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[ घुटनों का दर्द – उपाय 1
नीचे बताई गयी सामग्री को मिला कर हल्दी का एक दर्द निवारक पेस्ट बना लीजिये.

1 छोटा चम्मच हल्दी पाउडर
1 छोटा चम्मच पीसी हुई चीनी, या बूरा या शहद
1 चुटकी चूना (जो पान में लगा कर खाया जाता है)
आवश्यकतानुसार पानी
इन सभी को अच्छी तरह मिला लीजिये. एक लाल रंग का गाढ़ा पेस्ट बन जाएगा.

यह पेस्ट कैसे प्रयोग करें:-

सोने से पहले यह पेस्ट अपने घुटनों पे लगाइए. इसे सारी रात घुटनों पे लगा रहने दीजिये.
सुबह साधारण पानी से धो लीजिये.
कुछ दिनों तक प्रतिदिन इसका इस्तेमाल करने से सूजन, खिंचाव, चोट आदि के कारण होने वाला घुटनों का दर्द पूरी तरह ठीक हो जाएगा.
[ घुटनों का दर्द – उपाय 2
1 छोटा चम्मच सोंठ का पाउडर लीजिये और इसमें थोडा सरसों का तेल मिलाइए.
इसे अच्छी तरह मिला कर गाड़ा पेस्ट बना लीजिये.
इसे अपने घुटनों पर मलिए. इसका प्रयोग आप दिन या रात कभी भी कर सकते हैं.
कुछ घंटों बाद इसे धो लीजिये. यह प्रयोग करने से आपको घुटनों के दर्द में बहुत जल्दी आराम मिलेगा.
[ घुटनों का दर्द – उपाय 3
नीचे बताई गयी सामग्री लीजिये:-

4-5 बादाम
5-6 साबुत काली मिर्च
10 मुनक्का
6-7 अखरोट
प्रयोग:

इन सभी चीज़ों को एक साथ मिलाकर खाएं और साथ में गर्म दूध पीयें.
कुछ दिन तक यह प्रयोग रोजाना करने से आपको घुटनों के दर्द में आराम मिलेगा.
[ घुटनों का दर्द – उपाय 4
खजूर विटामिन ए, बी, सी, आयरन व फोस्फोरस का एक अच्छा प्राकृतिक स्रोत है. इसलिए, खजूर घुटनों के दर्द सहित सभी प्रकार के जोड़ों के दर्द के लिए बहुत असरकारक है.

प्रयोग:

एक कप पानी में 7-8 खजूर रात भर भिगोयें.

सुबह खाली पेट ये खजूर खाएं और जिस पानी में खजूर भिगोये थे, वो पानी भी पीयें. ऐसा करने से घुटनों की मांसपेशियां मजबूत होती हैं, और घुटनों के दर्द में बहुत लाभ मिलता है.
[घुटनों का दर्द – उपाय 5
नारियल भी घुटनों के दर्द के लिए बहुत अच्छी औषधी है.
नारियल का प्रयोग:
रोजाना सूखा नारियल खाएं.
नारियल का दूध पीयें.
घुटनों पर दिन में दो बार नारियल के तेल की मालिश करें.
इससे घुटनों के दर्द में अद्भुत लाभ होता है.
आशा है आपको इन आसान घरेलू उपायों की मदद से घुटनों के दर्द से छुटकारा मिलेगा और आपकी ज़िंदगी बेहतर हो सकेगी.
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🙏🏼 Health Is Wealth 🙏🏼
🙏🏻 सेहत नामा 🙏🏻
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Two things to check as often as you can~
(1) Your blood pressure
(2) Your blood sugar.

Four things to reduce to the minimum on your foods~
(1) Salt
(2) sugar
(3) diary products
(4) starchy products

Four things to increase in your foods~
(1) Greens/vegetables
(2) beans
(3) fruits
(4) nuts

Three things you need to forget~
(1) Your age 😮
(2) your past 🤔
(3) your grievances 👍🏽

Four things you must have, no matter how weak or how strong you are~
(1) Friends who truly love you
(2) caring family
(3) positive thoughts
(4) a warm home.

Five things you need to do to stay healthy~

(1) Fasting
(2) Smiling / laughing
(3)Exercise
(4) Eating right
(5) Reducing your weight.

Six things you don’t have to do~
(1) Don’t wait till you are hungry to eat
(2) Don’t wait till you are thirsty to drink
(3) Don’t wait till you are sleepy to sleep
(4) Don’t wait till you feel tired to rest
(5) Don’t wait till you get sick to go for medical check-ups otherwise you will only regret later in life.
(6) Don’t wait till you have problem before you pray to your God.
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जो भी लिखा, कही से पढ़ा,
सुना समझा, नेट से लिया लिख रहा हूँ।
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कृपया मैसेज को पढें और अपने दोस्तों को भेजे

ये जानना बहुत जरुरी है.!

हम पानी क्यों ना पीये खाना खाने के बाद.!
क्या कारण है.?
हमने दाल खाई,
हमने सब्जी खाई,
हमने रोटी खाई,
हमने दही खाया,
लस्सी पी, दूध, दही, छाझ, लस्सी, फल आदि.!
ये सब कुछ भोजन के रूप मे हमने ग्रहण किया
ये सब कुछ हमको उर्जा देता है
और पेट उस उर्जा को आगे ट्रांसफर करता है.!
पेट मे एक छोटा सा स्थान होता है
जिसको हम हिंदी मे कहते है “अमाशय”
उसी स्थान का संस्कृत नाम है “जठर”
उसी स्थान को अंग्रेजी मे कहते है
“epigastrium”
ये एक थेली की तरह होता है
और यह जठर
हमारे शरीर मे सबसे
महत्वपूर्ण है
क्योंकि सारा खाना सबसे पहले इसी मे आता है।
ये बहुत छोटा सा स्थान हैं
इसमें अधिक से अधिक 350gms खाना आ सकता है.!
हम कुछ भी खाते
सब ये अमाशय मे आ जाता है.!

आमाशय मे अग्नि प्रदीप्त होती है

उसी को कहते हे “जठराग्न”.!
ये जठराग्नि है
वो अमाशय मे प्रदीप्त होने वाली आग है ।
ऐसे ही पेट मे होता है
जेसे ही आपने खाना खाया
की जठराग्नि प्रदीप्त हो गयी..t
यह ऑटोमेटिक है,
जेसे ही अपने रोटी का पहला टुकड़ा मुँह मे डाला
की इधर जठराग्नि प्रदीप्त हो गई.!
ये अग्नि तब तक जलती हे जब तक खाना’ पचता है |

अब अपने खाते ही
गटागट पानी पी लिया
और खूब ठंडा पानी पी लिया.r

और कई लोग तो बोतल पे बोतल पी जाते है.!

अब जो आग (जठराग्नि) जल रही थी
वो बुझ गयी.!
आग अगर बुझ गयी
.तो खाने की पचने की जो क्रिया है
वो रुक गयी.!
You suffer from IBS,
Never CURABLE

अब हमेशा याद रखें
खाना जाने पर
हमारे पेट में दो ही क्रिया होती है,
एक क्रिया है
जिसको हम कहते हे
“Digestion”
और दूसरी है “fermentation” फर्मेंटेशन का मतलब है
सडना…!
और
डायजेशन का मतलब हे
पचना.!

आयुर्वेद के हिसाब से आग जलेगी
तो खाना पचेगा,
खाना पचेगा
तो उससे रस बनेगा.!
जो रस बनेगा
तो उसी रस से
मांस, मज्जा, रक्त, वीर्य, हड्डिया, मल, मूत्र और अस्थि बनेगा
और सबसे अंत मे मेद बनेगा.!

ये तभी होगा
जब खाना पचेगा.!

यह सब हमें चाहिए.
ये तो हुई खाना पचने की बात.
अब जब खाना सड़ेगा तब क्या होगा..?

खाने के सड़ने पर
सबसे पहला जहर जो बनता है
वो हे यूरिक एसिड (uric acid)

कई बार आप डॉक्टर के पास जाकर कहते है
की मुझे घुटने मे दर्द हो रहा है,
मुझे कंधे-कमर मे दर्द हो रहा है

तो डॉक्टर कहेगा आपका यूरिक एसिड बढ़ रहा है
आप ये दवा खाओ,
वो दवा खाओ यूरिक एसिड कम करो|
और एक दूसरा उदाहरण खाना

जब खाना सड़ता है,
तो यूरिक एसिड जेसा ही एक दूसरा विष बनता है
जिसको हम कहते हे
LDL (Low Density lipoprotive)
माने खराब कोलेस्ट्रोल (cholesterol)

जब आप
ब्लड प्रेशर(BP) चेक कराने
डॉक्टर के पास जाते हैं
तो वो आपको कहता है (HIGH BP)

हाई-बीपी है
आप पूछोगे…
कारण बताओ.?

तो वो कहेगा
कोलेस्ट्रोल बहुत ज्यादा बढ़ा हुआ है |

आप ज्यादा पूछोगे
की कोलेस्ट्रोल कौनसा बहुत है ?

तो वो आपको कहेगा
LDL बहुत है |

इससे भी ज्यादा
खतरनाक एक  विष हे
वो है…. VLDL
(Very Low Density Lipoprotive)

ये भी कोलेस्ट्रॉल जेसा ही विष है।
अगर VLDL बहुत बढ़ गया
तो आपको भगवान भी नहीं बचा सकता|

खाना सड़ने पर
और जो जहर बनते है
उसमे एक ओर विष है
जिसको अंग्रेजी मे हम कहते है triglycerides.!

जब भी डॉक्टर
आपको कहे
की आपका “triglycerides” बढ़ा हुआ हे
तो समज लीजिए
की आपके शरीर मे
विष निर्माण हो रहा है |

तो कोई यूरिक एसिड के नाम से कहे,
कोई कोलेस्ट्रोल के नाम से कहे,
कोई LDL -VLDL के नाम से कहे
समझ लीजिए
की ये विष हे
और ऐसे विष 103 है |

ये सभी विष
तब बनते है
जब खाना सड़ता है |

मतलब समझ लीजिए
किसी का कोलेस्ट्रोल बढ़ा हुआ है
तो एक ही मिनिट मे ध्यान आना चाहिए
की खाना पच नहीं रहा है ,

कोई कहता हे
मेरा triglycerides बहुत बढ़ा हुआ है
तो एक ही मिनिट मे डायग्नोसिस कर लीजिए आप…!
की आपका खाना पच नहीं रहा है |

कोई कहता है
मेरा यूरिक एसिड बढ़ा हुआ है
तो एक ही मिनिट लगना चाहिए समझने मे
की खाना पच नहीं रहा है |

क्योंकि खाना पचने पर
इनमे से कोई भी जहर नहीं बनता.!

खाना पचने पर
जो बनता है
वो है….
मांस, मज्जा, रक्त, वीर्य, हड्डिया, मल, मूत्र, अस्थि.!

और

खाना नहीं पचने पर बनता है….
यूरिक एसिड,
कोलेस्ट्रोल,
LDL-VLDL.!

और यही
आपके शरीर को
रोगों का घर बनाते है.!

पेट मे बनने वाला यही जहर
जब ज्यादा बढ़कर खून मे आते है !
तो खून दिल की नाड़ियो मे से निकल नहीं पाता
और रोज थोड़ा थोड़ा कचरा
जो खून मे आया है
इकट्ठा होता रहता है
और एक दिन नाड़ी को ब्लॉक कर देता है
जिसे आप
heart attack कहते हैं.!

तो हमें जिंदगी मे ध्यान इस बात पर देना है
की जो हम खा रहे हे
वो शरीर मे ठीक से पचना चाहिए
और खाना ठीक से पचना चाहिए
इसके लिए पेट मे
ठीक से आग (जठराग्नि) प्रदीप्त होनी ही चाहिए|

क्योंकि
बिना आग के खाना पचता नहीं हे
और खाना पकता भी नहीं है

महत्व की बात
खाने को खाना नहीं
खाने को पचाना है |

आपने क्या खाया कितना खाया
वो महत्व नहीं हे.!

खाना अच्छे से पचे
इसके लिए वाग्भट्ट जी ने सूत्र दिया.!

“भोजनान्ते विषं वारी”

(मतलब
खाना खाने के तुरंत बाद
पानी पीना
जहर पीने के बराबर है)

इसलिए खाने के
तुरंत बाद पानी
कभी मत पिये..!

अब आपके मन मे सवाल आएगा
कितनी देर तक नहीं पीना.?

तो 1 घंटे 48 मिनट तक नहीं पीना !

अब आप कहेंगे
इसका
क्या calculation हैं.?

बात ऐसी है….!

जब हम खाना खाते हैं
तो जठराग्नि द्वारा
सब एक दूसरे मे
मिक्स होता है
और फिर खाना पेस्ट मे बदलता हैं.!

पेस्ट मे बदलने की क्रिया होने तक
1 घंटा 48 मिनट का समय लगता है !

उसके बाद जठराग्नि कम हो जाती है.!

(बुझती तो नहीं लेकिन बहुत धीमी हो जाती है)

पेस्ट बनने के बाद
शरीर मे रस बनने की
परिक्रिया शुरू होती है !

तब हमारे शरीर को
पानी की जरूरत होती हैं।

तब आप जितना इच्छा हो
उतना पानी पिये.!

जो बहुत मेहनती लोग है
(खेत मे हल चलाने वाले,
रिक्शा खीचने वाले,
पत्थर तोड़ने वाले)

उनको 1 घंटे के बाद ही
रस बनने लगता है
उनको  घंटे बाद
पानी पीना चाहिए !

अब आप कहेंगे
खाना खाने के पहले
कितने मिनट तक पानी पी सकते हैं.?

तो खाना खाने के
45 मिनट पहले तक
आप पानी पी सकते हैं !

अब आप पूछेंगे
ये मिनट का calculation….?

बात ऐसी ही
जब हम पानी पीते हैं
तो वो शरीर के प्रत्येक अंग तक जाता है !

और अगर बच जाये
तो 45 मिनट बाद मूत्र पिंड तक पहुंचता है.!

तो पानी – पीने से मूत्र पिंड तक आने का समय 45 मिनट का है !

तो आप खाना खाने से
45 मिनट पहले ही
पाने पिये.!

इसका जरूर पालन करे..!

अधिक अधिक लोगो को बताएं.!
If you think that
It’s educating people
Then you may spread.
It’s all upto you…
[: कई रोगों से बचाता है मटके का पानी

गर्मी के दिन में प्यास बुझाने के लिए लोग ठंडा पानी पीते हैं. पानी ठंडा करने के लिए ज्यादातर लोग फ्रिज का इस्तेमाल करते हैं लेकिन कुछ लोग जो अपने शहर से दूर किराए पर कमरा लेकर रहते हैं या जो फ्रिज खरीदना अफोर्ड नहीं कर सकते उनके लिए तो मिट्टी का बना मटका ही देसी फ्रिज का काम करता है. मटके से सोंधी महक के पानी के कहने ही क्या हैं? इस पानी में जहां काफी स्वाद होता है वहीं स्वास्थ्य के लिहाज से भी यह बेहद अच्छा माना जाता है. आइए जानते हैं मटके के पानी के फायदे:
1.मटके के पानी में अलकलाइन गुण होते हैं जिससे इसका PH बैलेंस रहता है और यह पानी सेहत के लिहाज से भी काफी बेहतर होता है.

