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नवमांश कुंडली

नवमांश कुंडली का विशेष महत्व है| किसी भी राशि के नोवें भाग को उस राशि का नवमांश कहते है
नवमांश कुंडली का विशेष महत्व है | किसी भी ग्रह के बल का अध्यन करते समय नवमांश में उस ग्रह की सिथ्ती देखनी आवश्यक होती है जैसे की लग्न कुंडली में कोई ग्रह नीच राशि का है और नवमांश में उंच राशि का है तो उस ग्रह की नीचता कम हो जाती है और उसके अशुभ फलों में कमी हो जाती है| इसी प्रकार यदि कोई ग्रह लग्न कुंडली में उंच लेकिन नवमांश में नीच है तो वो अपना पूर्ण फल जातक को नही दे पाता है| यदि लग्न कुंडली वाली राशि में ही कोई ग्रह नवमांश कुंडली में हो तो ये उसकी वर्गोतम सिथ्ती कहलाती है और ग्रह जातक को अपना पूर्ण फल देता है| वर्गोत्म का ये मतलब कदापि नही है की वो ग्रह आपको केवल शुभ फल देगा इसका मतलब है की वो ग्रह बली हो गया है और अपना शुभाशुभ फल अन्य ग्रहों के मुकाबले में ज्यादा आपको देगा | कुंडली के कारक ग्रह का शुभ भावों में वर्गोत्म होना जातक को विशेष शुभ फल देगा | नवमांश कुंडली का मुख्य रूप से दाम्पत्य सुख के लिय अध्ययन किया जाता है| यदि लग्नेश और सप्तम भाव आपस में मित्र ग्रह हो तो पति पत्नी के विचार और स्वभाव मिलने के योग प्रबल हो जाते है| इसके साथ इन दोनों कुंडलियों में सप्तम भाव सिथ्ती काफी मायने रखती है | यदि वो नीच शत्रु राशि या त्रिक भाव में हो तो दाम्पत्य सुख में कमी के योग बनते है| यदि नवमांश पति शुभ राशि में लग्न कुंडली में केंद्र या त्रिकोण में हो तो जातक का विवाह उचित आयु में हो जाता है| साथ ही नवमांश पति के स्वामी के अनुसार जातक के जीवनसाथी में गुण पाए जाते है|
स्त्री की नवमांशकुंडली में यदि सप्तम भाव में शुभ ग्रह जैसे बलि चन्द्र गुरु या शुक्र हो तो जातिका सोभाग्यशालिनी होती है|
यदि नवमांश पति पाप ग्रह से पीड़ित हो तो जातिका विवाहिक जीवन में परेशानी का सामना करने वाली होती है|
इसी तरह किसी की कुंडली में नवमांश में शुक्र मंगल राशि परिवर्तन करे तो उसके अन्य के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनने के योग प्रबल हो जाते है|

जन्मकुंडली में शनि की सुखदायक स्थितियां-

1शनि और बुध की युति व्यक्ति को अन्वेषक
बनाती है।
2 यदि शनि चतुर्थेश होकर कुंडली में बलवान हो तो
जमीन-जायदाद का पूर्ण सुख देता है।
3 यदि शनि लग्नेश तथा अष्टमेश होकर बलवान हो तो
जातक दीर्घायु होता है।
4 धनु, तुला और मीन लग्न में शनि लग्न में
ही बैठा हो तो व्यक्ति को धनवान बनाता है।
5 वर्ष लग्न या जन्म लग्न में वृष राशि हो और शनि-शुक्र का
योग हो तो यह स्थिति लाभदायक होती है।
6शुक्र और शनि में मित्रता है, इसलिए वृष या तुला लग्नस्थ शनि
शुभ फल देता है।
7 छठे, आठवें या बारहवें भाव का कारक शनि इनमें से
किसी भी भाव में हो तो लाभदायक होता
है।
8कन्या लग्न में आठवें भाव का शनि व्यक्ति को धन सुख देता
है। यदि वक्री हो तो अपार संपत्ति देता है।
9 मीन, मकर, तुला या कुंभ लग्न में, शनि लग्न में
ही हो तो व्यक्ति का जीवन सुखमय
होता है और उसे मान-सम्मान की प्राप्ति होती है।
10 शनि यदि केंद्र में स्वराशि, मूल त्रिकोण राशि या अपनी उच्च राशि में हो तो शश नामक पंच महापुरुष योग का
निर्माण करता है। यह तुला राशि में 20 अंश तक होता है। इस
योग में जन्मे जातक दीर्घायु होते हैं, उनका रंग
सांवला तथा आंखें बड़ी होती हैं। उनका
व्यक्तित्व आकर्षक होता है। यह योग गरीब
परिवार में जन्मे
व्यक्ति को भी उन्नति के शिखर तक ले जाता है।
जातक उच्च स्तरीय नेता हो सकता है।
यदि कुंडली में शनि के साथ गुरु, शुक्र, बुध एवं चंद्र
भी शुभ और बलवान हों तो व्यक्ति सफलता
की सीढ़ियां आसानी से चढ़ता
चला जाता है।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम का लग्न धनु है। उन्हें शनि ने
अन्वेषक बनाया और देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचाया।
वैसे भी कर्क एवं धनु लग्न के जातक अपने क्षेत्र
में सर्वाधिक सफल होते हैं। धनु एवं मीन राशियों को
छोड़कर शेष राशियों के लिए शनि केंद्रेश या त्रिकोणेश होता है। इस
स्थिति में यदि उसका संबंध किसी अन्य केंद्रेश या
त्रिकोणेश
से हो तो फल अत्यंत शुभ होता है। ऐसे में वह सर्वाधिक
प्रगतिदायक बन जाता है। उसकी दृष्टि यदि
किसी अन्य
केंद्रेश या त्रिकोणेश के आधिपत्य वाली
किसी राशि पर भी हो तो फल शुभ होता
है।
प्रसिद्ध भारतीय ज्योतिषी वराह मिहिर ने
अपने ग्रन्थ वृहद् संहिता में शनि की शुभाशुभता का
विस्तार से वर्णन किया है। यह बुध, शुक्र और राहु का मित्र
तथा सूर्य, चंद्र और मंगल का शत्रु है। गुरु और केतु के साथ
समभाव रखता है।
यह तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव में श्रेष्ठ फल
देता है। अन्य किसी घर में इसका फल शुभ
नहीं होता। यह मृत्यु का कारक ग्रह है। यह
मकर राशि में अधिक बली होता है। यह पुष्य,
अनुराधा और उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र का स्वामी है।
यह नपुंसक और तामस स्वभाव वाला ग्रह है। इसे कालपुरुष का
दुख माना गया है। कालचक्र में शनि कर्म और उसके परिणाम का
प्रतीक है।
गोचर में यदि यह जन्म या नाम राशि से 12वां हो या जन्म राशि में
अथवा उससे दूसरा हो तो उन राशि वालों पर साढ़े साती
प्रभावी होती है। जब शनि गोचर में
जन्म या नाम राशि से चौथा या 8वां होता है तब यह अवधि ढैया
कहलाती है। शनि की साढ़े
साती या ढैया व्यक्ति को प्रेरित कर आत्मचिंतन,
नैतिकता एवं धार्मिकता की ओर ले जाती
है। शनि एक राशि में ढाई वर्ष रहता है। दीर्घायु
व्यक्ति के जीवन में शनि की
साढ़ेसाती प्रायः तीन बार आती
है। साढ़े साती या ढैया का प्रभाव सामान्यतः
कार्यक्षेत्र, आर्थिक स्थिति एवं परिवार पर पड़ता है।
तृतीय साढ़े साती स्वास्थ्य को अधिक
प्रभावित करती है। यह प्रभाव व्यक्ति
की कुंडली में शनि की स्थिति
के अनुसार शुभ या अशुभ होता है। गोचर में तीसरा,
छठा या ग्यारहवां शनि हमेशा शुभ एवं लाभदायी होता
है। शनि की साढ़ेसाती से
भयभीत होने की आवश्यकता
नहीं है। यह हमेशा कष्टदायी
नहीं होती है। शनि जीवन
में सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रह है। इस आलेख में शनि
की विभिन्न स्थितियों के फल का
निरूपण किया गया है। शनि का अन्य ग्रहों के साथ साहचर्य, भावों
और राशियों के साथ-साथ सभी लग्नों पर इसके प्रभाव
के अतिरिक्त साढ़ेसाती व ढैय्या की चर्चा
भी की गई है।
शास्त्रों में वर्णन है कि शनि वृद्ध, तीक्ष्ण,
आलसी, वायु प्रधान, नपुंसक, तमोगुणी
और पुरुष प्रधान ग्रह है। इसका वाहन गिद्ध है। शनिवार
इसका दिन है। स्वाद कसैला तथा प्रिय वस्तु लोहा है। शनि
राजदूत, सेवक, पैर के दर्द तथा कानून और शिल्प, दर्शन, तंत्र,
मंत्र और यंत्र विद्याओं का कारक है। ऊसर भूमि इसका
वासस्थान है। इसका रंग काला है। यह जातक के स्नायु तंत्र को
प्रभावित करता है। यह मकर और कुंभ राशियों का
स्वामी तथा मृत्यु का देवता है। यह ब्रह्म ज्ञान
का भी कारक है, इसीलिए शनि प्रधान लोग
संन्यास ग्रहण कर लेते हैं।
शनि सूर्य का पुत्र है। इसकी माता छाया एवं मित्र राहु
और बुध हैं। शनि के दोष को राहु और बुध दूर करते हैं।
शनि दंडाधिकारी भी है। यही
कारण है कि यह साढ़े साती के विभिन्न चरणों में
जातक को कर्मानुकूल फल देकर
उसकी उन्नति व समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है।
कृषक, मजदूर एवं न्याय विभाग पर भी शनि का
अधिकार होता है। जब गोचर में शनि बली होता है तो
इससे संबद्ध लोगों की उन्नति होती है।
कुंडली की विभिन्न भावों में शनि
की स्थिति के शुभाशुभ फल-
शनि भाव 3, 6,10, या 11 में शुभ प्रभाव प्रदान करता है।
प्रथम, द्वितीय, पंचम या सप्तम भाव में हो तो
अरिष्टकर होता है। चतुर्थ, अष्टम या द्वादश भाव में होने पर
प्रबल अरिष्टकारक होता है। यदि जातक का जन्म शुक्ल पक्ष
की रात्रि में हुआ हो और उस समय शनि
वक्री रहा हो तो शनिभाव बलवान होने के कारण शुभ
फल प्रदान करता है। शनि सूर्य के साथ 15 अंश के
भीतर रहने पर अधिक बलवान होता है। जातक
की 36 एवं 42 वर्ष की उम्र में अति
बलवान होकर शुभ फल प्रदान करता है। उक्त अवधि में शनि
की महादशा एवं अंतर्दशा कल्याणकारी
होती है।
शनि निम्नवर्गीय लोगों को लाभ देने वाला एवं
उनकीउन्नति का कारक है।
शनि हस्त कला, दास कर्म, लौह कर्म, प्लास्टिक उद्योग, रबर
उद्योग, ऊन उद्योग, कालीन निर्माण, वस्त्र निर्माण,
लघु उद्योग, चिकित्सा, पुस्तकालय, जिल्दसाजी, शस्त्र
निर्माण, कागज उद्योग, पशुपालन, भवन निर्माण, विज्ञान, शिकार
आदि से जुड़े लोगों की सहायता करता है। यह
कारीगरों, कुलियों, डाकियों, जेल अधिकारियों, वाहन चालकों
आदि को लाभ पहुंचाता है तथा वन्य जन्तुओं की
रक्षा करता है।

शनि से अन्य लाभ

1शनि और बुध की युति जातक को अन्वेषक
बनाती है।
2 चतुर्थेश शनि बलवान हो तो जातक को भूमि का पूर्ण लाभ मिलता
है।
3 लग्नेश तथा अष्टमेश शनि बलवान हो तो जातक
दीर्घायु होता है।
4तुला, धनु एवं मीन का शनि लग्न में हो तो जातक
धनवान होता है।
5 वृष तथा तुला लग्न वालांे को शनि सदा शुभ फल प्रदान करता है।
6 वृष लग्न के लिए अकेला शनि राजयोग प्रदान करता है।
7 कन्या लग्न के जातक को अष्टमस्थ शनि प्रचुर मात्रा में धन
देता है तथा वक्री हो तो अपार संपŸिा का
स्वामी बनाता है।
8 शनि यदि तुला, मकर, कुंभ या मीन राशि का हो तो
जातक को मान-सम्मान, उच्च पद एवं धन की प्राप्ति
होती है।
शनि से शश योग- शनि लग्न से केंद्र में तुला, मकर या कंुभ राशि में
स्थित हो तो शश योग बनता है। इस योग में
व्यक्ति गरीब घर में जन्म लेकर भी
महान हो जाता है। यह योग मेष, वृष, कर्क, सिंह, तुला,
वृश्चिक, मकर एवं कुंभ लग्न में बनता है। भगवान राम,
रानी लक्ष्मी बाई, पं. मदन मोहन
मालवीय, सरदार बल्लभ भाई पटेल आदि
की कुंडली में भी यह योग
विद्यमान है।

विभिन्न लग्नों में शनि की स्थिति के शुभाशुभ फल –

मेष: इस लग्न में शनि कर्मेश तथा लाभेश होता है। इस लग्न वालों
के लिए यह नैसर्गिक रूप से अशुभ है, लेकिन
आर्थिक मामलों में लाभदायक होता है।
वृष: इस लग्न में शनि केंद्र तथा त्रिकोण का स्वामी
होता है। उसकी इस स्थिति के फलस्वरूप जातक को
राजयोग एवं
सम्पति की प्राप्ति होती है।
मिथुन: इस लग्न में यदि शनि अष्टमेश या नवमेश होता है तो
जातक को दीर्घायु बनाता है।
कर्क: इस लग्न में शनि अति अकारक होता है।
सिंह: इस लग्न में यह षष्ठ एवं सप्तम घर का
स्वामी होता है। इस स्थिति में यह रोग एवं कर्ज देता
है तथा धन का नाश करता है।
कन्या: इस लग्न में शनि पंचम् तथ षष्ठ स्थान का
स्वामी होकर सामान्य फल देता है, किंतु यदि इस लग्न
में अष्टम
स्थान में नीच राशि का हो तो व्यक्ति को करोड़पति बनाता
है।
तुला: इस लग्न के लिए शनि चतुर्थेश तथा पंचमेश होता है। यह
अत्यंत योगकारक होता है।
वृश्चिकः इस लग्न में शनि तृतीयेश एवं चतुर्थेश
होकर अकारक होता है, किंतु बुरा फल नहीं देता।
धनु: इस लग्न के लिए शनि निर्मल होने पर धनदायक होता है,
लेकिन अशुभ फल भी देता है।
मकर: इस लग्न के लिए शनि अति शुभ होता है।
कुंभ: इस लग्न के लिए भी यह अति शुभ होता है।
मीन: शनि मीन लग्न वालों को धन देता है
लेकिन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।
भाव के अनुसार शनि का फल-
1 प्रथम भाव में शनि तांत्रिक बनाता है, किंतु शारीरिक
कष्ट देता है और पत्नी से मतभेद कराता है।
2 द्वितीय भाव में शनि सम्पति देता है, लेकिन लाभ के
स्रोत कम करता है तथा वैराग्य भी देता है।
3 तृतीय भाव में शनि पराक्रम एवं पुरुषार्थ देता है।
शत्रु का भय कम होता है।
4 चतुर्थ भाव में शनि हृदय रोग का कारक होता है,
हीन भावना से युक्त करता है और
जीवन नीरस बनाता है
5 पंचम भाव में शनि रोगी संतान देता है तथा दिवालिया
बनाता है।
6 षष्ठ भाव में शनि होने पर चोर, शत्रु, सरकार आदि जातक का
कोई नुकसान नहीं कर सकते हैं। उसे
पशु-पक्षी से धन मिलता है।
7 सप्तम भाव में स्थित शनि जातक को अस्थिर स्वभाव का तथा
व्यभिचारी बनाता है। उसकी
स्त्री झगड़ालू होती है।
8 अष्टम भाव में स्थित शनि धन का नाश कराता है।
इसकी इस स्थिति के कारण घाव, भूख या बुखार से
जातक की
मृत्यु होती है। दुर्घटना की आशंका
रहती है।
9 नवम् भाव में शनि जातक को संन्यास की ओर प्रेरित
करता है। उसे दूसरों को कष्ट देने में आनंद मिलता है।
36 वर्ष की उम्र में उसका भाग्योदय होता है।
10 दशम स्थान का शनि जातक को उन्नति के शिखर तक पहुंचाता
है। साथ ही स्थायी सम्पति
भी देता है।
11 एकादश भाव में स्थित शनि के कारण जातक अवैध स्रोतों से
धनोपार्जन करता है। उसकी पुत्र से अनबन
रहती है।
12 द्वादश भाव में शनि अपनी दशा-अतंर्दशा में जातक
को करोड़पति बनाकर दिवालिया बना देता है।

शनि की कुछ अन्य स्थितियों के शुभाशुभ फल:

1 तृतीय भाव का शनि स्वास्थ्य लाभ, आराम तथा शांति
प्रदान करता है। साथ ही शत्रु पर विजय दिलाता है।
2 षष्ठ भाव का शनि सफलता, भूमि, भवन, सम्पति एवं राज्य लाभ
कराता है।
3 एकादश भाव का शनि पदोन्नति, लाभ तथा मान सम्मान में वृद्धि
कराता है। साथ ही भूमि तथा
मशीनरी का लाभ देता है।
4 जिन जातकों के जन्म काल में शनि वक्री होता है
वे भाग्यवादी होते हैं। उनके क्रिया-कलाप
किसी अदृश्य
शक्ति से प्रभावित होते हैं। वे एकांतवासी होकर
प्रायः साधना में लगे रहते हैं।
धनु, मकर, कुंभ और मीन राशि में शनि
वक्री होकर लग्न में स्थित हो तो जातक राजा या गांव
का मुखिया होता है
और राजतुल्य वैभव पाता है। द्वितीय स्थान का शनि
वक्री हो तो जातक को देश तथा विदेश से धन
की प्राप्ति होती
है। तृतीय भाव का वक्री शनि जातक को
गूढ़ विद्याओं का ज्ञाता बनाता है, लेकिन माता के लिए अच्छा
नहीं होता है।
चतुर्थ भावस्थ शनि मातृ हीन, भवन
हीन बनाता है। ऐसा व्यक्ति घर-
गृहस्थी की जिम्मेदारी
नहीं निभाता और अंत
में संन्यासी बन जाता है। लेकिन, चतुर्थ में शनि तुला,
मकर या कुंभ राशि का हो तो जातक को पूर्वजों की
सम्पति
प्राप्त होती है। पंचम भाव का वक्री
शनि प्रेम संबंध देता है।
लेकिन जातक प्रेमी को धोखा देता है। वह
पत्नी एवं बच्चे की भी
परवाह नहीं करता है। षष्ठ भाव का
वक्री शनि
यदि निर्बल हो तो रोग, शत्रु एवं ऋण कारक होता है। सप्तम
भाव का वक्री शनि पति या पत्नी वियोग देता
है।
यदि शनि मिथुन, कन्या, धनु या मीन का हो तो एक से
अधिक विवाहों अथवा विवाहेतर संबंधों का कारक होता
है। अष्टम भाव में शनि हो तो जातक ज्योतिषी
दैवज्ञ, दार्शनिक एवं वक्ता होता है। ऐसा व्यक्ति तांत्रिक,
भूतविद्या,
काला जादू आदि से धन कमाता है। नवमस्थ वक्री शनि
जातक की पूर्वजों से प्राप्त धन में वृद्धि करता है।
उसे धर्म
परायण एवं आर्थिक संकट आने पर धैर्यवान बनाता है। दशमस्थ
शनि वक्री हो तो जातक वकील,
न्यायाधीश,
बैरिस्टर, मुखिया, मंत्री या दंडाधिकारी होता
है। एकादश भाव का शनि जातक को चापलूस बनाता है। व्यय
भावस्थ
वक्री शनि निर्दयी एवं आलसी
बनाता है।

ग्रहण योग।

जिन्दगी में कामयाबी के लिए सकारात्मक सोच का होना बहुत ही आवश्यक होता है। जो व्यक्ति आशावादी होते हैं वह मुश्किल से मुश्किल हालात का सामना आसानी से कर लेते हैं। लेकिन जो लोग निराशावादी होते हैं वह छोटी से छोटी समस्या को समाने देखकर घबरा जाते हैं। ऐसे लोग साहसिक कदम उठा नहीं पाते हैं इसलिए इनकी सफलता की रफ्तार धीमी होती है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार कई बार कुण्डली में ग्रहों की स्थिति व्यक्ति को आशावादी और निराशावादी बनाती है। इसके लिए चन्द्रमा एवं राहु विशेष रूप से जिम्मेदार होते हैं।

स्मरण क्षमता में कमी
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार जिस व्यक्ति की कुण्डली में चन्द्रमा और राहु एक ही घर में साथ-साथ होते हैं। उनकी कुण्डली में ग्रहण योग बनता है। यह योग जिनकी कुण्डली में होता वह निराशावादी होते हैं। ऐसे व्यक्ति की याद्दाश्त कमज़ोर होती है। इनके अंदर आत्मविश्वास की कमी होती है जिससे छोटी-छोटी बातों को लेकर यह तनाव में आ जाते हैं। ऐसे लोगों को नेत्र संबंधी रोग होने की आशंका रहती है। अगर राहु के साथ चन्द्रमा पहले अथवा आठवें घर में होता है तो व्यक्ति को मिरगी एवं दूसरे मानसिक रोग होने की भी संभावना रहती है।

कैरियर में बाधक राहु
जिस व्यक्ति की कुण्डली में एक ही घर में सूर्य, चन्द्र एवं राहु साथ होते हैं उनकी कुण्डली में ग्रहण योग का प्रभाव अधिक होता है। इन्हें कैरियर में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अकारण ही किसी बात को लेकर भयभीत रहते हैं। जीवन में कई बार गंभीर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। सूर्य एवं चन्द्र के साथ जब भी राहु की दशा चलती है, वह समय इनके लिए कष्टकारी होता है।

पिता के सुख में कमी
कुण्डली में सूर्य के साथ राहु होने पर भी ग्रहण योग बनता है। यह ग्रहण योग जिनकी कुण्डली में होता है वह किसी विषय पर गंभीरता से विचार किये बिना कार्य बैठते हैं जिसका इन्हें नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे लोग भी विषयों को अधिक समय तक याद नहीं रख पाते हैं। पिता से प्राप्त होने वाले सुख एवं सहयोग में कमी आती है। ऐसे लोग पैतृक स्थान से दूर जाकर कैरियर बनाते हैं।

धन योग।

ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि में धन वैभव और सुख के लिए कुण्डली में मौजूद धनदायक योग या लक्ष्मी योग काफी महत्वपूर्ण होते हैं. जन्म कुण्डली एवं चंद्र कुंडली में विशेष धन योग तब बनते हैं जब जन्म व चंद्र कुंडली में यदि द्वितीय भाव का स्वामी एकादश भाव में और एकादशेश दूसरे भाव में स्थित हो अथवा द्वितीयेश एवं एकादशेश एक साथ व नवमेश द्वारा दृष्ट हो तो व्यक्ति धनवान होता है.

