस्य’ को अर्थात इस जगत के धारणकर्ता धर्म-रहस्य को प्रकट करना ही वेदवाणी की विषय वस्तु । 

ऋग्वेद के दशम् मण्डल, सूक्त क्रमांक नब्बे (पुरुषसूक्त) में, श्रुति कथन आया है कि वह प्रकाशरूप परमात्मा अनेक सिर, अनेक नेत्र और अनेक पैर को धारण करने वाला होकर, इससे परे ‘दशाङ्गुल प्रमाण’ में स्थित बना हुआ है । तथा यह समस्त चर-अचर ‘जीव जगत’ उसका ही प्रकटरूप है :–

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्शाङ्गुलम् ॥
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ (ऋग्वेद 10.90.1 व 2)

अर्थात् – “वह परम पुरुष परमात्मा अनेक सिर, अनेक नेत्र और अनेक पैर वाला है । वह समस्त जगत को सब ओर से घेरकर दशाङ्गुल प्रमाण” में स्थित है ।‘

‘जो अबसे पहले भूतकाल में हो चुका है, तथा जो भविष्यकाल में होने वाला है, और जो इस समय अन्न के द्वारा वृद्धि को प्राप्त कर रहा है, यह सब परमपुरुष परमात्मा ही है ।”;

और, वही अमृतत्व का स्वामी है अर्थात् उस परमात्मा के इस सर्वरूप का बोध प्राप्त कर लेना ही अमृतत्व को प्राप्त कर लेना है, और मोक्षप्राप्ति का साधन भी –

[ अतः ज्ञातव्य है कि ‘देववाणी संस्कृत भाषा’ के अन्तर्गत- वेदवाणी, उपनिषदवाणी और अन्य प्राचीन संस्कृत वाङ्गमय में ‘ब्रह्मज्ञ ऋषियों’ द्वारा ‘सनातन ज्ञान’ अर्थात इस जगत के धारणकर्ता ‘ऋतज्ञान’ को प्रकट करने हेतु ‘कुल छः’ संख्यावाचक शब्द – ‘एकः’, ‘एका’, ‘एकम्’, ‘दश’, ‘शत’ और ‘सहस्र’ शब्द का उपयोग ‘कूटशब्द’ रूप में किया जाकर, इन्हें गूढार्थ को धारण करने वाला बनाया गया है । इन कुल छः ‘कूटशब्दों’ का प्रकट गणनात्मक-संख्यावाचक अर्थ ‘अपरा विद्या’ को प्रकट करता है, जिसे ‘अज्ञान का अन्धकार’ माना जाकर ‘अविद्या’ कहा गया है तथा ‘ब्रह्मज्ञ ऋषियों’ द्वारा दिया गया इन ‘संख्यावाचक कूट शब्दों’ का गूढार्थ ही ‘ज्ञान का आलोक’ प्रदान करने वाला होकर ‘सांख्यदर्शन’ के मुक्तिदाता स्वरूप का आधार बना हुआ है ।

इस गुढार्थ को ही “ज्ञान का आलोक” प्रदान करने वाला जाना जाकर इसे ही ‘परा विद्या’ या ‘विद्या’ रूप में जाना गय है । इसके साथ ही इन कुल ‘कुल छः’ गणनात्मक, संख्यावाचक शब्दों का प्रकट अर्थ ‘लौकिक संस्कृत’ रूप में जाना जाता है, वहीं इन कूटशब्दों के गूढार्थ को अपना लेना ही ‘वेद-ज्ञान को प्राप्त करने का आधार अर्थात ‘वैदिक संस्कृत’ का आधार होता है ।

‘देववाणी संस्कृत भाषा’ में ब्रह्मज्ञ ऋषियों द्वारा उपयोग किया गया संख्यावचक शब्द – ‘एकः’ परम पुरुष परमात्मा का, ‘एका’ शब्द परमा प्रकृति का, ‘एकम्’ शब्द पुरुष और प्रकृति के उभयरूप का, ‘दश’ शब्द साकार, आयतनवान, सगुण, बोधगम्य, सम्यक् स्वरूप का, ‘शत’ शब्द पूर्णता के गुणा का तथा ‘सहस्र’ शब्द अनेक, बहुत, अनंत और सर्वरूप, का वाचक होता है । यह गूढार्थ ही ‘ज्ञान का आलोक’ प्रदान करता है, जिसके आधारपर ‘समस्त संस्कृत वाङमय’ में की ‘अहोरात्र की अवधारणा’ टिकी हुई है ।