  1. मटके का पानी पीने से टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन जिसे कि मेल हार्मोन भी कहा जाता है का स्तर बढ़ता है.
  2. मटके का पानी पीने से पेट में जलन, कब्ज और एसिडिटी की समस्या भी नहीं होती है.
  3. रोज मटके का पानी पीने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी पॉवर) मजबूत होती है.
    ऐसे करें मटके की देखभाल:
  4. हर सप्ताह में दो बार मटका गर्म पानी से साफ़ करें. मटके की सफाई के बाद इसमें फ्रेश पानी भरें.
  5. मटके को एक स्टैंड कर रखें ताकि ये बहुत ज्यादा हिले नहीं.
  6. किसी सफ़ेद कॉटन के कपडे को गीला कर मटके का मुंह बांध कर रखें ताकि इसमें मिट्टी के कण प्रवेश न कर सकें. हो सके तो इसे ढंकने के लिए मिट्टी के ढक्कन का इस्तेमाल करें.
    : 🌸❇ रात्रि-भोजन का भगवान महावीर ने निषेध क्यों किया इस पर ओशो का दृष्टिकोण ❇

🌻सूर्योदय के साथ ही जीवन फैलता है। सुबह होती है, सोये हुए पक्षी जग जाते है, सोये हुए पौधे जग जाते है, फूल खिलने लगते है, पक्षी गीत गाने लगते हैं, आकाश में उड़ान शुरू हो जाती है। सारा जीवन फैलने लगता है। सूर्योदय का अर्थ है, सिर्फ सूरज का निकलना नहीं, जीवन का जागना जीवन का फैलना। सूर्यास्त का अर्थ है, जीवन का सिमटना, विश्राम में लीन हो जाना। दिन जागरण है, रात्रि निद्रा है। दिन फैलाव है, रात्रि विश्राम है। दिन श्रम है, रात्रि श्रम से वापस लौट आना है। सूर्योदय की इस घटना को समझ लें तो खयाल में आयेगा कि रात्रि—भोजन के लिए महावीर का निषेध क्यों है? क्योंकि भोजन है जीवन का फैलाव। तो सूर्योदय के साथ तो भोजन की सार्थकता है। शक्ति की जरूरत है। लेकिन सूर्यास्त के बाद भोजन की जरा भी आवश्यकता नहीं है। सूर्यास्त के बाद किया गया भोजन बाधा बनेगा, सिकुड़ाव में, विश्राम में। क्योंकि भोजन भी एक श्रम है।

आप भोजन ले लेते है तो आप सोचते हैं, काम समाप्त हो गया। गले के नीचे भोजन गया तो आप समझे कि काम समाप्त हो गया। गले तक तो काम शुरू ही नहीं होता, गले के नीचे ही काम शुरू होता है। शरीर श्रम में लीन होता है। भोजन देने का अर्थ है शरीर को भीतरी श्रम में लगा देना। भोजन देने का अर्थ है कि अब शरीर का रोया—रोया इसको पचाने में लग जायेगा।

तो अगर आपकी निद्रा क्षीण हो गयी है, अगर रात विश्राम नहीं मिलता, नींद नहीं मालूम पड़ती, स्‍वप्‍न ही स्‍वप्‍न मालूम पड़ते है, करवट ही करवट बदलनी पड़ती है, उसमें से अस्सी प्रतिशत कारण तो शरीर को दिया गया काम है जो रात में नहीं दिया जाना चाहिए। तो एक तो भोजन देने का अर्थ है, शरीर को श्रम देना। लेकिन जब सूरज उगता है तो आक्सीजन की, प्राणवायु की मात्रा बढ़ती है। प्राण वायु जरूरी है श्रम को करने के लिए। जब रात्रि आती है, सूर्य डूब जाता है तो प्राण वायु का औसत गिर जाता है हवा में। जीवन को अब कोई जरूरत नहीं है। कार्बन डाइआक्साइड़ का, कार्बन द्वि औषद की मात्रा बढ़ जाती है जो कि विश्राम के लिए जरूरी है। जानकर आप हैरान होंगे कि आक्सिजन जरूरी है भोजन को पचाने के लिए। कार्बन द्वि औषद के साथ भोजन मुश्किल से पचेगा।

मनोवैज्ञानिक अब कहते है कि हमारे अधिकतर दुख स्वप्‍नों का कारण हमारे पेट में पड़ा हुआ भोजन है। हमारी निद्रा की जो अस्त—व्यस्तता है, अराजकता है, उसका कारण पेट में पड़ा हुआ भोजन है। आपके सपने अधिक मात्रा में आपके भोजन से पैदा हुए है। आपका पेट परेशान है। काम में लीन है। दिन भर चुक गया। काम का समय बीत गया और अब भी आपका पेट काम में लीन है। बाकी हम तो अदभुत लोग हैं। हमारा असली भोजन रात में होता है, बाकी तो दिन भर हम काम चला लेते है। जो असली भोजन है, बडा भोजन डिनर, वह हम रात में लेते हैं। उससे ज्यादा दुष्टता शरीर के साथ दूसरी नहीं हो सकती।

इसलिए अगर महावीर ने रात्रि भोजन को हिंसा कहां है तो मै कहता हूं कीड़े—मकोड़ों के मरने के कारण नहीं, अपने साथ हिंसा करने के कारण आत्म—हिंसा है। आप अपने शरीर के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं। स्व—अवैज्ञानिक है। भोजन की जरूरत है सुबह, सूर्य के उगने के साथ। जीवन की आवश्यकता है, शक्ति की आवश्यकता है। श्रम होगा, शक्ति चाहिए। विश्राम होगा, शक्ति नहीं चाहिए। पेट सांझ होते—होते, होते—होते मुक्त हो जाये भोजन से, तो रात्रि शांत होगी, मौन होगी, गहरी होगी। निद्रा एक सुख होगी और सुबह आप ताजे उठेंगे, रात्रि भर भी आपके पेट को श्रम करना पड़े तो सुबह आप थके मांदे उठेंगे।

इसके और भी गहरे कारण हैं। आपने खयाल किया होगा, जैसे ही पेट में भोजन पड़ जाता है वैसे ही आपका मस्तिष्क ढीला हो जाता है। इसलिए भोजन के बाद नींद सताने लगती है। लगता है लेट जाओ। लेट जाने का मतलब यह है कि कुछ मत करो अब। क्यों? क्योंकि सारी ऊर्जा शरीर की पेट को पचाने के लिए दौड़ जाती है। मस्तिष्क बहुत दूर है पेट से। जैसे ही पेट में भोजन पड़ता है, मस्तिष्क की सारी ऊर्जा पेट में पचाने को आ जाती है। ये वैज्ञानिक तथ्य है। इसलिए आंख झपकने लगती है और नींद मालूम होने लगती है। इसलिए उपवासे आदमी को रात में नींद नहीं आती। दिन भर उपवास किया हो तो रात में नींद नहीं आती। क्योंकि सारी ऊर्जा मस्तिष्क की तरफ दौड़ती रहती है तो नींद नहीं आ पाती। इसलिए, जैसे ही आप पेट भर लेते हैं तत्काल नींद मालूम होने लगती है। यह भरे पेट में नींद इसलिए मालूम होती है कि मस्तिष्क को जो ऊर्जा दी गयी थी, वह पेट ने वापस ले ली।

पेट जड़ है। पेट पहली जरूरत है। मस्तिष्क विलास है, लक्ज़री है। जब पेट के पास ज्यादा ऊर्जा होती है तब वह मस्तिष्क को दे देता है। नहीं तो पेट में ही मस्तिष्क की ऊर्जा घूमती रहती है।

महावीर ने कहां है, दिन है श्रम, रात्रि है विश्राम, ध्यान भी है विश्राम। इसलिए पूरी रात्रि ध्यान बन सकती है, अगर थोड़ा—सा शरीर के साथ समझ का उपयोग किया जाये। अगर रात्रि पेट में भोजन पड़ा है तो रात्रि ध्यान नहीं बन सकती, निद्रा ही रह जायेगी। 🍂🍃

ओशो

🌹🌹🙏🌹🌹
[ 🌸खूबसूरती के तीन पुराने साथी पुदीना-आलू-टमाटर

  1. महकता पुदीना आपको मुंहासों की समस्या से मुक्ति दिला सकता है। पुदीना पेस्ट में चंदन पाउडर और मुल्तानी मिट्टी मिलाकर चेहरे पर लगाएं। सूखने पर धो लें। इसका नियमित इस्तेमाल पिम्पल्स दूर करने में सहायक है।
  2. आलू की पतली स्लाइसें आंखों पर रखने से थकी आंखों को राहत मिलती है। कच्चे आलू का रस आंखों के डार्क सर्कल्स दूर करता है। आलू उबालने के बाद बचा पानी फेंकिए नहीं, बल्कि इसमें कुछ देर हाथ डुबोकर रखें, फिर साफ पानी से धोएं। आपके हाथ साफ व मुलायम हो जाएंगे।
  3. टमाटर के रस में नींबू का रस मिलाकर लगाने से खुले रोम छिद्रों की समस्या दूर होती है। तैलीय त्वचा होने पर टमाटर को आधा काटकर चेहरे पर रगड़ें। कुछ देर बाद चेहरा धोकर पोंछ लें। ऐसा करने से अतिरिक्त तैलीयता दूर होती है।
    🍂🍃
    [: कैल्शियम हड्डियों की मजबूती के लिए जरूरी है। यह रक्त के थक्के जमने (ब्लड क्लॉटिंग) में भी मदद करता है। यह शरीर के विकास और मसल बनाने में भी सहायक होता है। हरी सब्जियां, दही, बादाम और पनीर इसके मुख्य स्रोत हैं।

कैल्शियम की कमी को हायपोकैल्शिमिया भी कहा जाता है। यह तब होता है, जब आपके शरीर को पूरी मात्रा में कैल्शियम नहीं मिलता। जिनके शरीर में कैल्शियम की कमी हो, उन्हें अपने आप दवा नहीं लेनी चाहिए और ज्यादा मात्रा में फूड सप्लीमेंट भी नहीं लेने चाहिए। डॉक्टर से सलाह लें और सेहतमंद खानपान के साथ ही सप्लीमेंट लें। उम्र बढ़ने के साथ कैल्शियम की कमी आम बात है। शरीर का ज्यादातर कैल्शियम हड्डियों में संचित होता है। उम्र बढ़ने के साथ हड्डियां पतली और कम सघन हो जाती हैं। ऐसे में शरीर को कैल्शियम की जरूरत पड़ती है। कैल्शियम के स्रोत वाली वस्तुएं खाते रहने से इसकी कमी पूरी की जा सकती है।

उन्होंने कहा कि भूखे रहने और कुपोषण, हार्मोन की गड़बड़ी, प्रिमैच्योर डिलीवरी और मैलएब्जरेब्शन की वजह से भी कैल्शियम की कमी हो सकती है। मैलएब्जरेब्शन उस स्थिति को कहते हैं, जब हमारा शरीर उचित खुराक लेने पर भी विटामिन और मिनरल को सोख नहीं पाता।

कैल्शियम की कमी के कुछ लक्षण :-

मसल क्रैम्प : शरीर में होमोग्लोबिन की पर्याप्त मात्रा रहने और पानी की उचित मात्रा लेने के बावजूद अगर आप नियमित रूप से मसल क्रैम्प (मांस में खिंचाव या ऐंठन) का सामना कर रहे हैं तो यह कैल्शियम की कमी का संकेत है।

लो बोन डेनस्टिी : जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, कैल्शियम हड्डियों की मिनरलेजाइशन के लिए जरूरी होता है। कैल्शियम की कमी सीधे हमारी हड्डियों की सेहत पर असर करती है और ऑस्टियोपोरोसिस व फ्रैक्चर का खतरा बढ़ सकता है।

कमजोर नाखून : नाखून के मजबूत बने रहने के लिए कैल्शियम की जरूरत होती है, उसकी कमी से वह भुरभुरे और कमजोर हो सकते हैं।

दांत में दर्द : हमारे शरीर का 90 प्रतिशत कैल्शियम दांतों और हड्डियों में जमा होता है उसकी कमी से दातों और हड्डियों का नुकसान हो सकता है।

मासिक धर्म में दर्द : कैल्शियम की कमी वाली महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान काफी तीव्र दर्द हो सकता है, क्योंकि मांसपेशियों के काम करने में कैल्शियम अहम भूमिका निभाता है।

एम्युनिटी में कमी : कैल्शियम शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखता है। कैल्शियम की कमी होने पर शरीर में पैथगॉन अटैक से जूझने की क्षमता कम हो जाती है।

नाड़ी की समस्याएं : कैल्शियम की कमी से न्यूरोलॉजिक्ल समस्याएं, जैसे कि सिर पर दबाव की वजह से सीजर और सिरदर्द हो सकता है। कैल्शियम की कमी से डिप्रेशन, इनसोमेनिया, पर्सनैल्टिी में बदलाव और डेम्निशिया भी हो सकता है।

धड़कन : कैल्शियम दिल के बेहतर काम करने के लिए आवश्यक है और कमी होने पर हमारे दिल की धड़कन बढ़ सकती है और बेचैनी हो सकती है। कैल्शियम दिल को रक्त पम्प करने में मदद करता है।

अगर आप इनमें से किसी लक्षण का सामना कर रहे हैं तो अपने डॉक्टर से संपर्क करें, वह रक्त जांच की सलाह देगा। इसका इलाज कैल्शियम युक्त भोजन खाना और पौष्टिक सप्लीमेंट लेना है।
यह हमेशा ध्यान रखे

1) निम्बू-मिर्च खाने के लिये भी है.. वही इसको टाँगने से नकारात्मक उर्जा नहीं आती है ।

2) बिल्लियाँ जंगली या पालतू जानवर है, बिल्ली के रास्ता काटने से गलत होता.है , यह ईश्वर की तरफ से अनहोनी होने का सूचक है । प्रकृति स्वयं बोलती है । . साथ ही चूहों से होनेवाले नुक्सान को बिल्ली पालकर बचाया जा सकता है।
बिल्ली का रोना अशुभ होता है । ईश्वर अगाह करता है किसी की मोत होने वाली है ।
.
3) छींकना एक नैसर्गिक क्रिया है, अचानक एक छींक आने से कुछ अनहोनी होती है इसकी सूचना है । यह काम में बाधा डालती है। छींकने से शरीर की सोई हुई मांसपेशियां सक्रिय हो जाती है। पानी ने के बाद किसी कार्य के लिए जाना चाहिए ।

4) भूत पेड़ों पर रहते है । इसलिए वृक्ष के नीचे पेशाब व शोच नहीं करना चाहिए। अन्यथा प्रेत यानी नकारात्मक उर्जा शरीर पर लग जाती है ।
वृक्ष मे ईश्वर का भी वास होता है , विभिन्न यक्षिणिया निवास करती है ।

5) मनुष्य का पैदा होना चमत्कार है ।
पागल पैदा होना, विकलांग पैदा होना, विक्षिप्त पैदा होना चमत्कार है । चमत्कार जैसी कोई चीज होती है । ईश्वर है । मनुष्य की मशीन चल रही है, यह चमत्कार है । जीव जन्तुओं का धीरे धीरे बढना, चमत्कार है । कोई भी घटना के पीछे ईश्वर का चमत्कार होता है

6) भोपा, तंत्रिक, बाबा जैसे लोग पिछले जन्म के साधक होते है, जिन्हें शारारिक मेहनत कम करना होती है । ये वही लोग है। क्योंकि पिछले जन्म मे ऎसे लोग पुण्य कमाकर आते हैं। । यही प्रारब्ध है ।

7) जादू टोणा, या किसी ने कराया ऐसा सब कुछ होता, ये दुर्बल लोगोंके मानसिक विकार नहीं है।
जादू-टोणा करके आपके ग्रहो की दिशा बदलने वाले बाबा, हवा और मेघों की दिशा बदलकर बारिश ला सकते है । सब कुछ सम्भव है परन्तु मनुष्य पाप कर्म करना कब बन्द करेगा ।
पाप कर्म करोगे तो कष्ट तो भुगतना होगा । कलयुग को विज्ञान रॊक नहीं सकता । तो आध्यात्म से वर्षा क्यो कराये ।
मनुष्य सनातन धर्म के नियम कानून को तोडता जा रहा है इसलिए सजा मिल रही है ।

8 ) वास्तुशास्त्र एक शास्त्र है । यह भ्रामक नहीं है। सिर्फ दिशाओ का डर दिखाकर लूटने का तरीक़ा नही है। वास्तविक तो पृथ्वी ही खुद हर क्षण अपनी दिशा बदलती है। परन्तु मकान की दिशा नहीं बदलती है ।
यदि पृथ्वी अपनी दिशा बदलती तो चुम्बकीय शक्ति भी बदलती
चुम्बक की सुई नही बदलती है । कुबेर जी उत्तर दिशा में है यह निश्चित है ।
एक ही स्थान या दिशा में अमीर और गरीब दोनों इसलिए पाये जाते है की प्रत्येक मनुष्य का प्रारब्ध कर्म अलग-अलग होता है ।

9) मन्नत के लिये बलि, टिप या चढ़ावे से भगवान प्रसन्न होकर फल देते है, । यह दान होता है । दान देने से पाप कटते है । दुआ मिलती है । मनुष्य को आशिर्वाद मिलता है । सुकुन मिलता है । सुख मिलता है
आनन्द मिलता है ।
आध्यात्म मोक्ष के लिए है, परिवार चलाने के लिए , जीवन चलाने के लिए उदर पूर्ति के लिए धन कमाना चाहिए चाहे आध्यात्म क्यों न हो ।
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१) आनेवाले मंगलवार 16 जुलाई 2019 की देर रात्री यानि 17 जुलाई शुरु होगी तब रात मे 01.32 से रात्री 04.30 तक चंद्रग्रहण है ..
आध्यात्मिक क्षेत्र मे ग्रहण काल का अत्यंत महत्त्व है ..