शुक्र की द्वितीय भाव में स्थिति को धन लाभ के लिए बहुत महत्व दिया गया है, यदि शुक्र द्वितीय भाव में हो और गुरु सातवें भाव, चतुर्थेश चौथे भाव में स्थित हो तो व्यक्ति राजा के समान जीवन जीने वाला होता है. ऐसे योग में साधारण परिवार में जन्म लेकर भी जातक अत्यधिक संपति का मालिक बनता है. सामान्य व्यक्ति भी इन योगों के रहते उच्च स्थिति प्राप्त कर सकता है.

मेष लग्न के लिए धन योग | Dhan Yoga for Aries ascendant

लग्नेश मंगल कर्मेश शनि और भाग्येश गुरु पंचम भाव में होतो धन योग बनता है.

इसी प्रकार यदि सूर्य पंचम भाव में हो और गुरु चंद्र एकादश भाव में हों तो भी धन योग बनता है और जातक अच्छी धन संपत्ति पाता है.

वृष लग्न के लिए धन योग | Dhan Yoga for Taurus ascendant

मिथुन में शुक्र, मीन में बुध तथा गुरु केन्द्र में हो तो अचानक धन लाभ मिलता है. इसी प्रकार यदि शनि और बुध दोनों दूसरे भाव में मिथुन राशि में हों तो खूब सारी धन संपदा प्राप्त होती है.

मिथुन लग्न के लिए धन योग | Dhan Yoga for Gemini ascendant

नवम भाव में बुध और शनि की युति अच्छा धन योग बनाती है. यदि चंद्रमा उच्च का हो तो पैतृक संपत्ति से धन लाभ प्राप्त होता है.

कर्क लग्न के लिए धन योग | Dhan Yoga for Cancer ascendant

यदि कुण्डली में शुक्र दूसरे और बारहवें भाव में हो तो जातक धनवान बनता है. अगर गुरू शत्रु भाव में स्थित हो और केतु के साथ युति में हो तो जातक भरपूर धन और ऎश्वर्य प्राप्त करता है.

सिंह लग्न के लिए धन योग | Dhan Yoga for Leo ascendant

शुक्र चंद्रमा के साथ नवांश कुण्डली में बली अवस्था में हो तो व्यक्ति व्यापार एवं व्यवसाय द्वारा खूब धन कमाता है. यदि शुक्र बली होकर मंगल के साथ चौथे भाव में स्थित हो तो जातक को धन लाभ का सुख प्राप्त होता है.

कन्या लग्न के लिए धन योग | Dhan Yoga for Virgo ascendant

शुक्र और केतु दूसरे भाव में हों तो अचानक धन लाभ के योग बनते हैं. यदि कुण्डली में चंद्रमा कर्म भाव में हो तथा बुध लग्न में हो व शुक्र दूसरे भाव स्थित हो तो जातक अच्छी संपत्ति संपन्न बनता है.

तुला लग्न के लिए धन योग | Dhan Yoga for Libra ascendant

कुण्डली में दूसरे भाव में शुक्र और केतु हों तो जातक को खूब धन संपत्ति प्राप्त होती है. अगर मंगल, शुक्र, शनि और राहु बारहवें भाव में होंतो व्यक्ति को अतुल्य धन मिलता है.

वृश्चिक लग्न के लिए धन योग | Dhan Yoga for Scorpio ascendant

कुण्डली में बुध और गुरू पांचवें भाव में स्थित हो तथा चंद्रमा एकादश भाव में हो तो व्यक्ति करोड़पति बनता है.

यदि चंद्रमा, गुरू और केतु दसवें स्थान में होंतो जातक धनवान व भाग्यवान बनता है.

धनु लग्न के लिए धन योग | Dhan Yoga for Sagittarius ascendant

कुण्डली में चंद्रमा आठवें भाव में स्थित हो और सूर्य, शुक्र तथा शनि कर्क राशि में स्थित हों तो जातक को बहुत सारी संपत्ति प्राप्त होती है. यदि गुरू बुध लग्न मेषों तथा सूर्य व शुक्र दुसरे भाव में तथा मंगल और राहु छठे भाव मे हों तो अच्छा धन लाभ प्राप्त होता है.

मकर लग्न के लिए धन योग | Dhan Yoga for Capricorn ascendant

जातक की कुण्डली में चंद्रमा और मंगल एक साथ केन्द्र के भावों में हो या त्रिकोण भाव में स्थित हों तो जातक धनी बनता है. धनेश तुला राशि में और मंगल उच्च का स्थित हो व्यक्ति करोड़पति बनता है.

कुंभ लग्न के लिए धन योग | Dhan Yoga for Aquarius ascendant

कर्म भाव अर्थात दसवें भाव में चंद्र और शनि की युति व्यक्ति को धनवान बनाती है. यदि शनि लग्न में हो और मंगल छठे भाव में हो तो जातक ऎश्वर्य से युक्त होता है.

मीन लग्न के लिए धन योग | Dhan Yoga for Pisces ascendant

कुण्डली के दूसरे भाव में चंद्रमा और पांचवें भाव में मंगल हो तो अच्छे धन लाभ का योग होता है. यदि गुरु छठे भाव में शुक्र आठवें भाव में शनि बारहवें भाव और चंद्रमा एकादशेश हो तो जातक कुबेर के समान धन पाता है.

कुछ अन्य धन योग | Other Dhan Yoga

यह तो बात हुई लग्न द्वारा धन लाभ के योगों की अब हम कुछ अन्य धन योगों के विषय में चर्चा करेंगे जो इस प्रकार बनते हैं.

मेष या कर्क राशि में स्थित बुध व्यक्ति को धनवान बनाता है, जब गुरु नवे और ग्यारहवें और सूर्य पांचवे भाव में बैठा हो तब व्यक्ति धनवान होता है.
जब चंद्रमा और गुरु या चंद्रमा और शुक्र पांचवे भाव में बैठ जाए तो व्यक्ति को अमीर बनाता है.
सूर्य का छठे और ग्यारहवें भाव में होना व्यक्ति को अपार धन दिलाता है.
यदि सातवें भाव में मंगल या शनि बैठे हों और ग्यारहवें भाव में शनि या मंगल या राहू बैठा हो तो व्यक्ति धनवान बनता है.
मंगल चौथे भाव, सूर्य पांचवे भाव में और गुरु ग्यारहवे या पांचवे भाव में होने पर व्यक्ति को पैतृक संपत्ति से लाभ मिलता है.
पंचमहापुरूष योग | Panch Mahapurush Yoga

कुण्डली में पंच महापुरूष योग तब बनता है जबकि मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र व शनि में से कोई भी ग्रह केन्द्र में स्वगृही, मूल त्रिकोण या उच्च का होकर स्थित हो इस योग से जातक वैभव और ऐश्वर्य को पाता है. लक्ष्मी देवी इन पर अपनी कृपा अवश्य बरसाती हैं.

अमला योग | Amla Yoga

कुण्डली में अमला योग तब बनता है जब चन्द्रमा से अथवा लग्न से दशम भाव में शुभ ग्रह विराजमान होता है. कहा जाता है कि जिस व्यक्ति की कुण्डली में यह योग बनता है वह भले ही गरीब परिवार में जन्मा हो परंतु भाग्य के बल से अपने जीवन काल में यश कीर्ति और धन प्राप्त करता है.

अखण्ड सम्राज्य योग | Akhand Samrajya Yoga

कुण्डली में एकादशेश बृहस्पति हो और द्वितीयेश एवं नवमेश में से कोई एक चन्द्रमा से केन्द्र स्थान में हो तब यह योग बनता है. यह अत्यंत शुभ फलदायी और प्रभावशाली होता है और व्यक्ति अपने जीवन काल में धन वैभव एवं यश प्राप्त करता है.

लक्ष्मी योग | Laxmi Yoga

कुण्डली में जब नवमेश लग्नेश अथवा पंचमेश के साथ युति का निर्माण करता है तो यह योग बनता है. इस योग से प्रभावित व्यक्ति पर माँ लक्ष्मी की कृपा दृष्टि सदैव बनी रहती है.

गजकेसरी योग | Gajkesari Yoga

गजकेसरी योग का निर्माण गुरु से चन्द्र के केन्द्र में होने पर होता है. यह योग जब केन्द्र भावों में बने तो सबसे अधिक शुभ माना जाता है. गजकेसरी योग व्यक्ति को धन, सम्मान व उच्च पद देने वाला माना गया है.
[सपने में पानी देखना: जानिए इसके शुभ और अशुभ परिणाम
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इस दुनिया में शायद ही कोई ऐसा इंसान होगा जिसको सपने नहीं आते होंगे. सपने आना मनुष्य के दिमाग की एक उपज या कल्पना भी हो सकती है. अक्सर हम अपनी रोजाना जिंदगी में कुछ ऐसी स्तिथियों या घटनायों से गुजरते हैं, जो ना चाहते हुए भी हमारे मस्तिष्क पर गहरा असर छोड़ जाती है और यही घटनाएं एक ना एक दिन सपनो का रूप धारण करके हमें रात भर परेशान करती हैं. बहुत सारे लोगो को एक ही सपना बार बार भी दिखाई दे सकता है. यदि आपके साथ भी ऐसा हो रहा है तो इसका मतलब उस सपने से जुडी कोई ना कोई घटना आपकी असल जिंदगी से ताल्लुक रखती है. हिन्दू धर्म के शास्त्रों और ज्योतिष विज्ञान के अनुसार हर सपने का कोई ना कोई अर्थ जरुर होता है. अगर बात सपने में पानी देखना (sapne me pani dekhna) की करें तो इसके शुभ और अशुभ दोनों परिणाम हो सकते हैं. क्यूंकि, बहुत सारे सपने हमे हमारे भविष्य में आने वाली परेशानियों से आगाह करते हैं. चलिए आज के इस आर्टिकल में जानते है कि सपने में पानी देखना (sapne me pani dekhna) इसका आखिर क्या अर्थ हो सकता है.

सपने में (बाढ़ का) पानी देखना
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बाढ़ को अंग्रेजी भाषा में “Flood” भी कहा जाता है. ये सबसे खातीं कुदरती विपदायों में से एक माना जाता है. जब भी बाढ़ आता है तो हस्ते खेलते घरों को तबाह कर जाता है. ऐसे में यदि आपको सपने में बाढ़ का पानी दिखाई देता है तो ये आपके लिए परेशानी और आने वाले समय में दुखों का संकेत है. सपने में बाढ़ देखने का मतलब आपको बहुत जल्द कोई बुरा समाचार सुनने को मिलने वाला है.

बारिश की बूंदों का दिखाई देना
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सपने में बारिश की बूंदे दिखाई देना आपके लिए बेहद शुभ संकेत हो सकता है. अगर आपको सपने में हलकी बारिश की बूंदे दिखाई देती हैं तो इसका मतलब आप काफी क्षमाशील व्यक्ति हैं. इसके इलावा अगर आपको सपने में भारी मात्रा में बारिश की बूंदे नज़र तो इसका मतलब है कि आपकी पिछली समस्यायों से आपको बहुत जल्द छुटकारा मिलने वाला है.

सपने में नदी का पानी देखना
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यदि आपको सपने में नदी का पानी दिखाई दे तो ये आपके लिए काफी अच्छा संकेत सिद्ध हो सकता है. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सपने में पानी देखना या सपने में नदी का पानी दिखाई दे तो उस इंसान की इच्छाएं और आकांक्षाएं बहुत जल्द पूरी होने वाली हैं और उसकी किस्मत बदलने वाली है.

समुद्र का पानी देखना
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समुद्र दिखने में काफी विशाल होते हैं. मगर यदि आपको सपने में समुद्र का पानी दिखाई दे तो इसका मतलब आपको आपकी गलतियों में जल्द ही सुधार करना होगा अन्यथा आपको उसका बुरा परिणाम झेलना पड़ सकता है.

सपने में स्वच्छ पानी देखना
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ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सपने में पानी देखना या स्वच्छ पानी को सबसे उत्तम पानी माना जाता है. ऐसे में अगर आपके सपने में आपको स्वच्छ पानी दिखाई दे तो इसका मतलब आपको जल्दी ही अच्छे कार्यों के अवसर मिलने वाले हैं और सफलता आपके क़दमों को छूने वाली है.

गंदा पानी नज़र आना
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सपनो में गंदा एवं दूषित पानी नज़र आने का मतलब है कि आपकी जिंदगी में बहुत जल्द कोई मुसीबत आने वाली है. इसके इलावा अगर आप किसी शुभ कार्य की शुरुआत करने की सोच रहे हैं तो उसको कुछ समय के लिए टाल दें वरना आपको उस कार्य में कभी सफलता नही मिल पाएगी.

खौलता हुआ गरम पानी देखना
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अगर आपके सपने में आपको खौलता हुआ गरम पानी दिख जाए तो इसका मतलब आपके अंदर भावनायों का सैलाब चल रहा है. ऐसे में आप अपनी भावनायों पर काबू रखें और उन्हें स्थिर बनाने की कोशिश करें वरना आपको कोई बड़ा नुक्सान झेलना पड़ सकता है.

ऊँची जगह से पानी में गिरना
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अगर सपने में आप खुद को किसी ऊंची जगह से नीचे पानी में गिरते हुए देख लेते हैं तो इसका मतलब आपकी बिमारी से जुड़ा हो सकता है. अगर आप काफी समय से किसी बिमारी से पीड़ित हैं तो ये सपना उस बिमारी के और बढने का संकेत देता है.

लहरों की आवाज़
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अगर आपको सपने में पानी देखना या सपने में लहरों की आवाज़ सुनाई दे तो इसका मतलब आपकी जिंदगी सुकून और चैन से चल रही है और आपको किसी प्रकार की कोई पीड़ा नहीं है.

सुनामी दिखाई देना
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सुनामी का दूसरा नाम तबाही है. ऐसे में अगर आपके सपने में सुनामी की आपदा दिखाई पड़े तो इसका मतलब आपे सामने जल्दी ही कोई बहुत बुरी स्तिथि आने वाली है और आप उस स्तिथि का सामना करने के लिए अभी पूरी तरह से तैयार नहीं हैं।
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[राशि अनुसार ध्यान रखें निवेश, धीरे-धीरे बढऩे लगेगा पैसा

यदि आप निवेश करना चाहते हैं तो ज्योतिष के अनुसार जानिए आपको किस क्षेत्र में निवेश करना चाहिए और किस क्षेत्र निवेश नहीं करना चाहिए। निवेश यदि राशि अनुसार किया जाए तो नुकसान की संभावनाएं काफी कम हो जाती हैं।
यहां सभी राशियों के अनुसार निवेश के क्षेत्र बताये गए है।

मेष🐐
मेष राशि के स्वामी मंगल देव हैं। मंगल को पृथ्वी का पुत्र माना जाता है। इसका रक्त वर्ण है। जमीन, मकान, खेती एवं उससे जुड़े उपकरणों, दवाइयों के उपकरणों, वाहन विक्रय, खनिज, कोयला में निवेश करने वाले लोगों को मंगल बहुत लाभ देता है।

इस राशि के लोगों को किसी भी प्रकार के जोखिम, केमिकल, चमड़े, लोहे से संबंधित कार्य में निवेश करने से बचना चाहिए। जन्मपत्रिका में मंगल-चंद्र की युति हो तो व्यक्ति अति धनवान होता है। पूर्व का निवेश अटका हो तो हर मंगलवार के दिन हनुमानजी को सरसो के तेल का दीपक लगाना चाहिए।

वृषभ🐂
 इस राशि का स्वामी शुक्र है। शुक्र चंचल ग्रह है तथा चंद्रमा इस राशि में उच्च का होता है। इन लोगों को अनाज, कपड़ा, चांदी, शकर, चावल, सौन्दर्य सामग्री, इत्र, दूध एवं दूध से बने पदार्थ, प्लास्टिक, खाद्य तेल, ऑटो पार्टस, वाहन में लगने वाली सामग्री, कपड़े से संबंधीत शेयर एवं रत्नों में निवेश करने से लाभ प्राप्त होता है।
जमीन, खनिज, कोयला, रत्न, सोना, चांदी, स्टील, कोयला, शिक्षण संस्थान, चमड़ा, लकड़ी, वाहन, आधुनिक यंत्र, औषधियों, विदेशी दवाइयों आदि में निवेश से बचना चाहिए। पूर्व का निवेश अटका हो तो पूर्णिमा के दिन चंद्र ग्रह के निमित्त घी का दीपक लगाना चाहिए।

मिथुन💏
इस राशि का स्वामी बुध है। बुध चंद्र को अपना शत्रु मानता है। बुध व्यापार करने वाले लोगों को लाभ देने वाला ग्रह है। इस राशि के जातकों को सोने में निवेश लाभदायी रहता है।
इसके अलावा कागज, लकड़ी, पीतल, गेंहू, दालें, कपड़ा, स्टील, प्लास्टिक, तेल, सौन्दर्य सामग्री, सीमेंट, खनिज पदार्थ, पशु, पूजन सामग्री, वाद्य यंत्र आदि का व्यापार या इन चीजों से संबंधित निवेश लाभ देता है। चांदी, शकर, चावल, सुखे मेवे, कांसा, लोहा, इलेक्ट्रॉनिक्स, जमीन, सीमेंट, इत्र, केबल तार, वाहन, दवाइयों, पानी से संबंधीत पदार्थ में निवेश करने से बचने का प्रयास करें। पूर्व का निवेश अटका हो तो सफेद वस्त्रों का दान करें।