इस प्रकार इन ‘कुल छः’ संख्यावाचक शब्द का प्रकट गणनात्मक अर्थ ‘अपराविद्या’ को अर्थात् लौकिक ज्ञान को प्रकट करता है जिसे ‘अज्ञान स्वरूप’ या ‘अविद्या’ माना गया है और इस गणनात्मक अर्थ को ही ‘अज्ञान के अन्धकार’ का कारण जाना गया है तथा इन ‘कुल छः’ संख्यावाचक शब्द – ‘एकः’, ‘एका’, ‘एकम्’, ‘दश’, ‘शत’ और ‘सहस्र’ शब्द द्वारा धारण किया गया, इनका ‘गूढार्थ’ ही ‘पराविद्या’ को प्रकट करता है, जिसे ‘ज्ञान का आलोक’ रूप में ‘विद्या’ कहा गया है तथा इस गूढार्थ को अपना लेना ही ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ रूप में सबके लिये अमृतत्व प्राप्ति का साधन अर्थात मोक्षदायी होना माना गया है । श्रीमद्भगवद्गीता में इस गूढार्थ को ही “ज्ञान नौका” कहा जाकर, इस संसार समुद्र से, सबको ही पार उतारने वाला कथन किया गया है – “सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ॥” (गीता 4.36)

अतः उपनिषदवाणी में श्रुति द्वारा ‘विद्या’ और ‘अविद्या’ रूप में ‘परा विद्या’ और ‘अपरा विद्या’ को भी, दोनों को साथ-साथ (एकसाथ) जानने का निर्देश किया गया है तथा ‘अपरा विद्या’ रूप में संख्यावाचक गणनात्मक अर्थ को जीवनयात्रा को पूर्णता प्रदान करने हेतु आवश्यक होना तथा इस गूढार्थ को ही ‘अमृतत्व’ प्राप्ति का साधन होना अर्थात ‘मोक्षप्रदाता’ होना कथन किया गया है –

विद्यां चाविद्यां च यस्तद् वेदोभयँ् सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यायामृतमश्नुते ॥ (ईशावास्योपनिषद् -११)

अर्थात् – “जो मनुष्य विद्या और अविद्या दोनों को साथ-साथ जान लेता है, वह अविद्या के द्वारा मृत्यु सागर को पार करता हुआ अर्थात् जीवनयात्रा को पूर्ण करता हुआ विद्या द्वारा अमृतत्व को भोगता है, अर्थात् वह अविनाशी आनन्दमय परब्रह्म परमात्मा को प्रत्यक्ष प्राप्त कर लेता है |” ]

इन दोनों ही श्रुति मंत्र में ‘परमपुरुष परमात्मा’ का यह जो प्रकट जगतरूप वर्णन किया गया है तथा तथा जिसे अन्न के द्वारा वृद्धि को प्राप्त करने वाला कहा जाकर चर-अचर रूप होना वर्णन किया गया है और इससे परे अपने साकार स्वरूप में (दशाङ्गुल प्रमाण में) स्थित बने रहने की
यह जो अवस्था है, इसकी व्याख्या करते हुए ही श्रीमद्भगवद् गीता में ‘स्मृति कथन’ आया है कि –

द्वाविमौ पुरुषो लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाह्रतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ (गीता 15.16 व 17)

अर्थात – “इस संसार में नाशवान और अविनाशी भी ये दो प्रकार के ‘पुरुष’ हैं । इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है ।
इन दोनों में उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका भरण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा इस प्रकार कहा गया है ।“

इस संसार में सब की सब वनस्पति – वृक्ष, लता, पौधा और तृणमात्र तथा यह पुरुष रूप भी
अन्न के सेवन द्वारा वृद्धि को प्राप्त करता है । अतः श्रुति सबको ही अपने चर-अचर रूप में उस परमात्मा का प्रकट रूप होना वर्णन करती है । इस श्रुति कथन के आधार पर ही हमारे द्वारा समस्त चर-अचर जीवजगत् को उस तथा इस पुरुषरूप को उस परमात्मा का प्रकटरूप होना जाना गया है । यह समस्त प्रकटरूप नश्वर (विनाशशील) अवस्था को धारण करने वाला पाया जाता है, किंतु इस प्रकटरूप में समाहित जो ‘अविनाशी तत्त्व’ है, तथा जो सबके लिये जीवन का कारण बना हुआ है, उसे ही श्रुति द्वारा ‘पुरुष तत्त्व’’ रूप में जाना गया है । उसे ही ‘अक्षर पुरुष’ कहा गया है ।

