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: ज्योतिष चर्चा
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वृश्चिक लग्न जातको का स्वास्थ्य-रोग, शिक्षा-व्यवसाय एवं आर्थिक स्थिति
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स्वास्थ्य और रोग👉 वृश्चिक लग्न के जातक बाल्यावस्था को छोड़ सामान्यतः बहुत कम बीमार या रोग ग्रस्त होते हैं। यदि किसी कारणवश बीमार हो जाए तो शीघ्र स्वस्थ भी हो जाते हैं। इनकी अस्वस्थता के प्रमुख कारणों में असंयमित खानपान एवं अत्यधिक आवेश एवं विषय वासना व श्रम की अधिकता विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यदि वृश्चिक राशि अथवा लग्नेश मंगल राहु, शनि, शुक्र आदि शत्रु एवं पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो जातक को मूत्राशय एवं जननेंद्रिय संबंधी योन रोग, पाचन क्रिया में विकार, अंडकोष में सूजन, मधुमेह, गुर्दे या पित्ताशय में पथरी, रक्त विकार इसके अतिरिक्त वृश्चिक लग्न में छठी मेष राशि होने से वृश्चिक जातक को अनिद्रा, उत्तेजना, तनाव, मानसिक दबाव, उच्च रक्तचाप एवं मस्तिष्क संबंधी रोगों की संभावना होती है।

सावधानी👉 वृश्चिक जातक को अत्यधिक मानसिक एवं शारीरिक श्रम, उद्विग्नता उत्तेजना, अनियमितता एवं तामसिक भोजन आदि से परहेज करना चाहिए।

शिक्षा एवं कैरियर👉 जन्म कुंडली में गुरु मंगल, सूर्य, चंद्र आदि ग्रह स्पष्ट हो अथवा सूर्य, गुरु का या चंद्र, गुरु, मंगल का दृष्टि संबंध हो या जातक को इन्हीं योग कारक ग्रह में से किसी ग्रह की दशा अंतर्दशा भी चल रही हो तो वृश्चिक लग्न का जातक/ जातिका उच्च विद्या के क्षेत्र में अच्छी सफलता प्राप्त कर लेता है। यदि ग्रहों की स्थिति एवं परिस्थितिवश जातक को उच्च विद्या ना भी प्राप्त हो सके तो भी वृश्चिक जातक को गुरु के कारण धार्मिक, पौराणिक, ज्योतिष आदि गुप्त विद्याओं तथा अन्य तकनीकी विद्याओं को जानने व सीखने की विशेष रुचि रहती है। पारंपरिक उच्च विद्या में किसी कारणवश विघ्न हो तो भी सामान्य ज्ञान अच्छा होता है। और भाषा पर अच्छा अधिकार होता है। तथा अपने करियर के प्रति विशेष सतर्क होते हैं। यदि किसी कुंडली में लग्न एवं कर्मेश सूर्य पर गुरु की शुभ दृष्टि हो तो जातक भाषा शास्त्री अनेक भाषाओं का ज्ञान एवं उच्च प्रतिष्ठित प्राध्यापक होता है। यदि कुंडली में सूर्य, बुध, गुरु का योग हो तथा शनि भी शुभस्थ हो तो जातक चार्टर्ड अकाउंटेंट होता है तथा सरकारी क्षेत्रों में भी अच्छा लाभ उठाता है। यदि वृश्चिक कुंडली में लग्नेश मंगल उच्चस्थ होकर तृतीय भाव में भाग्यस्थ गुरु द्वारा दृष्ट हो शनि भी स्वक्षेत्रीय उच्चस्थ हो तो जातक प्रिंटिंग उद्योग, क्रय विक्रय अथवा निजी व्यवसाय द्वारा अच्छा धनार्जन करता है।

उच्च के सूर्य पर गुरु की शुभ दृष्टि हो तो जातक/जातिका मेडिकल क्षेत्र में सफल होता है। यदि कुंडली में भाग्येश चंद्रमा लग्नेश मंगल का स्थान परिवर्तन योग हो तथा तृतीयेश शनि द्वादश भाव मे हो तो जातक का भाग्योदय विदेश में होता है। यदि लग्नेश मंगल दशम भाव में सूर्य से योग करता हो तो जातक खेल, सेना, पुलिस, योग आदि में सफल होता है।