कर्क💮
कर्क राशि का स्वामी स्वयं चन्द्रमा है। इस राशि के लोग व्यवसाय के साथ नौकरी में भी सफल होते हैं। इन लोगों को चांदी, चावल, शकर एवं कपड़ा उत्पाद करने वाली कंपनियों के शेयर, प्लास्टिक, अनाज, लकड़ी, केबल, तार, फिल्मों, खाद्य सामग्रियों, आधुनिक उपकरण, बच्चों के खिलोने, फायनेंस कंपनियों में निवेश करना लाभदायी होता है। 
वर्तमान में शेयर एवं वादा बाजार में निवेश से बिल्कुल नहीं करें। जमीन, प्लाट, मकान, दुकान, तेल, सोना, पीतल, वाहन, दूध से बने पदार्थ, पशु, रत्न, फर्टीलाइजर्स, सीमेंट, औषधियों एवं विदेशी दवाई कंपनियों में निवेश सावधानी से करना चाहिए। पूर्व का निवेश अटका हो तो श्रीगणेश को भोग लगाएं।

सिंह🐅
इस राशि का स्वामी सूर्य चंद्रमा का मित्र है। यह लोग स्वयं का कार्य या व्यापार में सफल होते हैं। सामान्यत: इन लोगों को नौकरी पसंद नहीं होती है। इन्हें सोना, गेंहू, कपड़ा, औषधियों, रत्नों, सौन्दर्य सामग्री, इत्र, सेंट, शेयर एवं जमीन जायदाद में निवेश से लाभ होता है। 
इन लोगों को तकनीकी उपकरण, वाहन, सौदंर्य सामग्री, फिल्म्स, प्लास्टिक, केबल तार, इलेक्ट्रॉनिक्स, कागज, खाद्य पदार्थ, लकड़ी एवं उससे बने उपकरण, सेना में सप्लाई करने में भी यह लाभ प्राप्त होता है।
इस राशि के जातकों को किसी भी निवेश लाभ-हानि बराबर होती है। पूर्णत: हानि से यह सदैव बचे रहते हैं। पूर्व का निवेश अटका हो तो हनुमानजी को चमेली के तेल का दीपक लगाएं।

कन्या👩
 इस राशि का स्वामी बुध है। जो चंद्रमा से शत्रुता रखता है। इन लोगों को शिक्षण संस्थान, सोना, औषधियों, केमिकल, फर्टीलाइजर्स, चमड़े से बने सामान, खेती, खेती के उपकरणों के कार्य करने में सफलता प्राप्त होती है। इन चीजों में निवेश भी लाभदायी होता हैं। 
जमीन, चांदी, सीमेंट, ट्रांसपोर्ट, मशीनों का सामान, पशु एवं जल से जुड़े कार्यों में निवेश से बचना चाहिए। वर्तमान समय में शनि का अंतिम ढैय्या होने से शेयर एवं वादा बाजार में अच्छी सलाह के बाद ही निवेश करें। पूर्व में कोई निवेश उलझा हो तो श्रीगणेश को लड्डू का भोग लगाएं।

तुला🌰🌰
इस राशि का स्वामी शुक्र होता है। शनि इस राशि में उच्च का होता है और इस समय शनि तुला में ही है। इस राशि के लोगों को लौहा, सीमेंट, स्टील, दवाइयों, केमिकल, चमड़े, फर्टीलाइजर्स, कपड़ा, तार, इस्पात, कोयला, रत्नों, प्लास्टिक, आधुनिक यंत्रों (कंप्यूटर, कैमरे, टेलीविजन आदि बनाने वाली कंपनी) तेल में निवेश करने से उत्तम लाभ होता है। 
जमीन, मकान, खेती, खेती संबंधी उपकरण, वस्त्र, में निवेश करने से बचें। वर्तमान समय में शनि की साढ़ेसाती होने से शेयर एवं वादा बाजार में निवेश नहीं करें। पूर्व में निवेश अटका हो तो सूर्य को दूध अर्पण करें।

वृश्चिक🐉
 इस राशि का स्वामी मंगल है। चंद्रमा इस राशि में नीच का होता हैं। मेष राशि की ही तरह इस राशि वालों को जमीन, मकान, दुकान, खेती, सीमेंट, रत्नों, खनिजों, खेती एवं मेडिकल के उपकरण, पूजन सामग्री, कागज, वस्त्र में निवेश से लाभ होता है। 
आपकी कुंडली में यदि चंद्रमा पर शनि की नजर हो तो तेल, केमिकल एवं तरल पदार्थों में निवेश करने से बचें। वर्तमान समय में शनि की साढ़ेसाती होने से शेयर, केमिकल, लौहा, चमड़ा, सोना, चांदी, स्टील, लकड़ी, सौंदर्य सामग्री, लौहे के उपकरण, तेल में निवेश बिल्कुल नहीं करें। पूर्व में निवेश अटका हो तो मंगलवार के दिन किसी चौराहे पर तेल डालें।

धनु↗
इस राशि के स्वामी गुरु ग्रह हैं। गुरु व्यापारियों को लाभ देने वाला ग्रह है। विशेषकर सोने एवं अनाज का व्यापार करने वालों के लिए। इस राशि के लोगों को निवेश के लिए भी इन्हीं वस्तुओं पर ध्यान देना चाहिए। आभूषणों, रत्नों, सोना, अनाज, कपास, चांदी, शकर, चावल, औषधियों, सौंदर्य सामग्री, दूध से बने पदार्थ, पशुओं का व्यापार करने एवं उसमें निवेश करने से लाभ होता है। 
तेल, केमिकल, खनिज, खदान, कोयला, खाद्य तेल, किराना व्यापार, केबल तार, शीशा, लकड़ी, जमीन, मकान, सीमेंट, लौहे के व्यापार या उसमें निवेश करने से हानि होने की संभावनाएं बनती हैं। पूर्व का निवेश अटका हो तो सरसों का तेल दान करें।

मकर🐊
इस राशि का स्वामी शनि है। शनि चंद्र से शत्रुता रखता है। इस राशि के लोगों को लोहा, इस्पात, केबल, तेल सभी प्रकार के, खाद्य सामग्री, इलेक्ट्रॉनिक्स सामान, यंत्र, खनिज पदार्थ, खेती उपकरण, वाहन, चिकित्सा के उपकरण, वस्त्र, इत्र, सेंट, स्टील, सौन्दर्य सामग्री, ग्लेमर वर्ल्ड, फिल्म्स, नाटकों आदि में निवेश करने से लाभ होता है। 
जमीन, मकान, सीमेंट, सोना, चांदी, रत्न, पीतल, अनाज, वस्त्र, शेयर आदि में निवेश से बचना चाहिए। पूर्व का निवेश अटका हो तो इमली का दान करें।

कुंभ🍯
 इस राशि का स्वामी भी शनि ही है तथा मकर की तरह ही इसके बारे में समझना चाहिए। इस राशि के लोगों को लोहा, इस्पात, केबल, तेल सभी प्रकार के खाद्य सामग्री, इलेक्ट्रॉनिक्स सामान, यंत्र, खनिज पदार्थ, खेती उपकरण, वाहन, मेडिकल के उपकरण, वस्त्र, इत्र, सेंट, स्टील, सौन्दर्य सामग्री, ग्लेमर वल्र्ड, फिल्म्स, नाटकों आदि में निवेश करने से लाभ होता है। 
जमीन, मकान, सीमेंट, सोना, चांदी, रत्न, पीतल, अनाज, वस्त्र, शेयर आदि में निवेश से बचना चाहिए। पूर्व का निवेश अटका हो तो अदरक का दान करें।

मीन🐋
इस राशि का स्वामी गुरु है। गुरु चंद्र का मित्र है। किसी भी प्रकार के निवेश से इन्हें बचना चाहिए। विशेषकर शेयर एवं वादा बाजार में। इनके निवेश के लिए आभूषणों, रत्नों, सोना, अनाज, कपास, चांदी, शकर, चावल, औषधियों, सौंदर्य सामग्री, दूध से बने पदार्थ, पशुओं का व्यापार करने एवं इन चीजों में निवेश करने से लाभ होता है।
तेल, केमिकल, खनिज, खदान, कोयला, खाद्य तेल, किराना व्यापार, केबल तार, शीशा, लकड़ी, जमीन, मकान, सीमेंट, लौहे के व्यापार या उसमें निवेश करने से हानि होने की संभावनाएं बनती हैं। पूर्व का निवेश अटका हो तो दुर्गा चालीसा का पाठ करें।📚🖊🙏🙌

मंगल ग्रह की उत्पत्ति का पौराणिक वृत्तांत।

मंगल ग्रह की उत्पत्ति का एक पौराणिक वृत्तांत स्कंदपुराण के अवंतिका खण्ड में आता है | एक समय उज्जयिनी पुरी में अंधक नाम से प्रसिद्ध दैत्य राज्य करता था | उसके महापराक्रमी पुत्र का नाम कनक दानव था | एक बार उस महाशक्तिशाली वीर ने युद्ध के लिए इन्द्र को ललकारा तब इन्द्र ने क्रोधपूर्वक उसके साथ युद्ध करके उसे मार गिराया | उस दानव को मारकर वे अंधकासुर के भय से भगवान शंकर को ढूंढते हुए कैलाश पर्वत पर चले गये | इन्द्र ने भगवान चंद्रशेखर के दर्शन करके अपनी अवस्था उन्हें बतायी और प्रार्थना की, भगवन ! मुझे अंधकासुर से अभय दीजिये | इन्द्र का वचन सुनकर शरणागत वत्सल शिव ने इंद्र को अभय प्रदान किया और अंधकासुर को युद्ध के लिए ललकारा, युद्ध अत्यंत घमासान हुआ, और उस समय लड़ते – लड़ते भगवान शिव के मस्तक से पसीने की एक बूंद पृथ्वी पर गिरी, उससे अंगार के समान लाल अंग वाले भूमिपुत्र मंगल का जन्म हुआ |अंगारक , रक्ताक्ष तथा महादेव पुत्र, इन नामो से स्तुति कर ब्राह्मणों ने उन्हें ग्रहों के मध्य प्रतिष्ठित किया, तत्पश्चात उसी स्थान पर ब्रह्मा जी ने मंगलेश्वर नामक उत्तम शिवलिंग की स्थापना की | वर्तमान में यह स्थान मंगलनाथ मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है, जो उज्जैन में स्थित है |

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार वाराह कल्प में दैत्य राज हिरण्यकशिपू का भाई हिरण्याक्ष पृथ्वी को चुरा कर सागर में ले गया | भगवान् विष्णु ने वाराह अवतार ले कर हिरण्याक्ष का वध कर दिया तथा रसातल से पृथ्वी को निकाल कर सागर पर स्थापित कर दिया जिस पर परम पिता ब्रह्मा ने विश्व की रचना की | पृथ्वी सकाम रूप में आ कर श्री हरि की वंदना करने लगी जो वाराह रूप में थे | पृथ्वी के मनोहर सकाम रूप को देख कर श्री हरि ने काम के वशीभूत हो कर दिव्य वर्ष पर्यंत पृथ्वी के संग रति क्रीडा की | इसी संयोग के कारण कालान्तर में पृथ्वी के गर्भ से एक महातेजस्वी बालक का जन्म हुआ जिसे मंगल ग्रह के नाम से जाना जाता है | देवी भागवत में भी इसी कथा का वर्णन है |

महाभारत के उद्योग पर्व में श्री कृष्ण से भेंट करते समय कर्ण ने उस समय की अशुभ ग्रह स्थिति का वर्णन करते हुए कहा था की इस समय शनि रोहिणी नक्षत्र में स्थित मंगल को पीड़ा दे रहा है |

पुराणों में मंगल ग्रह का स्वरूप एवम प्रकृति

मत्स्य पुराण के अनुसार मंगल चतुर्भुज ,लाल वर्ण का ,नवयुवक ,लाल रंग के पदार्थों का प्रतिनिधित्व करने वाला है |

अग्निर्विकेश्याम जज्ञे तु युवासौ लोहिताधिपः

अर्थात स्वयं अग्निदेव ही भूमि के गर्भ से मंगल के रूप में उत्पन्न हुए हैं |

नारद पुराण में मंगल को पित्त प्रधान ,क्रूर दृष्टि वाला ,युवक ,चंचल स्वभाव का कहा गया है |

ज्योतिष शास्त्र में मंगल ग्रह का स्वरूप एवम प्रकृति

ज्योतिष के मान्य फलित ग्रंथों बृहज्जातक ,सारावली , फलदीपिका ,बृहत् पाराशर इत्यादि के अनुसार मंगल क्रूर दृष्टि वाला ,युवक ,पतली कमर वाला ,अग्नि के सामान कान्ति वाला ,रक्त वर्ण ,पित्त प्रकृति का ,साहसी ,चंचल ,लाल नेत्रों वाला ,उदार ,अस्थिर स्वभाव का है |

मंगल की गति

गरुड़ पुराण के अनुसार भूमिपुत्र मंगल का रथ स्वर्ण के समान कांचन वर्ण का है | उसमें अरुण वर्ण के अग्नि से प्रादुर्भूत आठ अश्व जुते हुए हैं | मंगल मार्गी और वक्री दोनों गति से चलते हैं तथा बारह राशियों का भ्रमण लगभग अठारह महीने में कर लेते हैं|

वैज्ञानिक परिचय

सौर मंडल में मंगल का स्थान सूर्य से चौथा है |Iron oxide की अधिकता के कारण इस का रंग लाल प्रतीत होता है | रोमन युद्ध के देवता के नाम पर इसका नाम Mars रखा गया है | मंगल के दो चंद्रमा Phobos और Deimos हैं | इसका क्षेत्रफल पृथ्वी से लगभग आधा है | यह सूर्य की परिक्रमा 687 दिन में तथा अपनी धुरी पर 24 घंटे 39 मिनट 35.244 सैकिंड में करता है |

ज्योतिष शास्त्र में मंगल

ज्योतिष शास्त्र में मंगल को पाप ग्रह की श्रेणी में रखा गया है | राशि मंडल में इसे मेष और वृश्चिक राशियों का स्वामित्व प्राप्त है | यह मकर राशि में उच्च का तथा कर्क में नीच का होता है | मेष राशि में 12 अंश तक मूल त्रिकोण का होता है | मंगल अपने स्थान से चौथे ,सातवें और आठवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है |सूर्य ,चन्द्र ,गुरु से मैत्री ,शुक्र व शनि से समता तथा बुध से शत्रुता रखता है | जनम कुंडली में तीसरे और छटे घर का स्वामी होता है | मंगल अपने वार ,स्व नवांश,स्व द्रेष्काण,स्व तथा उच्च राशि ,रात्रिकाल , वक्री होने पर ,दक्षिण दिशा में तथा जनम कुंडली के दशम भाव में बलवान होता है |

कारकत्व

मंगल भाई ,साहस ,पराक्रम ,आत्मविश्वास ,खेलकूद,शारीरिक बल ,रक्त मज्जा ,लाल रंग के पदार्थ ,ताम्बा ,सोना ,कृषि ,मिटटी ,भूमि ,मूंगा ,शस्त्र ,सेना, पुलिस,अग्नि ,क्रोध ,ईंट ,हिंसा ,मुकद्दमें बाजी , शल्य चिकित्सा ,बारूद , मदिरा , युद्ध , चोरी ,विद्युत , शत्रु ,तीखा और कड़वा रस ,सुनार आदि का कारक कहा गया है |

रोग

जनम कुंडली में मंगल अस्त ,नीच या शत्रु राशि का ,छटे -आठवें -बारहवें भाव में स्थित हो ,पाप ग्रहों से युत या दृष्ट, षड्बल विहीन हो तो चेचक ,खसरा ,उच्च रक्त चाप ,खुजली ,फोड़ा फुंसी ,दुर्घटना ,जलन ,पित्त प्रकोप , बवासीर ,रक्त कुष्ठ , बिजली का करंट ,रक्त मज्जा की कमी ,मांसपेशियों की दुर्बलता इत्यादि रोगों से कष्ट हो सकता है |

फल देने का समय

मंगल अपना शुभाशुभ फल 28-32 वर्ष कि आयु में एवम अपनी दशाओं व गोचर में प्रदान करता है | युवा अवस्था पर भी इस का अधिकार कहा गया है|

मंगल का राशि फल

जन्म कुंडली में मंगल का मेषादि राशियों में स्थित होने का फल इस प्रकार है :-

मेष में मंगल हो तो जातक तेजस्वी ,सत्यप्रिय ,वीर ,युद्ध प्रिय ,साहसी ,कार्य में तत्पर , भ्रमणशील ,धनी ,दानी, क्रोधी होता है |

वृष में मंगल हो तो जातक अधिक बोलने वाला ,मंद धन व पुत्र से युत, द्वेषी ,अविश्वासी, उदंड ,अप्रिय भाषी ,संगीत रत , मित्र व बन्धुविरोधी ,पाप करने वाला होता है |

मिथुन में मंगल हो तो जातक कष्ट को सहन करने वाला ,बहुत विषयों का ज्ञाता ,शिल्प कला में कुशल,विदेशगमनरत ,धर्मात्मा ,बुद्धिमान शुभचिंतक ,अधिक कार्यों में लीन होता है |

कर्क में मंगल हो तो जातक परगृह निवासी,रोग व पीड़ा से विकल , अशांत ,कृषि से धन प्राप्त करने वाला,जल के कार्यों से धनी होता है

सिंह में मंगल हो तो जातक असहनशील ,वीर ,मांसाहारी ,दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करने वाला, पहली पत्नी से हीन ,धर्मफल हीन तथा क्रिया में उद्यत होता है |

कन्या में मंगल हो तो जातक पूज्य,धनी ,प्रिय भाषी ,अधिक व्यय करने वाला ,संगीत प्रिय ,शत्रु से अधिक डरने वाला तथा स्तुति करने में चतुर होता है

तुला मे मंगल हो तो जातक पर्यटन शील ,हीनांग ,दूषित व्यापार वाला ,युद्ध का इच्छुक ,दूसरे की वस्तु का उपभोग करने वाला ,पहली स्त्री से रहित होता है |

वृश्चिकमें मंगल हो तो जातक कार्य चतुर ,चोर ,युद्ध प्रिय ,अपराधी ,द्वेष- हिंसा और अकल्याण में रूचि रखने वाला ,चुगलखोर ,विष –अग्नि व घाव से पीड़ित होता है |

धनु में मंगल हो तो जातक कृशांग,कटु भाषी ,युद्ध कर्ता,अधिक मेहनत से सुखी,क्रोध के कारण अपने धन व सुख का नाशक होता है |

मकर में मंगल हो तो जातक धन्य ,धनी ,सुख भोग से युक्त ,स्वस्थ ,प्रसिद्ध ,सेनापति ,युद्ध में विजय प्राप्त करने वाला ,सुशीला स्त्री का पति, स्वतंत्र होता है |

कुम्भ में मंगल हो तो जातक विनय तथा पवित्रता से रहित ,वृद्धाकार ,अधिक रोम से युक्त देह वाला ,ईर्ष्यालु, निंदा व असत्य वादन से धन नष्ट कर्ता ,लाटरी जुए में धन खोने वाला ,दुखी ,मद्य पीने वाला भाग्य हीन होता है |

मीन में मंगल हो तो जातक रोगी ,अल्प पुत्रवान ,परदेस वासी ,अपने बंधुओं से तिरस्कृत ,कपट व धूर्तता के कारण धन नष्ट करने वाला ,गुरु ब्राह्मण का अनादर करने वाला ,हीन बुध्धि का ,स्तुति प्रिय होता है |

मंगल का सामान्य दशा फल

जन्म कुंडली में मंगल स्व ,मित्र ,उच्च राशि -नवांश का ,शुभ भावाधिपति ,षड्बली ,शुभ युक्त -दृष्ट हो तो मंगल की शुभ दशा में साहस और पराक्रम से समस्त कार्यों की सिध्धि,भूमि लाभ ,धन धान्य व संपत्ति लाभ, भाई का सुख ,युद्ध व विवाद में शत्रु की पराजय ,व्यवसाय में सफलता ,पद प्राप्ति व पदोन्नति ,विदेश यात्रा होती है | लाल रंग के पदार्थों,ताम्बा व स्वर्ण धातु ,जुआ ,सर्प विष ,शस्त्र ,भूमि, आसव,मदिरा चोरी ,मुकद्दमे बाजी और गलत कार्यों से लाभ होता है |, खेल कूद और साहसिक कार्यों से लाभ होता है | दक्षिण दिशा में सफलता मिलती है | बल ,पौरुष व स्वाभिमान में वृद्धि होती है |खतरा उठा कर भी व्यक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्ति करता है | |जिस भाव का स्वामी मंगल होता है उस भाव से विचारित कार्यों व पदार्थों में सफलता व लाभ होता है |