२) सबसे पहले इसके पिछे के भौगोलिक घटना को देखे
चन्द्रमा और सूर्यके बीच में पृथ्वीके आ जाने को ही चन्द्र ग्रहणकहते हैं। चंद्र ग्रहण तब होता है, जब सूर्य व चन्द्रमा के बीच पृथ्वी इस प्रकार से आ जाती है कि पृथ्वी की छाया से चन्द्रमा का पूरा या आंशिक भाग ढक जाता है। जब इस स्थिति में पृथ्वी सूर्य की किरणों के चन्द्रमा तक पहुँचने में अवरोध लगा देती है तो पृथ्वी के उस हिस्से में चन्द्र ग्रहण नज़र आता है। इस ज्यामितीय प्रतिबंध के कारण चन्द्र ग्रहण केवल पूर्णिमा की रात्रि को घटित हो सकता है।
चन्द्रमा और सूर्यके बीच में पृथ्वीके आ जाने को ही चन्द्र ग्रहणकहते हैं। चंद्र ग्रहण तब होता है, जब सूर्य व चन्द्रमा के बीच पृथ्वी इस प्रकार से आ जाती है कि पृथ्वी की छाया से चन्द्रमा का पूरा या आंशिक भाग ढक जाता है। जब इस स्थिति में पृथ्वी सूर्य की किरणों के चन्द्रमा तक पहुँचने में अवरोध लगा देती है तो पृथ्वी के उस हिस्से में चन्द्र ग्रहण नज़र आता है। इस ज्यामितीय प्रतिबंध के कारण चन्द्र ग्रहण केवल पूर्णिमा की रात्रि को घटित हो सकता है।

3) आध्यात्मिक दृष्टीकोण से पृथ्वी मंडल पर तीन मंडलो का प्रभाव सबसे ज्यादा है और पृथ्वी मंडल की सारी आध्यात्मिक उर्जा का स्त्रोत भी यही तीन मंडल है .. सुर्यमंडल , चंद्रमंडल और अग्नी मंडल .. सुर्य की उर्जा एक तो सिधी पृथ्वी पर आती है ..तथा सूर्य की उर्जा चंद्रमा पर जाकर फिर परावर्तित होकर पृथ्वी पर आती है .. और चंद्रमा सूर्य की उर्जा को अपनी अमृत कला के माध्यम से अमृतमयी बनाकर पृथ्वी मंडल पर भेजता है .. चंद्रमंडल की इसी अमृतमयी उर्जा के कारण पृथ्वी पर सब तरह की औषधी तत्व का निर्माण होता है .. चंद्रमा का मन पर प्रभाव होने के कारण इसी चंद्रमंडल की उर्जा के कारण creativity का निर्माण होता है ..सौंदर्य , मातृत्व , प्रेम , स्वप्न , कला , संगीत , साहित्य , नृत्य , कोइ भी सृजनशील चीज यह सब इसी चंद्रमंडल के प्रभाव से होती है .. वनस्पती और द्रव्य पदार्थ इन पर भी इसका ही प्रभाव होता है ..जिन व्यक्तीयो पर चंद्रमंडल का प्रभाव होता है वे हमेशा कलाकार , साहित्यकार , सृजनशील होते है .. चंद्रमा को जब ग्रहण लगता है तो यह चंद्रमंडल की अमृतमयी उर्जा पृथ्वी मंडल पर आ नही सकती .. और इसके कारण औषधी तत्व कम हो जाता है ..सकारात्मक उर्जा का निर्माण रुकने से अपने आप नकारात्मक उर्जा का निर्माण पृथ्वी मंडल पर हो जाता है .. ईश्वरी शक्ती ने इसलिये इस कमी को पूरी करने हेतु ग्रहण काल मे आध्यात्मिक उर्जा का अनुसंधान करने के लिये इस ग्रहण काल की साधना को सौ गुना ज्यादा फल दिया है .. ताकि कम समय मे अधिकतम मात्रा मे आध्यात्मिक उर्जा का निर्माण हो और नकारात्मक उर्जा का नाश हो .. और फिर जैसे ब्रम्हाण्ड मे सौ गुना ज्यादा आध्यात्मिक उर्जा का निर्माण होगा वैसे ही साधक को भी उस आध्यात्मिक साधना का सौ गुना ज्यादा फल प्राप्त होता है .. ग्रहण काल मे यदि आप एक माला मंत्र जप करेंगे तो आपको कई गुना ज्यादा माला मंत्र जाप का फल प्राप्त होगा .. अगर ग्रहण मे आप एक बार तिर्थो मे स्नान करेंगे तो सौ तिर्थो का स्नान का फल मिलेगा .. ग्रहण काल मे आप एक रुपया दान दे तो आपको कई गुना ज्यादा दान का फल मिलेगा .. ग्रहण काल मे यदि आप कोइ शक्तिपात दिक्षा प्राप्त करते हो तो आपको कई गुना ज्यादा दिक्षाओ का फल प्राप्त होगा .. इसलिये ग्रहण काल मे मंत्र जप , पूजा , स्तोत्र पाठ , हवन , तिर्थ स्नान , दिक्षा , दान इन चिजो का बहुत महत्त्व है ..

4 ) “माया तंत्रम ” यह तंत्र क्षेत्र का अनुपम प्राचीन ग्रंथ है .. इसमे ग्रहण काल का आध्यात्मिक महत्त्व विस्तार से दिया है .. इसके पंचम पटल मे लिखा है
अ ) ” सुर्य -इंदु पर्व सदृश्य: कलौ नास्तु महीतले , यदि वा लभ्यते देवि बहुभि: पुण्यसंचयै : !! ”
— अर्थात कलियुग मे पृथ्वी पर जाप के लिये चंद्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण की अपेक्षा कोइ अधिक श्रेष्ठ काल नही है .. यदि अनेक पुण्यो के फल स्वरुप भगवती दुर्गा के मंत्र साधक को प्राप्त होता है तो उसे चंद्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण काल मे जप करे ..
ब ) ऱवि वा इंदु ग्रहणे पृथ्व्यां जपतुल्यो न च क्रिया !
तस्मात सर्व परित्यज्य जपमात्रं समाचरेत !!
— पृथ्वी पर चंद्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण के काल मे जप की अपेक्षा उत्कृष्टतर कार्य और कुछ भी नही है .. अत: समस्त कार्योका परित्याग कर चंद्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण के समय केवल जप करते रहे ..

क ) तस्माद यत्नेन कर्तव्यम ग्रहणे जप पूजनम
— अर्थात सर्व प्रयत्न से ग्रहण काल मे जप एवं पुजन करे
ड ) मायातंत्रम मे ग्रहण काल के महत्त्व को बताते हुये लिखा है की ग्रहण काल मे सुषुम्ना नाडी जागृत हो जाती है .. इसिलिये
” सुषुम्नान्ते तथैवासो दृश्यते जगनंदिनि ! मनस्तत्रैव संयोज्य ध्यात्वा त्वं परमादभूतम !!
— अर्थात सुषुम्ना के मध्य मे मन का संयोग करके भगवती का ध्यान करते हुये एकाग्रचित्त से भगवती का मंत्र जप करते रहे ..

सहस्त्रारे महापद्मे चंद्रस्तिष्ठति सर्वदा ! मूलाधारे महेशानि स्वयं सूर्य: प्रकाशते !!
अर्थात सहस्त्रार मे चंद्रमा और मूलाधार मे सुर्य प्रकाशमान है ..

” चंद्रग्रहण देवि यदा भवति बाह्यत: ! तदैव सहसा देवि सहस्त्रारे मनो न्यसेत !!”
— जब भी बाहर आकाश मे चंद्रग्रहण हो तब उस समय सहस्त्रार मे मन को निबद्ध करे .. और परम एकाग्रता के साथ जप करते रहे ..

“सुषुम्ना च नदी यत्र साक्षाद ब्रम्हस्वरुपिणी ”
सुषुम्ना नदीरुपिणी एवं साक्षात ब्रम्हस्वरुपिणी है ..
” हरिन्त चंचलापांगि मानुषास्त्वधमा कुत: ! कलिकालस्य लोकेषु भारते वरवर्णिनि !!
नाना दोषा: प्राजायंते अतो नैव च सिद्धति !
चंद्रसूर्यग्रहे देवि लोका भारतवासिन: ”
अर्थात कलियुग मे भारतवर्षिय लोग नाना प्रकार के दोषो से कलुषित हो गये .. अत: उनके मंत्रो की सिद्धी नही होती .. किंतु चंद्रग्रहण या सूर्यग्रहण के काल मे यदि भारतवर्षिय जनगण यथाविहित विधान से भक्ति के साथ मंत्र का जाप करते है तो वे निश्चय ही सिद्धिलाभ करते है ..

6 ) एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक व्यक्ती का यह मानना है की जो चीज चंद्रमा के एक पूर्ण चक्र के दौरान 28 दिन मे होती है वही चीज चंद्रग्रहण के दौरान ग्रहण के 2-3 घंटे के भीतर सूक्ष्म रूप से घटीत होती है .. पृथ्वी की उर्जा गलती से इस ग्रहण को चंद्रमा का एक पूर्ण चक्र समझ लेती है .. और आध्यात्मिक स्तर पर अगर हम ध्यान के स्तर पर जाकर अनुभव करे तो चंद्रमा की सारी कलाये इन तीन घंटो के ग्रहण काल मे पूर्ण रूप से अनूभूत कर सकते है ..

7 ) यदि आप ग्रहण काल जितनी माला मंत्र जाप कर ले तो आपको उससे कई गुना मंत्र जाप का फल मिलेगा .. इसलिये एक अच्छे समझदार साधक को ग्रहण काल को व्यर्थ नही गवाना चाहिये .. अगर वह किसी सिद्ध स्थान पर या तिर्थ पर किसी नदी किनारे या मंदिर मे जाप करे तो अतिश्रेष्ठ .. लेकिन अगर घर मे भी करे तो कोइ प्रॉब्लेम नही ..

8 ) ग्रहण काल शुरु होने से पहले ही सारी पूजन या हवन की तयारी करके रखे ताकि आपको बिचमे उठना ना पडे और ग्रहण काल के एकेक मिनिट का महत्त्व है यह बात सदैव ध्यान मे रखे .. स्नान करके ही ग्रहण काल की साधना मे बैठे और ग्रहण काल खत्म होने के बाद फिर स्नान करे ..

9) जैसे ही ग्रहण काल शुरु हो आप साधना शुरु करे ..
१) आप चाहे तो किसी एक मंत्र का पूरे ग्रहण काल मे जाप कर सकते है ..
२) नही तो आप आपको जितने मंत्र गुरु के द्वारा प्राप्त हो उतने मंत्रो का थोडा थोडा जाप करे .
३) किसी एक देवता की साधना करे .. पूरे ग्रहण काल मे उस देवता का पूजन , मंत्र जाप , हवन , स्तोत्र पाठ इ. जो भी हो जितना भी हो करे ..
४) जो लोग साधना करने मे असमर्थ हो वे तिर्थ स्नान और दान करे
५) सबसे श्रेष्ठ है ग्रहण काल मे अपने आध्यात्मिक गुरु के सान्निध्य मे साधना करे और उनसे किसी दुर्लभ और श्रेष्ठ शक्तिपात दिक्षा प्राप्त करे .. यही ग्रहण काल की सबसे श्रेष्ठ साधना है .. लेकिन सामान्यत: ग्रहण काल दिन मे हो तो यह संभव हो सकता है .. अगर आपके जीवन मे कभी ग्रहण काल मे सदगुरु के सान्निध्य मे साधना और विशेष दिक्षा का योग आये तो वह जीवन का सर्वश्रेष्ठ अवसर होगा .. उसे गलती से भी खोना मत ..

10) साधक चाहे तो ग्रहण काल मे सिर्फ गुरु मंत्र का भी जाप कर सकता है .. वैसे देखा जाये तो ग्रहण काल मे भगवती के किसी भी स्वरुप की साधना करनी चाहिये ..दस महाविद्या की साधना सबसे श्रेष्ठ है .. अगर आप को महविद्या दिक्षा या मंत्र प्राप्त ना हो तो आप भगवती दुर्गाजी की साधना करे .. नवार्ण मंत्र या दुर्गा अष्टाक्षरी मंत्र का जाप करे .. चंद्रग्रहण मे विद्या प्राप्ती के लिये साधना करना सबसे श्रेष्ठ है .. किसी भी विद्या की प्राप्ती हेतु .. अगर छोटे बच्चे इस ग्रहण काल मे सरस्वती मंत्र या भुवनेश्वरी मंत्र का जाप करे तो वे विद्याभ्यास मे बहुत आगे बढेंगे ..
11) जीवन मे कोइ भी बडी समस्या हो तो ग्रहण काल मे साधना जरुर करे .. यह समय बार बार नही आता .. एक साल मे ज्यादा से ज्यादा तीन ग्रहण आते है .. कभी कभी तो एक भी ग्रहण नही आता .तो इस चंद्रग्रहण के अवसर को खोना मत .. अगर आप साल भर भी साधना ना करे लेकिन ग्रहण काल मे करे तो भी चलेगा .
12) अगर आपको सदगुरु के द्वारा कोइ विशेष मंत्र प्राप्त हुवा नही है तो आप ग्रहण काल मे निम्न किसी एक मंत्र का जाप कर सकते है ..

१) नवार्ण मंत्र :-
ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे
( उच्चारण ऐम ह्रीम क्लीम चामुंडायै विच्चे )

२) दुर्गा अष्टाक्षरी मंत्र :-
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नम:

३) भुवनेश्वरी मंत्र :-
ॐ ह्रीं नम: ( ॐ ह्रीम नम:)

४ ) विद्यार्थी के लिये :-
ऐम ह्रीम श्रीम

५) महाकाली मंत्र :- .
ॐ क्रीम क्रीम क्रीम ॐ

13) महाविद्याओ मे चंद्रग्रहण काल मे महाकाली या भुवनेश्वरी की साधना करना श्रेष्ठ है .. भुवनेश्वरी रहस्य मे चंद्रग्रहण के अवसर पर एक विशेष भुवनेश्वरी साधना का वर्णन है ..
वैसे इस आनेवाले चंद्रग्रहण के पर्व पर जो ग्रह स्थिती बन रही है उसके अनुसार साधक महाकाली या भुवनेश्वरी साधना करे तो ज्यादा बेहतर .. फिर भी सदगुरु जिस साधना को करने का निर्देश दे वही करे ..

14) इस बार मंगलवार 16 जुलाई की देर रात यानि अंग्रेजी तारीख के हिसाब से 17 जुलाई शुरु होगी लगबग 1.30 बजे से रात 4.30 बजे तक ग्रहण पर्व काल है .. यह लगबग 3 घंटे की कालावधी का ग्रहण काल है ..आप इस अति दुर्लभ आध्यात्मिक अवसर को साधना करके उसका उचित लाभ उठाये ..
15) ग्रहण काल मे एक दुर्लभ ग्रह स्थिती एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक पर्व काल का निर्माण कर रही है
ग्रहण काल मे पूजन करते समय सबसे पहले सदगुरु का पूजन करे .. फिर चंद्रमा और राहु केतु का पूजन करे .. फिर आपके इष्ट देवता का पूजन करे .. पूजन आप संक्षिप्त मे कर सकते है क्योंकि समय का पुरा उपयोग करना है .. आवरण पूजन करे .. फिर मंत्र जाप यथाशक्ती करे .. समय हो तो इष्ट देवता के स्तोत्र का पाठ और हवन करे .
अंत मे क्षमा प्रार्थना जरुर करे .. ग्रहण काल के अंत तक साधना करे फिर उठकर संभव हो तो स्नान करे या हाथ पैर मुह धो ले .. और बाद मे सो सकते है ..
ग्रहण काल मे मौन बहुत जरुरी है .. अगर आप बाथरुम जाने के लिये उठते हो तो हाथ पैर धोकर ही साधना मे बैठे .. वैसे तो सब कुछ निपटाकर ही साधना मे बैठे .. रात्री मे साधना से पहले या तो भोजन ना करे या स्वल्प मात्रा मे करे .. ताकि निंद ना आये ..

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फोड़े-फुंसी के देशी 19 घरेलु इलाज | Home Remedies for Boils and Abscesses

👉🏻लक्षण:

फोड़े-फुंसी को सभी लोग आसानी से पहचान जाते हैं। इनमें पहले तो दर्द होता है और फिर धीरे-धीरे इनके मुंह निकल आते हैं जिनमें से खून निकलता है। इनके पकने पर मवाद निकलने लगता है। इन फुंसियों में दर्द और जलन भी होती रहती है।

👉🏻भोजन और परहेज:

<> फोड़े-फुंसियां होने पर रोजाना सुबह उठते ही 2 चम्मच नीम का पानी पीना चाहिए।
<> रोगी को भोजन में देशी घी की जगह मक्खन का प्रयोग करना चाहिए।
<> खाने में ज्यादा गर्म चीजें, मिर्च-मसाले, तेल, खट्टी चीजें, सूखे या ज्यादा मीठी चीजें नहीं खानी चाहिए।
<> फो़ड़े-फुंसियों के ऊपर धूल नहीं जमने देना चाहिए। उनके ऊपर पट्टी बांध लें या शरीर के उस भाग को कपड़े से ढककर रखें।
।आइये जाने फोड़े फुन्सी(Fode Funsi) के अनुभूत घरेलू उपाय| Home Remedies for Boils and Abscesse in Hindi

👉🏻उपाय :

प्रथम प्रयोगः अरण्डी के बीजों की गिरी को पीसकर उसकी पुल्टिस बाँधने से अथवा आम की गुठली या नीम या अनार के पत्तों को पानी में पीसकर लगाने से फोड़े-फुन्सी में लाभ होता है।

दूसरा प्रयोगः एक चुटकी कालेजीरे को मक्खन के साथ निगलने से या 1 से 3 ग्राम त्रिफला चूर्ण का सेवन करने से तथा त्रिफला के पानी से घाव धोने से लाभ होता है।

तीसरा प्रयोगः सुहागे को पीसकर लगाने से रक्त बहना तुरंत बंद होता है तथा घाव शीघ्र भरता है।

फोड़े से मवाद बहने परः

पहला प्रयोगः अरण्डी के तेल में आम के पत्तों की राख मिलाकर लगाने से लाभ होता है।

दूसरा प्रयोगः थूहर के पत्तों पर अरण्डी का तेल लगाकर गर्म करके फोड़े पर उल्टा लगायें। इससे सब मवाद निकल जायेगा। घाव को भरने के लिए दो-तीन दिन सीधा लगायें।

पीठ का फोड़ाः गेहूँ के आटे में नमक तथा पानी डालकर गर्म करके पुल्टिस बनाकर लगाने से फोड़ा पककर फूट जाता है।