उपनिषदवाणी में श्रुति द्वारा ‘पुरुष तत्त्व’ को ‘सोलह कला’ युक्त होना वर्णन किया गया है तथा पुरुषतत्त्व द्वारा धारण की गयी सोलह कलाएँ क्रमशः – 1. प्राण, 2. श्रृद्धा, 3. आकाश, 4. वायु, 5. तेज, 6. जल, 7. पृथिवी, 8. मन या अन्तःकरण, 9. इन्द्रियाँ, 10. अन्न, 11. वीर्य, 12. तप, 13. मंत्र, 14. कर्म, 15. लोक, एवं 16, नाम होना वर्णन की गयी है । (प्रश्नोपनिषद 2 से 4) इस जगत में समस्त भूतसमुदाय – जड़ और चेतन क्रमांक एक से पन्द्रह तक की कलाओं को धारण करने वाला होता है तथा नाम रूपी सोलहवीं कला इस पुरुषरूप में (स्त्री-पुरुषरूप) में प्रथक-पृथक धारण करने को मिलती है

अतः यह पुरुषरूप ही उस परमात्मा का सोलहकला अवस्था को धारण करने वाला कहा गया है
तथा श्रुति द्वारा वर्णन किया गया है कि ‘वह पूर्ण पुरुष सदैव ही सब स्त्री-पुरुषों के ह्रदय में निवास करने वाला है – “अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां ह्रदये सन्निविष्टः ।” (कठ.उप. 2.3.17) अर्थात् “सबका अन्तर्यामी अङ्गुष्ठमात्र परिमाण वाला परमपुरुष परमात्मा सदैव ही सब मनुष्यों (स्त्री-पुरुषों) के ह्रदय में भलीभांति प्रविष्ट है ।” अतः इस ‘सोलह कला’ पुरुषरूप को तत्त्वतः जान लेना और इसके क्रियमाण स्वरूप को प्रकट कर देना ही वेदवाणी की विषय वस्तु होना प्रकट है । अतः यह जो ‘सोलह कला’ पुरुष सब मनुष्यों के ह्रदय में निवास करने वाला है, इसे स्वानुभूति आधार पर जान लेना ही इस जगत में सबके लिये दुःखों से निवृत्ति का साधन होता है और आचार-विचार एवं परस्पर व्यवहार का आधार भी ।

हमारा आचार-व्यवहार और व्यवहार

ईशावास्योपनिषद में श्रुति कथन आया है कि यह समस्त जागतिक सम्पदा ‘ईश तत्त्व’ की नियामक शक्ति से परिपूरित है । अतः इसका उपभोग अपनी आवश्यकता के अनुरूप त्याग की भावना के साथ लोभ रहित अवस्था में करना चाहिये तथा इसका संग्रह कदापि करना नहीं चाहिये :-

ईशा वास्यमिदँ् सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‍ ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृथः कस्य स्विद्‍ धनम्‍ ॥ (ईशा.-1)

(अन्व्य और शब्दार्थ) – (ईशा) ‘ईश तत्त्व’ की नियामक शक्ति से; (वास्यम्‍) परिपूरित है; (इदम्‍) यह; (सर्वं) सब-कुछ; (यत्किञ्च) जो कुछ भी छोटा या बड़ा; (जगत्यां) अखिल ब्रह्माण्ड में; (जगत्‍) जड़-चेतनस्वरूप जागतिक सम्पदा; (तेन) उसका; (त्यक्तेन) त्यागपूर्वक; (भुञ्जीथा) भोग करते रहो; (मा) नहीं; (गृथः) लोभ, संग्रह; (कस्य) किसका; (स्विद्‍) पसीने के समान (सूखने वा फिसलने वाला); (धनम्‍) धन-सम्पदा, भोगसामग्री ।

अर्थात्‍ – “‘ईश तत्त्व’ की नियामक शक्ति से परिपूरित है यह सब कुछ, जो कुछ भी छोटा या बड़ा, जड़-चेतनस्वरूप है अखिल ब्रह्माण्ड में । उस का त्यागपूर्वक भोग करते रहो मत लोभ करो, पसीने के समान गुण-धर्म को धारण करने वाली यह समस्त जागतिक धन-सम्पदा है किसके स्वामित्व की है ?”