यदि मंगल अस्त ,नीच शत्रु राशि नवांश का ,षड्बल विहीन ,अशुभभावाधिपति पाप युक्त दृष्ट हो तो मंगल दशा में राजा चोर अग्नि शत्रु बिजली व दुर्घटना से भय ,भाइयों से विवाद या उनको कष्ट ,क्रोध व आवेश की अधिकता ,दुष्टों की संगति ,ईर्ष्या व द्वेष की भावना रक्त विकार ,उच्च रक्त चाप ,फोड़ा फुंसी ,बवासीर ,अधर्म में प्रीति,विवाद में हार ,असफलता ,शारीरिक कमजोरी तथा हिंसा से भय होता है | जिस भाव का स्वामी मंगल होता है उस भाव से विचारित कार्यों व पदार्थों में असफलता व हानि होती है |

गोचर में मंगल

जन्म या नाम राशि से तीसरे ,छटे तथा ग्यारहवें स्थान पर मंगल शुभ फल देता है |

जन्मकालीन चन्द्र से प्रथम स्थान पर मंगल का गोचर रक्त विकार असफलता,ज्वर,अग्नि,से हानि करता है | यात्रा में दुर्घटना का भय रहता है ,इस्त्री को कष्ट होता है |

दूसरे स्थान पर मंगल का गोचर नेत्र दोष , कठोर वचन ,विद्या हानि ,परिवार में मतभेद ,कुभोजन व असफलता दिलाता है |

तीसरे स्थान पर मंगल का गोचर धन लाभ, शत्रु पराजय ,प्रभाव में वृद्धि ,राज्य से लाभ , शुभ समाचार प्राप्ति कराता है | मन प्रसन्न रहता व भाग्य अनुकूल रहता है|

चौथे स्थान पर मंगल का गोचर स्वजनों से विवाद ,सुख हीनता ,छाती में कफ विकार ,जल से भय करता है|जमीन –जायदाद की समस्या ,माँ को कष्ट ,जन विरोध का सामना होता है | |

पांचवें स्थान पर मंगल का गोचर मन में अशांति ,उदर विकार,संतान कष्ट ,विद्या में असफलता करता है | मन पाप कार्यों की तरफ जाता है |

छ्टे स्थान पर मंगल का गोचर धन लाभ ,उत्तम स्वास्थ्य ,शत्रु पराजय , यश मान में वृद्धि देता है|

सातवें स्थान पर मंगल के गोचर से स्त्री से कलह ,स्त्री को कष्ट ,यात्रा में हानि ,दांत में पीड़ा ,व्यापार में हानि करता है |

आठवें स्थान पर मंगल के गोचर से पित्त रोग ,विवाद ,शारीरिक कष्ट ,पाचन हीनता दुर्घटना अग्नि ,हिंसा व बिजली से भय होता है |गुदा सम्बन्धी रोग होता है | भाई से अनबन व कार्य हानि होती है |
नवें स्थान पर मंगल के गोचर से संतान कष्ट ,भाग्य की विपरीतता ,सरकार की और से परेशानी होती है | धर्म के विरुद्ध आचरण होता है | कूल्हे में चोट का भय होता है |
दसवें स्थान पर मंगल के गोचर से रोजगार में बाधा ,पिता को कष्ट व राज्य से प्रतिकूलता होती है |

ग्यारहवें स्थान पर मंगल के गोचर से आय वृध्धि ,व्यापार में लाभ , आरोग्यता, भूमि लाभ,भाइयों को सुख ,कार्यों में सफलता ,शत्रु पराजय , मित्र सुख व लाल पदार्थों से लाभ होता है |
बारहवें स्थान पर मंगल के गोचर से अपव्यय , स्थान हानि,स्त्री को कष्ट , शारीरिक कष्ट ,मानसिक चिंता होती है तथा किसी गलत कार्य में रूचि होती है |

मंगल शान्ति के उपाय
जन्मकालीन मंगल निर्बल होने के कारण अशुभ फल देने वाला हो तो निम्नलिखित उपाय करने से बलवान हो कर शुभ फल दायक हो जाता है |
रत्न धारण – लाल रंग का मूंगा सोने या ताम्बे की अंगूठी में मृगशिरा ,चित्रा या अनुराधा नक्षत्रों में जड़वा कर मंगलवार को सूर्योदय के बाद पुरुष दायें हाथ की तथा स्त्री बाएं हाथ की अनामिका अंगुली में धारण करें | धारण करने से पहले ॐ क्रां क्रीं क्रों सः भौमाय नमः मन्त्र के १०८ उच्चारण से इस में ग्रह प्रतिष्ठा करके धूप,दीप , लाल पुष्प, गुड ,अक्षत आदि से पूजन कर लें |
दान व्रत ,जाप – मंगलवार के नमक रहित व्रत रखें , ॐ क्रां क्रीं क्रों सः भौमाय नमः मन्त्र का १०००० संख्या में जाप करें | मंगलवार को गुड शक्कर ,लाल रंग का वस्त्र और फल ,ताम्बे का पात्र ,सिन्दूर ,लाल चन्दन केसर ,मसूर की दाल इत्यादि का दान करें | श्री हनुमान चालीसा का पाठ करना भी शुभ रहता है |
: 🌹हिचकी रोकेंने के लिए असरकारक रामबाण उपाय

🌻हिचकी बन्द न हो रही हो तो पुदीने के पत्ते या नींबू चूसें।

🌻यदि हिचकी आती हो एक चम्मच नींबू का ताजा रस निकालें। अब इसमें एक चम्मच शहद डालें। दोनों को मिलाएं और चाट लें। ऐसा करने से हिचकी बंद हो जाएगी।

🌻काली मिर्च और मिश्री
दो-तीन काली मिर्च थोडी सी चीनी या मिश्री का एक टुकडा मुंह में रखकर चबायें,और उसका रस चूंसते रहे,चाहे तो एक घूंट पानी पी सकते है,तत्काल हिचकी बन्द हो जायेगी।

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🕉🕉🕉🕉🕉🕉 🌻अपाचन हो तो

🌼अपाचन बढ़ा तो अजवाइन, सौंठ और काली मिर्च का मिश्रण करके वो पाउडर एक चुटकी ले तो पाचन ठीक होगा…सुबह ले ले और २/३ घंटे बाद भोजन करे…

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🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉
: 🌹मेथी के और आयुर्वेदिक औषधीय प्रयोग

🌻☘आँव आने परः मेथी की भाजी के 50 मि.ली. रस में 6 ग्राम मिश्री डालकर पीने से लाभ होता है।

🌻☘5 ग्राम मेथी का पाउडर 100 ग्राम दही के साथ सेवन करने से भी लाभ होता हो।

👉🏻दही खट्टा नहीं होना चाहिए।

🌻☘वायु के कारण होने वाले हाथ-पैर के दर्द में- मेथीदानों को घी में सेंककर उसका चूर्ण बनायें एवं उसके लड्डू बनाकर प्रतिदिन एक लड्डू का सेवन करें तो लाभ होता है।

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🕉🕉🕉🕉🕉🕉🌹वायरल फीवर के आयुर्वेदिक उपचार

🌻एक चम्मच काली मिर्च का चूर्ण, एक छोटी चम्मच हल्दी का चूर्ण और एक चम्मच सौंठ यानी अदरक के पाउडर को एक कप पानी और हल्की सी मिश्री डालकर गर्म कर लें. जब यह पानी उबलने के बाद आधा रह जाए तो इसे ठंडा करके पिएं. इससे वायरल फीवर से आराम मिलता है.

🌻एक चम्मच लौंग के चूर्ण और दस से पंद्रह तुलसी के ताजे पत्तों को एक लीटर पानी में डालकर इतना उबालें जब तक यह सूखकर आधा न रह जाए. इसके बाद इसे छानें और ठंडा करके हर एक घंटे में पिएं. आपको वायरल से जल्द ही आराम मिलेगा.

🌻तुलसी के ताजे पत्ते 6, काली मिर्च और मिश्री 10 ग्राम ये तीनों पानी के साथ पीस कर घोल बना के बीमार व्यक्ति को पिला दें। कितना भी पुराना बुखार हो, कुछ दिन यह प्रयोग करने से सदा के लिये मिट जायेगा।

🌻बुखार में दूध पीना, सांप के ज़हर के बराबर है । बुखार में दूध, घी और भारी खुराक ना खाएं ।

🌻बुखार में चाय, शराब, मांसाहारी भोजन न करे

🌻ठंडा पानी, आइस क्रीम, कोल्ड ड्रिंक्स आदि का परहेज करे

🌻बुखार आने पर ज्यादा से ज्यादा आराम करे

🌻मार्किट का काम, घर से बहार न जाये

🌻बुखार में स्नान न करे

🌻समय पर बताई गई चीजे खाये

🌻नारियल पानी, ग्लूकोस का पानी, संतरे का रस ज्यादा पिए

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🌻🌼🌻🌼🌻🌼🌼
: वर्षा ऋतु में आहार विहार

🌹इन दिनों में देर से पचने वाला आहार न लें। मंदाग्नि के कारण सुपाच्य और सादे खाद्य पदार्थों का सेवन करना ही उचित है।

🌻बासे, रूखे और उष्ण प्रकृति के पदार्थों का सेवन न करें।

🌻इस ऋतु में पुराना जौ, गेहूँ, साठी चावल का सेवन विशेष लाभप्रद है।

🌹वर्षा ऋतु में भोजन बनाते समय आहार में थोड़ा-सा मधु (शहद) मिला देने से मंदाग्नि दूर होती है व भूख खुलकर लगती है। अल्प मात्रा में मधु के नियमित सेवन से अजीर्ण, थकान, वायु जन्य रोगों से भी बचाव होता है।

🌻इन दिनों में गाय-भैंस के कच्ची-घास खाने से उनका दूध दूषित रहता है, अतः श्रावण मास में दूध और भादों में छाछ का सेवन करना एवं श्रावण मास में हरे पत्तेवाली सब्जियों का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना गया है।

🌻तेलों में तिल के तेल का सेवन करना उत्तम है। यह वात रोगों का शमन करता है।

🌹वर्षा ऋतु में उदर-रोग अधिक होते हैं, अतः भोजन में अदरक व नींबू का प्रयोग प्रतिदिन करना चाहिए। नींबू वर्षा ऋतु में होने वाली बिमारियों में बहुत ही लाभदायक है।

🌻इस ऋतु में फलों में आम तथा जामुन सर्वोत्तम माने गये हैं। आम आँतों को शक्तिशाली बनाता है। चूसकर खाया हुआ आम पचने में हल्का तथा वायु व पित्तविकारों का शमन करता है। जामुन दीपन, पाचन तथा अनेक उदर-रोगों में लाभकारी है।

🌹वर्षाकाल के अन्तिम दिनों में व शरद ऋतु का प्रारंभ होने से पहले ही तेज धूप पड़ने लगती है और संचित पित्त कुपित होने लगता है। अतः इन दिनों में पित्तवर्धक पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए।

🌻इन दिनों में पानी गन्दा व जीवाणुओं से युक्त होने के कारण अनेक रोग पैदा करता है। अतः इस ऋतु में पानी उबालकर पीना चाहिए या पानी में फिटकरी का टुकड़ा घुमाएँ जिससे गन्दगी नीचे बैठ जायेगी।

विहारः

🌹इन दिनों में मच्छरों के काटने पर उत्पन्न मलेरिया आदि रोगों से बचने के लिए मच्छरदानी लगाकर सोयें। चर्मरोग से बचने के लिए शरीर की साफ-सफाई का भी ध्यान रखें। अशुद्ध व दूषित जल का सेवन करने से चर्मरोग, पीलिया रोग, हैजा, अतिसार जैसे रोग हो जाते हैं।

🌻दिन में सोना, नदियों में स्नान करना व बारिश में भीगना हानिकारक होता है।

🌹वर्षा काल में रसायन के रूप में बड़ी हरड़ का चूर्ण व चुटकी भर सेन्धा नमक मिलाकर ताजा जल सेवन करना चाहिए। वर्षाकाल समाप्त होने पर शरद ऋतु में बड़ी हरड़ के चूर्ण के साथ समान मात्रा में शक्कर का प्रयोग करें।

🙏


[ जीवन में सुख भी आते हैं, दुख भी आते हैं। कभी सम्मान मिलता है , तो कभी ठोकरें भी मिलती हैं। ऐसा कोई व्यक्ति संसार में आज तक उत्पन्न नहीं हुआ, जिसने जीवन में दुख न भोगा हो, या ठोकर न खाई हो।
क्योंकि मनुष्य अल्पज्ञ है। इसलिए वह कहीं न कहीं , कुछ न कुछ गलती तो करता ही है, जिसके कारण उसे दुख भोगना पड़ता है। इसके अलावा अन्य लोग भी अल्पज्ञ हैं ।
वे भी कुछ न कुछ गलतियां करते हैं, कुछ अपने लिए , कुछ दूसरों के लिए। कुछ गलतियां जानबूझकर , कुछ अनजाने में । इस प्रकार से गलतियां होती ही रहती हैं। तो प्रत्येक व्यक्ति अपनी और दूसरों की गलतियों के कारण जीवन में अनेक दुख भोगता है। अपनी गलती हो, तो व्यक्ति सहन कर लेता है। पर जब दूसरे लोग उसे परेशान करते हैं, विशेष रुप से जानबूझकर तंग करते हैं , तब तो वह गुमसुम हो जाता है , मौन हो जाता है। तब उसके मौन को देखकर कुछ बुद्धिमान लोग तो यह समझ लेते हैं, कि लगता है इसने कुछ गंभीर चोट खाई है । परंतु कुछ ऐसे अज्ञानी लोग भी होते हैं , जो उसे अभिमानी समझते हैं । क्योंकि अभिमानी लोग भी प्रायः कम बोलते हैं , अधिकतर मौन रहते हैं ।
तो आप किसी व्यक्ति के मौन को देखकर जल्दी से निर्णय मत कर लीजिएगा , कि यह बहुत अभिमानी व्यक्ति है. हो सकता है, बेचारा ठोकर खाए हुए हो , इसलिए मौन हो।
अखण्ड सनातन समिति 🚩 🇮🇳

वेदों में कृषि विज्ञान (Agriculture साइंस इन इंडिया ) का महत्व |

विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में कृषि का गौरवपूर्ण उल्लेख मिलता है ।

अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्‌ कृषस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमानः । ऋग्वेद-३४-१३।

अर्थात जुआ मत खेलो, कृषि करो और सम्मान के साथ धन पाओ

कृषि सम्पत्ति और मेधा प्रदान करती है और कृषि ही मानव जीवन का आधार है ।

मानव सभ्यता की ओर बढ़ा, तभी से कृषि प्रारंभ हुई और भारत में कृषि एक विज्ञान के रूप में विकसित हुई । इसके इतिहास का संक्षिप्त वर्णन A concise History of Science in India नामक पुस्तक में किया गया है ।

वैदिक काल में ही बीज वपन, कटाई आदि क्रियाएं , हल, हँसिया, चलनी आदि उपकरण तथा गेहूँ, धान, जौ आदि अनेक धान्यों का उत्पादन होता था । चक्रीय परती के द्वारा मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने की परम्परा के निर्माण का श्रेय उस समय के कृषकों को जाता है ।

यूरोपीय वनस्पति विज्ञान के जनक रोम्सबर्ग के अनुसार इस पद्धति को पश्चिम ने बाद के दिनों में अपनाया ।

मौर्य राजाओं के काल में कौटिल्य अर्थशास्त्र में कृषि, कृषि उत्पाद आदि को बढ़ावा देने हेतु कृषि अधिकारी की नियुक्ति का उल्लेख मिलता है ।

कृषि हेतु सिचाई की व्यवस्था विकसित की गयी । यूनानी यात्री मेगस्थनीज लिखता है, मुख्य नाले और उसकी शाखाओं में जल के समान वितरण को निश्चित करने के लिए व नदी और कुंओं के निरीक्षण के लिए राजा द्वारा अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी ।

कृषि के संदर्भ में नारदस्मृति, विष्णु धर्मोत्तर, अग्नि पुराण आदि में उल्लेख मिलता है ।

कृषिपरायण कृषि के संदर्भ में एक संदर्भ ग्रंथ बन गया । इस ग्रंथ में कुछ विशेष बातें कृषि के संदर्भ में कही गयी हैं ।

जोताई – इसमें कितने क्षेत्र की जोताई करना, उस हेतु हल, उसके अंग आदि का वर्णन है । इसी प्रकार जोतने वाले बैल, उनका रंग, प्रकृति तथा कृषि कार्य करवाते समय उने प्रति मानवीय दृष्टिकोण रखने का वर्णन इस ग्रंथ में मिलता है ।

वर्षा के बारे में भविष्यवाणी – प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण, ग्रहों की गति तथा प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों का गहरा अभ्यास प्राचीन काल के व्यक्तियों ने किया था और उस आधार पर वे भविष्यवाणियाँ करते थे ।

जिस वर्ष सूर्य अधिपति होगा, उस वर्ष में वर्षा कम होगी और मानवों को कष्ट सहना होगा । जिस वर्ष चन्द्रमा अधिपति होगा, उस वर्ष अच्छी वर्षा और वनस्पति की वृद्धि होगी । लोग स्वस्थ रहेंगे । उसी प्रकार बुध, बृहस्पति और शुक्र वर्षाधिपति होने पर भी स्थिति ठीक रहेगी । परन्तु जिस वर्ष शनि वर्षाधिपति होगा, हर जगह विपत्ति होगी ।

जोतने का समय – नक्षत्र तथा काल के निरीक्षण के आधार पर जोताई के लिए कौन सा समय उपयुक्त रहेगा, उसका निर्धारण उन्होंने किया ।

बीजवपन – उत्तम बीज संग्रह हेतु पराशर ऋषि गर्ग ऋषि का मत प्रकट करते हैं कि गीज को माघ ( जनवरी – फरवरी ) या फाल्गुन ( फरवरी मार्च ) माह में संग्रहीता करके धूप में सुखाना चाहिए तथा तथा उन बीजों को बाद में अच्छी जगह सुरक्षित रखना चाहिए ।

वर्षा मापन – ” कृषि पाराशर ” में वर्षा को मापने का वर्णन भी मिलता है अथ जलाढक निर्णयः

शतयोजनविस्तीर्णं त्रिंशद्योजनमुच्छि्रतम्‌ ।
अढकस्य भवेन्मानं मुनिभिः परिकीर्तितक्‌ ॥

अर्थात – पूर्व में ऋषियों ने वर्षा को मापने का पैमाना तय किया है । अढकक याने सौ योजन विस्तीर्ण तथा ३०० योजन ऊँचाई में वर्षा के पानी की मात्रा ।
योजन अर्थात्‌‌ – १ अंगुली की चौड़ाई
१ द्रोण = ४ अढक = ६.४ से. मी.
आजकल वर्षा मापन भी इतना ही आता है ।

कौटिलय के अर्थशास्त्र में द्रोण आधार पर वर्षा मापने का उल्लेख तथा देश में कहाँ कहाँ कितनी वर्षा होती है, इसका उल्लेख भी मिलता है ।

उपरोपण ( ग्राफ्टिंग ) – वराहमिहिर अपनी वृहत्‌ संहिता में उपरोपण की दो विधियाँ बताते हैं ।

( १ ) जड़ से पेड़ में काटना और दूसरे को तने ( trunk ) से काटकर सन्निविष्ट ( insert ) करना ।

( २ ) Inserting the cutting of tree into the stem of another जहाँ दोनों जुडे़गे वहाँ मिट्टी और गोबर से उनको बंदकर आच्छादित करना ।

इसी के वराहमिहिर किस मौसम में किस प्रकार के पौधे की उपरोपण करना चाहिए, इसका भी उल्लेख करते हैं । वे कहते हैं ।

इसी के वराहमिहिर किस मौसम में किस प्रकार के पौधे की उपरोपण करना चाहिए, इसका भी उल्लेख करते हैं । वे कहते हैं । शिशिर ऋतु ( दिसम्बर – जनवरी ) ——— जिनकी शाखांए बहुत हैं उनका उपरोपण करना चाहिए

शरद ऋतु ( अगस्त – सितम्बर )