व्यवसाय और आर्थिक स्थिति👉 वृश्चिक लग्न के जातक अत्यंत पराक्रमी, परिश्रमी बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी तथा अपने लक्ष्य के प्रति सतर्क रहने के कारण व्यवसाय के किसी भी क्षेत्र में जहां परिश्रम उत्साह एवं जोखिम के कार्य हो वहां लाभ व उन्नति प्राप्त कर लेते हैं।

जन्म कुंडली में मंगल-सूर्य-गुरु-चंद्र-शनि आदि ग्रह शुभस्थ हो अथवा उनमें परस्पर शुभ संबंध हो एवं इन्हीं ग्रहों में से किसी ग्रह की दशा अंतर्दशा चल रही हो तथा गोचर में भी इन्हीं में से किसी शुभ ग्रहों का संचार चलता हो तो वृश्चिक जातक निम्नलिखित विषयों में से किसी एक में अच्छी सफलता प्राप्त कर सकते हैं। जैसे:- चिकित्सा क्षेत्र में मेडिकल स्टोर, डॉक्टर, सर्जन, इंजीनियर, राजनीतिज्ञ, सेना-पुलिस अधिकारी, स्पोर्ट्स, प्रोफेसर (प्राध्यापक), ज्योतिषी, अनुसंधानकर्ता, प्रिंटिंग, उद्योग, राजनेता, कूटनीतिज्ञ, बॉक्सिंग, जासूस, नेवी, लोहे, चमड़े या रबड़ उद्योग से संबंधित व्यवसाय, वकालत, होटल एवं रेस्टोरेंट एवं खानपान संबंधित, स्कूल आदि शिक्षा संस्थान, उच्च प्रतिष्ठित सरकारी अफसर, धार्मिक संस्था के अग्रणी, ऊनी वस्त्र, ठेकेदार, प्रबंध एवं सुरक्षात्मक प्रबंधन से संबंधित व्यवसाय, ईट, पत्थर, रबड़, पेंट व रंग, पाइप फिटिंग, बिल्डिंग निर्माण संबंधी सामग्री, क्रय विक्रय, विदेश गमन, बिजली, वाणिज्य, योग, कंप्यूटर विशेषज्ञ एवं बौद्धिक कार्य संबंधित व्यवसाय में विशेष सफल हो सकते हैं।

आध्यात्मिक पक्ष👉 वृश्चिक लग्न/राशि से काल पुरुष के गुप्त अंगो की विवेचना की जाती है। यहीं पर मूलाधार चक्र भी है। इसी चक्र में अवस्थित कुंडलिनी शक्ति का जागरण कर योग विद्या से मस्तिष्क में स्थिति ब्रह्म चक्र से संयोजित किया जाता है। जिसे आध्यात्म की भाषा में आत्मसाक्षात्कार कहा जाता है। मूलाधार चक्र में अमृत तत्व का निवास भी माना जाता है। इसी कारण वृश्चिक लग्न राशि के जातकों में कामुक एवं रचनात्मक प्रवृतियों के साथ-साथ आध्यात्मिक एवं दैवीय प्रवृतियों की प्रबलता भी पाई जाती है।