काव्यमय अनुवाद –

“ईश तत्त्व की नियामक शक्ति से परिपूरित है यह सब कुछ,
जो कुछ भी छोटा या बड़ा जड़-चेतनस्वरूप है अखिल ब्रह्माण्ड में ।
त्यागपूर्वक भोग करते रहो उस सब का मत लोभ करो,
पसीने के समान गुण-धर्म वाली जागतिक सम्पदा किसके स्वामित्व की ?”

उपनिषद्वा णी में आया यह श्रुतिमंत्र यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय की प्रथम वेदऋचा है । इस वेदऋचा में जगत के धारणकर्ता विधान को प्रकट करते हुए श्रुति का कथन है कि इस अखिल जगत में जो कुछ भी चर-अचर रूप में जागतिक धन-सम्पदा है यह सब ‘ईश तत्त्व’ की नियामक शक्ति से परिपूरित है । इसका नियमन उस पराशक्ति द्वारा किया जाता है । अतः इस सबका उपभोग अपनी आवश्य्कता के अनुसार, त्यागपूर्वक करना चाहिये । जिस प्रकार जल में रहने वाला कमल, जल के प्रति आसक्ति को अपनाता नहीं है, वह तो अपनी जीवन धारण करने की आवश्यंकता के अनुरूप ही जल का भोग करता है, उसी प्रकार हमें भी धन-सम्पदा से परिपूर्ण इस जगत में अपने जीवन की आवश्यकता के अनुरूप ही इसका उपभोग करना चाहिये । फिजुलखर्ची या अपव्यय कदापि करना नहीं चाहिये ।

यहाँ श्रुति द्वारा सकल जागतिक धन-सम्पदा के उपभोग हेतु ‘भुञ्जीथा’ शब्द का उपयोग किया गया है । यह ‘भुञ्जीथा’ शब्द क्रियात्मक है । यह अग्नि द्वारा किसी वस्तु को भुञ्जने की क्रिया को प्रकट करता है । किसी भी वस्तु को बीजरूप में भुञ्जने का प्रभाव यह होता है कि वह वस्तु इस क्रिया के उपरांत अंकुरण की क्षमता से रहित हो जाती है । वह संतति प्रक्रिया से रहित हो जाती है। अतः श्रुति का कथन है कि हमारा त्याग किसी फलप्राप्ति की इच्छा से होना नहीं चाहिये । हमें सहज रूप में ही अपनी आवश्यककता के अनुसार जागतिक सम्पदा का उपभोग करना चाहिये ।

इसके साथ ही श्रुति समस्त जागतिक धन-सम्पदा के प्रति लोभवृत्ति या संग्रहवृत्ति को अपनाने का निषेध करती है । हम संग्रहवृत्ति का परित्याग करने वाले हो जावें; अतः श्रुति इस सकल जागतिक धन-सम्पदा का परिचय प्रदान करते हुए कथन करती है कि यह सब धन-सम्पदा तो ‘स्वेद’ अर्थात्‍ पसीने के गुण-धर्म को धारण करने वाली है । अतः इसके प्रति संग्रहवृत्ति
आधारित स्वामित्व का भाव भी अपनाना नहीं चाहिये ।

यहाँ इस वेद ऋचा में आया यह ‘स्विद्‍’ शब्द अत्यन्त महत्व का हो गया है । यह ‘स्विद्‍’ शब्द अपने अर्थ रूप में ‘पसीने’ को आधार बना कर संकेत करता है, या संदेश देता है कि पसीने के
गुण-धर्म के समान, लक्षणों वाली यह सकल जागतिक तो पसीने के समान ही फिसलने वाली है । अर्थात्‍ चलायमान अवस्था को धारण करने वाली है, जिसे हमारे द्वारा धन-सम्पदा रूपी ‘देवीलक्ष्मी’ को चलायमान कहा जाकर स्मृति में धारण किया गया है ।

यहाँ श्रुति प्रतिबोधात्मक रूप में यह भी संदेश देती है कि जिस प्रकार पसीने के प्रति लोभ किया नहीं जाता एवं पसीने के प्रति संग्रहवृत्ति को अपनाया नहीं जाता, न स्वामित्व का भाव ही प्रकट किया जाता है, उसी प्रकार इस सकल जागतिक सम्पदा का न तो संग्रह करना चाहिये और न इसके प्रति स्वामित्व का भाव ही अपनाना चाहिये ।