👉🏻विभिन्न औषधियों से उपचार-

  1. दही: अगर फोड़े में सूजन, दर्द और जलन आदि हो तो उस पर पानी निकाले हुए दही को लगाकर पट्टी बांध देते हैं। एक दिन में 3 बार इस पट्टी को बदलने से लाभ होता है।
  2. राई: राई का लेप सदा ठंडे पानी में बनायें। राई का लेप सीधे त्वचा पर न लगाये इसका लेप लगाने से पहले त्वचा पर घी या तेल लगा लें क्योंकि इसका लेप सीधे लगाने से फोड़े-फुंसी आदि होने का डर रहता है। राई को ताजे पानी के साथ बारीक पीसकर लेप बनाकर साफ मलमल के कपड़े पर पतला-पतला लेप करके इस कपड़े को रोगी के फोड़े-फुंसी से पीड़ित अंग पर रख दें।
  3. मसूर की दाल :

मसूर के आटे की पुल्टिश (पोटली) लगाने से फोड़े शीघ्र ही फूट जाते है और उसकी मवाद सूख जाती है।मसूर की दाल को पीसकर उसकी पुल्टिस (पोटली) को फोड़ों पर बांधने से फोड़े ठीक हो जाते हैं।

  1. मिट्टी:

सूजन, फोड़ा, उंगुली की विषहरी हो (उंगुली में जहर चढ़ने पर), तो गीली मिट्टी का लेप हर आधे घण्टे तक करते रहने से लाभ होता है।फोड़ा बड़ा तथा कठोर हो, फूट न रहा हो तो उस पर गीली मिट्टी का लेप करें। इससे फोड़ा फूटकर मवाद बाहर आ जाती है। बाद में गीली मिट्टी की पट्टी बांधते रहें। मिट्टी की पट्टी या लेप फोड़ों को बाहर खींच निकालता है।शरीर पर अगर फोड़े-फुंसी निकल रहे हों और फूट नहीं रहे हों तो उन पर काली मिट्टी का लेप करना चाहिए।

  1. जमालगोटा: जमालगोटा और एरण्ड के बीज को बराबर की मात्रा में पीसकर पानी में मिलाकर पानी में मिलाकर लेप बनाकर फोड़े-फुंसियों में लगाना चाहिए।
  2. चन्दन: चन्दन को पानी में घिसकर लगाने से फोडे़-फुन्सी और घाव नष्ट हो जाते हैं।

7.ग्वारपाठा:

ग्वारपाठा का गूदा गर्म करके बांधने से या तो फोड़ा बैठ जाता है या फिर पककर फूट जाता है। फोड़े-फुंसी फूटने के बाद गूदे में हल्दी मिलाकर लगाने से घाव शीघ्र ही भर जाता है।ग्वारपाठे का गूदा निकालकर गर्म करके उसमें 2 चुटकी हल्दी मिला लें। फिर इसको फोड़े पर लगाकर ऊपर से पट्टी बांध दें। थोड़े ही समय में फोड़ा पककर फूट जायेगा और उसका मवाद बाहर निकल जायेगा। मवाद निकलने के बाद फोड़ा जल्दी ही ठीक हो जाता है।

  1. अजवाइन:

नींबू के रस में अजवाइन को पीसकर फोड़ों पर लेप करना चाहिए।सूजन आने पर अजवाइन को पीसकर उसमें थोड़ा-सा नींबू निचोड़कर फुंसियों पर लगाने से लाभ होता है।

  1. प्याज:

प्याज को कूटकर पीस लें। फिर उसमें हल्दी, गेंहू का आटा, पानी और शुद्ध घी मिलाकर थोड़ी देर आग पर रखकर पकाकर पोटली बनाकर फोड़े पर बांधने से फोड़ा फूट जाता है और आराम मिलता है।फोड़े, गांठ, मुंहासे, नारू, कंठमाला (गले की गिल्टी) आदि रोगों पर प्याज को घी में तलकर बांधने से या प्याज के रस को लगाने से लाभ पहुंचता है।प्याज को पीसकर उसकी पोटली बनाकर फोड़े पर बांधने से फोड़ा फूट जाता है और उसकी मवाद निकलने के बाद फोड़ा सूख जाता है।

  1. पुनर्नवा: लगभग 5 ग्राम श्वेत पुनर्ववा की जड़ को 500 मिलीलीटर पानी में पकाकर चौथाई काढ़ा बचने के बाद उस काढ़े को 20 से 30 मिलीलीटर की मात्रा में सुबह-शाम पीने से आधे पके हुए फोड़े समाप्त हो जाते हैं।
  2. शीशम: शीशम के पत्तों का 50 से 100 मिलीलीटर काढ़ा सुबह-शाम पीने से फोड़े-फुन्सी नष्ट हो जाते हैं। कोढ़ होने पर इसके पत्तों का काढ़ा रोगी को पिलाना लाभकारी रहता है।
  3. पीपल:

पीपल के कोमल पत्ते को घी लगाकर गर्म करके फुंसी-फोड़े पर बांधने से लाभ होता है।पीपल की छाल को पानी में घिसकर फोड़े-फुंसियों पर लगाने से लाभ होता है।फोड़ों को पकाने के लिए पीपल की छाल की पुल्टिश (पोटली) बनाकर फोड़े पर बांधने से लाभ मिलता है।पीपल के पत्ते को गर्म करकें पत्ते की सीधी तरफ थोड़ा सा असली शहद या सरसों का तेल लगाकर फोड़े पर बांधने से लाभ होता है।पीपल की छाल का चूर्ण जख्म पर छिड़कने से भी लाभ मिलता है।

  1. नीम:

नीम की 6 से 10 पकी निंबौली को 2 से 3 बार पानी के साथ सेवन करने से फुन्सियां कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाती है।नीम, तुलसी और पोदीने की पत्तियों को पीसकर उसमें मुलतानी मिट्टी और चन्दन का चूर्ण मिलाकर बनें मिश्रण को चेहरे पर लगाने से चेहरे के मुंहासे समाप्त होकर त्वचा निखर जाती है।नीम की पत्तियों का रस पानी में मिलाकर नहाने से खाज-खुजली नष्ट हो जाती है।नीम की पत्तियों को पीसकर फोडे़-फुन्सियों पर लगाने से लाभ होता है।नीम के पत्ते, छाल और निंबौली को बराबर मात्रा में पीसकर बने लेप को दिन में 3 बार लगाने से फोड़े-फुन्सी और घाव जल्दी ठीक हो जाते हैं।नीम की पत्तियों को गर्म करके या नीम की छाल को घिसकर फोड़े-फुन्सी और बिच्छू के काटे भाग पर लगाकर सेंकने से लाभ पहुंचता है।नीम के पत्ते को पीसकर शहद के साथ मिलाकर लेप करने से फूटे हुए फोड़े जल्दी ठीक हो जाते हैं।नीम के पत्ते को पीसकर दही और बेसन में मिलाकर चेहरे व दूसरे अंगों में लगाने से और कुछ देर बाद पानी से साफ कर देने से चेहरे की फुंसियां और मुंहासे समाप्त होकर त्वचा निखर उठती हैं।175 ग्राम नीम के पत्तों को बिना पानी डाले पीसकर लुगदी बना लें। तांबे के बर्तन में इसका आधा हिस्सा सरसों का तेल डालकर गर्म करें, तेल में धुंआ आने पर इसमें बनी हुई लुगदी डाल दें। लुगदी तेल में जलकर काली पड़ने पर उतारकर ठंडा कर दें। फिर इसमें कपूर और जरा-सा मोम डालकर पीस लें। इस बने लेप को लगाने से फोड़े-फुंसियों में लाभ होता है।मार्च-अप्रैल के महीने में जब नीम की नयी-नयी कोंपलें (मुलायम पत्तियां) खिलती है तब 21 दिन तक युवा लोगों को नीम की ताजी 15 कोंपले (मुलायम पत्तियां) और बच्चों को 7 पत्तियां रोजाना गोली बनाकर दातुन-कुल्ला करने के बाद पानी के साथ खाने से या पीसकर लगाने से पूरे साल तक फोड़े-फुंसिया नहीं निकलती है।

विशेष: नीम की नई-नई कोंपलों को सुबह खाली पेट खाना चाहिए और उसके बाद 2 घंटे तक कुछ नहीं खाना चाहिए। इससे खून की खराबी, खुजली, त्वचा के रोग, वात (गैस), पित्त (शरीर की गर्मी) और कफ (बलगम) के रोग जड़ से खत्म हो जाते हैं। इसको लगातार खाने से मधुमेह (डायबटिज) की बीमारी भी दूर हो जाती है। इससे मलेरिया और भयंकर बुखार के पैदा होने की संभावना भी नहीं रहती पर ध्यान रखना चाहिए कि बड़ों को 15 कोंपलें (मुलायम पत्तों) और बच्चों को 7 कोपलों से ज्यादा नहीं देनी चाहिए और ज्यादा समय तक भी नहीं खाना चाहिए। नहीं तो मर्दाना शक्ति भी कमजोर हो जाती है।

🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃 “ईश्वर सिद्धि”

    सर्व प्रथम प्रश्न यह है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता है भी या नहीं। यद्यपि संसार के अधिकतम लोग ईश्वर में विश्वास रखते हैं। ( यद्यपि इन में ईश्वर के स्वरूप व कर्तव्य को लेकर अतीव मत भिन्नता है) पर ऐसा प्रतीत होता है कि वे केवल परम्परावश ऐसा मानते हैं । यही कारण है कि विभिन्न उपासना पद्धति का अवलम्बन करने वाली नई पीढ़ी से ईश्वर सम्बन्धी प्रश्न किए जाते हैं तो शीघ्र ही यह सामने आ जाता है कि ईश्वर की सत्ता में इनका दृढ़ विश्वास नहीं है और जब दृढ़ विश्वास ही नहीं है तो ईश्वर उपासना एवं ईश्वर प्राणिधान के कोई मायने नहीं रह जाते अत एव ईश्वर की सत्ता में अटूट विश्वास होना अत्यन्त आवश्यक है यह अटूट विश्वास ही परहित हेतु स्वयं का सर्वस्व निछावर कर देने की उदात्त भावना का आधार है।
    ईश्वर का प्रत्यक्ष कैसे हो ? 
   कुछ लोग ईश्वर का अस्तित्व इसीलिए नहीं मानते क्योंकि वह आंखों से दिखाई नहीं देता है। अर्थात्‌ जो पदार्थ आंखों से दिखाई देता है उसी का अस्तित्व माना जा सकता है। पर क्या यह अभिकथन सही है? तनिक भी गम्भीरता पूर्वक विचार करते हैं तो इस दावे की पोल खुल जाती है संसार में अनेकानेक ऐसे पदार्थ हैं जो दिखाई नहीं देते परन्तु उनका अस्तित्व निर्विवाद है।
    विचार करें निम्न परिस्थितियों में हमें वस्तुएं दिखाई नहीं देती हैं परन्तु क्या हम उनके अस्तित्व से इन्कार कर सकते हैं ? कदापि नहीं।
   इसी प्रकार का प्रसङ्ग साङ्ख्य दर्शन में आया है - "विषयोऽविषयोऽप्यतिदूरादेर्हानोपादानाभ्यामिन्द्रियस्य" (१/६३) 