वराहमिहिर किस मौसम में कितना पानी प्रतिरोपण किए पौधों को देना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए कहते हैं कि “गरमी में प्रतिरोपण किए गए पौधे को प्रतिदिन सुबह तथा शाम को पानी दिया जाए । शीत ऋतु में एक दिन छोड़कर तथा वर्षा काम में जब जब मिट्टी सूखी हो ।
“इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन काल से भारत में कृषि एक विज्ञान के रूप में विकसित हुआ । जिसके कारण हजारों वर्ष बीतने के बाद भी हमारे यहाँ भूमि की उर्वरा शक्ति अक्षुण्ण बनी रही, जबकि कुछ दशाब्दियों में ही अमेरिका में लाखों हेक्टेयर भूमि बंजर हो गयी है ।

भारतीय कृषि पद्धति की विशेषता एवं इसके उपकरणों का जो प्रशंसापूर्ण उल्लेख अंगेजों द्वारा किया गया , उसका उद्धरण धर्मपाल जी की पुस्तक ” इण्डियन साइंस एण्ड टैक्नोलॉजी उन दी एटीन्थ सेन्चुरी ” मे दिया गया है । उस समय भारत कृषि के सुविकसित साधनों में दुनिया में अग्रणी था ।

कृषि क्षेत्र में पंक्ति में बोने के तरीके को इस क्षेत्र में बहुत उपयोगी और उपयोगी अनुसंधान माना जाता है ।आस्ट्रिया में पहले पहल इसका प्रयोग सन्‌ १६६२ में हुआ था तथा इंग्लैण्ड में १७३० में हुआ हालाकि इसका व्यापक प्रचार प्रसार वहाँ इसके ५० वर्ष बाद हो पाया । पर मेजर जनरल अलेक्झेंडर वाकर के अनुसार पंक्ति में बोने का प्रयोग भारत में अत्यंत प्राचीन काल से ही होता आया है ।

थामॅमस हाल्काट ने १७९७ में इंग्लैण्ड के कृषि बोर्ड को लिखे एक पत्र में बताया कि, भारत इसका प्रयोग प्राचीन काल से ही होता रहा है । उसने बोर्ड को पंक्तियुक्त हलों के तीन सेट लन्दन भेजे ताकि इन हलों की नकल अंग्रेज कर सकें, क्योंकि ये अंग्रेजी हलों की अपेक्षा अधिक उपयोंगी और सस्ते थें ।

सर वाकर लिखते हैं ” भारत में शायद विश्व के किसी भी देश से अधिक किस्मों का अनाज बोया जाता है और तरत – तरह की पौष्टिक जड़ों वाली फसलों का भी यहाँ प्रचलन है । वाकर की समझ में नहीं आया कि हम भारत को क्या दे सकते हैं क्योंकि जो खाद्यान्न हमारे यहाँ हैं, वे तो यहाँ हैं ही, और भी अनेक प्रकार के अन्न यहाँ हैं । “

ऐसा नहीं है वेदों में सिर्फ पूजा पाठ ही था ……………………….वेद पढ़िए और जानिये भारत के स्वर्णिम अतीत और विज्ञान को |

🙏🚩🇮🇳🌞💪⚔🐚🕉
: अखण्ड सनातन समिति 🚩 🇮🇳

भारतीय ज्ञान का खजाना /भारत की प्राचीन कलाएं

विश्व के किसी भी भूभाग में यदि किसी संस्कृति को टिके रहना है, जीवंत रहना है, तो उसे परिपूर्ण होना आवश्यक है. ‘परिपूर्ण’ का अर्थ यह है कि उस संस्कृति को मानवीय मन का सर्वांगीण विचार करना चाहिए, समाज की इच्छाओं का विचार करना चाहिए. इस कसौटी पर हमारी भारतीय संस्कृति एकदम खरी उतरती है. इसीलिए विभाजन के पश्चात पाकिस्तान के राष्ट्र कवि कहे जाने वाले इकबाल ने लिखा था –

यूनान, मिस्र, रोमां

सब मिट गए जहाँ से…!

कुछ बात है कि हस्ती

मिटती नहीं हमारी..!!

यह ‘हस्ती’, अर्थात हमारी परिपूर्ण जीवन पद्धति. जीवनयापन करने के सभी मानकों को देखें तो हम भारतीय दुनिया से बहुत आगे थे… इस सम्बन्ध में एक छोटा सा उदाहरण देता हूँ –

मैं पहली बार, सन् 1994 में अमेरिका गया था. उससे पहले जापान एवं यूरोप में कई देशों का भ्रमण कर चुका था, इसलिए अमेरिका के प्रति कोई विशेष उत्साह या कौतूहल नहीं था. परन्तु फिर भी अमेरिका की कई कहानियाँ लगातार मेरे कानों पर आती रहीं. सौभाग्य से अमेरिका में मेरी व्यवस्था देखने वाले व्यक्ति भारतीय ही निकले, एक बंगाली बाबू. इस कारण वे निरंतर मुझे अमेरिका का प्रत्येक वैभव दिखाने में जुटे हुए थे. वह मुझे “ड्राईव-इन’ की तकनीक और सुविधा दिखाने ले गए. मुझसे कहा, ‘देखिये अमेरिका में किस प्रकार सभी स्थानों पर ड्राईव-इन की सुविधा मौजूद है. गाड़ी में बैठे-बैठे मैकडोनाल्ड के पैसे चुका सकते हैं और गाड़ी में बैठे-बैठे ही अपना खाने का पैकेट भी ले सकते हैं. उन्होंने मुझे ड्राईव-इन एटीएम मशीन भी दिखाई. निश्चित रूप से मैं थोड़ा प्रभावित तो हुआ ही था.

फिर पाँच-छह वर्षों के बाद एक बार रायगढ़ गया था. शिवाजी महाराज के उस विस्तीर्ण किले के विशाल परिसर में एक बड़ा सा मैदान था. उसे ‘होली का मैदान’ कहते हैं. उस मैदान में मनुष्य की सामान्य ऊँचाई जितने विशाल चबूतरे देखकर मैंने गाईड से पूछा, ‘ये क्या है..? इतने ऊँचे-ऊँचे चबूतरे किसलिए..? कौन चढ़ेगा वहाँ?’

एकदम सहज स्वर में गाईड ने जवाब दिया, ‘यह बाज़ार था. असल में उस जमाने में घुड़सवार अपनी खरीददारी के लिए बाज़ार-हाट आते थे, परन्तु वे अपने घोड़े कहां बांधते? इसीलिए शिवाजी महाराज ने घोड़ों पर बैठे-बैठे ही उन्हें बाज़ार-हाट करने की सुविधा मिले, इस कारण से ऊँचे-ऊँचे चबूतरे बनवाए थे..’.

सच कहता हूँ, यह सुनकर शरीर रोमांच से काँप उठा… कौन आधुनिक है..? कौन मॉडर्न है..?

साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व अपनी जनता और सैनिकों की सुविधा के लिए घोड़ों पर बैठे-बैठे खरीददारी करने के लिए ‘ड्राईव-इन’ बाजार का निर्माण करने वाले शिवाजी महाराज मॉडर्न हैं, या पिछले पचास-साठ वर्ष में ड्राईव-इन का रौब दिखाने वाले अमेरिकी मॉडर्न हैं?

यह बहुत बाद का उदाहरण है. हम भारतीय तो प्राचीनकाल से ही आधुनिक और प्रगतिशील रहे हैं. हमारी समग्र जीवनशैली ही आधुनिक एवं उन्नत थी. ज्ञान-विज्ञान एवं अध्यात्म के क्षेत्र सहित हमारे देश में कला, संगीत जैसे विषयों का निर्माण हुआ, वह उन्नत बना और कालान्तर में प्रगल्भ हुआ. सभी कलाओं को एक निश्चित स्वरूप में बांधने का काम भारत ने किया है.

यदि हम अपनी गायन/वादन परंपरा को देखें, तो यह बहुत ही प्राचीन है. देवी सरस्वती एक प्राचीन देवी है. उनके हाथों में हमें वीणा दिखाई देती है. नौवीं शताब्दी में श्रृंगेरी में निर्मित शारदाम्बा देवी का मंदिर यह सरस्वती देवी का ही मंदिर है. गदग में भी देवी सरस्वती का एक मंदिर ग्यारहवीं शताब्दी में निर्मित है. परन्तु सरस्वती की मूर्तियां इससे भी पहले के कालखंड की प्राप्त होती रहती हैं. सरस्वती की सबसे प्राचीन मूर्ति भी भारत में ही खोजी गई है, जो पहली शताब्दी की है. कहीं-कहीं नृत्य शारदा की मूर्ति भी मिलती है, परन्तु अधिकांश मूर्तियां अपने हाथ में वीणा लिए हुए हैं. अर्थात् वीणा नामक वाद्य को हम कितना पुराना मानें?? कम से कम एक – दो हजार वर्ष पुराना तो माना ही जा सकता है. अर्थात् हमारी संस्कृति में संगीत का उल्लेख कितने प्राचीनकाल से है.

सरस्वती द्वारा धारण की जाने वाला ‘वीणा’ नामक तंतुवाद्य कम से कम चार हजार वर्ष पुराना होने का अनुमान है. प्राचीनकाल में ‘एकतंत्री वीणा’ हुआ करती थी. भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में ‘चित्रा’ (७ तारों की) तथा ‘विपंची’ (९ तारों की), इन प्रमुख वीणाओं का उल्लेख किया है, साथ ही घोषा, कच्छभी जैसी दोयम दर्जे की वीणाओं का उल्लेख भी है.

परन्तु संगीत का उल्लेख हमारे वैदिक कालखंड से ही देखने को मिलता है. ऋग्वेद को विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता है, जो पाँच हजार वर्ष पुराना है. ऋग्वेद में संगीत का उल्लेख है. यजुर्वेद के 30वें काण्ड के 19 एवं 20वें मंत्र में अनेक वाद्यों को बजाए जाने का उल्लेख है. अर्थात् उस जमाने में भी ‘वाद्यों को बजाना’ कला ही मानी जाती थी. वाण, वीणा, कर्करीया, तंतुवाद्य के साथ ही अवनद्ध वाद्यों के तहत दुंदुभी, गर्गरा, एवं सुषिर वाद्यों के अंतर्गत बाकुर, नाड़ी, तनव एवं शंख इत्यादि का उल्लेख आता है.

सामवेद में संगीत का विस्तार से वर्णन मिलता है. उस काल में स्वरों को ‘यम’ कहा जाता था. सामवेद में ‘साम’ का घनिष्ठ सम्बन्ध संगीत से ही था. यह इतना घनिष्ठ है कि ‘छान्दोग्योपनिषदः’ में प्रश्न पूछा गया है,

‘कां साम्नो गतिरीती?

– स्वर इति होवाच

अर्थात ‘साम’ की गति क्या है? इसका उत्तर है – स्वर.

वैदिक काल में तीन स्वरों के गायन को ‘साम्रिक’ (वर्तमान में ‘सामूहिक’) कहा जाता था. ये स्वर थे – ग, रे, स.. आगे चलकर यह सात स्वर बने. स्वरों के जो क्रम निर्धारित किए गए और जिनसे एक समूह बना उसे ‘साम’ कहा जाने लगा. फिर बाद में यूरोप वालों ने उनके संगीत के इन क्रमों को ‘स्केल’ नाम दिया.

इसका सीधा सा अर्थ यह है कि भारत की संस्कृति में लगभग तीन से चार हजार वर्ष पहले पूर्णतः विकसित संगीत हुआ करता था. आगे चलकर भरत मुनि का नाट्यशास्त्र हमें मिला, और भारतीय संगीत की प्राचीनता पर मुहर लग गई.

भरत मुनि का कालखंड ईसा पूर्व लगभग पांच सौ वर्ष पहले माना जाता है. परन्तु इस सम्बन्ध में कुछ विवाद भी है. कोई इनका जन्म ईसा पूर्व सौ वर्ष पहले हुआ, ऐसा भी कहते हैं. परन्तु चाहे जो भी हो, भरत मुनि के इस नाट्यशास्त्र ने एक बड़ी महत्त्वपूर्ण बात प्रतिपादित की, वह ये कि भारतीय कलाएं अपने पूर्ण विकसित स्वरूप में तथा एकदम वैज्ञानिक पद्धति के साथ अस्तित्त्व में थीं, यह ठोस स्वरूप में सिद्ध हुआ.
इस ग्रन्थ में नाट्यशास्त्र के साथ ही अन्य सहायक कलाओं की भी व्यवस्थित जानकारी दी गई है. गीत-संगीत संबंधी विस्तृत विवरण इस ग्रन्थ में मिलता है.

अब प्रश्न यह उठता है कि विश्व का सबसे पुराना संगीत कौन सा है? अथवा सबसे पुराना वाद्य कौन सा माना जाएगा? ऐसा कहते हैं कि ईसा पूर्व 4000 वर्ष पहले मिस्र के लोगों ने बांसुरी जैसे कुछ वाद्यों का निर्माण किया था. डेनमार्क में भी ईसा पूर्व 2500 वर्ष पहले ट्रम्पेट जैसे वाद्य का निर्माण हुआ था.

परन्तु पाश्चात्य संस्कृति को सुरों की विशिष्ट श्रेणी में पहुँचाया पायथागोरस ने, अर्थात् ईसा पूर्व 600 वर्ष पहले. इन्होंने स्वरों का मंडल तैयार किया एवं उसकी गणितीय परिभाषा में रचना की.

दुर्भाग्य से भारत में हजारों प्राचीन ग्रन्थ और उनके अवशेष मुस्लिम आक्रमणों में नष्ट हुए. इसलिए हमें अपना एक निश्चित इतिहास निर्धारण करना संभव नहीं होता. परन्तु ईसा पूर्व 2500 वर्ष पहले की कुछ जानकारियां अवश्य मिलती हैं एवं उसके अनुसार संगीत अथवा वाद्यों में कोई नई खोज हुई है, ऐसा प्रतीत नहीं होता. किसी एकाध विकसित कला को शब्दबद्ध करने संबंधी विवरण हमें मिलता है. अर्थात् ये कलाएं और वाद्य उससे भी बहुत पहले के थे यह स्पष्ट होता है.

परन्तु ऋग्वेद एवं सामवेद में संगीत का उल्लेख देखते हुए यह निश्चित ही कहा जा सकता है कि हमारा संगीत कम से कम पांच हजार वर्ष पुराना तो है ही. और मजे की बात यह भी है कि सामवेद के सूत्रों में हमें एक पूर्ण विकसित तथा प्रगल्भ संगीत व्यवस्था दिखाई देती है.

वेदों के साथ ही अनेक उपनिषदों से भी गीत-संगीत एवं अन्य कलाओं का उल्लेख मिलता है. श्रोत सूत्रों में से एक कात्यायन का श्रोत सूत्र है. मूलतः यह वैदिक कर्मकांड संबंधी ग्रन्थ है. परन्तु उसमें भी विभिन्न उत्सवों के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों की भरमार है. इस श्रोत सूत्र का कालखंड लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व का माना जाता है.

जब हम पश्चिमी संगीत का विचार करते हैं, तब एक मजेदार बात पता चलती है. पश्चिमी संगीत में दो हजार / ढाई हजार / तीन हजार वर्ष पहले के उल्लेख मजबूती से किए हुए दिखाई देते हैं और इन उल्लेखों में कोई नई खोज, अथवा किसी नए आविष्कार के बारे में स्पष्ट रूप से बताया गया है.

इसके उलट भारतीय ग्रंथों में हमें जो वर्णन मिलता है, वह किसी विकसित संगीत पद्धति की जानकारी रहती है. सामवेद के सूत्रों में भी विकसित किए गए संगीत का उल्लेख भी है. इसका सीधा अर्थ है कि भारतीय संगीत पूर्णरुप से शास्त्रशुध्द पद्धति से, हजारों वर्ष पहले विकसित हो चुका था. कितने वर्षों पहले?? यह कहना कठिन है…!

हमारा एक और दुर्भाग्य ये भी है कि भारतीय कलाओं के बारे में इतिहास में जो भी सन्दर्भ आते हैं, वे अधिकांश पश्चिमी शोधकर्ताओं के ही होते हैं. ब्रॉडीज़, वुइनडिश, वी. स्मिथ, पिशेल, याकोबी, हार्मन कीट… इत्यादि शोधकर्ताओं का बोलबाला है. स्वाभाविक है कि भारतीय संगीत के इतिहास को एक विशिष्ट उपेक्षित निगाह से ही देखा गया है.

जैसे गीत-संगीत का मामला है, वैसे ही नाटक के बारे में भी है. भारत के समान विकसित नाट्यशास्त्र यदि सर्वांग रुप में कहीं प्रसारित हुआ, तो वह देश है ‘ग्रीस’. हालाँकि उन्नीसवीं शताब्दी में इस बात को लेकर जबरदस्त विवाद उत्पन्न हुआ था कि क्या भारतीयों द्वारा ग्रीस के रंगभूमि की नकल की गई, अथवा ग्रीस की रंगभूमि ही भारतीय नाट्यशास्त्र से प्रभावित होकर उभरकर आई थी…!
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जय श्री राम🙏⛳
वंदेमातरम्
जय माँ भारती⛳⛳
: 🙏 आजका सदचिंतन 🙏

साधक वही जो असुविधा में राजी हो
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असुविधा में जीना सीखें क्योंकि जितनी हम अपने आसपास सुविधा निर्मित कर लेते हैं उतनी हमारे भीतर की सजगता कम हो जाती है

हमें छोटी सी बीमारी भी कितनी पीड़ा देती है और दूर के आदिवासी गांव में किसी गरीब आदमी को बड़ी बीमारी हो जाएं तो भी उन्हें इतनी पीड़ा नहीं होती वह अपनी असुविधा में अपने भीतर की सजगता से उससे लड़ लेता है

   *साधना के मार्ग पर जो इस पूरे अस्तित्व से  थोड़ी सी भी असुविधा को स्वीकार करने को राजी नहीं उसका उस विराट अस्तित्व से तादात्म्य कैसे बनेगा*

साधक वही जो असुविधा में जीने को राजी हो

     *विचार क्रांति अभियान*

🙏 सबका जीवन मंगलमय हो 🙏
: 👉 इन ग्रन्थों में मंत्रों में छिपे पड़े हैं अति गोपनीय प्रयोग (भाग 28)

आध्यात्मिक चिकित्सा के ग्रन्थ अनगिनत हैं। इनका विस्तार असीम है। प्रत्येक धर्म ने, पंथ ने आध्यात्मिक साधनाओं की खोज की है। अपने देश- काल के अनुरूप ये सभी महत्त्वपूर्ण हैं। इनका मकसद भी एक है- सम्पूर्ण स्वस्थ जीवन एवं समग्र रूप से विकसित व्यक्तित्व। इसी उद्देश्य को लेकर सभी ने गहरे आध्यात्मिक प्रयोग किए हैं- और अपने निष्कर्षों को सूत्रबद्ध, लिपिबद्ध किया है। इन प्रयोगों की शृंखला में कई बार तो ऐसा हुआ कि विशेषज्ञों की भावचेतना अपने शिखर पर पहुँच गयी और वहाँ स्वयं ही सूत्र अवतरित होने लगे। परावाणी में दैवी सन्देश प्रकट हुए। इस्लाम का पवित्र ग्रन्थ कुरआन ऐसे ही दैवी संदेशों का दिव्य संकलन है। बाइबिल की पवित्र कथाएँ भी ऐसी ही भावगंगा में प्रवाहित हुई हैं। प्राचीन पारसी जनों के जेन्द अवेस्ता से लेकर अर्वाचीन सिख गुरुओं के ग्रन्थ साहिब तक सभी ग्रन्थ देश- काल के अनुरूप अपना अहत्व दर्शाते रहे हैं। इनमें से किसी आध्यात्मिक ग्रन्थ को कमतर नहीं कहा जा सकता।

परन्तु जब बात प्राचीनता के साथ परिपूर्णता की हो, इस वैज्ञानिक युग में उसकी सामयिकता और सार्वभौमिकता की हो, तो वेद ही परम सत्य के रूप में सामने नजर आते हैं। वेद सब भाँति अद्भुत एवं अपूर्व हैं। ये समस्त सृष्टि में संव्याप्त आध्यात्मिक दृष्टि, आध्यात्मिक शक्ति एवं आध्यात्मिक प्रयोगों का पवित्र उद्गम हैं। यदि इस कथन को अतिशयोक्ति न माना जाय तो यहाँ यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि समस्त विश्व वसुधा में आध्यात्मिक भाव गंगा कहीं बही है, उसका पवित्र उद्गम वेदों का गोमुख ही है। विश्व के प्रत्येक धर्म, पंथ और मत में जो कुछ भी कहा गया है उसके सार निष्कर्ष को वेद मंत्रों में खोजा और पढ़ा जा सकता है। यदि भविष्य कथन और भविष्य दृष्टि पर किसी का विश्वास जमे तो वे जान सकते हैं कि भावी विश्व की आध्यात्मिकता वेदज्ञान पर ही टिकी होगी।