धन-सम्पदा के प्रति श्रुति द्वारा ‘स्विद्‍’ शब्द रूप में पसीने का प्रतीक अपनना यह भी सूचित करता है कि यह ‘पसीना’ ‘पृथिवी तत्त्व’ का अंग होता है, अतः जिस प्रकार हमारे द्वारा पंच महाभूतों में – हवा, पानी, अग्नि और आकाश आधारित सूर्य के प्रकाश का उपभोग अपनी आवश्यहकता के अनुसार किया जाता है, उसी प्रकार जागतिक धन-सम्पदा का उपभोग भी अपनी आवश्यककता के अनुसार ही करना चाहिये । हवा, पानी, अग्नि और आकाशतत्त्व का बोध प्रदान करने वाले सूर्य के प्रकाश की भांति जागतिक धन-सम्पदा के प्रति संग्रह और स्वामित्व का भाव अपनाना नहीं चाहिये । आखिर इन पंचमहाभूतों पर स्वामित्व किसका है ?

शतहस्त समाहर सहस्रहस्त सं किर ।
कृतस्य कार्यस्य चेह स्फातिं समावह ॥ (अथर्ववेद 3.24.5)

अर्थात – “(हे मनुष्यों ! तुम इस जगत में) पूर्ण क्षमता के साथ धनोपार्जन करो, और उपार्जित सम्पदा को अनेक प्रकार से, विविध रूप में व्ययन करो, परस्पर मदद करो । इस प्रकार तुम अपने किये गये कार्य और किये जाने वाले कार्य द्वारा यहाँ इस भूलोक में सर्वत्र ही समान रूपसे समृद्धि लाओ; सबको ही समृद्ध बनाओ ।” को ही चरितार्थ करता है ।

प्र पतेतः पापि लक्ष्मी नश्येतः प्रामुतः पत |” [अथर्ववेद ७.११५.११]

अर्थात – ““हे पापिष्ठा ‘अलक्ष्मी’ ! तुम यहाँ से दूर हो ओ | नष्ट हो जाओ | तुम यहाँ से अति दूर देश को चली जाओ ।” [ताकि तुम्हारा पता–ठिकाना भी मेरे पास न रहे ।] तथा जो हस्तिनाद को (पुरुषार्थ को) सुनकर प्रसन्न होती हैं तथा सुख–समृद्धि के साथ घर में निवास करती हैं उन्हें ‘सुलक्ष्मी’ कहकर उनको ही प्राप्त करने का निर्देश करती है |

वेदवाणी कहती है कि –

एता एना व्याकरं खिले गा विष्ठिता इव |
रमन्ताम पुन्याम लक्ष्मिर्या पापीस्ता अनीनशम || [अथर्ववेद ७.११५.४]

अर्थात – ““देवी लक्ष्मी के इन दो रूपों को मैं ‘कु’ और ‘सु’ के भेद से पृथक–पृथक करता हूँ, जैसे कोई ग्वाला गोष्ठ में एकत्र गायों को ‘दुधारु’ और ‘अदुधारु’ आदि भेदों में बाँट देता है, उसी प्रकार मैं इनका विभाजन करता हूँ | अतः जो पुण्यकारी ‘सु’लक्ष्मियां हैं वे मुझ में ही रमें और जो पापिष्ठा ‘कु’लक्ष्मियाँ हैं, उन्हें मैं नष्ट करता हूँ |””

अतः व्यक्ति को चाहिए कि वह इस जगत में –

१. जानकारी के साथ धन-सम्पदा [लक्ष्मी] को प्राप्त करे;

२. बिना जानकारी के कोई धन-सम्पदा प्राप्त ‘न’ करे;

  1. पुरुषार्थ को अपनाकर अनासक्त भाव से धनोपार्जन करे;
  2. असद्कार्म द्वारा पापिष्ठा लक्ष्मी को कदापि प्राप्त न करे;
  3. सद्कर्म द्वारा उपार्जित धन को ही प्राप्त करे;
  4. उपार्जित धन-सम्पदा का व्ययन स्वयं करे; और
  5. उपार्जित सम्पदा का संग्रह कदापि न करे ।

इस प्रकार वेदवाणी इस मनुष्य जीवन में ‘सुलक्ष्मी’ अर्थात ‘पुण्यमयी लक्ष्मी’ को ही प्राप्त करने और उनकी उपासना करने का निर्देश करती है | तथा जो ‘कु’लक्ष्मी है, जो ‘पापिष्ठा लक्ष्मी’ हैं, उन्हें अपने पास नहीं आने देने का अनुशासन करती है ।