(विषयःअपि) विषय भी (इन्द्रियस्य) इन्द्रिय का ( अविषयः) अविषय है (अतिदूरादेः) अतिदूर आदि (कारण) से (हानोपादानाभ्यां)हान और उपादान से(इन्द्रिय के)।
किसी वस्तु के अभाव को केवल इतने से निर्धारित नहीं किया जा सकता कि वह इन्द्रियों से नहीं जानी जा रही। यदि यह विचार ठीक होता की जो वस्तु इन्द्रिय द्वारा नहीं जानी जाती, उसका अभाव स्वीकार करना चाहिए तो अतीन्द्रिय प्रकृति आदि पदार्थों का अनुपलब्धि के कारण अभाव स्वीकार किया जा सकता था। परन्तु अनेक बार ऐसा होता है विद्यमान पदार्थ भी कुछ दोषों के कारण इन्द्रिय का अविषय रहता है, अर्थात् इन्द्रिय गोचर नहीं हो पाता।
वे दोष इस प्रकार हैं =अतिदूर- कोई भी पदार्थ अति दूर होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। जैसे आकाश में दूर उड़ता हुआ पक्षी चक्षु से नहीं दीख पाता यदि वही पदार्थ ठीक दूरी पर हो तो दिख जाता है। सूत्र का आदि पद ‘अतिदूर’ के विरोधी ‘अतिसमीप’ का परामर्शक है। इसप्रकार दूसरा दोष है =अतिसमीप- अतिसमीप होने पर भी कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती। जैसे आंख में लगाया हुआ अंजन उस आंख से नहीं दिखता। वही ठीक दूरी से अन्य आंख के द्वारा देखा जाता है। तीसरा दोष है=हान- इन्द्रिय शक्ति की हानि होना, अर्थात् इन्द्रिय की दुर्बलता, जैसे अन्धे और बधिर – रूप और शब्द का ग्रहण नहीं कर पाते। उन्हीं रूप और शब्द को वे ग्रहण कर लेते हैं जिनके चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय ठीक होते हैं। यह दोष इन्द्रियगत है अन्य दोष विषतगत हैं। चौथा दोष =उपादान- इन्द्रिय और विषय के मध्य में किसी अन्य वस्तु का उपस्थित हो जाना अर्थात् किसी भी मूर्तिमान वस्तु का व्यवधान। जैसे दीवार आदि के परे की विद्यमान वस्तु भी दृष्टिगोचर नहीं होती। वही वस्तु मध्य में दीवार न होने पर दिख जाती है। यह सब दोष ऐसे विषयों में लागू होते हैं जो किसी समय इन्द्रिय गोचर होते हों। इसीलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जो पदार्थ एक समय नहीं दिख रहा उसका तो अस्तित्व नहीं है।
सर्वथा अतीन्द्रिय प्रकृति आदि पदार्थों की अनुपलब्धि में इन दोषों को बाधक नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रकृति आदि पदार्थ कभी दृष्टिगोचर नहीं होते तब उनकी अनुपलब्धि उनके अभाव की ही साधक समझी जानी चाहिए।
सूत्रकार कहता है –
सौक्ष्म्यात्तदनुपलब्धिः।।(सांख्य१/७४)
सौक्ष्म्यात् तदनुपलब्धिः = (तदनुपलब्धिः) प्रकृति आदि की अनुपलब्धि (सौक्ष्म्यात्) सूक्ष्मता से है।
प्रकृति की अनुपलब्धि सौक्ष्म्य के कारण होती है जगत के मूल कारण सत्व-रजस्-तमस् अतिशय अणुरूप होने के कारण अति सूक्ष्म होते हैं उनका ग्रहण करना इन्द्रियों की शक्ति से परे है। जब इन्द्रियां उन्हें ग्रहण ही नहीं कर सकती तब इन्द्रियों के द्वारा उनकी अनुपलब्धि उनके अभाव का साधक नहीं कही जा सकती।
सूक्ष्म होने के कारण यदि इन्द्रियों से प्रकृति की अनुपलब्धि उसके अभाव की साधक नहीं, तो प्रकृति का ज्ञान किसी उपाय से होना चाहिए।
सूत्रकार कहता है –
कार्यदर्शनात्तदुपलब्धेः।।(सांख्य१/७५)
(कार्यदर्शनात्) कार्य ज्ञान से अथवा कार्य देखे जाने से ( तदुपलब्धेः) प्रकृति का ज्ञान हो जाने के कारण उसका अभाव नहीं ।
प्रकृति की उपलब्धि, कार्य देखने से हो जाती है। यद्यपि प्रकृति अतीन्द्रिय पदार्थ है पर यह समस्त जड़ जगत उसका कार्य है। हम देखते हैं यहां प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक व्यवहार, प्रत्येक विचार सुख-दुख-मोहात्मक है, इस प्रकार जगत त्रिगुणात्मक सिद्ध होता है। इसमें लगातार होने वाले परिणाम को देखकर हम यह जान लेते हैं कि इसका कोई त्रिगुणात्मक मूल उपादान अवश्य होना चाहिए क्योंकि कोई परिणामी तत्व अपने मूल उपादान के बिना नहीं हो सकता, यह नियम है। इसी प्रकार त्रिगुणात्मक कार्य जगत से उसके मूल उपादान त्रिगुणात्मक प्रकृति का अनुमान हो जाता है। फलतः केवल दृष्टिगोचर न होने से प्रकृति का अभाव नहीं माना जा सकता।
अनेक आशंकावादी मूल उपादान के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की कल्पना कर सकते हैं। उस अवस्था में त्रिगुणात्मक प्रकृति के अस्तित्व का सिद्धान्त स्थिर नहीं रहता। इसी आशंका को सूत्रकार कहता है –
वादिविप्रतिपत्तेस्तदसिद्धिरिति चेत्।।(सांख्य१/७६)
(वादिविप्रतिपत्तेः) वादियों के विरुद्ध कथन से ( तदसिद्धिः इति चेत्) (मूल उपादान ) प्रकृति की असिद्धि कहो यदि।
मूल उपादान के सम्बन्ध में वादी अनेक प्रकार के कथन उपस्थित कर सकते हैं। जैसे कोई चेतन ईश्वर से जगत की उत्पत्ति कहने लगे अथवा जगत का उपादान पुरुष को बताए । इसी प्रकार कोई स्वभाव को उपादान कहे। अन्य कोई अकारण ही जगत को उत्पन्न हुआ मान ले। कोई सूक्ष्म भूतों को समस्त जगत का उपादान बतलाए। इन सब मान्यताओं के रहने पर केवल प्रकृति को उपादान कैसे माना जा सकेगा ? इसी प्रकार वादियों के द्वारा मूल उपादान के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के कल्पित बाद उपस्थित कर देने से प्रकृति की निर्भ्रान्त सिद्धि नहीं हो सकती। ऐसी आशंका होने पर सूत्रकार कहता है-
तथाप्येकतरदृष्टया एकतरसिद्धेर्नापलादः (सांख्य१/७७)
(तथापि) तो भी ( एकतरदृष्टया) कार्य ज्ञान द्वारा (एकतर सिद्धेः) कारण की सिद्धि से ( अपलापः न) ‘प्रकृति का’ अपलाप नही।
इन सब कथित कल्पनाओं के होने पर भी समस्त वादियों ने कार्य कारण भाव को स्वीकार किया ही है। तब यह सिद्धान्त तो स्थिर माना जाएगा – कि एकतर कार्य के देखने से एकतर कारण की सिद्धि होती है। इस प्रकार कार्य के देखे जाने से कारण के अस्तित्व का अपलाप नहीं किया जा सकता। प्रत्येक वादी ने इस बात को निर्भ्रान्त रूप से स्वीकार किया है। कि कार्य मात्र का कोई मूल कारण अवश्य होता है।
वह मूल कारण प्रकृति ही क्यों हो सकता है अन्य नहीं?
सूत्र कार कहता है –
त्रिविधविरोधापत्तेश्च।।(सांख्य १/७८)
(त्रिविधविरोधापत्तेः) त्रिविधता के विरोध की आपत्ति से (च) तथा परिणामिता अचेतनता आदि के (विरोध की आपत्ति से)।
यदि त्रिगुणात्मक प्रकृति के अतिरिक्त, अन्य ईश्वर आदि को जगत का मूल उपादान माना जाए, तो संसार में अनुभूयमान त्रिविधता के विरोध की प्राप्ति होगी। जगत के प्रत्येक पदार्थ, व्यवहार तथा भावना में त्रिगुणात्मकता देखी जाती है इससे त्रिगुणात्मक मूल कारण का अनुमान किया जा सकता है। ईश्वर आदि को मूल उपादान मानने पर जगत की दृष्टत्रिगुणात्मकता का विरोध होगा क्योंकि ईश्वर आदि तत्व त्रिगुणात्मक नहीं हैं यदि उनको भी त्रिगुणात्मक मान लिया जाए तो शब्द मात्र का भेद होगा, मूल कारण तो त्रिगुणात्मक ही रहा। सूत्र का ‘च’ पद प्रकृति के परिणामी और चेतन आदि स्वरूप का संग्रह करता है। ईश्वर आदि को जगत का मूल उपादान मानने पर यथासंभव इसके परिणाम अचेतनत्व आदि का भी विरोध प्राप्त होगा।उस अवस्था में संसार परिणामी व अचेतन भी न हो सकेगा, जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के विरुद्ध है। इन सब कारणों से त्रिगुणात्मक प्रकृति को ही जगत का मूल उपादान स्वीकार किया जा सकता है।
इसी प्रसंग को “सांख्य कारिका” में ईश्वर कृष्ण ने इस प्रकार लिखा है –
अतिदूरात् समीप्यादिन्द्रियघातान्मेनोऽनवस्थानात्।
सौक्ष्म्याद् व्यवधानादभिभवात् समानाभिहाराच्च।। (सांख्यकारिका)
अतिदूरात् = अत्यन्त दूर होने पर – आकाश में उड़ता पक्षी।
समीप्यात् = अत्यन्त समीप होने से – आंख का काजल।
इन्द्रियघातात् = इन्द्रिय शक्ति की हानि – मोतियाबिन्द, रतौधी।
मनोऽनवस्थानात् = मन के विचलित होने पर – ध्यान कहीं अन्यत्र।
सौक्ष्म्यात् = अत्यन्त सूक्ष्म होने पर – अणु आदि।
व्यवधानात् = इन्द्रिय और विषय के बीच व्यवधान होने पर – दीवार के परे।
अभिभवात् = एक वस्तु के अभिभूत होने पर
समानाभिहारात् = किसी वस्तु के सजातीय सम्मिश्रण के कारण प्रत्यक्ष नही हो पाता।
प्रकृति और प्रमेय अत्यन्त सूक्ष्म और समीप होने से ही प्रत्यक्ष नही हो पाता है। यद्यपि कार्य के आधार पर उनकी उपलब्धि अनुमेय है।
० देखने में सहायक पदार्थ ना होने के कारण – सूर्य के प्रकाश या अन्य कृत्रिम प्रकाश के अभाव में ।
० आंख का विषय न होने के कारण – वायु, सुगन्ध तथा संगीत आदि नहीं देखे जा सकते।
० अभौतिक पदार्थ – सर्दी, गर्मी, भूख – प्यास, दर्द आदि।
० मध्य में आए आवरण के कारण – भूमिगत रत्नादि, कमरे में दीवार के पीछे की वस्तुएं दिखाई नहीं देती है।
० कुछ गुण समान होने के कारण – दूध में पानी, गाय के दूध में भैंस का दूध।
स्पष्ट है हर वस्तु आंखों से नहीं दीख सकती, केवल रूप गुण जिसमें है आंखों का विषय होने के कारण वही वस्तुएं दिखाई देती है परंतु ना दिखाई देने वाली वस्तुओं का भी अस्तित्व है यह निश्चित है।
वस्तुतः जैसा वस्तु का सम्बन्ध जिस ज्ञानेन्द्रिय से है हम उसी ज्ञानेन्द्रिय से वस्तु को जानते हैं जैसे इत्र का ज्ञान नासिका से, मीठे, खट्टे, नमकीन का ज्ञान रसना से, वायु की उपस्थिति, शीतादि का ज्ञान त्वचा से, व शब्द का ध्यान कर्णेन्द्रिय से करते हैं।
यहां यह भी स्पष्ट कर जान लेना चाहिए इन्द्रिय गोचर पदार्थ का ज्ञान ही इन्द्रियों द्वारा हो सकता है। अतीन्द्रिय पदार्थ का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा नहीं हो सकता परन्तु ऐसा ना हो सकने मात्र से इनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। उदाहरण के लिए इन्द्रियों को ही ले लीजिए इन्हें इन्द्रियों द्वारा तो जाना नहीं जा सकता क्योंकि कोई भी दृष्टा स्वयं दृश्य नहीं हो सकता और एक इन्द्रिय से दूसरी इन्द्रियों भी नहीं जानी जा सकती क्योंकि उनके विषय भिन्न भिन्न हैं।
आंख का विषय रूप, नासिका का गन्ध, जिह्वा का रस, त्वचा का स्पर्श और कानों का विषय शब्द है। अतः नाक – आंख को नहीं जान सकती, जिह्वा कानों को नहीं जान सकती‌। इन इन्द्रियों को भी इनसे काम लेने वाली चेतन शक्ति अनुभव से जानती है। अर्थात् जब वह रस का ज्ञान जिह्वा से प्राप्त करती है तो उसे रसनेन्द्रिय की जानकारी होती है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में है। यही अनुभव इन्द्रियों का प्रत्यक्ष है।
ठीक इसी प्रकार जीवात्मा बिना भौतिक इन्द्रीयों/ भौतिक करणों की सहायता से अष्टांग योग के मार्ग पर चलते हुए परमात्मा का साक्षात्कार करता है। महर्षि दयानन्द जी सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में स्पष्ट लिखते हैं – “और जब जीवात्मा शुद्धान्तःकरण से युक्त योगी समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है तब उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमान आदि से परमेश्वर के जान होने में क्या संदेह है क्योंकि कार्य को देखकर के कारण का अनुमान होता है।”
इन्द्रिय प्रत्यक्ष को ही सर्वोपरि अधिमान देने का आग्रह करने वाले मनीषियों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इन्द्रियों से गुणों का प्रत्यक्ष होता है न कि गुणी का। ऋषि लिखते हैं – अब विचारना चाहिए कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं।( सत्यार्थ प्रकाश सप्तम समुल्लास) इसका तात्पर्य है कि इन्द्रियों द्वारा अपने अपने विषय की सूचना ही मन को प्रेषित की जाती है। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति खस के शरबत का सेवन करता है तो रंग व तरलता की सूचना आंख द्वारा, गन्ध की सूचना नाक द्वारा, ठंडे होने की सूचना त्वचा द्वारा व मीठे होने की सूचना जिह्वा द्वारा मन को प्राप्त होने पर बुद्धि द्वारा समवेत रूप से विश्लेषण करने पर पूर्व स्मृति के आधार पर खस के शरबत का प्रत्यक्ष कर लिया ऐसा कहा जाता है। वस्तुतः प्रत्यक्ष तो भिन्न – भिन्न गुणों का ही हुआ है गुणी का नहीं । यदि यहां शरबत पीने वाले ने पूर्व में कभी इस पेय पदार्थ को नहीं पिया हो, इस पीने की कोई स्मृति उसके पास ना हो तो वह इतना मात्र ही कहेगा कि यह तरल पेय पदार्थ जो अमुक रंग का है, मीठा, शीतल व स्वादिष्ट है। और मेजबान से पूछेगा कि यह क्या है? अर्थात् गुणों का प्रत्यक्ष होने पर भी गुणी का प्रत्यक्ष न हुआ। होता यह है कि गुण – गुणी का समवाय सम्बन्ध होने से गुणों के साथ गुणी का प्रत्यक्ष मान लिया जाता है।मन की आशु गति के कारण यह प्रक्रिया इतने वेग से होती है कि हम गुणी का ही प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।
सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में ऋषि दयानन्द स्पष्ट लिखते हैं – जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथ्वी उसका आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है वैसे इस प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। हमारे विचार से ऋषि स्पष्ट ईश्वर प्रत्यक्ष मानते हैं।
न्याय दर्शनकार ने आठ प्रमाणों को मान्यता दी है जिनमें एक अनुमान प्रमाण है लोक में व्यवहृत अनुमान शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि अनुमान अत्यन्त साधारण कोटि का तर्क विहीन प्रमाण है परन्तु ऐसा नहीं है। अनुमान प्रमाण को भी किसी भी प्रकार कम करके नहीं आंका जा सकता। क्योंकि अनुमान वहीं होता है – जहां पूर्व में प्रत्यक्ष कार्य – कारण श्रंखला का ही एक घटक होने से दूसरे का निश्चय, अनुमान प्रमाण द्वारा किया जाता है। उदाहरण के तौर पर हम लोक में देखते आते हैं कि माता पिता के संयोग से पुत्र – पुत्री उत्पन्न होते हैं। अतः किसी पुत्र अथवा पुत्री को देखकर अनुमान प्रमाण के अन्तर्गत यह निश्चय से कहा जा सकता है की इनके माता-पिता भी निश्चित होंगे – फिर चाहे हमने उनके माता – पिता के दर्शन न भी किये हों। इसी प्रकार अग्नि व धूंए का साहचर्य जग प्रसिद्ध है अतः कालान्तर में धूंए को देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता है।
😇💐जानिये घर में किस चीज़ की धूनी (धूप) करने से क्या फायदा होता हैं 💐😇

आज आप को बहुत फायदे की बाते बताता हू, जिस मे हर तरह से फायदा हैं !आप का मन पूजा मे भी लगेगा ओर हेल्थ, वेल्थ , वास्तु, करें कराये मे भी फायदा होगा !

घरों में धूनी (धूप) देने की परंपरा काफी प्राचीन है। धूप देने से मन को शांति और प्रसन्नता मिलती है। साथ ही, मानसिक तनाव दूर करने में भी इससे बहुत लाभ मिलता है। घरों में धूनी देने के लिए कई तरह की चीज़ें आती है। आइए जानते है किस चीज़ की धूनी करने से क्या फायदे होते है।

1- कर्पूर और लौंग💐💐

रोज़ाना सुबह और शाम घर में कर्पूर और लौंग जरूर जलाएं। आरती या प्रार्थना के बाद कर्पूर जलाकर उसकी आरती लेनी चाहिए। इससे घर के वास्तुदोष ख़त्म होते हैं। साथ ही पैसों की कमी नहीं होती।

2- गुग्गल की धूनी💐💐

हफ्ते में 1 बार किसी भी दिन घर में कंडे जलाकर गुग्गल की धूनी देने से गृहकलह शांत होता है। गुग्गल सुगंधित होने के साथ ही दिमाग के रोगों के लिए भी लाभदायक है।

3- पीली सरसों💐💐

पीली सरसों, गुग्गल, लोबान, गौघृत को मिलाकर सूर्यास्त के समय उपले (कंडे) जलाकर उस पर ये सारी सामग्री डाल दें। नकारात्मकता दूर हो जाएगी।

4- धूपबत्ती💐💐

घर में पैसा नहीं टिकता हो तो रोज़ाना महाकाली के आगे एक धूपबत्ती लगाएं। हर शुक्रवार को काली के मंदिर में जाकर पूजा करें।

5- नीम के पत्ते💐💐

घर में सप्ताह में एक या दो बार नीम के पत्ते की धूनी जलाएं। इससे जहां एक और सभी तरह के जीवाणु नष्ट हो जाएंगे। वही वास्तुदोष भी समाप्त हो जाएगा।

6- षोडशांग धूप💐💐

अगर, तगर, कुष्ठ, शैलज, शर्करा, नागर, चंदन, इलायची, तज, नखनखी, मुशीर, जटामांसी, कर्पूर, ताली, सदलन और गुग्गल, ये सोलह तरह के धूप माने गए हैं। इनकी धूनी से आकस्मिक दुर्घटना नहीं होती है।

7- लोबान धूनी💐💐

लोबान को सुलगते हुए कंडे या अंगारे पर रख कर जलाया जाता है, लेकिन लोबान को जलाने के नियम होते हैं इसको जलाने से पारलौकिक शक्तियां आकर्षित होती है। इसलिए बिना विशेषज्ञ से पूछे इसे न जलाएं।

8- दशांग धूप💐💐

चंदन, कुष्ठ, नखल, राल, गुड़, शर्करा, नखगंध, जटामांसी, लघु और क्षौद्र सभी को समान मात्रा में मिलाकर जलाने से उत्तम धूप बनती है। इसे दशांग धूप कहते हैं। इससे घर में शांति रहती है।

9- गायत्री केसर💐💐
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घर पर यदि किसी ने कुछ तंत्र कर रखा है तो जावित्री, गायत्री केसर लाकर उसे कूटकर मिला लें। इसके बाद उसमें उचित मात्रा में गुग्गल मिला लें। अब इस मिश्रण की धुप रोज़ाना शाम को दें। ऐसा 21 दिन तक करें।

🙏💐जय श्री महाकाल💐🙏
: एकादशी में चावल वजिर्त क्यों?
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वर्ष की चौबीसों एकादशियों में चावल न खाने की सलाह दी जाती है। ऐसा माना गया है कि इस दिन चावल खाने से प्राणी रेंगने वाले जीव की योनि में जन्म पाता है, किन्तु द्वादशी को चावल खाने से इस योनि से मुक्ति भी मिल जाती है। एकादशी के विषय में शास्त्र कहते हैं, ‘न विवेकसमो बन्धुर्नैकादश्या: परं व्रतं’ यानी विवेक के सामान कोई बंधु नहीं है और एकादशी से बढ़ कर कोई व्रत नहीं है। पांच ज्ञान इन्द्रियां, पांच कर्म इन्द्रियां और एक मन, इन ग्यारहों को जो साध ले, वह प्राणी एकादशी के समान पवित्र और दिव्य हो जाता है। एकादशी जगतगुरु विष्णुस्वरुप है, जहां चावल का संबंध जल से है, वहीं जल का संबंध चंद्रमा से है। पांचों ज्ञान इन्द्रियां और पांचों कर्म इन्द्रियों पर मन का ही अधिकार है। मन ही जीवात्मा का चित्त स्थिर-अस्थिर करता है। मन और श्वेत रंग के स्वामी भी चंद्रमा ही हैं, जो स्वयं जल, रस और भावना के कारक हैं, इसीलिए जलतत्त्व राशि के जातक भावना प्रधान होते हैं, जो अक्सर धोखा खाते हैं। एकादशी के दिन शरीर में जल की मात्र जितनी कम रहेगी, व्रत पूर्ण करने में उतनी ही अधिक सात्विकता रहेगी। महाभारत काल में वेदों का विस्तार करने वाले भगवान व्यास ने पांडव पुत्र भीम को इसीलिए निर्जला एकादशी (वगैर जल पिए हुए) करने का सुझाव दिया था। आदिकाल में देवर्षि नारद ने एक हजार वर्ष तक एकादशी का निर्जल व्रत करके नारायण भक्ति प्राप्त की थी। वैष्णव के लिए यह सर्वश्रेष्ठ व्रत है।
चंद्रमा मन को अधिक चलायमान न कर पाएं, इसीलिए व्रती इस दिन चावल खाने से परहेज करते हैं। एक और पौराणिक कथा है कि माता शक्ति के क्रोध से भागते-भागते भयभीत महर्षि मेधा ने अपने योग बल से शरीर छोड़ दिया और उनकी मेधा पृथ्वी में समा गई। वही मेधा जौ और चावल के रूप में उत्पन्न हुईं। ऐसा माना गया है कि यह घटना एकादशी को घटी थी। यह जौ और चावल महर्षि की ही मेधा शक्ति है, जो जीव हैं। इस दिन चावल खाना महर्षि मेधा के शरीर के छोटे-छोटे मांस के टुकड़े खाने जैसा माना गया है, इसीलिए इस दिन से जौ और चावल को जीवधारी माना गया है। आज भी जौ और चावल को उत्पन्न होने के लिए मिट्टी की भी जरूत नहीं पड़ती। केवल जल का छींटा मारने से ही ये अंकुरित हो जाते हैं। इनको जीव रूप मानते हुए एकादशी को भोजन के रूप में ग्रहण करने से परहेज किया गया है, ताकि सात्विक रूप से विष्णुस्वरुप एकादशी का व्रत संपन्न हो सके।
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🌻पूजा अथवा भक्ति किसकी करें🌻