आर्थिक स्थिति👉 वृश्चिक जातक की जन्म कुंडली में यदि गुरु-चंद्र-सूर्य-शनि आदि ग्रहों की स्थिति अच्छी हो तथा इनही शुभ एवं योगकारक ग्रहों में से किसी ग्रह की दशा अंतर्दशा चल रही हो तो जातक की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है। वृश्चिक जातक अपनी अदम्य, ऊर्जा, परिश्रम और दृढ़ इच्छाशक्ति से निर्वाह योग्य आय के साधन बना ही लेता है। यदि शुक्र भी शुभस्थ हो तो व्यवसाय एवं धनार्जन व संचय में पत्नी का भी सक्रिय सहयोग होता है। जातक भूमि, आवास, व्यवसाय, वाहन एवं संतान आदि सुखों से संपन्न होता है। वृश्चिक जातक बाधाओं का साहसपूर्वक सामना करते हैं तथा ऐसे जातक प्रायः किफायतसार एवं सोच समझकर खर्च करने वाले होते हैं। जातक आडम्बर दिखावा एवं प्रदर्शन में फिजूलखर्ची से यथासंभव परहेज करते हैं। परंतु अपने परिवार के हित की दृष्टि से उदारता से व्यय करते हैं। यदि शुक्र अष्टम या एकादश भाव में राहु सूर्य आदि ग्रहों से युक्त व दृष्ट हो तो जातक असंयमी, वस्त्रों, सौंदर्य प्रसाधन, एवं व्यसनों पर खर्च करने वाला होगा।

प्रेम एवं वैवाहिक सुख👉 वृश्चिक जातक/ जातिका प्रेम और रोमांस के संबंध में गंभीर, स्पष्टवादी एवं इमानदार होते हैं। प्रेम आकर्षण के बारे में भी जल्दबाजी नहीं करते अपितु भावनात्मक एवं बौद्धिक साम्यता को देख कर ही प्रेम प्रकट कर पाते हैं। परंतु जब एक बार किसी से प्रेम हो जाए तो पूरी गहराई एवं निष्ठा से निभाते हैं। शुक्र अशुभ होने की स्थिति में विवाह के उपरांत अपनी पत्नी को जीवन की सब सुख सुख सुविधाएं प्रदान करते हैं। वृश्चिक जातक की कुंडली में मंगल एवं शुक्र आदि शुभ हो तो जातक की पत्नी सुशील, ईमानदार, संतान आदि सुखोंसे युक्त तथा पति को प्रिय होगी। यदि मंगल-शुक्र की युति सप्तम, अष्टम या द्वादश में हो तो दांपत्य जीवन में वैमनस्य रहता है।

अनुकूल राशि से मित्रता👉 वृश्चिक जातक को सामान्य जीवन में, व्यवसाय के क्षेत्र में एवं वैवाहिक क्षेत्र में निम्न राशि वालों के साथ संबंध बनाने शुभ एवं लाभप्रद रहेंगे। परंतु विवाह संबंधों में अपने भावी जीवन साथी की राशि मैत्री की अतिरिक्त नक्षत्रों के गुण मिलान तथा कुंडली में मांगलिक दोष आदि का विचार भी कर लेना चाहिए। वृश्चिक जातक को मेष, वृष, कर्क, सिंह, कन्या, धनु और मीन राशि वाले जातकों के साथ विवाह, व्यवसाय आधी संबंध लाभप्रद होगा। वृश्चिक और मकर राशि वालों के साथ मध्यम तथा मिथुन, तुला, कुंभ राशि वालों के साथ संबंध विशेष लाभप्रद नहीं रहेंगे।


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कुण्डली मिलान

नाड़ी मिलान

नाडी मिलान कुण्डली मिलान की प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण मिलान माना जाता है।इसे कुण्डली मिलान मे 8अंक आवंटित किया जाता है।संतान उत्पत्ति और स्वास्थ्य इस मिलान का मुख्य उद्देश्य है। यह माना जाता है कि एक नाड़ी वाले वर और कन्या के विवाह से संतान उत्पत्ति मे समस्या़ और संतान के स्वास्थय से संबंधित शिकायत हो सकती है।

नाड़ी मिलान विधी

जन्म नक्षत्र के आधार पर नाड़ी को 3 भाग मे बांटा गया है।

1) आदि नाड़ी – जन्मनक्षत्र–
अश्विनी, आद्रा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता, ज्येष्ठा,मूला, शतभिषा , पुर्वभद्रापद

2)मध्य नाड़ी – जन्मनक्षत्र –
भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पुर्वफाल्गुणी, चित्रा अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा, उत्तरभद्रापद