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जिनकी कुंडली में शादी होने में कुछ बाधाएं आने का योग होता है
ग्रह स्थिति निम्न प्रकार से होती है बीस से चौबीस वर्ष की उम्र में शादी |बुध शीघ ही शादी करवाता है | सातवें घर में बुध हो तो शादी जल्दी होने के योग होते हैं | बीस वर्ष की उम्र में शादी होती है यदि बुध पर कोई किसी अन्य ग्रह का प्रभाव न हो | बुध यदि सातवें घर में हो तो सूर्य भी एक स्थान पीछे या आगे होगा या फिर बुध के साथ सूर्य के होने की संभावना रहती है | सूर्य साथ हो तो दो साल का विलम्ब शादी में अवश्य होगा | इस तरह उम्र बाईस में शादी का योग बनता है | यदि सूर्य के अंश क्षीण हों तो शादी केवल बीस से इक्कीस वर्ष की उम्र में हो जाती है |
अभिप्राय यह है कि बीस से चौबीस की उम्र में शादी का योग बनता है जब बुध सातवें घर में हो |
चौबीस से सत्ताईस की उम्र में शादी का योग
यदि शुक्र गुरु या चन्द्र आपकी कुंडली के सातवें घर में हैं तो चौबीस पच्चीस शादी की उम्र में होने की प्रबल संभावना रहती है |
गुरु सातवें घर में हो तो शादी पच्चीस की उम्र में होती है | गुरु पर सूर्य या मंगल का प्रभाव हो तो शादी में एक साल की देर समझें | राहू या शनि का प्रभाव हो तो दो साल की देर यानी सत्ताईस साल की उम्र में शादी होती है |
शुक्र सातवें हो और शुक्र पर मंगल, सूर्य का प्रभाव हो तो शादी में दो साल की देर अवश्यम्भावी है | शनि का प्रभाव होने पर एक साल यानी छब्बीस साल की उम्र में और यदि राहू का प्रभाव शुक्र पर हो तो शादी में दो साल का विलम्ब होता है |
चन्द्र सातवें घर में हो और चन्द्र पर मंगल, सूर्य में से किसी एक का प्रभाव हो तो शादी छब्बीस साल की उम्र में होने का योग होगा | शनि का प्रभाव मंगल पर हो तो शादी में तीन साल का विलम्ब होता है | राहू का प्रभाव होने पर सत्ताईस वर्ष की उम्र में काफी विघ्नों के बाद शादी संपन्न होती है |
कुंडली के सातवें घर में यदि सूर्य हो और उस पर किसी अशुभ ग्रह का प्रभाव न हो तो सत्ताईस वर्ष की उम्र में शादी का योग बनता है | शुभ ग्रह सूर्य के साथ हों तो विवाह में इतनी देर नहीं होती |
अट्ठाईस से बत्तीस वर्ष की उम्र में शादी का योग
मंगल, राहू केतु में से कोई एक यदि सातवें घर में हो तो शादी में काफी देर हो सकती है | जितने अशुभ ग्रह सातवें घर में होंगे शादी में देर उतनी ही अधिक होगी | मंगल सातवें घर में सत्ताईस वर्ष की उम्र से पहले शादी नहीं होने देता | राहू यहाँ होने पर आसानी से विवाह नहीं होने देता | बात पक्की होने के बावजूद रिश्ते टूट जाते हैं | केतु सातवें घर में होने पर गुप्त शत्रुओं की वजह से शादी में अडचनें पैदा करता है |
शनि सातवें हो तो जीवन साथी समझदार और विश्वासपात्र होता है | सातवें घर में शनि योगकारक होता है फिर भी शादी में देर होती है | शनि सातवें हो तो अधिकतर मामलों में शादी तीस वर्ष की उम्र के बाद ही होती है |
बत्तीस से चालीस वर्ष की उम्र में शादी
शादी में इतनी देर तब होती है जब एक से अधिक अशुभ ग्रहों का प्रभाव सातवें घर पर हो | शनि मंगल, शनि राहू, मंगल राहू या शनि सूर्य या सूर्य मंगल, सूर्य राहू एक साथ सातवें या आठवें घर में हों तो विवाह में बहुत अधिक देरी होने की संभावना रहती है | हालांकि ग्रहों की राशि और बलाबल पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है परन्तु कुछ भी हो इन ग्रहों का सातवें घर में होने से शादी जल्दी होने की कोई संभावना नहीं होती |
शादी में देर के लिए जो ऊपर नियम दिए गए हैं उनमे अधिक सूक्ष्म गणना की आवश्यकता जरूर है परन्तु मोटे तौर पर ये नियम अत्यंत व्यावहारिक सिद्ध होते हैं |