ऐसा कहने में किसी तरह का पूर्वाग्रह नहीं है। बल्कि गम्भीर व कठिन आध्यात्मिक प्रयोगों के निष्कर्ष के रूप में यह सत्य बताया जा रहा है। हां यह सच है कि वेदमंत्रों को ठीक- ठीक समझना कठिन है। क्योंकि ये बड़ी कूटभाषा में कहे गये हैं। जो लोग अपने को संस्कृत भाषा का महाज्ञानी बताकर इनके शब्दार्थों में सत्य को टटोलने की कोशिश करते हैं, उन्हें केवल भ्रमित होना पड़ता है। वे सदा खाली हाथ रहते हैं और अपने को महा- अज्ञानी सिद्ध करते हैं। वेदमंत्रों के अर्थ शब्दों के उथलेपन में नहीं साधना की गहराई में समाए हैं। सच तो यह है कि प्रत्येक वेदमंत्र की अपनी विशिष्ट साधना विधि है। एक सुनिश्चित अनुशासन है और उसके सार्थक सत्परिणाम भी हैं।


✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 42*


: 👉 विचार शक्ति के चमत्कार:-

विचार अपने आप में एक चिकित्सा है। शुभ कामना, सत्परामर्श रूपी विचारों का बीजारोपण यही प्रयोजन सिद्ध करते हैं। विचार संप्रेषण, विचारों से वातावरण का निर्माण, विचार विभीषिका इसी सूक्ष्म विचार शक्ति के स्थूल परिणाम हैं। महर्षि अरविन्द व रमण ने मौन साधना की व अपनी विचार शक्ति को सूक्ष्म स्तर पर क्रियान्वित किया जिसका परिणाम था कि वातावरण में संव्याप्त विक्षोभ मिटाया जा सका तथा स्वतंत्रता आन्दोलन की लहर फैली। सारी क्रांतियाँ विचारों के स्तर से ही आरम्भ हुई हैं। साम्यवाद-प्रजातन्त्र विचार संयमजन्य सामर्थ्य की देन है। विचारों की आँधी जब आती है तो प्रचण्ड तूफान की तरह सबको अपनी लपेट में ले लेती है। बुद्ध और गांधी के समय भी इसी प्रकार आँधी आयी जिसने सूक्ष्म स्तर पर जन-जन को प्रभावित किया व परिवर्तन ला दिया।

अस्त-व्यस्त विचार-शक्ति व्यक्ति को जल्दबाज बनाते हैं व ऐसे व्यक्ति दूरगामी निर्णय न लेकर ऐसे कदम उठा सकते हैं जिन्हें प्रकारान्तर से विक्षिप्तता ही कहा जा सकता है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1


👉 परतन्त्रता संसार का सबसे बड़ा अभिशाप है।

एक सन्त के आश्रम में एक शिष्य कहीं से एक तोता ले आया और उसे पिंजरे में रख लिया। सन्त ने कई बार शिष्य से कहा कि “इसे यों कैद न करो। परतन्त्रता संसार का सबसे बड़ा अभिशाप है।”

किन्तु शिष्य अपने बालसुलभ कौतूहल को न रोक सका और उसे अर्थात् पिंजरे में बन्द किये रहा।

तब सन्त ने सोचा कि “तोता को ही स्वतंत्र होने का पाठ पढ़ाना चाहिए”

उन्होंने पिंजरा अपनी कुटी में मँगवा लिया और तोते को नित्य ही सिखाने लगे- ‘पिंजरा छोड़ दो, उड़ जाओ।’

कुछ दिन में तोते को वाक्य भली भाँति रट गया। तब एक दिन सफाई करते समय भूल से पिंजरा खुला रह गया। सन्त कुटी में आये तो देखा कि तोता बाहर निकल आया है और बड़े आराम से घूम रहा है साथ ही ऊँचे स्वर में कह भी रहा है- “पिंजरा छोड़ दो, उड़ जाओ।”

सन्त को आता देख वह पुनः पिंजरे के अन्दर चला गया और अपना पाठ बड़े जोर-जोर से दुहराने लगा। सन्त को यह देखकर बहुत ही आश्चर्य हुआ। साथ ही दुःख भी।

वे सोचते रहे “इसने केवल शब्द को ही याद किया! यदि यह इसका अर्थ भी जानता होता- तो यह इस समय इस पिंजरे से स्वतंत्र हो गया होता!

दोस्तों ठीक इसी तरह – हम सब भी ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें सीखते और करते तो हैं किन्तु उनका मर्म नहीं समझ पाते और उचित समय तथा अवसर प्राप्त होने पर भी उसका लाभ नहीं उठा पाते और जहाँ के तहाँ रह जाते हैं।


👉 साधक के समक्ष पाँच महा बाधायें

एक नगर मे एक महान सन्त साधकों को अतिसुन्दर कथा-अमृत पिला रहे थे वो साधना के सन्दर्भ मे अति महत्तवपूर्ण जानकारी दे रहे थे। सन्त श्री कह रहे थे की साधना-पथ पर साधक के सामने पंच महाबाधाये आती है और साधक वही जो हर पल सावधानी से साधना-पथ पर चले!

  1. पहली बाधा – नियमभंग की बाधा:-

जब भी आप ईष्ट के प्रति कोई नियम लोगे तो संसार आपके उस नियम को येनकेन प्रकारेण खंडित करने का प्रयास करेगा!
जैसे किसी ने नियम लिया की वो एकादशी को कुछ भी नही खायेगा तो फिर कई व्यक्ति कहेंगे की अरे इतना सा तो खालो, फल तो खालो फिर उसके सामने कुछ न कुछ लाकर जरूर रखेंगे और उसे खाने पर विवश कर देंगे!

इसलिये इससे बचने के लिये आप गोपनीयता रखो मूरखों की तरह व्यर्थ प्रदर्शन न करो माला को गोमुखी मे जपो साधना का प्रदर्शन मत करो की मैंने इतना जप किया! जब कोई अपना जीवन नियम से जीता है और जिस दिन उसका नियम टूटता है तो व्याकुलता बढ़ती है और यही व्याकुलता हमें ईश्वर की और ले जाती है!

  1. दुसरी बाधा है बाह्यय लोगो से विरोध:-

इससे बचने के लिये मदमस्त हाथी की तरह चलना सब की भली बुरी सुनते हुये चलना कोई कटाक्ष करे तो इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देना व्यर्थ के प्रपंच से बचते हुये बिल्कुल अर्जुन की तरह एकाग्रचित्त होकर चलना!

  1. तीसरी बाधा है साधु सन्तों द्वारा कसौटी परख:-

आपके सामने नाना प्रकार के प्रलोभन आयेंगे सिद्धियों का प्रलोभन आयेगा पर आप वैभव और सुख सुविधा का त्याग करते हुये आगे बढ़ना! जैसे आपने एक वर्ष का एक व्रत रखा और कहा की एक वर्ष तक अमुख दिन नमकीन और मीठा न खाऊंगा तो उस दिन तुम्हारे सामने नमकीन और मीठा जरूर आयेगा अब वहा जिह्वा की परीक्षा होगी इस प्रकार कई तरह की परीक्षाओ से गुजरना पड़ेगा!
इससे बचने के लिये आप त्यागी बन जाना!

  1. चौथी बाधा है देवताओं द्वारा राह अवरोधन:-

जब भी किसी की साधना बढ़ती है उसका प्रभाव बढ़ता है तो देवता उसकी राह मे बड़ी बाधा उत्पन्न करते है!
कामदेव की पुरी सैना पुरी शक्ति लगा देती है जैसे विशवामित्र जी का तप भंग नारद जी को अहंकार से घायल करना इससे बचने के लिये अपनी सम्पुर्ण आसक्ति और प्रीति ईष्ट के चरणों मे रखना जब ईष्ट के चरणों मे प्रीति होगी तो देवताओं की प्रतिकूलता भी अनुकुलता मे बदल जायेगी!

सद्गुरु का सानिध्य, समर्थ सच्चे सन्त का माथे पर हाथ, ईष्ट मे एकनिष्ठ एवं सच्ची प्रीति और अविरल निष्काम सात्विक साधना से देवताओं की प्रतिकूलताओं को अनुकुलता मे बदला जा सकता है!

  1. पाँचवी बाधा है अपनो का विरोध:-

गैरों की तो छोड़ो अपने भी विरोधी हो जाते है अपने ही शत्रु बन जाते है और इससे बचने के लिये आप इस सत्य को सदा याद रखना की हरी के सिवा यहाँ हमारा कोई नही है! सारा जगत है एक झूठा सपना और केवल हरी ही है हमारा अपना! और जब इस पाँचवी बाधा को भी साधक पार कर लेता है तो फिर साधक अपने ईष्ट मे समा जाता है फिर उसे संसार की नही केवल सार की परवाह रहती है!

इन बाधाओं से जब सामना हो तो घबराना मत बस अटूट प्रीति रखना ईष्ट मे और बुद्धि की रक्षा करना!

बुद्धि कई प्रकार की है पर जो बुद्धि परमतत्व से मिला दे वही सार्थक है बुद्धि ऊपर की ओर ले जाती है और श्रद्धा भीतर की ओर, इसलिये बुद्धि से श्रद्धा की ओर बढ़ो!

इष्टदेव के प्रति अटूट सार्थक नियम से प्रेम का जन्म होगा प्रेम से ईष्टदेव के श्री चरणों मे प्रीति बढेगी और जब प्रीति बढेगी तो श्रद्धा का जन्म होगा और जब श्रद्धा का जन्म होगा तो जीवन मे सच्चे सन्त का आगमन होगा और जब जीवन मे सच्चे सन्त सद्गुरु का आगमन होगा तो फिर ईश्वर के मिलने मे समय न लगेगा!


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ब्रह्मलीन संत शिरोमणि परम् पूज्य श्री रामसुख दास जी महाराज की सन्तवाणी!!!!!

एक संत क़ी अमूल्य शिक्षा!!!!!!