सनातन धर्म में अनेकों देवी-देवता हैं । इसलिए प्रश्न उठता है कि किसकी पूजा अथवा भक्ति की जाए । इस सम्बन्ध में हम एक उदाहरण प्रस्तुत करेंगे । ये हैं श्रीराम भक्त गोस्वामी तुलसीदास जी । गोस्वामी तुलसीदास जी ने सनातन धर्म के मर्म को भलीभांति समझकर लोगों के समक्ष अपनी रचनाओं के माध्यम से रखा । इन्होंने जो धर्म-आदर्श हमारे सामने रखा वह अवश्य ही अनुकरणीय है । वही सनातन धर्म का मूल है । प्राण है ।

सनातन धर्म के जो प्रमुख देवता हैं । उनमें से किसी एक को जिनके बारे में आप जानते हों । जो आपके मन में बसते हों । जो आपको अच्छे लगते हों । उन्हें ही अपना इष्ट बनाकर पूजना चाहिए । उनकी ही भक्ति करनी चाहिए । उन्हीं से अपने मन की बात कहनी चाहिए । उन्हीं से यदि कुछ माँगना हों तो माँगना चाहिए ।

सनातन धर्म के अनुसार या यूँ कहें कि गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार एक सच्चा भक्त एक धर्म परायण पतिव्रता स्त्री की तरह होना चाहिए । जैसे एक पतिव्रता स्त्री अपने पति के प्रति सम्पूर्ण समपर्ण का भाव रखती है । और साथ ही अपने सास-ससुर, देवर आदि अन्य सगे सम्बन्धियों का भी उचित सम्मान करती है । किसी का निरादर अथवा अपमान नहीं करती । लेकिन पूर्ण समर्पण सिर्फ पति के प्रति ही रखती है । ठीक इसी तरह किसी एक देवता के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव रखते हुए अन्य देवी-देवताओं का भी उचित आदर करना चाहिए ।

जैसे यदि कोई भगवान श्रीराम का भक्त है । तो उसे भगवान शिव का भी पूजन करना चाहिए । ऐसा नहीं होना चाहिए कि हमें शिव जी से कोई मतलब नहीं है । क्योंकि हमारे तो आराध्य श्रीरामजी हैं । बिना शिव भक्ती के श्रीराम भक्ती नहीं मिलती । कहने का मतलब ऐसा नहीं होना चाहिए कि कहीं शिवालय हो तो वहाँ कभी न जाएँ । महाशिवरात्रि को भी शंकर जी को एक लोटा जल न चढाएं । ऐसा भाव बिल्कुल गलत है ।

गोस्वामी तुलसीदास जी पूर्ण समर्पण केवल भगवान श्रीराम के प्रति ही रखते थे । लेकिन शिवजी, गणेश, हनुमानजी, दुर्गाजी, सूर्यदेव आदि सभी का पूजन करते थे । पूजा तो सबकी करते थे । लेकिन सभी से भगवान श्रीराम के चरणों में निर्मल भक्ति का ही वरदान माँगते थे । जैसे गणेश जी की वन्दना करते हुए लिखा है-“माँगत तुलसीदास कर जोरे । बसहिं राम सिय मानस मोरे ।।“ इसी तरह भगवान शंकरजी से माँगते हैं कि-“तुलसिदास जाचक गुण गावै । विमल भगति रघुपति की पावै ।“

कई संतो का भी मत है कि व्यभिचारिणी भक्ति ठीक नहीं होती । व्यभिचारिणी स्त्री को भी कोई ठीक नहीं कहता । कहने का मतलब पूर्ण समर्पण एक के प्रति रखो । कुछ माँगना हो तो उसी से मांगो । इधर-उधर मत भटको ।

लेकिन किसी एक देवता को पूजना व अन्य का निरादर करना ठीक नहीं है । सबका आदर करें । लेकिन इष्ट किसी एक को ही मानकर उसकी ही पूजा व भक्ति करें । यही संदेश गोस्वामी तुलसीदासजी के जीवन से हमें मिलता है । यही सही भी है…..
JAI Shri Ram🌹🙏🏻🙏🏻🙏🏻

🌻🌻हरि वन्दे🌻🌻

जन्मकुंडली में शनि की सुखदायक स्थितियां-

1शनि और बुध की युति व्यक्ति को अन्वेषक
बनाती है।
2 यदि शनि चतुर्थेश होकर कुंडली में बलवान हो तो
जमीन-जायदाद का पूर्ण सुख देता है।
3 यदि शनि लग्नेश तथा अष्टमेश होकर बलवान हो तो
जातक दीर्घायु होता है।
4 धनु, तुला और मीन लग्न में शनि लग्न में
ही बैठा हो तो व्यक्ति को धनवान बनाता है।
5 वर्ष लग्न या जन्म लग्न में वृष राशि हो और शनि-शुक्र का
योग हो तो यह स्थिति लाभदायक होती है।
6शुक्र और शनि में मित्रता है, इसलिए वृष या तुला लग्नस्थ शनि
शुभ फल देता है।
7 छठे, आठवें या बारहवें भाव का कारक शनि इनमें से
किसी भी भाव में हो तो लाभदायक होता
है।
8कन्या लग्न में आठवें भाव का शनि व्यक्ति को धन सुख देता
है। यदि वक्री हो तो अपार संपत्ति देता है।
9 मीन, मकर, तुला या कुंभ लग्न में, शनि लग्न में
ही हो तो व्यक्ति का जीवन सुखमय
होता है और उसे मान-सम्मान की प्राप्ति होती है।
10 शनि यदि केंद्र में स्वराशि, मूल त्रिकोण राशि या अपनी उच्च राशि में हो तो शश नामक पंच महापुरुष योग का
निर्माण करता है। यह तुला राशि में 20 अंश तक होता है। इस
योग में जन्मे जातक दीर्घायु होते हैं, उनका रंग
सांवला तथा आंखें बड़ी होती हैं। उनका
व्यक्तित्व आकर्षक होता है। यह योग गरीब
परिवार में जन्मे
व्यक्ति को भी उन्नति के शिखर तक ले जाता है।
जातक उच्च स्तरीय नेता हो सकता है।
यदि कुंडली में शनि के साथ गुरु, शुक्र, बुध एवं चंद्र
भी शुभ और बलवान हों तो व्यक्ति सफलता
की सीढ़ियां आसानी से चढ़ता
चला जाता है।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम का लग्न धनु है। उन्हें शनि ने
अन्वेषक बनाया और देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचाया।
वैसे भी कर्क एवं धनु लग्न के जातक अपने क्षेत्र
में सर्वाधिक सफल होते हैं। धनु एवं मीन राशियों को
छोड़कर शेष राशियों के लिए शनि केंद्रेश या त्रिकोणेश होता है। इस
स्थिति में यदि उसका संबंध किसी अन्य केंद्रेश या
त्रिकोणेश
से हो तो फल अत्यंत शुभ होता है। ऐसे में वह सर्वाधिक
प्रगतिदायक बन जाता है। उसकी दृष्टि यदि
किसी अन्य
केंद्रेश या त्रिकोणेश के आधिपत्य वाली
किसी राशि पर भी हो तो फल शुभ होता
है।
प्रसिद्ध भारतीय ज्योतिषी वराह मिहिर ने
अपने ग्रन्थ वृहद् संहिता में शनि की शुभाशुभता का
विस्तार से वर्णन किया है। यह बुध, शुक्र और राहु का मित्र
तथा सूर्य, चंद्र और मंगल का शत्रु है। गुरु और केतु के साथ
समभाव रखता है।
यह तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव में श्रेष्ठ फल
देता है। अन्य किसी घर में इसका फल शुभ
नहीं होता। यह मृत्यु का कारक ग्रह है। यह
मकर राशि में अधिक बली होता है। यह पुष्य,
अनुराधा और उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र का स्वामी है।
यह नपुंसक और तामस स्वभाव वाला ग्रह है। इसे कालपुरुष का
दुख माना गया है। कालचक्र में शनि कर्म और उसके परिणाम का
प्रतीक है।
गोचर में यदि यह जन्म या नाम राशि से 12वां हो या जन्म राशि में
अथवा उससे दूसरा हो तो उन राशि वालों पर साढ़े साती
प्रभावी होती है। जब शनि गोचर में
जन्म या नाम राशि से चौथा या 8वां होता है तब यह अवधि ढैया
कहलाती है। शनि की साढ़े
साती या ढैया व्यक्ति को प्रेरित कर आत्मचिंतन,
नैतिकता एवं धार्मिकता की ओर ले जाती
है। शनि एक राशि में ढाई वर्ष रहता है। दीर्घायु
व्यक्ति के जीवन में शनि की
साढ़ेसाती प्रायः तीन बार आती
है। साढ़े साती या ढैया का प्रभाव सामान्यतः
कार्यक्षेत्र, आर्थिक स्थिति एवं परिवार पर पड़ता है।
तृतीय साढ़े साती स्वास्थ्य को अधिक
प्रभावित करती है। यह प्रभाव व्यक्ति
की कुंडली में शनि की स्थिति
के अनुसार शुभ या अशुभ होता है। गोचर में तीसरा,
छठा या ग्यारहवां शनि हमेशा शुभ एवं लाभदायी होता
है। शनि की साढ़ेसाती से
भयभीत होने की आवश्यकता
नहीं है। यह हमेशा कष्टदायी
नहीं होती है। शनि जीवन
में सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रह है। इस आलेख में शनि
की विभिन्न स्थितियों के फल का
निरूपण किया गया है। शनि का अन्य ग्रहों के साथ साहचर्य, भावों
और राशियों के साथ-साथ सभी लग्नों पर इसके प्रभाव
के अतिरिक्त साढ़ेसाती व ढैय्या की चर्चा
भी की गई है।
शास्त्रों में वर्णन है कि शनि वृद्ध, तीक्ष्ण,
आलसी, वायु प्रधान, नपुंसक, तमोगुणी
और पुरुष प्रधान ग्रह है। इसका वाहन गिद्ध है। शनिवार
इसका दिन है। स्वाद कसैला तथा प्रिय वस्तु लोहा है। शनि
राजदूत, सेवक, पैर के दर्द तथा कानून और शिल्प, दर्शन, तंत्र,
मंत्र और यंत्र विद्याओं का कारक है। ऊसर भूमि इसका
वासस्थान है। इसका रंग काला है। यह जातक के स्नायु तंत्र को
प्रभावित करता है। यह मकर और कुंभ राशियों का
स्वामी तथा मृत्यु का देवता है। यह ब्रह्म ज्ञान
का भी कारक है, इसीलिए शनि प्रधान लोग
संन्यास ग्रहण कर लेते हैं।
शनि सूर्य का पुत्र है। इसकी माता छाया एवं मित्र राहु
और बुध हैं। शनि के दोष को राहु और बुध दूर करते हैं।
शनि दंडाधिकारी भी है। यही
कारण है कि यह साढ़े साती के विभिन्न चरणों में
जातक को कर्मानुकूल फल देकर
उसकी उन्नति व समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है।
कृषक, मजदूर एवं न्याय विभाग पर भी शनि का
अधिकार होता है। जब गोचर में शनि बली होता है तो
इससे संबद्ध लोगों की उन्नति होती है।
कुंडली की विभिन्न भावों में शनि
की स्थिति के शुभाशुभ फल-
शनि भाव 3, 6,10, या 11 में शुभ प्रभाव प्रदान करता है।
प्रथम, द्वितीय, पंचम या सप्तम भाव में हो तो
अरिष्टकर होता है। चतुर्थ, अष्टम या द्वादश भाव में होने पर
प्रबल अरिष्टकारक होता है। यदि जातक का जन्म शुक्ल पक्ष
की रात्रि में हुआ हो और उस समय शनि
वक्री रहा हो तो शनिभाव बलवान होने के कारण शुभ
फल प्रदान करता है। शनि सूर्य के साथ 15 अंश के
भीतर रहने पर अधिक बलवान होता है। जातक
की 36 एवं 42 वर्ष की उम्र में अति
बलवान होकर शुभ फल प्रदान करता है। उक्त अवधि में शनि
की महादशा एवं अंतर्दशा कल्याणकारी
होती है।
शनि निम्नवर्गीय लोगों को लाभ देने वाला एवं
उनकीउन्नति का कारक है।
शनि हस्त कला, दास कर्म, लौह कर्म, प्लास्टिक उद्योग, रबर
उद्योग, ऊन उद्योग, कालीन निर्माण, वस्त्र निर्माण,
लघु उद्योग, चिकित्सा, पुस्तकालय, जिल्दसाजी, शस्त्र
निर्माण, कागज उद्योग, पशुपालन, भवन निर्माण, विज्ञान, शिकार
आदि से जुड़े लोगों की सहायता करता है। यह
कारीगरों, कुलियों, डाकियों, जेल अधिकारियों, वाहन चालकों
आदि को लाभ पहुंचाता है तथा वन्य जन्तुओं की
रक्षा करता है।

शनि से अन्य लाभ

1शनि और बुध की युति जातक को अन्वेषक
बनाती है।
2 चतुर्थेश शनि बलवान हो तो जातक को भूमि का पूर्ण लाभ मिलता
है।
3 लग्नेश तथा अष्टमेश शनि बलवान हो तो जातक
दीर्घायु होता है।
4तुला, धनु एवं मीन का शनि लग्न में हो तो जातक
धनवान होता है।
5 वृष तथा तुला लग्न वालांे को शनि सदा शुभ फल प्रदान करता है।
6 वृष लग्न के लिए अकेला शनि राजयोग प्रदान करता है।
7 कन्या लग्न के जातक को अष्टमस्थ शनि प्रचुर मात्रा में धन
देता है तथा वक्री हो तो अपार संपŸिा का
स्वामी बनाता है।
8 शनि यदि तुला, मकर, कुंभ या मीन राशि का हो तो
जातक को मान-सम्मान, उच्च पद एवं धन की प्राप्ति
होती है।
शनि से शश योग- शनि लग्न से केंद्र में तुला, मकर या कंुभ राशि में
स्थित हो तो शश योग बनता है। इस योग में
व्यक्ति गरीब घर में जन्म लेकर भी
महान हो जाता है। यह योग मेष, वृष, कर्क, सिंह, तुला,
वृश्चिक, मकर एवं कुंभ लग्न में बनता है। भगवान राम,
रानी लक्ष्मी बाई, पं. मदन मोहन
मालवीय, सरदार बल्लभ भाई पटेल आदि
की कुंडली में भी यह योग
विद्यमान है।