गौरक्षा का विग्यान [2]

महोदय,

कठोपनिषद में आये श्रुति मंत्र अनुसार वृद्ध या बूढी गाय को बेचने या दान में देने का अप्रत्यक्ष निषेध किया गया है । यदि हम कुछ पैसों के लिये गाय को बेचते हैं तो हमारा यह कार्य धर्मविरोधी है । यही कारण है कि बूढी गाय को जंगल में खुला छोड़़ने की प्राचीन परम्परा रही है । जिसका पालन करते हुए आज भी हमारे द्वारा दूध न देने वाली गाय को स्वार्थवश यों ही छोड दिया जाता है, जो सरासर धर्म विरोधी कार्य है ।

प्रकृति ने गाय को सर्वकाल के लिये उपयोगी बनाया है तथा हमारे धर्म संस्थापक ऋषियों द्वारा इसे “पंचगव्य” के उपयोग द्वारा जीवन से जोडा गया है । पंचगव्य रूप में गाय का दूध, दही [छाछ], घी, गोबर और मूत्र पांचों ही वस्तुएँ जीवन के लिये उपयोगी होती हैं । दूध, दही (छाच), घी, के उपयोग से हम सब परिचित हैं ही । गोबर का उपयोग ग्रामीणजन आज भी ईंधन के रूप में करता है । गाय का मूत्र प्रबल कीटनाशी है, जिसे आधुनिक मंहगाई में ग्रामीण किसान पुनः अपना रहा है और इसका विक्रय कर धनोपार्जन कर रहा है । आधुनिक गोबरगैस प्लांट द्वारा गोबर का उपयोग ईंधन तथा खाद रूप में किया जाने लगा है । गौशालाओं द्वारा बूडी गायों का संरक्षण लाभकारी रूप में किया जा सकता है । तथा इस समय जहां समुचित व्यवस्था है वे गौशालाएं लाभ में चल रही हैं।

हम इस तथ्य को सर्वकाल में स्मृति में धारण करने वाले बने रहें अतः इस हेतु धर्मसस्थापक ऋषियों द्वारा इस तथ्य को कर्मकाण्ड से जोडा गया है । किंतु हमारा दक्षिणाप्रिय पण्डित वर्ग इस तथ्य को भूल चुका है । वह अपने दायित्व से विमुख बना हुआ है । वह दक्षिणा के लालच में कर्मकाण्ड का डमरु तो बजाता है, किंतु इसके नाद में समाहित संदेश को भूल चुका है और इसे पुनः जानना भी नहीं चाहता है । कर्मकाण्ड से जुडा हमारा प्रत्येक कार्य दार्शनिक आधार और जीवन की रक्षा पर आधारित है । किस-किस की बात करें ? जीवन के उत्तरार्ध में सर्वत्र ही निराशा है ।

ऐसी अवस्था में लोकजीवन से जुडी हुई प्रातःक्रिया स्मरण होती है, जिसमें हमारे द्वारा सुबह जागने पर सर्वप्रथम अपने ही घर को बुहारने और गंदगी को दूर करने का कार्य किया जाता हैं । और यह क्रिया प्रकृति द्वारा की जाना दृष्टिगोचर हो रही है । कारण कि – सृष्टिचक्र में दिवस का आगमन होना जो जाना गया है ।

इस समय सर्वत्र ही मिथ्याचार का बोलबाला है । सब लोग अकाल मृत्यु भोग रहे हैं । प्रकृति के कोप का ग्रास बने हुए हैं । धर्मग्रंथ ज्वर, जरा, रोग, अकाल मृत्यु पर अपने ही कर्म पर विचार करने का निर्देश देते हैं, किंतु हम हैं कि थोडा सा भी बिमार पड़ने पर “आधुनिक यमालय” की ओर दौड़ लगा देते हैं, जो हमसे धन और आयु दोनों ही छीन रहे हैं, और हम खुश हो रहे हैं । हमें स्मरण करना चाहिये की प्रकृति अपना परिवर्तन विनाश के द्वारा ही करती है – विनाशाय च दुष्कृताम ।।