  1. एक ही सिद्धांत, एक ही इष्ट एक ही मंत्र, एक ही माला, एक ही समय, एक ही आसन, एक ही स्थान हो तो जल्दी सीद्धि होती है।
  2. विष्णु, शंकर, गणेश, सूर्य और देवी – ये पाँचों एक ही हैं। विष्णु क़ी बुद्धि ‘गणेश’ है, अहम् ‘शंकर’, नेत्र ‘सूर्य’ है और शक्ति ‘देवी’ है। राम और कृष्ण विष्णु के अंतर्गत ही हैं।
  3. कलियुग में कोई अपना उद्दार करना चाहे तो राम तथा कृष्ण क़ी प्रधानता है, और सिद्दियाँ प्राप्त करना चाहे तो शक्ति तथा गणेश क़ी प्रधानता है- ‘कलौ चणडीविनायकौ’।
  4. औषध से लाभ न तो हो भगवान् को पुकारना चाहिए। एकांत में बैठकर कातर भाव से, रोकर भगवान् से प्रार्थना करें जो काम औषध से नहीं होता, वह प्रार्थना से हो जाता है। मन्त्रों में अनुष्ठान में उतनी शक्ति नहीं है, जितनी शक्ति प्रार्थना में है। प्रार्थना जप से भी तेज है।
  5. भक्तों के नाम से भगवान् राजी होते हैं। शंकर के मन्दिर में घंटाकर्ण आदि का, राम के मन्दिर में हनुमान, शबरी आदि का नाम लो। शंकर के मन्दिर में रामायण का पाठ करो। राम के मन्दिर में शिव्तान्दाव, शिवमहिम्न: आदि का पाठ करो। वे राजी हो जायेंगे। हनुमानजी को प्रसन्न करना हो उन्हें रामायण सुनाओ। रामायण सुनने से वे बड़े राजी होते हैं।
  6. अपने कल्याण क़ी इच्छा हो तो ‘पंचमुखी या वीर हनुमान’ क़ी उपासना न करके ‘दास हनुमान’ क़ी उपासना करनी चाहिए।
  7. शिवजी का मंत्र रुद्राक्ष क़ी माला से ही जपना चाहिए, तुलसी क़ी माला से नहीं।
  8. हनुमानजी और गणेशजी को तुलसी नहीं चढानी चाहिए।
  9. गणेशजी बालक स्वरूप में हैं। उन्हें लड्डू और लाल वस्त्र अच्छे लगते हैं।
  10. दशमी- विद्ध एकादशी त्याज्य होती है, पर गणेशचतुर्थी त्रित्या- विद्धा श्रेष्ठ होती है।
  11. किसी कार्यको करें या न करें – इस विषय में निर्णय करना हो तो एक दिन अपने इस्ट का खूब भजन-ध्यान, नाम जप, कीर्तन करें। फिर कागज़ क़ी दो पुडिया बनाएं, एक में लिखें ‘काम करें’ और दूसरी में लिखें ‘काम न करें’। फिर किसी बच्चे से कोई एक पुडिया उठ्वायें और उसे खोलकर पढ़ लें।
  12. किंकर्तव्यविमूढ होने क़ी दशा में चुप, शांत हो जाएँ और भगवान् को याद करें तो समाधान मिल जाएगा।
  13. कोई काम करना हो तो मन से भगवान् को देखो। भगवान् प्रसन्न देखें तो वह काम करो और प्रसन्न न देखें तो वह काम मत करो क़ी भगवान् क़ी आगया नहीं है। एक- दो दिन करोगे तो भान होने लगेगा।
  14. विदेशी लोग दवा पर जोर देते हैं, पर हम पथ्यपर जोर देते हैं –
    पथ्ये सटी गदार्तस्य किमौषधनिषेवणै:।
    पथ्येSसति गदर्त्तस्य किमौषधनिषेवणै:।
    ‘पथ्य से रहने पर रोगी व्यक्ति को औषध-सेवन से क्या प्रायोजन ? और पथ्य से न रहने पर रोगी व्यक्ति को औषध – सेवन से क्या प्रायोजन ?’
  15. जहाँ तक हो सके, किसी भी रोग में आपरेशन नहीं करना चाहिए। दवाओं से चिकित्सा करनी चाहिए। आपरेशन द्वारा कभी न करायें। जो स्त्री चक्की चलाती है, उसे प्रसव के स्ममय पीड़ा नहीं होती और स्वास्थ भी सदा ठीक रहता है।
  16. एक ही दावा लम्बे समय तक नहीं लेनी चाहिए। बीच में कुछ दिन उसे छोड़ देना चाहिए। निरंतर लेने से वह दवा आहार (भोजन) क़ी तरह जो जाता है।
  17. वास्तव में प्रारब्ध से रोग बहुत कम होते हैं, ज्यादा रोग कुपथ्य से अथवा असंयम से होते हैं, कुपथ्य छोड़ दें तो रोग बहुत कम हो जायेंगे। ऐसे ही प्रारभ दुःख बहुत कम होता है, ज्यादा दुःख मूर्खता से, राग-द्वेष से, खाब स्वभाव से होता है।
  18. चिंता से कई रोग होते हैं। कोई रोग हो तो वह चिंता से बढ़ता है। चिंता न करने से रोग जल्दी ठीक होता है। हर दम प्रसन्न रहने से प्राय: रोग नहीं होता, यदी होता भी है तो उसका असर कम पड़ता है।
  19. मन्दिर के भीतर स्थित प्राण-प्रतिष्ठित मूर्ती के दर्शन का जो महात्मय है, वही महात्मय मन्दिर के शिखर के दर्शन का है।
  20. शिवलिंग पर चढ़ा पदार्थ ही मिर्माल्या अर्थात त्याज्य है। जो पदार्थ शिवलिंग पर नहीं चढ़ा वह निर्माल्य नहीं है। द्वादश ज्योतिलिंगों में शिवलिंग पर चढ़ा पदार्थ भी निर्माल्य नहीं है।
  21. जिस मूर्ती क़ी प्राणप्रतिष्ठा हुई हो, उसी में सूतक लगता है। अतः उसकी पूजा ब्राह्मण अथवा बहन- बेटी से करानी चाहिए। परन्तु जिस मूर्ती क़ी प्राणप्रतिष्ठा नहीं क़ी गयी हो, उसमें सूतक नहीं लगता। कारण क़ी प्राणप्रतिष्ठा बिना ठाकुरजी गहर के सदस्य क़ी तरह ही है; अतः उनका पूजन सूतक में भी किया जा सकता है।
  22. घर में जो मूर्ती हो, उसका चित्र लेकर अपने पास रखें। कभी बहार जाना पड़े तो उस चित्र क़ी पूजा करें। किसी कारणवश मूर्ती खण्डित हो जाए तो उस अवस्था में भी उस चित्र क़ी ही पूजा करें।
  23. घर में रखी ठाकुर जी क़ी मूर्ती में प्राणप्रतिष्ठा नहीं करानी चाहिए।
  24. किसी स्त्रोत का महात्मय प्रत्येक बार पढने क़ी जरुरत नहीं। आरम्भ और अंत में एक बार पढ़ लेना चाहिए।
  25. जहाँ तक शंख और घंटे क़ी आवाज क़ी आवाज जाती है, वहां तक पीरोगता, शांति, धार्मिक भाव फैलते है।
  26. कभी मन में अशांति, हलचल हो तो 15-20 मिनट बैठकर राम-नाम का जप करो अथवा ‘आगमापायिनोSनित्या:’ (गीता 1/14) – इसका जप करो, हलचल मिट जायेगी।
  27. कोई आफत आ जाए तो 10-15 मिनट बैठकर नामजप करो और प्रार्थना करो तो रक्षा हो जायेगी। सच्चे हृदय से क़ी गयी प्रार्थना से तत्काल लाभ होता है।
  28. घर में बच्चो से प्रतिदिन घंटा-डेढ घण्टा भगवानाम का कीर्तन करवाओ तो उनकी जरूर सदबुद्धि होगी और दुर्बद्धि दूर होगी।
  29. ‘गोविन्द गोपाल की जय’ – इस मंत्र का उच्चारण करने से संकल्प- विकल्प मिट जाते हैं।, आफत मिट जाती है।
  30. नाम जप से बहुत रक्षा होती है। गोरखपुर में प्रति बारह वर्ष प्लेग आया करता था। भाई जी श्री हनुमानप्रसादजी पोद्दार ने एक वर्ष तक नामजप कराया तो फिर प्लेग नहीं आया।
  31. कोई रात-दिन राम-राम करना शुरु कर दे तो उस्के पास अन्न, जल, वस्त्र आदि की कमी नहीं रहेगी।
  32. प्रह्लाद की तरह एक नामजप में लग जाय तो कोई जादू-टोना, व्यभिचार, मूठ आदि काम नहीं करता।
  33. वास्तव में वशीकरण मन्त्र उसी पर चलता है, जिसके भीतर कामना है। जितनी कामना होगी, उतना असर होगा। अगर कोई कामना न हो तो मन्त्र नहीं चल सकता; जैसे पत्थर पर जोंक नहीं लग सकती।
  34. रामरक्षास्त्रोत, हनुमानचालीसा, सुन्दरकाण्ड का पाठ करने से अनिष्ट मन्त्रों का (मारण-मोहन आदि तांत्रिक प्रयोगों) का असर नहीं होता। परन्तु इसमें बलाबल काम करेगा।
  35. भगवान् का जप-कीर्तन करेने से अथवा कर्कोटक, दमयंती, नल और ऋतुपणर्का नाम लेने से कलियुग असर नहीं करता।
  36. कलियुग से बचने के लिये हरेक भाई-बहिन को नल-दमयंती क़ी कथा पढनी चाहिए। नल-दमयंती क़ी कथा पढने से कलियुग का असर नहीं होगा, बुद्धि शुद्ध होगी।
  37. छोटे गरीब बच्चों को मिठाई, खिलौना आदि देकर राजी करने से बहुत लाभ होता है और शोक-चिंता मिटते हैं, दुःख दूर होता है। इसमें इतनी शक्ति है क़ी आपका भाग्य बदल सकता है। जिनका ह्रदय कठोर हो, वे यदी छोटे-छोटे गरीब बच्चों को मिठाई खिलायें और उन्हें खाते हुए देखें तो उनका ह्रदय इतना नरम हो जाएगा क़ी एक दिन वे रो पड़ेंगे!
  38. छोटे ब्रह्मण-बालकों को मिठाई, खिलौना आदि मनपसंद वस्तुएं देने से पितृदोष मिट जाता है।
  39. कन्याओं को भोजन कराने से शक्ति बहुत प्रसन्न होती है।
  40. रात्री सोने से पहले अपनी छाया को तीन बार कह दे कि मुझे प्रात: इतने बजे उठा देना तो ठीक उतने बजे नींद खुल जायेगी। उस समय जरुर उठ जाना चाहिए।
  41. जो साधक रात्री साढे ग्यारह से साढे बारह बजे तक अथवा ग्यारह से एक बजे तक जागकर भजन-स्मरण, नाम-जप करता है, उसको अंत समय में मूरछा नहीं आती और भगवान् क़ी स्मृति बनी रहती है।
  42. सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सोना नहीं चाहिए। सूर्योदय के बाद उठने से बुद्धि कमजोर होती है, और सूर्योदय से पहले उठने से बुद्धि का विकास होता है। अतः सूर्योदय होने से पहले ही उठ जाओ और सूर्य को नमस्कार करो। फिर पीछे भले ही सो जाओ।
  43. प्रतिदिन स्नान करते समय ‘गंगे-गंगे’ उच्चारण करने क़ी आदत बना लेनी चाहिए। गंगा के इन नामों का भी स्नान करते समय उच्चारण करना चाहिए – ‘ब्रह्मकमण्डुली, विष्णुपादोदकी, जटाशंकरी, भागीरथी,जाहन्वी’ । इससे ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश- तीनों का स्मरण हो जाता है।
  44. प्रतिदिन प्रातः स्नान के बाद गंगाजल का आचमन लेना चाहिए। गंगाजल लेने वाला नरकों में नहीं जा सकता। गंगाजल को आग पर गरम नहीं करना चाहिए। यदि गरम करना ही हो तो धुप में रखकर गरम कर सकतें है। सूतक में भी गंगा-स्नान कर सकते हैं।
  45. सूर्य को जल देने से त्रिलोकी को जल देने का महात्मय होता है। प्रातः स्नान के बाद एक ताम्बे के लोटे में जल लेकर उसमें लाल पुष्प या कुमकुम डाल दे और ‘श्रीसूर्याय नम:’ अथवा ‘एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणाध्य दिवाकर॥’ कहते हुए तीन बार सूर्यको जल दे।
  46. प्रत्येक कार्य में यह सावधानी रखनी चाहिए क़ी समय और वस्तु कम-से-कम खर्च हों।
  47. रोज़ प्रातः बड़ों को नमस्कार करना चाहिए। जो प्रातः बड़ों को नमस्कार करते हैं, वे नमस्कार करने योग्य हैं।
  48. प्रत्येक बार लघुशंका करने के बाद इन्द्रिय और मुख को ठण्डे जल से तथा पैरों को गरम जल से धोना चाहिए। इससे आयु बढती है।
  49. कोई हमारा चरण – स्पर्श करे तो आशीर्वाद न देकर भगवान् का उच्चारण करना चाहिए।
  50. किसी से विरोध हो तो मन से उसकी परिक्रमा करके प्रणाम करो तो उसका विरोध मिटता है, द्वेष-वृत्ति मिटती है। इससे हमारा वैर भी मिटेगा। हमारा वैर मिटने से उसका भी वैर मिटेगा।
  51. कोई व्यक्ति हमसे नाराज हो, हमारे प्रति अच्छा भाव न रखता हो तो प्रतिदिन सुबह-शाम मन में उसकी परिक्रमा करके दंडवत प्रणाम करें। ऐसा करने से कुछ ही दिनों में उसका भाव बदल जाएगा। फिर वह व्यक्ति कभी मिलेगा तो उसके भावों में अंतर दीखेगा। भजन-ध्यान करने वाले साधक के मानसिक प्रणाम का दुसरे पर ज्यादा असर पड़ता है।
  52. किसी व्यक्ति का स्वभाव खराब हो तो जब वह गहरी नींद में सोया हो, तब उसके श्वासों के सामने अपने मुख करके धीरे से कहिएं क़ी तुम्हारा स्वभाव बड़ा अच्छा है, तुम्हारे में क्रोध नहीं है, आदि। कुछ दिन ऐसा करने से उसका स्वभाव सुधरने लगेगा।
  53. अगर बेटे का स्वभाव ठीक नहीं हो तो उसे अपना बेटा न मानकर, उसमें सर्वदा अपनी ममता छोड़कर उसे सच्चे ह्रदय से भगवान् के अर्पण कर दे, उसे भगवान् का ही मान ले तो उसका स्वभाव सुधर जाएगा।
  54. गाय की सेवा करने से सब कामनाएं सिद्ध होती है। गाय को सहलाने से, उसकी पीठ आदि पर हाथ फेरने से गाय प्रसन्न होती है। गाय के प्रसन्न होने पर साधारण रोगों क़ी तो बात ही क्या है, बड़े-बड़े असाध्य रोग भी मिट जाते हैं। लगभग बारह महीने तक करके देखना चाहिए।
  55. गाय के दूध, घी, गोबर-गोमूत्र आदि में जीवनी-शक्ति रहती है। गाय के घी के दीपक से शांति मिलती है। गाय का घी लेने से विषैले तथा नशीली वस्तु का असर नष्ट हो जाता है। परन्तु बूद्धि अशुद्ध होने से अच्छी चीज भी बुरी लगती है, गाय के घी से भी दुर्गन्ध आती है।
  56. बूढी गाय का मूत्र तेज होता है और आँतों में घाव कर देता है। परन्तु दूध पीने वाली बछडी का मूत्र सौम्य होता है; अतः वही लेना चाहिए।
  57. गायों का संकरीकरण नहीं करना चाहिए। यह सिद्धांत है क़ी शुद्ध चीज में अशुद्ध चीज मिलें तो अशुद्ध क़ी ही प्रधानता हो जायेगी; जैसे-छाने हुए जल में अन्छाने जल क़ी कुछ बूंदे डालने से सब जल अनछाना हो जाएगा।
  58. कहीं जाते समय रास्ते में गाय आ जाए तो उसे अपनी दाहिनी तरफ करके निकलना चाहिए। दाहिनी तरफ करने से उसकी परिक्रमा हो जाती है।
  59. रोगी व्यक्ति को भगवान् का स्मरण कराना सबसे बड़ी और सच्ची सेवा है। अधिक बीमार व्यक्ति को सांसारिक लाभ-हानि क़ी बातें नहीं सुनानी चाहिए। छोटे बच्चों को उसके पास नहीं ले जाना चाहिए; क्योकि बच्चों में स्नेह अधिक होने से उसकी वृत्ति उनमें चली जायेगी।
  60. रोगी व्यक्ति कुछ भी खा- पी ले ना सके तो गेहूं आदि को अग्नि में डालर उसका धुंआ देना चाहिए। उस धुंए से रोगी को पुष्टि मिलती है।
  61. भगवननाम अशुद्ध अवस्था में भी लेना चाहिए। कारण क़ी बिमारी में प्राय: अशुद्धि रहती है। यदि नामे लिये बिना मर गए तो क्या दशा होगी? क्या अशुद्ध अवस्था में श्वास नहीं लेते? नामजप तो श्वास से भी अधिक मूल्यवान है।
  62. मरणासन्न व्यक्ति के सिरहाने गीताजी रखें। दाह-संस्कार के समय उस गीताजी को गंगाजी में बहा दे, जलायें नहीं।
  63. यदि रोगी के मस्तक पर लगाया चन्दन जल्दी सूख जाय तो समझें क़ी ये जल्दी मरने वाला नहीं है। मृत्यु के समीप पहुंचे व्यक्ति की मस्तक क़ी गर्मी चली जाती है, मस्तक ठंडा हो जाता है।
  64. शव के दाह-संस्कार के समय मृतक के गले में पड़ी तुलसी क़ी माला न निकालें, पर गीताजी हो तो निकाल देनी चाहिए।
  65. अस्पताल में मरने वाले क़ी प्राय: सदगति नहीं होती। अतः मरनासन व्यक्ति यदि अस्पताल में हो तो उसे घर ले आना चाहिए।
  66. श्राद्ध आदि कर्म भारतीय तिथि के अनुसार करने चाहिए, अंग्रेजी तारीख के अनुसार नहीं। (भारत आजाद हो गया, पर भीतर से गुलामी नहीं गयी। लोग अंग्रेजी दिनाक तो जानते हैं, पर तिथि जानते ही अन्हीं!)
  67. किसी व्यक्ति क़ी विदेश में मृत्यु हो जाय तो उसके श्राद्ध में वहां क़ी तिथि न लेकर भारत क़ी तिथि ही लेनी चाहिए अर्थात उसकी मृत्यु के समय भारत में जो तिथि हो, उसी तिथि में श्राद्धादि करना चाहिए।
  68. श्राद्धका अन्न साधुको नहीं देना चाहिए, केवल ब्राह्मण को ही देना चाहिए।
  69. घर में किसी क़ी मृत्यु होने पर सत्संग, मन्दिर और तीर्थ- इन तीनों में शोक नहीं रखना चाहिए अर्थात इन तीनों जगह जरुर जाना चाहिए। इनमें भी सत्संग विशेष है। सत्संग से शोक का नाश होता है।
  70. किसी क़ी मृत्यु से दुःख होता है तो इसके दो कारण हैं- उससे सुख लिया है, और उससे आशा रखी है। मृतात्मा क़ी शांति और अपना शोक दूर करने के लिये तीन उपाय करने चाहिए – 1) मृतात्मा को भगवान् के चरणों में बैठा देखें 2) उसके निमित्त गीता, रामायण, भगवत, विष्णुसहस्त्रनाम आदि का पाठ करवाएं 3) गरीब बालकों को मिठाई बांटें।
  71. घर का कोई मृत व्यक्ति बार-बार स्वप्न में आये तो उसके निमित्त गीता-रामायण का पाठ करें, गरीब बालकों को मिठाई खिलायें। किसी अच्छे ब्रह्मण से गया-श्राद्ध करवाएं। उसी मृतात्मा अधिक याद आती है, जिसका हम पर ऋण है। उससे जितना सुख-आराम लिया है, उससे अधिक सुख-आराम उसे न दिया जाय, तब तक उसका ऋण रहता है। जब तक ऋण रहेगा, तब तक उसकी याद आती रहेगी।
  72. यह नियम है कि दुखी व्यक्ति ही दुसरे को दुःख देता है। यदी कोई प्रेतात्मा दुःख दे रही है तो समझना चाहिए क़ी वह बहुत दुखी है। अतः उसके हित के लिये गया-श्राद्ध करा देना चाहिए।
  73. कन्याएं प्रतिदिन सुबह-शाम सात-सात बार ‘सीता माता’ और ‘कुंती माता’ नामों का उच्चारण करें तो वे पतिव्रता होती हैं।
  74. विवाह से पहले लड़के-लड़की का मिलना व्यभिचार है। इसे मैं बड़ा पाप मानता हूँ।
  75. माताएं-बहनें अशुद्ध अवस्था में भी रामनाम लिख सकती हैं, पर पाठ बिना पुस्तक के करना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो उन दिनों के लिये अलग पुस्तक रखनी चाहिए। अशुद्ध अवस्था में हनुमान चालीसा स्वयं पाठ न करके पति से पाठ कराना चाहिए।
  76. अशुद्ध अवस्था में माताएं तुलसी क़ी माला से जप न करके काठ क़ी माला से जप करें, और गंगाजी में स्नान न करके गंगाजल मंगाकर स्नानघर में स्नान करें। तुलसी क़ी कण्ठी तो हर समय गले में रखनी चाहिए।
  77. गर्भपात महापाप है। इससे बढ़कर कोई पाप नहीं है। गर्भपात करनेवाले क़ी अगले जन्म में कोई संतान नहीं होती।
  78. स्त्रियों को शिवलिंग, शालग्राम और हनुमानजी का स्पर्श कदापि नहीं करना चाहिए। उनकी पूजा भी नहीं करनी चाहिए। वे शिवलिंग क़ी पूजा न करके शिवमूर्ति क़ी पूजा कर सकती हैं। हाँ, जहाँ प्रेमभाव मुख्य होता है, वहां विधि-निषेध गौण हो जाता है।
  79. स्त्रियों को रूद्राक्ष क़ी माला धारण नहीं करनी चाहिए। वे तुलसी क़ी माला धारण करें।
  80. भगवान् क़ी जय बोलने अथवा किसी बात का समर्थन करने के समय केवल पुरुषों को ही अपने हाथ ऊँचें करने चाहिए, स्त्रियों को नहीं।
  81. स्त्री को गायत्री-जप और जनेऊ-धारण करने का अधिकार नहीं है। जनेऊ के बिना ब्रह्मण भी गायत्री-जप नहीं कर सकता है। शरीर मल- मूत्र पैदा करने क़ी मशीन है। उसकी महत्ता को लेकर स्त्रियों को गायत्री-जप का अधिकार देते हैं तो यह अधिकार नहीं, प्रत्युत धिक्कार है। यह कल्याण का रास्ता नहीं है, प्रत्युत केवल अभिमान बढाने के लिये है। कल्याण चाहने वाली स्त्री गायत्री-जप नहीं करेगी। स्त्री के लिये गायत्री-मंत्र का निषेध करके उसका तिरस्कार नहीं किया है, प्रत्युत उसको आफत से छुड़ाया है। गायत्री-जप से ही कल्याण होता हो- यह बात नहीं है। राम-नाम का जप गायत्री से कम नहीं है। (सबको समान अधिकार प्राप्त हो जय, सब बराबर हो जाएँ – ऐसी बातें कहने-सुनने में तो बड़ी अच्छी दीखती हैं, पर आचरण में लाकर देखो तो पता लगे! सब गड़बड़ हो जाएगा! मेरी बातें आचरण में ठीक होती है।)
  82. पति के साधु होने पर पत्नी विधवा नहीं होती। अतः उसे सुहाग के चिन्ह नहीं छोड़ने चाहिए।
  83. स्त्री परपुरुष का और पुरुष परस्त्री का स्पर्श न करे तो उनका तेज बढेगा। पुरुष माँ के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करे, पर अन्य सब स्त्रियों को दूर से प्रणाम करे। स्त्री पति के चरण-स्पर्श करे, पर ससुर आदि अन्य पुरुषों को दूर से प्रणाम करे। तात्पर्य है क़ी स्त्री को पति के सिवाय किसी के भी चारण नहीं छूने चाहिए। साधू-संतों को भी दूर से पृथ्वी पर सर टेककर प्रणाम करना चाहिए।
  84. दूध पिलाने वाली स्त्री को पति का संग नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से दूध दूषित हो जाता है, जिसे पीने से बच्चा बीमार हो जाता है।
  85. कुत्ता अपनी तरफ भौंकता हो तो दोनों हाथों क़ी मुठ्ठी बंद कर लें। कुछ देर में वह चुप हो जाएगा।
  86. मुसलमान लोग पेशाब को बहुत ज्यादा अशुद्ध मानते हैं। अतः गोमूत्र पीने अथवा छिड़कने से मुस्लिम तंत्र का प्रभाव कट जाता है।
  87. कहीं स्वर्ण पडा हुआ मिल जाय तो उसे कभी उठाना नहीं चाहिए।
  88. पान भी एक श्रृंगार है। यह निषिद्ध वस्तु नहीं है, पर ब्रह्मचारी, विधवा और सन्यासी के लिये इसका निषेध है।
  89. पुरुष की बायीं आँख ऊपर से फडके तो शुभ होती है, नीचे से फडके तो अशुभ होती है। कान क़ी तरफ वाला आँख का कोना फडके तो अशुभ होता है और नाक क़ी तरफ्वाला आँख का कोना फडके तो शुभ होता है।
  90. यदि ज्वर हो तो छींक नहीं आती। छींक आ जाय तो समझो ज्वर गया! छींक आना बीमारी के जाने का शुभ शकुन है।
  91. शकुन मंगल अथवा अमंगल – ‘कारक’ नहीं होते, प्रत्युत मंगल अथवा अमंगल – ‘सूचक होते हैं।
  92. ‘पूर्व’ क़ी वायु से रोग बढ़ता है। सर्प आदि का विष भी पूर्व क़ी वायु से बढ़ता है। ‘पश्चिम’ क़ी वायु नीरोग करने वाली होती है। ‘पश्चिम’ वरुण का स्थान होने से वारूणी का स्थान भी है। विघुत तरंगे, ज्ञान का प्रवाह ‘उत्तर’ से आता है। ‘दक्षिण’ में नरकों का स्थान है। ‘आग्नेय’ क़ी वायु से गीली जमीन जल्दी सूख जाती है; क्योंकि आगनेय क़ी वायु शुष्क होती है। शुष्क वायु नीरोगता लाती है। ‘नैऋत्य’ राक्षसों का स्थान है। ‘ईशान’ कालरहित एवं शंकर का स्थान है। शंकर का अर्थ है – कल्याण करने वाला।
  93. बच्चों को तथा बड़ों को भी नजर लग जाती है. नजर किसी-किसी की ही लगती है, सबकी नहीं. कईयों की दृष्टि में जन्मजात दोष होता है और कई जान-बूझकर भी नजर लगा देते हैं. नजर उतरने के लिये ये उपाय हिं- पहला, साबत लालमिर्च और नमक व्यक्ति के सिर पर घुमाकर अग्नि में जला दें. नजर लगी होगी तो गंध नहीं आयेगी. दूसरा, दाहिने हाथ की मध्यमा-अनामिका अँगुलियों की हथेली की तरफ मोड़कर तर्जनी व कनिष्ठा अँगुलियों को परस्पर मिला लें और बालक के सिर से पैर तक झाड दें। ये दो अंगुलियाँ सबकी नहीं मिलती. तीसरा, जिसकी नजर लगी हो, वह उस बालक को थू-थू-थू कर दे, तो भी नजर उतर जाती है।
  94. नया मकान बनाते समय जीवहिंसा होती है; विभिन्न जीव-जंतुओं की स्वतन्त्रता में, उनके आवागमन में तथा रहने में बाधा लगती है, जो बड़ा पाप है. अतः नए मकान की प्रतिष्ठा का भोजन नहीं करना चाहिए, अन्यथा दोष लगता है।
  95. जहाँ तक हो सके, अपना पहना हुआ वस्त्र दूसरे को नहीं देना चाहिए।
  96. देवी की उपासना करने वाले पुरूष को कभी स्त्री पर क्रोध नहीं करना चाहिए।
  97. एक-दूसरे की विपरीत दिशा में लिखे गए वाक्य अशुभ होते हैं. इन्हें ‘जुंझारू वाक्य’ कहते हैं.।
  98. कमीज, कुरते आदि में बायाँ भाग (बटन लगाने का फीता आदि) ऊपर नहीं आना चाहिए. हिन्दू-संस्कृति के अनुसार वस्त्र का दायाँ भाग ऊपर आना चाहिए।
  99. मंगल भूमिका पुत्र है; अतः मंगलवार को भूमि नहीं खोदनी चाहिए, अन्यथा अनिष्ट होता है. मंगलवार को वस्त्र नापना, सिलना तथा पहनना भी नहीं चाहिए।
  100. नीयत में गड़बड़ी होने से, कामना होने से और विधि में त्रुटी होने से मंत्रोपासक को हानि भी हो सकती है. निष्काम भाव रखने वाले को कभी कोई हानि नहीं हो सकती।
  101. हनुमानचालीसा का पाठ करने से प्रेतात्मा पर हनुमान जी की मार पड़ती है।
  102. कार्यसिद्धि के लिये अपने उपास्यदेव से प्रार्थना करना तो ठीक है, पर उन पर दबाव डालना, उन्हने शपथ या दोहाई देकर कार्य करने के लिये विवश करना, उनसे हाथ करना सर्वथा अनुचित है. उदाहरणार्थ, ‘बजरंगबाण’ में हनुमानजी पर ऐसा ही अनुचित दबाव डाला गया है; जैसे- ‘इन्हें मारू, तोही सपथ राम की.’, ‘सत्य होहु हरि सपथ पाई कई.’, ‘जनकसुता-हरि-दास कहावै. ता की सपथ, विलम्ब न लावे..’, ‘उठ, उठ, चालू, तोही राम दोहाई’. इस तरह दबाव डालने से उपास्य देव प्रसन्न नहीं होते, उलटे नाराज होते हैं, जिसका पता बाद में लगता है. इसलिए मैं ‘बजरंगबाण’ के पाठ के लिये मना किया करता हूँ. ‘बजरंग बाण’ गोस्वामी तुलसीदासजी की रचना नहीं है. वे ऐसी रचना कर ही नहीं सकते।
  103. रामचरितमानस एक प्रासादिक ग्रन्थ है. जिसको केवल वर्णमाला कहा गया है, वह भी यदि अंगुली रखकर रामायण के एक-दो पाठ कर ले तो उसको पढना आ जायेगा. वह अन्य पुस्तकें भी पढ़ना शुरू कर देगा।
  104. रामायण के एक सौ आठ पाठ करने से भगवान के साथ विशेष संबंध जुड़ता है।
  105. रामायण का नवाह्न-पारायण आरम्भ होने पर सूआ-सूतक हो जाय तो कोई दोष नहीं लगता।
  106. रामायण का पाठ करने से बुद्धि विकसित होती है. रामायण का नावाह्न पाठ करने वाला विद्यार्थी कभी फेल नहीं होता।
  107. कमर दर्द आदि के कारण कोई लेटकर रामायण का पाठ चाहे तो कर सकता है. भाव का मूल्य है. भाव पाठ में रहना चाहिए, शरीर चाहे जैसे रहे।
  108. पुस्तक उल्टी नहीं रखनी चाहिए. इससे उसका निरादर होता है. सभी वस्तुएँ भगवत्स्वरूप होने से चिन्मय है. अतः किसी की वास्तु का निरादर नहीं करना चाहिए. किसी आदरणीय वास्तु का निरादर करने से वह वास्तु नष्ट हो जाती है. अथवा उसमें विकृति आ जाती है, यह मेरा अनुभव है. ब्रह्मलीन परमश्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज 🕉🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🕉
    : सुप्रभात मित्रों … ॐ नमः शिवाय !
    आज का दिन आप सभी के लिये शुभ हो। ❄गिर गाय का दूध व मूत्र स्वर्णयुक्त❄