विभिन्न लग्नों में शनि की स्थिति के शुभाशुभ फल –

मेष: इस लग्न में शनि कर्मेश तथा लाभेश होता है। इस लग्न वालों
के लिए यह नैसर्गिक रूप से अशुभ है, लेकिन
आर्थिक मामलों में लाभदायक होता है।
वृष: इस लग्न में शनि केंद्र तथा त्रिकोण का स्वामी
होता है। उसकी इस स्थिति के फलस्वरूप जातक को
राजयोग एवं
सम्पति की प्राप्ति होती है।
मिथुन: इस लग्न में यदि शनि अष्टमेश या नवमेश होता है तो
जातक को दीर्घायु बनाता है।
कर्क: इस लग्न में शनि अति अकारक होता है।
सिंह: इस लग्न में यह षष्ठ एवं सप्तम घर का
स्वामी होता है। इस स्थिति में यह रोग एवं कर्ज देता
है तथा धन का नाश करता है।
कन्या: इस लग्न में शनि पंचम् तथ षष्ठ स्थान का
स्वामी होकर सामान्य फल देता है, किंतु यदि इस लग्न
में अष्टम
स्थान में नीच राशि का हो तो व्यक्ति को करोड़पति बनाता
है।
तुला: इस लग्न के लिए शनि चतुर्थेश तथा पंचमेश होता है। यह
अत्यंत योगकारक होता है।
वृश्चिकः इस लग्न में शनि तृतीयेश एवं चतुर्थेश
होकर अकारक होता है, किंतु बुरा फल नहीं देता।
धनु: इस लग्न के लिए शनि निर्मल होने पर धनदायक होता है,
लेकिन अशुभ फल भी देता है।
मकर: इस लग्न के लिए शनि अति शुभ होता है।
कुंभ: इस लग्न के लिए भी यह अति शुभ होता है।
मीन: शनि मीन लग्न वालों को धन देता है
लेकिन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।
भाव के अनुसार शनि का फल-
1 प्रथम भाव में शनि तांत्रिक बनाता है, किंतु शारीरिक
कष्ट देता है और पत्नी से मतभेद कराता है।
2 द्वितीय भाव में शनि सम्पति देता है, लेकिन लाभ के
स्रोत कम करता है तथा वैराग्य भी देता है।
3 तृतीय भाव में शनि पराक्रम एवं पुरुषार्थ देता है।
शत्रु का भय कम होता है।
4 चतुर्थ भाव में शनि हृदय रोग का कारक होता है,
हीन भावना से युक्त करता है और
जीवन नीरस बनाता है
5 पंचम भाव में शनि रोगी संतान देता है तथा दिवालिया
बनाता है।
6 षष्ठ भाव में शनि होने पर चोर, शत्रु, सरकार आदि जातक का
कोई नुकसान नहीं कर सकते हैं। उसे
पशु-पक्षी से धन मिलता है।
7 सप्तम भाव में स्थित शनि जातक को अस्थिर स्वभाव का तथा
व्यभिचारी बनाता है। उसकी
स्त्री झगड़ालू होती है।
8 अष्टम भाव में स्थित शनि धन का नाश कराता है।
इसकी इस स्थिति के कारण घाव, भूख या बुखार से
जातक की
मृत्यु होती है। दुर्घटना की आशंका
रहती है।
9 नवम् भाव में शनि जातक को संन्यास की ओर प्रेरित
करता है। उसे दूसरों को कष्ट देने में आनंद मिलता है।
36 वर्ष की उम्र में उसका भाग्योदय होता है।
10 दशम स्थान का शनि जातक को उन्नति के शिखर तक पहुंचाता
है। साथ ही स्थायी सम्पति
भी देता है।
11 एकादश भाव में स्थित शनि के कारण जातक अवैध स्रोतों से
धनोपार्जन करता है। उसकी पुत्र से अनबन
रहती है।
12 द्वादश भाव में शनि अपनी दशा-अतंर्दशा में जातक
को करोड़पति बनाकर दिवालिया बना देता है।

शनि की कुछ अन्य स्थितियों के शुभाशुभ फल:

1 तृतीय भाव का शनि स्वास्थ्य लाभ, आराम तथा शांति
प्रदान करता है। साथ ही शत्रु पर विजय दिलाता है।
2 षष्ठ भाव का शनि सफलता, भूमि, भवन, सम्पति एवं राज्य लाभ
कराता है।
3 एकादश भाव का शनि पदोन्नति, लाभ तथा मान सम्मान में वृद्धि
कराता है। साथ ही भूमि तथा
मशीनरी का लाभ देता है।
4 जिन जातकों के जन्म काल में शनि वक्री होता है
वे भाग्यवादी होते हैं। उनके क्रिया-कलाप
किसी अदृश्य
शक्ति से प्रभावित होते हैं। वे एकांतवासी होकर
प्रायः साधना में लगे रहते हैं।
धनु, मकर, कुंभ और मीन राशि में शनि
वक्री होकर लग्न में स्थित हो तो जातक राजा या गांव
का मुखिया होता है
और राजतुल्य वैभव पाता है। द्वितीय स्थान का शनि
वक्री हो तो जातक को देश तथा विदेश से धन
की प्राप्ति होती
है। तृतीय भाव का वक्री शनि जातक को
गूढ़ विद्याओं का ज्ञाता बनाता है, लेकिन माता के लिए अच्छा
नहीं होता है।
चतुर्थ भावस्थ शनि मातृ हीन, भवन
हीन बनाता है। ऐसा व्यक्ति घर-
गृहस्थी की जिम्मेदारी
नहीं निभाता और अंत
में संन्यासी बन जाता है। लेकिन, चतुर्थ में शनि तुला,
मकर या कुंभ राशि का हो तो जातक को पूर्वजों की
सम्पति
प्राप्त होती है। पंचम भाव का वक्री
शनि प्रेम संबंध देता है।
लेकिन जातक प्रेमी को धोखा देता है। वह
पत्नी एवं बच्चे की भी
परवाह नहीं करता है। षष्ठ भाव का
वक्री शनि
यदि निर्बल हो तो रोग, शत्रु एवं ऋण कारक होता है। सप्तम
भाव का वक्री शनि पति या पत्नी वियोग देता
है।
यदि शनि मिथुन, कन्या, धनु या मीन का हो तो एक से
अधिक विवाहों अथवा विवाहेतर संबंधों का कारक होता
है। अष्टम भाव में शनि हो तो जातक ज्योतिषी
दैवज्ञ, दार्शनिक एवं वक्ता होता है। ऐसा व्यक्ति तांत्रिक,
भूतविद्या,
काला जादू आदि से धन कमाता है। नवमस्थ वक्री शनि
जातक की पूर्वजों से प्राप्त धन में वृद्धि करता है।
उसे धर्म
परायण एवं आर्थिक संकट आने पर धैर्यवान बनाता है। दशमस्थ
शनि वक्री हो तो जातक वकील,
न्यायाधीश,
बैरिस्टर, मुखिया, मंत्री या दंडाधिकारी होता
है। एकादश भाव का शनि जातक को चापलूस बनाता है। व्यय
भावस्थ
वक्री शनि निर्दयी एवं आलसी
बनाता है।
[ “ईश्वर सिद्धि”

    सर्व प्रथम प्रश्न यह है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता है भी या नहीं। यद्यपि संसार के अधिकतम लोग ईश्वर में विश्वास रखते हैं। ( यद्यपि इन में ईश्वर के स्वरूप व कर्तव्य को लेकर अतीव मत भिन्नता है) पर ऐसा प्रतीत होता है कि वे केवल परम्परावश ऐसा मानते हैं । यही कारण है कि विभिन्न उपासना पद्धति का अवलम्बन करने वाली नई पीढ़ी से ईश्वर सम्बन्धी प्रश्न किए जाते हैं तो शीघ्र ही यह सामने आ जाता है कि ईश्वर की सत्ता में इनका दृढ़ विश्वास नहीं है और जब दृढ़ विश्वास ही नहीं है तो ईश्वर उपासना एवं ईश्वर प्राणिधान के कोई मायने नहीं रह जाते अत एव ईश्वर की सत्ता में अटूट विश्वास होना अत्यन्त आवश्यक है यह अटूट विश्वास ही परहित हेतु स्वयं का सर्वस्व निछावर कर देने की उदात्त भावना का आधार है।
    ईश्वर का प्रत्यक्ष कैसे हो ? 
   कुछ लोग ईश्वर का अस्तित्व इसीलिए नहीं मानते क्योंकि वह आंखों से दिखाई नहीं देता है। अर्थात्‌ जो पदार्थ आंखों से दिखाई देता है उसी का अस्तित्व माना जा सकता है। पर क्या यह अभिकथन सही है? तनिक भी गम्भीरता पूर्वक विचार करते हैं तो इस दावे की पोल खुल जाती है संसार में अनेकानेक ऐसे पदार्थ हैं जो दिखाई नहीं देते परन्तु उनका अस्तित्व निर्विवाद है।
    विचार करें निम्न परिस्थितियों में हमें वस्तुएं दिखाई नहीं देती हैं परन्तु क्या हम उनके अस्तित्व से इन्कार कर सकते हैं ? कदापि नहीं।
   इसी प्रकार का प्रसङ्ग साङ्ख्य दर्शन में आया है - "विषयोऽविषयोऽप्यतिदूरादेर्हानोपादानाभ्यामिन्द्रियस्य" (१/६३) 

(विषयःअपि) विषय भी (इन्द्रियस्य) इन्द्रिय का ( अविषयः) अविषय है (अतिदूरादेः) अतिदूर आदि (कारण) से (हानोपादानाभ्यां)हान और उपादान से(इन्द्रिय के)।
किसी वस्तु के अभाव को केवल इतने से निर्धारित नहीं किया जा सकता कि वह इन्द्रियों से नहीं जानी जा रही। यदि यह विचार ठीक होता की जो वस्तु इन्द्रिय द्वारा नहीं जानी जाती, उसका अभाव स्वीकार करना चाहिए तो अतीन्द्रिय प्रकृति आदि पदार्थों का अनुपलब्धि के कारण अभाव स्वीकार किया जा सकता था। परन्तु अनेक बार ऐसा होता है विद्यमान पदार्थ भी कुछ दोषों के कारण इन्द्रिय का अविषय रहता है, अर्थात् इन्द्रिय गोचर नहीं हो पाता।
वे दोष इस प्रकार हैं =अतिदूर- कोई भी पदार्थ अति दूर होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। जैसे आकाश में दूर उड़ता हुआ पक्षी चक्षु से नहीं दीख पाता यदि वही पदार्थ ठीक दूरी पर हो तो दिख जाता है। सूत्र का आदि पद ‘अतिदूर’ के विरोधी ‘अतिसमीप’ का परामर्शक है। इसप्रकार दूसरा दोष है =अतिसमीप- अतिसमीप होने पर भी कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती। जैसे आंख में लगाया हुआ अंजन उस आंख से नहीं दिखता। वही ठीक दूरी से अन्य आंख के द्वारा देखा जाता है। तीसरा दोष है=हान- इन्द्रिय शक्ति की हानि होना, अर्थात् इन्द्रिय की दुर्बलता, जैसे अन्धे और बधिर – रूप और शब्द का ग्रहण नहीं कर पाते। उन्हीं रूप और शब्द को वे ग्रहण कर लेते हैं जिनके चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय ठीक होते हैं। यह दोष इन्द्रियगत है अन्य दोष विषतगत हैं। चौथा दोष =उपादान- इन्द्रिय और विषय के मध्य में किसी अन्य वस्तु का उपस्थित हो जाना अर्थात् किसी भी मूर्तिमान वस्तु का व्यवधान। जैसे दीवार आदि के परे की विद्यमान वस्तु भी दृष्टिगोचर नहीं होती। वही वस्तु मध्य में दीवार न होने पर दिख जाती है। यह सब दोष ऐसे विषयों में लागू होते हैं जो किसी समय इन्द्रिय गोचर होते हों। इसीलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जो पदार्थ एक समय नहीं दिख रहा उसका तो अस्तित्व नहीं है।
सर्वथा अतीन्द्रिय प्रकृति आदि पदार्थों की अनुपलब्धि में इन दोषों को बाधक नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रकृति आदि पदार्थ कभी दृष्टिगोचर नहीं होते तब उनकी अनुपलब्धि उनके अभाव की ही साधक समझी जानी चाहिए।
सूत्रकार कहता है –
सौक्ष्म्यात्तदनुपलब्धिः।।(सांख्य१/७४)
सौक्ष्म्यात् तदनुपलब्धिः = (तदनुपलब्धिः) प्रकृति आदि की अनुपलब्धि (सौक्ष्म्यात्) सूक्ष्मता से है।
प्रकृति की अनुपलब्धि सौक्ष्म्य के कारण होती है जगत के मूल कारण सत्व-रजस्-तमस् अतिशय अणुरूप होने के कारण अति सूक्ष्म होते हैं उनका ग्रहण करना इन्द्रियों की शक्ति से परे है। जब इन्द्रियां उन्हें ग्रहण ही नहीं कर सकती तब इन्द्रियों के द्वारा उनकी अनुपलब्धि उनके अभाव का साधक नहीं कही जा सकती।
सूक्ष्म होने के कारण यदि इन्द्रियों से प्रकृति की अनुपलब्धि उसके अभाव की साधक नहीं, तो प्रकृति का ज्ञान किसी उपाय से होना चाहिए।
सूत्रकार कहता है –
कार्यदर्शनात्तदुपलब्धेः।।(सांख्य१/७५)
(कार्यदर्शनात्) कार्य ज्ञान से अथवा कार्य देखे जाने से ( तदुपलब्धेः) प्रकृति का ज्ञान हो जाने के कारण उसका अभाव नहीं ।
प्रकृति की उपलब्धि, कार्य देखने से हो जाती है। यद्यपि प्रकृति अतीन्द्रिय पदार्थ है पर यह समस्त जड़ जगत उसका कार्य है। हम देखते हैं यहां प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक व्यवहार, प्रत्येक विचार सुख-दुख-मोहात्मक है, इस प्रकार जगत त्रिगुणात्मक सिद्ध होता है। इसमें लगातार होने वाले परिणाम को देखकर हम यह जान लेते हैं कि इसका कोई त्रिगुणात्मक मूल उपादान अवश्य होना चाहिए क्योंकि कोई परिणामी तत्व अपने मूल उपादान के बिना नहीं हो सकता, यह नियम है। इसी प्रकार त्रिगुणात्मक कार्य जगत से उसके मूल उपादान त्रिगुणात्मक प्रकृति का अनुमान हो जाता है। फलतः केवल दृष्टिगोचर न होने से प्रकृति का अभाव नहीं माना जा सकता।
अनेक आशंकावादी मूल उपादान के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की कल्पना कर सकते हैं। उस अवस्था में त्रिगुणात्मक प्रकृति के अस्तित्व का सिद्धान्त स्थिर नहीं रहता। इसी आशंका को सूत्रकार कहता है –
वादिविप्रतिपत्तेस्तदसिद्धिरिति चेत्।।(सांख्य१/७६)
(वादिविप्रतिपत्तेः) वादियों के विरुद्ध कथन से ( तदसिद्धिः इति चेत्) (मूल उपादान ) प्रकृति की असिद्धि कहो यदि।
मूल उपादान के सम्बन्ध में वादी अनेक प्रकार के कथन उपस्थित कर सकते हैं। जैसे कोई चेतन ईश्वर से जगत की उत्पत्ति कहने लगे अथवा जगत का उपादान पुरुष को बताए । इसी प्रकार कोई स्वभाव को उपादान कहे। अन्य कोई अकारण ही जगत को उत्पन्न हुआ मान ले। कोई सूक्ष्म भूतों को समस्त जगत का उपादान बतलाए। इन सब मान्यताओं के रहने पर केवल प्रकृति को उपादान कैसे माना जा सकेगा ? इसी प्रकार वादियों के द्वारा मूल उपादान के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के कल्पित बाद उपस्थित कर देने से प्रकृति की निर्भ्रान्त सिद्धि नहीं हो सकती। ऐसी आशंका होने पर सूत्रकार कहता है-
तथाप्येकतरदृष्टया एकतरसिद्धेर्नापलादः (सांख्य१/७७)
(तथापि) तो भी ( एकतरदृष्टया) कार्य ज्ञान द्वारा (एकतर सिद्धेः) कारण की सिद्धि से ( अपलापः न) ‘प्रकृति का’ अपलाप नही।
इन सब कथित कल्पनाओं के होने पर भी समस्त वादियों ने कार्य कारण भाव को स्वीकार किया ही है। तब यह सिद्धान्त तो स्थिर माना जाएगा – कि एकतर कार्य के देखने से एकतर कारण की सिद्धि होती है। इस प्रकार कार्य के देखे जाने से कारण के अस्तित्व का अपलाप नहीं किया जा सकता। प्रत्येक वादी ने इस बात को निर्भ्रान्त रूप से स्वीकार किया है। कि कार्य मात्र का कोई मूल कारण अवश्य होता है।
वह मूल कारण प्रकृति ही क्यों हो सकता है अन्य नहीं?
सूत्र कार कहता है –
त्रिविधविरोधापत्तेश्च।।(सांख्य १/७८)
(त्रिविधविरोधापत्तेः) त्रिविधता के विरोध की आपत्ति से (च) तथा परिणामिता अचेतनता आदि के (विरोध की आपत्ति से)।
यदि त्रिगुणात्मक प्रकृति के अतिरिक्त, अन्य ईश्वर आदि को जगत का मूल उपादान माना जाए, तो संसार में अनुभूयमान त्रिविधता के विरोध की प्राप्ति होगी। जगत के प्रत्येक पदार्थ, व्यवहार तथा भावना में त्रिगुणात्मकता देखी जाती है इससे त्रिगुणात्मक मूल कारण का अनुमान किया जा सकता है। ईश्वर आदि को मूल उपादान मानने पर जगत की दृष्टत्रिगुणात्मकता का विरोध होगा क्योंकि ईश्वर आदि तत्व त्रिगुणात्मक नहीं हैं यदि उनको भी त्रिगुणात्मक मान लिया जाए तो शब्द मात्र का भेद होगा, मूल कारण तो त्रिगुणात्मक ही रहा। सूत्र का ‘च’ पद प्रकृति के परिणामी और चेतन आदि स्वरूप का संग्रह करता है। ईश्वर आदि को जगत का मूल उपादान मानने पर यथासंभव इसके परिणाम अचेतनत्व आदि का भी विरोध प्राप्त होगा।उस अवस्था में संसार परिणामी व अचेतन भी न हो सकेगा, जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के विरुद्ध है। इन सब कारणों से त्रिगुणात्मक प्रकृति को ही जगत का मूल उपादान स्वीकार किया जा सकता है।
इसी प्रसंग को “सांख्य कारिका” में ईश्वर कृष्ण ने इस प्रकार लिखा है –
अतिदूरात् समीप्यादिन्द्रियघातान्मेनोऽनवस्थानात्।
सौक्ष्म्याद् व्यवधानादभिभवात् समानाभिहाराच्च।। (सांख्यकारिका)
अतिदूरात् = अत्यन्त दूर होने पर – आकाश में उड़ता पक्षी।
समीप्यात् = अत्यन्त समीप होने से – आंख का काजल।
इन्द्रियघातात् = इन्द्रिय शक्ति की हानि – मोतियाबिन्द, रतौधी।
मनोऽनवस्थानात् = मन के विचलित होने पर – ध्यान कहीं अन्यत्र।
सौक्ष्म्यात् = अत्यन्त सूक्ष्म होने पर – अणु आदि।
व्यवधानात् = इन्द्रिय और विषय के बीच व्यवधान होने पर – दीवार के परे।
अभिभवात् = एक वस्तु के अभिभूत होने पर
समानाभिहारात् = किसी वस्तु के सजातीय सम्मिश्रण के कारण प्रत्यक्ष नही हो पाता।
प्रकृति और प्रमेय अत्यन्त सूक्ष्म और समीप होने से ही प्रत्यक्ष नही हो पाता है। यद्यपि कार्य के आधार पर उनकी उपलब्धि अनुमेय है।
० देखने में सहायक पदार्थ ना होने के कारण – सूर्य के प्रकाश या अन्य कृत्रिम प्रकाश के अभाव में ।
० आंख का विषय न होने के कारण – वायु, सुगन्ध तथा संगीत आदि नहीं देखे जा सकते।
० अभौतिक पदार्थ – सर्दी, गर्मी, भूख – प्यास, दर्द आदि।
० मध्य में आए आवरण के कारण – भूमिगत रत्नादि, कमरे में दीवार के पीछे की वस्तुएं दिखाई नहीं देती है।
० कुछ गुण समान होने के कारण – दूध में पानी, गाय के दूध में भैंस का दूध।
स्पष्ट है हर वस्तु आंखों से नहीं दीख सकती, केवल रूप गुण जिसमें है आंखों का विषय होने के कारण वही वस्तुएं दिखाई देती है परंतु ना दिखाई देने वाली वस्तुओं का भी अस्तित्व है यह निश्चित है।
वस्तुतः जैसा वस्तु का सम्बन्ध जिस ज्ञानेन्द्रिय से है हम उसी ज्ञानेन्द्रिय से वस्तु को जानते हैं जैसे इत्र का ज्ञान नासिका से, मीठे, खट्टे, नमकीन का ज्ञान रसना से, वायु की उपस्थिति, शीतादि का ज्ञान त्वचा से, व शब्द का ध्यान कर्णेन्द्रिय से करते हैं।
यहां यह भी स्पष्ट कर जान लेना चाहिए इन्द्रिय गोचर पदार्थ का ज्ञान ही इन्द्रियों द्वारा हो सकता है। अतीन्द्रिय पदार्थ का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा नहीं हो सकता परन्तु ऐसा ना हो सकने मात्र से इनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। उदाहरण के लिए इन्द्रियों को ही ले लीजिए इन्हें इन्द्रियों द्वारा तो जाना नहीं जा सकता क्योंकि कोई भी दृष्टा स्वयं दृश्य नहीं हो सकता और एक इन्द्रिय से दूसरी इन्द्रियों भी नहीं जानी जा सकती क्योंकि उनके विषय भिन्न भिन्न हैं।
आंख का विषय रूप, नासिका का गन्ध, जिह्वा का रस, त्वचा का स्पर्श और कानों का विषय शब्द है। अतः नाक – आंख को नहीं जान सकती, जिह्वा कानों को नहीं जान सकती‌। इन इन्द्रियों को भी इनसे काम लेने वाली चेतन शक्ति अनुभव से जानती है। अर्थात् जब वह रस का ज्ञान जिह्वा से प्राप्त करती है तो उसे रसनेन्द्रिय की जानकारी होती है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में है। यही अनुभव इन्द्रियों का प्रत्यक्ष है।
ठीक इसी प्रकार जीवात्मा बिना भौतिक इन्द्रीयों/ भौतिक करणों की सहायता से अष्टांग योग के मार्ग पर चलते हुए परमात्मा का साक्षात्कार करता है। महर्षि दयानन्द जी सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में स्पष्ट लिखते हैं – “और जब जीवात्मा शुद्धान्तःकरण से युक्त योगी समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है तब उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमान आदि से परमेश्वर के जान होने में क्या संदेह है क्योंकि कार्य को देखकर के कारण का अनुमान होता है।”
इन्द्रिय प्रत्यक्ष को ही सर्वोपरि अधिमान देने का आग्रह करने वाले मनीषियों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इन्द्रियों से गुणों का प्रत्यक्ष होता है न कि गुणी का। ऋषि लिखते हैं – अब विचारना चाहिए कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं।( सत्यार्थ प्रकाश सप्तम समुल्लास) इसका तात्पर्य है कि इन्द्रियों द्वारा अपने अपने विषय की सूचना ही मन को प्रेषित की जाती है। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति खस के शरबत का सेवन करता है तो रंग व तरलता की सूचना आंख द्वारा, गन्ध की सूचना नाक द्वारा, ठंडे होने की सूचना त्वचा द्वारा व मीठे होने की सूचना जिह्वा द्वारा मन को प्राप्त होने पर बुद्धि द्वारा समवेत रूप से विश्लेषण करने पर पूर्व स्मृति के आधार पर खस के शरबत का प्रत्यक्ष कर लिया ऐसा कहा जाता है। वस्तुतः प्रत्यक्ष तो भिन्न – भिन्न गुणों का ही हुआ है गुणी का नहीं । यदि यहां शरबत पीने वाले ने पूर्व में कभी इस पेय पदार्थ को नहीं पिया हो, इस पीने की कोई स्मृति उसके पास ना हो तो वह इतना मात्र ही कहेगा कि यह तरल पेय पदार्थ जो अमुक रंग का है, मीठा, शीतल व स्वादिष्ट है। और मेजबान से पूछेगा कि यह क्या है? अर्थात् गुणों का प्रत्यक्ष होने पर भी गुणी का प्रत्यक्ष न हुआ। होता यह है कि गुण – गुणी का समवाय सम्बन्ध होने से गुणों के साथ गुणी का प्रत्यक्ष मान लिया जाता है।मन की आशु गति के कारण यह प्रक्रिया इतने वेग से होती है कि हम गुणी का ही प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।
सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में ऋषि दयानन्द स्पष्ट लिखते हैं – जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथ्वी उसका आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है वैसे इस प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। हमारे विचार से ऋषि स्पष्ट ईश्वर प्रत्यक्ष मानते हैं।
न्याय दर्शनकार ने आठ प्रमाणों को मान्यता दी है जिनमें एक अनुमान प्रमाण है लोक में व्यवहृत अनुमान शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि अनुमान अत्यन्त साधारण कोटि का तर्क विहीन प्रमाण है परन्तु ऐसा नहीं है। अनुमान प्रमाण को भी किसी भी प्रकार कम करके नहीं आंका जा सकता। क्योंकि अनुमान वहीं होता है – जहां पूर्व में प्रत्यक्ष कार्य – कारण श्रंखला का ही एक घटक होने से दूसरे का निश्चय, अनुमान प्रमाण द्वारा किया जाता है। उदाहरण के तौर पर हम लोक में देखते आते हैं कि माता पिता के संयोग से पुत्र – पुत्री उत्पन्न होते हैं। अतः किसी पुत्र अथवा पुत्री को देखकर अनुमान प्रमाण के अन्तर्गत यह निश्चय से कहा जा सकता है की इनके माता-पिता भी निश्चित होंगे – फिर चाहे हमने उनके माता – पिता के दर्शन न भी किये हों। इसी प्रकार अग्नि व धूंए का साहचर्य जग प्रसिद्ध है अतः कालान्तर में धूंए को देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता है।
…. बरसात में पिएं अदरक का जूस, होंगे आश्चर्यजनक सेहत फायदे