अतः आज की आवश्यैकता है मानवमात्र का हित संवर्धन करने वाले और इस धरा पर ‘जीवन की रक्षा’ करने वाले वेद-ऋचाओं में प्रकट हुए “मानव धर्म” के सनातन सिद्धान्तों पर समग्र रूप से विचार करने और उन्हें जीवन में अपना लेने की । हमारे द्वारा उन्हें ईश्वरीयवाणी जो माना गया है ।

ऐसा ही एक संदेश मेरे द्वारा “गोरक्षा” के सिद्धांत में छिपा होना जाना गया है । जिसकी चर्चा मेरे द्वारा इस कालम में की गयी है । इसमें पूर्व और पश्‍चिम की बात नहीं है और न धर्म विशेष की ही । यह तो जीवन से जुडा हुआ प्रकृति का अविनाशी सिद्धांत है । जिसकी रक्षा का दायित्व अदृश्‍य द्वारा स्वीकार किया गया है । अस्तु ।

श्रीमद्भागवत में कलियुग-धर्म-वर्णन

राजा परीक्षित से श्रीशुकदेव जी कलि-धर्म निरूपण करते हुए कहते हैं–

ततश्चानुदिनं धर्मः सत्यं शौचं क्षमा दया ।
कालेन बलिना राजन् नङ्‌क्ष्यत्यायुर्बलं स्मृतिः ॥

“हे परीक्षित! जैसे-जैसे घोर कलियुग आता जायेगा वैसे-वैसे उत्तरोत्तर धर्म, स्वच्छता (पवित्रता), सत्यवादिता, स्मृति, शारीरक शक्ति, दया भाव (क्षमा) और जीवन की अवधि दिन-ब-दिन घटती जाएगी।”

वित्तमेव कलौ नॄणां जन्माचारगुणोदयः ।
धर्मन्यायव्यवस्थायां कारणं बलमेव हि ॥

“कलियुग में वही व्यक्ति गुणी माना जायेगा जिसके पास ज्यादा धन होगा। जिसके पास शक्ति होगी वही न्याय और कानून की व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा ।”

दाम्पत्येऽभिरुचिर्हेतुर्मायैव व्यावहारिके ।
स्त्रीत्वे पुंस्त्वे च हि रतिर्विप्रत्वे सूत्रमेव हि ॥

“कलियुग में विवाह-सम्बन्ध के लिए कुल-शील-योग्यता नहीं रहेगी। स्त्री-पुरुष बिना विवाह के केवल स्व-रुचि के अनुसार ही सम्बन्ध बना कर रहेंगे। व्यवहार की सफलता सचाई और ईमानदारी में नहीं रहेगी , जो जितना ही छल-कपट करेगा वह उतना ही व्यवहारकुशल माना जायेगा। स्त्री-पुरुष की श्रेष्ठता का आधार उनका शील-संयम न होकर रति कौशल होगा और ब्राह्मण की पहचान उसके गुण-स्वभाव से नहीं, यज्ञोपवीत से होगी अर्थात ब्राह्मण सिर्फ नाम के होंगे।”

लिङ्‌गमेवाश्रमख्यातावन्योन्यापत्तिकारणम् ।
अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं पाण्डित्ये चापलं वचः॥

वस्त्र, दण्ड-कमण्डलु आदि से ही ब्रह्मचारी,संन्यासी आदि आश्रमियों की पहचान होगी और एक-दूसरे का चिह्न स्वीकार कर लेना ही एक से दूसरे आश्रम में प्रवेश का स्वरूप होगा। घूस देने वाले व्यक्ति ही न्याय पा सकेंगे और जो धन नहीं खर्च पायेगा उसे न्याय के लिए दर-दर की ठोकरे खानी होंगी । जो जितना ही वाकपटु होगा वह बड़ा पण्डित-विद्वान माना जायेगा।

अनाढ्यतैव असाधुत्वे साधुत्वे दंभ एव तु ।
स्वीकार एव चोद्वाहे स्नानमेव प्रसाधनम् ॥

कलियुग में गरीब होना असाधुता और दोषी होने की पहचान होगी। जो जितना अधिक दम्भ-पाखण्ड करेगा अर्थात जो जितना अधिक ताम-झाम दिखायेगा, वह उतना ही बड़ा (पाखण्डी) साधु होगा। बिना स्नान किये ही खूब तेल-फुलेल लगाकर बाल सँवारकर सुन्दर रंगविरंगे कपड़े पहनकर ज़बान किया हुआ जैसा दिखायेगा।सजना-सँवरना ही उसका स्नान होगा ।

           श्रीमद्भागवत ,12/2/1-5

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