कहा जाता है कि गिर गाय का दूध पीने से कभी भी कैंसर नहीं होता।
वास्तव मे देसी गाय की पीठ पर मोटा सा कुंम्भी होता है जिसमे सूर्यकेतु नाड़ी होती हैं,
जो सूर्य की किरणों के संपर्क मे आते ही अपने दूध मे स्वर्ण का प्रभाव छोड़ती हैं।
ये तत्व गाय के दूध मे मिल जाते हैं और इसीलिए ये दूध पीने से कैंसर कभी नहीं होता।

जांच मे पाया गया है कि इस गाय के दूध मे 8 प्रकार के प्रोटीन,
6 तरह के विटामिन,
21 तरह के एमिनो एसिड,
11 तरह के चर्बीयुक्त एसिड,
25 तरह के खनिज तत्त्व,
16 तरह के नाइट्रोजन यौगिक,
4 तरह के फास्फोरस यौगिक,
2 प्रकार की शर्करा पाई जाती है।
सिर्फ यही नहीं इसके अलावा मुख्य खनिज सोना, ताँबा, लोहा, कैल्शियम, आयोडीन, फ्लोरिन, सिलिकॉन भी गिर गाय के दूध मे पाए जाते हैं।

यह भी सिद्ध हुआ है कि गिर गाय के दूध से बिल्कुल भी कोलोस्ट्रॉल नहीं बढ़ता,
बल्कि इस दूध मे सभी तत्वों की उपलब्धता इसे टॉनिक समान बनाती है।

गिर गाय का दूध कई बीमारियों से भी बचाता है।
मानसिक रोगों, बेहोशी, भ्रम, हृदयरोग, रक्तपित्त, कैंसर जैसे ख़तरनाक रोगों से बचाता है।

गाय को शतावरी खिलाकर उस गाय का दूध रोज़ाना मरीज को पिलाने से टीबी की बीमारी ठीक हो जाती है।
गिर गाय का दूध इंसान को जवान बनाए रखता है।
इसका दूध इम्यूनिटी सिस्टम को भी मज़बूत बनाता है।

गिर गाय एक लैक्टेशन (दूध देने) चक्र के दौरान अधिकतम 5 हजार लीटर तक दूध दे सकती है,
जो कि औसतन 2000 से 2500 लीटर तक होता है।

अब तक तो सिर्फ प्राचीन ग्रंथों मे ही गाय के मूत्र में सोना होने की बात के प्रमाण मिलते थे लेकिन अब वैज्ञानिकों ने भी अपने विश्लेषण मे कहा है कि गाय के मूत्र मे सोना होता है।

गाय का दूध ही नहीं मूत्र भी अमृत होता है और इनके सेवन से आपके आसपास कोई बीमारी फटकती भी नहीं है
और आप स्वस्थ रहते हैं।
गौमूत्र की महत्ता की चर्चा तो पौराणिक कथाओं से लेकर वर्तमान मे आयुर्वेद तक होती रही है।

हमेशा से ये कहा जाता रहा है कि गौमूत्र मे न सिर्फ रोग विनाशक तत्व पाए जाते हैं बल्कि सोना भी पाया जाता है इसीलिए इसके सेवन से शरीर को रोग प्रतिरोधी क्षमता मिलती है।

गौमूत्र मे सोना पाए जाने की बात को अब तक भले ही अतिश्योक्ति माना जाता रहा हो लेकिन अब तो वैज्ञानिकों ने भी इस बात पर मुहर लगा दी है।

जूनागढ़ एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी (जेएयू) के वैज्ञानिकों ने अपने विश्लेषण के बाद पाया कि गाय के मूत्र मे सोने के कण होते हैं।
ये प्रयोग गिर की गायों पर किया गया था।

जूनागढ़ एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने गिर की 400 गायों के मूत्र के विश्लेषण के बाद पाया कि उसमें सोने के अंश हैं।
गाय के एक लीटर मूत्र मे 3 मिलीग्राम से लेकर 10 मिली ग्राम तक सोने के कण पाए गये।
ये सोना आयोनिक रूप मे मिला, जोकि पानी मे घुलनशील गोल्ड साल्ट है।

गाय के मूत्र मे पाए जाने वाले सोने को निकाला जा सकता है और केमिकल प्रक्रिया से उसे ठोस बनाया जा सकता है।
दिलचस्प बात ये है कि इन वैज्ञानिकों ने न सिर्फ गायों बल्कि भैंसों, भेड़ों और बकरियों के मूत्र के सैंपल का भी विश्लेषण किया
लेकिन सोना सिर्फ गाय के मूत्र मे ही मिला।
साथ ही इन जानवरों मे से सिर्फ गाय के मूत्र में ही एंटी-बायोटिक तत्व पाए गये।

गिर की गायों के मूत्र मे पाए गये 5100 तत्वों मे से 388 तत्व औषधीय रूप से जबर्दस्त कीमती हैं
और इनसे कई असाध्य बीमारियां ठीक हो सकती हैं। गिर की गायों के मूत्र के सैंपल का विश्लेषण करने के बाद अब जेएयू के वैज्ञानिक देश की सभी 39 देशी प्रजातियों की गायों के मूत्र के सैंपल्स का विश्लेषण करने वाले हैं।

!!ॐ सुरभ्यै नमः !!
तुलसीदास जी द्वारा बताए गये ये सात गुण आपको हर पीड़ा से बचा सकतें हैं।
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व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में अपने स्वभाव के अनुरूप ही कार्य करता है।
जैसे संकट के समय वह दुखी होता है, खतरे की स्थिति हो तो वो डरता हे और परिस्थितियां उसके अनुकूल हों तो स्वाभाविक है वो सुखी और संतुष्ट रहेगा।

हर कोई व्यक्ति अपने जीवन में खुश रहना चाहता है, वह अपने जीवन को शांति से व्यतीत करना चाहता है। दुख-परेशानियां अपने जीवन में कोई नहीं चाहता कि दुःख का समय उसके सामने आएं। लेकिन उसके चाहने या ना चाहने से कुछ नहीं होता। खुशियां या आनंद लेना तो अच्छी बात है लेकिन दुःख और परेशानियों का शोक करने से हम और कमजोर होते जाते हैं।

शोक से दूर होने के लिए हमारे शास्त्र और पौराणिक ग्रंथ हमें आत्मबल प्रदान करने का काम करते हैं और उनमें अंकित आदर्शों का हमें अनुशरण करना चाहिए।

गोस्वामी तुलसीदास जी के एक दोहे में आपको अपनी हर समस्या का समाधान मिल सकता है।
इसमें 7 ऐसे गुणों की बात कही गई है जो हर व्यक्ति के चरित्र में उपस्थित हैं व्यक्ति को किसी भी संकट से घबराना नहीं चाहिए। विशवास करें की कोई भी पीड़ा उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती।

दोहा इस प्रकार है…
तुलसी साथी विपत्ति के विद्या, विनय, विवेक। साहस सुकृति सुसत्याव्रत राम भरोसे एक।।

भावार्थ…
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखित इस दोहे में कहा गया है कि जिस व्यक्ति के पास विद्या, विनय, विवेक, साहस, सदकर्म, सच और ईश्वर का साथ होता है उसे किसी भी परस्थिति में भयभीत नहीं होना चाहिए।

आइए जानें कैसे ये गुण व्यक्ति के लिए रक्षक बन सकते हैं?

1- पहला गुण हैं विद्या यानि ज्ञान, जिसके पास यह विशेष गुण होता है वह अपनी बुद्धिमता से किसी भी कष्ट से मुक्त होने का उपाय निकाल लेता है। उसे कोई भी दुःख हरा नहीं पाता है। वो दुखों का समाधान निकालने में सक्षम होता है।

2- दूसरा गुण है विनय यानि अच्छा व्यवहार, विनम्रता का गुण। यदि आप दूसरों के लिए विनम्र रहते हैं तो शत्रु भी आपके मित्र बन जाते हैं। आपको कष्ट में डालने से पहले या आपके लिए षड्यंत्र करने से पहले वो दस बार सोचता है। साथ ही यदि आप किसी आपदा में हैं भी तो आपका ये गुण अन्य लोगों को आपकी सहायता करने के लिए विवश कर देता है।

3- तीसरा गुण हे विवेक या बुद्धि, जो व्यक्ति सोचने-समझने की शक्ति रखता है, जिसमें यह क्षमता है वह कभी-भी अपने लिए विपदा खड़ी नहीं होने देता। वह अपनी बुद्धिमता से पहले से ही परस्थितियों का अनुमान लगाकर उससे मुक्त होने का प्रयत्न करने लगता है, इसलिए उसे कोई समस्या घेर नहीं पाती।

4- चोथा गुण हे साहस, यह एकमात्र ऐसा गुण है जो किसी भी व्यक्ति को कठिन से कठिन परिस्थिति में भी हार मानने नहीं देता। इसके आधार पर आप बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को पार कर लेता हैं।

5- पांचवा गुण हे सुकृति यानि अच्छे कर्म करने वाले व्यक्ति को सदा शुभ फल मिलता है, ईश्वर भी उसका साथ देता है। जिसने कभी किसी का बुरा नहीं किया, जो सदा दूसरों के हित की सोचता है, उसे इसका शुभ परिणाम भले देर ही सही पर मिलता अवश्य है।

6- छठवा गुण हे सुसत्याव्रत यानि सच बोलने की आदत यह आदत व्यक्ति को सहज रूपसे खुला रखती है, उसके पास गुप्त रखने के लिए कुछ नहीं होता, इसलिए वह दुनिया के सामने जैसा है वैसा ही रहता है। यह उसके लिए प्रतिकूल परिस्थितियां नहीं बनने देता और अनेक प्रकार के दुखों से पहले ही बचा लेता है।

7- सातवा गुण हे राम भरोसे एक यानी ईश्वर के प्रति आस्था जिसे भी ईश्वर के प्रति आस्था हे उसको यह आदत हर मुश्किल से बचाती है। जब आप किसी ऐसी स्थिति में हों जहां से निकलना मुश्किल पड़ जाए तो सिर्फ ईश्वर के प्रति आपका विश्वास ही उसको बचाता है और उसे सही मार्ग पर ले जाता है।📚🖍🙏🙌

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: स्वास्तिक का महत्व!!!!!!!!!

किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पहले हिन्दू धर्म में स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर उसकी पूजा करने का महत्व है। मान्यता है कि ऐसा करने से कार्य सफल होता है। स्वास्तिक के चिन्ह को मंगल प्रतीक भी माना जाता है। स्वास्तिक शब्द को ‘सु’ और ‘अस्ति’ का मिश्रण योग माना जाता है। यहां ‘सु’ का अर्थ है शुभ और ‘अस्ति’ से तात्पर्य है होना। अर्थात स्वास्तिक का मौलिक अर्थ है ‘शुभ हो’, ‘कल्याण हो’।

यही कारण है कि किसी भी शुभ कार्य के दौरान स्वास्तिक को पूजना अति आवश्यक माना गया है। लेकिन असल में स्वस्तिक का यह चिन्ह क्या दर्शाता है, इसके पीछे ढेरों तथ्य हैं। स्वास्तिक में चार प्रकार की रेखाएं होती हैं, जिनका आकार एक समान होता है।

मान्यता है कि यह रेखाएं चार दिशाओं – पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण की ओर इशारा करती हैं। लेकिन हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह रेखाएं चार वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैं। कुछ यह भी मानते हैं कि यह चार रेखाएं सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा के चार सिरों को दर्शाती हैं।

इसके अलावा इन चार रेखाओं की चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चार लोक और चार देवों यानी कि भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश (भगवान शिव) और गणेश से तुलना की गई है। स्वास्तिक की चार रेखाओं को जोड़ने के बाद मध्य में बने बिंदु को भी विभिन्न मान्यताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है।

मान्यता है कि यदि स्वास्तिक की चार रेखाओं को भगवान ब्रह्मा के चार सिरों के समान माना गया है, तो फलस्वरूप मध्य में मौजूद बिंदु भगवान विष्णु की नाभि है, जिसमें से भगवान ब्रह्मा प्रकट होते हैं। इसके अलावा यह मध्य भाग संसार के एक धुर से शुरू होने की ओर भी इशारा करता है।

स्वास्तिक की चार रेखाएं एक घड़ी की दिशा में चलती हैं, जो संसार के सही दिशा में चलने का प्रतीक है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यदि स्वास्तिक के आसपास एक गोलाकार रेखा खींच दी जाए, तो यह सूर्य भगवान का चिन्ह माना जाता है। वह सूर्य देव जो समस्त संसार को अपनी ऊर्जा से रोशनी प्रदान करते हैं।

हिन्दू धर्म के अलावा स्वास्तिक का और भी कई धर्मों में महत्व है। बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हों को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं, स्वास्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।

वैसे तो हिन्दू धर्म में ही स्वास्तिक के प्रयोग को सबसे उच्च माना गया है लेकिन हिन्दू धर्म से भी ऊपर यदि स्वास्तिक ने कहीं मान्यता हासिल की है तो वह है जैन धर्म। हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा महत्व स्वास्तिक का जैन धर्म में है। जैन धर्म में यह सातवं जिन का प्रतीक है, जिसे सब तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते हैं। श्वेताम्बर जैनी स्वास्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते हैं।

सिंधु घाटी की खुदाई के दौरान स्वास्तिक प्रतीक चिन्ह मिला। ऐसा माना जाता है हड़प्पा सभ्यता के लोग भी सूर्य पूजा को महत्व देते थे। हड़प्पा सभ्यता के लोगों का व्यापारिक संबंध ईरान से भी था। जेंद अवेस्ता में भी सूर्य उपासना का महत्व दर्शाया गया है। प्राचीन फारस में स्वास्तिक की पूजा का चलन सूर्योपासना से जोड़ा गया था, जो एक काबिल-ए-गौर तथ्य है।

विभिन्न मान्यताओं एवं धर्मों में स्वास्तिक को महत्वपूर्ण माना गया है। भारत में और भी कई धर्म हैं जो शुभ कार्य से पहले स्वास्तिक के चिन्ह को इस्तेमाल करना जरूरी समझते हैं। लेकिन केवल भारत ही क्यों, बल्कि विश्व भर में स्वास्तिक को एक अहम स्थान हासिल है।

यहां हम विश्व भर में मौजूद हिन्दू मूल के उन लोगों की बात नहीं कर रहे जो भारत से दूर रह कर भी शुभ कार्यों में स्वास्तिक को इस्तेमाल कर अपने संस्कारों की छवि विश्व भर में फैला रहे हैं, बल्कि असल में स्वास्तिक का इस्तेमाल भारत से बाहर भी होता है। एक अध्ययन के मुताबिक जर्मनी में स्वास्तिक का इस्तेमाल किया जाता है।

वर्ष 1935 के दौरान जर्मनी के नाज़ियों द्वारा स्वास्तिक के निशान का इस्तेमाल किया गया था, लेकिन यह हिन्दू मान्यताओं के बिलकुल विपरीत था। यह निशान एक सफेद गोले में काले ‘क्रास’ के रूप में उपयोग में लाया गया, जिसका अर्थ उग्रवाद या फिर स्वतंत्रता से सम्बन्धित था।

लेकिन नाज़ियों से भी बहुत पहले स्वास्तिक का इस्तेमाल किया गया था। अमरीकी सेना ने पहले विश्व युद्ध में इस प्रतीक चिह्न का इस्तेमाल किया था। ब्रितानी वायु सेना के लड़ाकू विमानों पर इस चिह्न का इस्तेमाल 1939 तक होता रहा था।

लेकिन करीब 1930 के आसपास इसकी लोकप्रियता में कुछ ठहराव आ गया था, यह वह समय था जब जर्मनी की सत्ता में नाज़ियों का उदय हुआ था। उस समय किए गए एक शोध में बेहद दिलचस्प बात निकल कर सामने आई। शोधकर्ताओं ने माना कि जर्मन भाषा और संस्कृत में कई समानताएं हैं। इतना ही नहीं, भारतीय और जर्मन दोनों के पूर्वज भी एक ही रहे होंगे और उन्होंने देवताओं जैसे वीर आर्य नस्ल की परिकल्पना की।

इसके बाद से ही स्वास्तिक चिन्ह का आर्य प्रतीक के तौर पर चलन शुरू हो गया। आर्य प्रजाति इसे अपना गौरवमय चिन्ह मानती थी। लेकिन 19वीं सदी के बाद 20वीं सदी के अंत तक इसे नफ़रत की नज़र से देखा जाने लगा। नाज़ियों द्वारा कराए गए यहूदियों के नरसंहार के बाद इस चिन्ह को भय और दमन का प्रतीक माना गया था।

युद्ध ख़त्म होने के बाद जर्मनी में इस प्रतीक चिह्न पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और 2007 में जर्मनी ने यूरोप भर में इस पर प्रतिबंध लगवाने की नाकाम पहल की थी। माना जाता है कि स्वास्तिक के चिह्न की जड़ें यूरोप में काफी गहरी थीं।

प्राचीन ग्रीस के लोग इसका इस्तेमाल करते थे। पश्चिमी यूरोप में बाल्टिक से बाल्कन तक इसका इस्तेमाल देखा गया है। यूरोप के पूर्वी भाग में बसे यूक्रेन में एक नेशनल म्यूज़ियम स्थित है। इस म्यूज़ियम में कई तरह के स्वास्तिक चिह्न देखे जा सकते हैं, जो 15 हज़ार साल तक पुराने हैं।

लाल रंग ही क्यों???????

यह सभी तथ्य हमें बताते हैं कि केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के कोने-कोने में स्वास्तिक चिन्ह ने अपनी जगह बनाई है। फिर चाहे वह सकारात्मक दृष्टि से हो या नकारात्मक रूप से। परन्तु भारत में स्वास्तिक चिन्ह को सम्मान दिया जाता है और इसका विभिन्न रूप से इस्तेमाल किया जाता है। यह जानना बेहद रोचक होगा कि केवल लाल रंग से ही स्वास्तिक क्यों बनाया जाता है?

भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुमकुम के रूप में किया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को भी दर्शाता है। धार्मिक महत्व के अलावा वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाल रंग को सही माना जाता है।

लाल रंग व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। हमारे सौर मण्डल में मौजूद ग्रहों में से एक मंगल ग्रह का रंग भी लाल है। यह एक ऐसा ग्रह है जिसे साहस, पराक्रम, बल व शक्ति के लिए जाना जाता है। यह कुछ कारण हैं जो स्वास्तिक बनाते समय केवल लाल रंग के उपयोग की ही सलाह देते हैं।

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