  1. अदरक को सर्दी से बचाने में सबसे अधिक कारगर माना जाता है। यह सर्दी पैदा करने वाले बैक्टीरिया को खत्म करने के साथ-साथ सर्दी फिर से आपको परेशान न कर पाए, यह भी पक्का करती है। 
  2. अगर आप घने और चमकदार बाल चाहते हैं तो अदरक जूस का नियमित उपयोग आपकी यह इच्छा पूरी कर सकता है। इसे आप पी भी सकते हैं और सीधे सिर की त्वचा पर भी लगा सकते हैं। आपको सिर्फ यह ध्यान रखना है कि आप शुद्ध जूस सिर पर लगाएं जिसमें पानी की मात्रा बिलकुल न हो या न के बराबर हो। यह न केवल आपके बाल स्वस्थ बना देगा बल्कि यह आपको रूसी से भी छुटकारा दिला देगा।
     3. अदरक में खून को पतला करने का नायाब गुण होता है और इसी वजह से यह ब्लड प्रेशर जैसी बीमारी में तुरंत लाभ के लिए जाना जाता है। 
  3. सभी प्रकार के दर्द से राहत देने की इसकी क्षमता इसे बहुत ही खास बनाती है। चाहे आपके दांत में दर्द हो या सिर में- अदरक का जूस बहुत असरकारक है। शोधों के हिसाब से यह माइग्रेन से बचने में भी आपकी भरपूर मदद करता है।
     5. अगर आपको पाचन संबंधी कोई भी समस्या है, तो समझ लीजिए कि आपकी यह समस्या अब आपको और परेशान नहीं कर पाएगी। अदरक का जूस आपके पेट में पड़े हुए खाने को निकास द्वार की तरफ धकेलता है। अदरक का यह चमत्कारी गुण आपको न केवल पाचन और गैस बल्कि सभी तरह के पेट दर्द से भी निजात दिलाता है। 
  4. अदरक के जूस में गठिया रोग को भी ठीक करने की क्षमता होती है। इसके सूजन को खत्म करने वाले गुण गठिया और थायराईड से ग्रस्त मरीजों के लिए बहुत फायदेमंद हैं। 
  5. अदरक के जूस के नियमित इस्तेमाल से आप कोलेस्ट्रॉल को हमेशा कम बनाए रख सकते हैं। यह रक्त के थक्कों को जमने नहीं देता और खून के प्रवाह को बढ़ाता है और इस प्रकार हृदयाघात की आशंका से आपको बचाए रखता है।

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[बीमार पड़ने के पहले , ये काम केवल आयुर्वेद ही कर सकता है.

1–केंसर होने का भय लगता हो तो रोज़ाना कढ़ीपत्ते का रस पीते रहें.

2– हार्टअटेक का भय लगता हो तो रोज़ना अर्जुनासव या अर्जुनारिष्ट पीते रहिए.

3– बबासीर होने की सम्भावना लगती हो तो पथरचटे के हरे पत्ते रोजाना सबेरे चबा कर खाएँ .

4– किडनी फेल होने का डर हो तो हरे धनिये का रस प्रात: खाली पेट पिएँ.

5– पित्त की शिकायत का भय हो तो रोज़ाना सुबह शाम आंवले का रस पिएँ.

6– सर्दी – जुकाम की सम्भावना हो तो नियमित कुछ दिन गुनगुने पानी में थोड़ा सा हल्दी चूर्ण डालकर पिएँ.

7– गंजा होने का भय हो तो बड़ की जटाएँ कुचल कर नारियल के तेल में उबाल कर छान कर,रोज़ाना स्नान के पहले उस तेल की मालिश करें.

8– दाँत गिरने से बचाने हों तो फ्रिज और कूलर का पानी पीना बंद कर दें .

9– डायबिटीज से बचाव के लिए तनावमुक्त रहें, व्यायाम करें, रात को जल्दी सो जाएँ, चीनी नहीं खाएँ , गुड़ खाएँ.

10–किसी चिन्ता या डर के कारण नींद नहीं आती हो तो रोज़ाना भोजन के दो घन्टे पूर्व 20 या 25 मि. ली. अश्वगन्धारिष्ट ,200 मि. ली. पानी में मिला कर पिएँ .
किसी बीमारी का भय नहीं हो तो भी — 15 मिनिट अनुलोम – विलोम, 15 मिनिट कपालभाती,

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रोजाना 2 लौंग खाने से पाएं इन 5 बीमारियों से छुटकारा, जानें इसके औषधीय गुण

हमारी रसोई में ही कई ऐसी चीजें होती हैं जो हमारे लिए सेहत का खजाना होती हैं। सेहत के साथ सौंदर्य के लिए भी घरेलू चीजें बहुत काम आती है। लौंग इसमें से एक है।

सेहत ऐसी है जो कभी भी बिगाड़ सकती है। ऐसे में कुछ चीजें जो किचेन में होती हैं लेकिन उनके औषधीय गुणों का अंदाजा नहीं होता। लौंग ऐसी ही गुणों का खजाना है जो कई बीमारियों के साथ सौंदर्य निखार में भी काम आता है। लौंग मसाले के रूप में इस्‍तेमाल तो आपने खूब किया होगा लेकिन इसके फायदे भी जानना जरुरी है।

लौंग प्रोटीन, आयरन, कार्बोहाइड्रेट्स, कैल्शियम, फॉस्फोरस, पोटैशियम, सोडियम और हाइड्रोक्लोरिक एसिड से भरपूर होता है। सर्दी-जुकाम से लेकर और भी कई समस्‍याओं में लौंग का इस्तेमाल किया जाता है। तो आइये जाने इसके अचूक फायदे।

लौंग खाने के लाभ

1. पेट की तकलीफ करता है दूर:-
गैस, अपच, कांस्टीपेशन और एसिडिटी की समस्या से पीड़ित हैं तो लौंग काफी फायदेमंद होती है। सुबह खाली पेट एक ग्लास पानी में कुछ बूंदें लौंग के तेल की डालकर पिएं। इससे काफी आराम होगा और अगर आप रोज ऐसा करें तो ये जड़ से ख़त्म हो जायेगा।

2. चेहरे के दाग-धब्‍बे दूर करे:-
चहरे के दाग-धब्बों को दूर लड़ने में लौंग का कोई तोड़ नहीं होता। इतना ही नहीं अगर आपका रंग सांवला है तो इसके लिए भी लौंग काम आएगा। इसके लिए लौंग के पाउडर को किसी फेसपैक या फिर बेसन और शहद के साथ मिलाकर लगाया जा सकता है। मगर सिर्फ लौंग का पाउडर कभी चेहरे पर नहीं लगाना चाहिए क्योंकि यह बहुत गर्म होता है।

3. रूखे बालों को बनाए सिल्‍की:-
जिन लोगों के बाल अक्सर झड़ते हैं या फिर सूखे-सूखे से रहते हैं उन्हें लौंग से बना कंडीशनर इस्तेमाल करना चाहिए। इसके साथ ही लौंग को थोड़े से पानी में गर्म कर उससे बाल धोएं। इससे बाल घने और मजबूत होते। आप चाहें तो लांग के तेल को नारियल के तेल में मिक्स कर मालिश भी कर सकते हैं।

4. सर्दी जुकाम में भी दे राहत:-
सर्दी-जुकाम की समस्या के वक्त मुंह में साबुत लौंग रखने से जुकाम के साथ ही गले में होने वाले दर्द से भी काफी आराम मिलता है। इतना ही नहीं अगर आप गर्म पानी में एकबूंद लौंग का तेल दाल कर भाप लें। इससे भी काफी फायदा होगा।

5. मुंह की बदबू होगी दूर:-
मुंह से बदबू आती हो टोलों खाना शुरू करें। करीब 40 से 45 दिनों तक रोज सुबह मुंह में एक या दो लौंग का सेवन करने से इस समस्या से जड़ से खत्म हो जायेगी।

कुछ उपाय अगर लौंग या लौंग के तेल से किए जाएँ तो इससे बीमारियां ही नहीं दाग धब्बे और सर्दी जुकाम तक सही किये जा सकते हैं।

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: धर्म और अधर्म के मध्य बहुत बारीक लकीर होती है।
धर्म हमारे अंदर स्थापित होता है जबकि लोग इसे बाहरी आवरण से दिखाने का प्रयास करते है।
निराकार और साकार दो तरह की आस्था होती है।
प्रत्येक आस्था में तीन मार्ग होते हैं ।
भक्ति मार्ग ।
कर्मकांड
व ज्ञान मार्ग , जिसे कि ध्यान अथवा आध्यात्म मार्ग भी कहा जाता है।
समाज व्यवस्था के स्वरूप संत पुरुषों ने नियमावली की व्यवस्था करी और उसे धर्म के कर्मकांड से संस्कारों के द्वारा स्थापित किया।
जब स्वयं का विवेक जागृत हो जाता है तो उसे इन सब के संबंध स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं।
इन सब का लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करना होता है जिसका अर्थ होता है कि इसी जीवन में सभी तरह की अवस्था में रहते हुए पूर्ण आनंद की प्राप्ति जब आप का योग परमात्मा से हो जाता है तब आपके अंदर निर आनंद की स्थिति पैदा हो जाती है ऐसा आनंद जो सदैव आपके अंदर रहता है और आप स्वयं को नियंत्रित रख सकते हैं और आपको देखकर दूसरा अन्य भी प्रभावित होता है और इस तरह की व्यवस्था धीरे-धीरे जब सामूहिक हो जाती है तब नई संस्कृति सतयुग का आरंभ होता है ।
आप स्वयं के लिए नहीं जीते आप बूंद से सागर हो जाते हैं और आपके जीवन में जो आपको आनंद मिला उसे सामूहिकता में बांटते हैं ताकि अन्य लोग भी उस आनंद को प्राप्त कर समाज की व्यवस्था को सुचारू और समृद्ध कर सकें।

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