3)अंत्य नाड़ी – जन्मनक्षत्र–
कृतिका, रोहणी, अश्लेषा, माघा, स्वाति,विशाखा, उत्तराषाढ़,श्रवणा, रेवती

नाड़ी मिलान के लिए एक नाडी होने पर 0 अंक आवंटित की जाती है और इसे नाड़ी दोष माना जाता है। भिन्न नाड़ी होने पर 8 अंक आंवटित किया जाता है।

कुंडली में मांगलिक दोष और परिहार :– (सामान्य कथन)

      (( सॉफ्टवेर गुरु के चेले कुछ आत्मघोषित उपाधिधारी फेसबुकिया ज्योतिष- आचार्यों ने "मंगलदोष- तत्त्व" क्या है, ठीक से न समझकर भी, सिर्फ अपने को विज्ञपित करने के लिए कंहा- कंहा पोस्ट डालकर अपने चेले-चमचे के साथ अद्भुत अनाप- शनाप- प्रलाप- सम्भूत बितर्क सुरु कर देते हैं। उनके भ्रामक धारणा को मार्जित करने और लोगों को सचेतन करने के लिए ये लेख है।।))

    प्राचीन ग्रन्थों में क्या है, क्या नही है, ये एक अलग मुद्दे। क्योंकि एक ही ऋषि का नाम और लगभग समान जैसा श्लोक के साथ प्राचीन मन्य एकाधिक ग्रन्थों से, किसीको प्राचीन है की नहीं, आज प्रमाण करना मुश्किल है। ऐसी दृष्टि में देखने से महर्षि जैमिनी, महर्षी पराशर, महर्षी भृगु आदि के ग्रन्थों सभी लोजिकाली पुरानी और जुड़े हुए नयी बात की मिलावट खिचड़ी होंगे, इसी में कोई शक नहीं। किंतु एक- एक करके उपलब्ध सबको कष्ट उठाकर संग्रह करके, कॉम्परेटिवली या तुलनात्मक रूप में स्टडी करने से सही तथ्य मालूम होता है -- ये विद्वानों का अनुभव है।।

     👍 कुल बारह भावों से पांच बोलिये या छह, ये सब भावों से कोई एक में ही मंगल बैठेने से दोषप्रद -- ऐसी धारणा हमारे पारम्परिक सिद्ध तत्त्व, जो आजतक चले आ रहे है। और, कोई इस तत्त्व को पुरानी मान्यता दें या इस जमाना की प्रक्षिप्त/ मिलावट खिचड़ी भी बोले-- पहले तो ये सूत्र ऋषि- ग्रन्थों में से ही है, है की नहीं ! जो तजुर्बाहीन नईपीढियों के ज्योतिषी लोग अनुभवी विद्वान गुरु और पुरानी ग्रन्थों से ज्यादा अपने सफ्टवेरे गुरुओं को मान्यता देते हैं, उनके नकारात्मक दृष्टिकोण से प्राचीन परंपरा को फेंक कर मिटा देना क्या बुद्धिमानी होगा ! ऐसे शंखासुरी जैसे चरित्रों के लिए ही हमारे शास्त्रों से कुछ भी तत्त्वज्ञान, उत्तरपीढियों के लिए नहीं बचेगा।।

    "मंगल दोष को बताने के लिए सिर्फ दो लाइन श्लोक है; परन्तु दोष खंडन के लिए लगभग विंश लाइन श्लोक और भी है।"

     निरपेक्ष होकर ध्यान से विचार करने में सौ कुंडली में से, ज्यादा से ज्यादा सायद दो- तीन में "दोष" ठहर सकता है और दोषयुक्त कुंडली के साथ दोषयुक्त कुंडली मिलान से दोष भी मिट सकता है। इसलिए विबाह- निष्पत्ति से पहले, किसी विद्वान तथा अनुभवी ज्योतिष पंडित जी को श्रद्धा से उनका निर्द्दिष्ट दक्षिणा प्रदान कर, कुंडली मिलान कराने के साथ आशीर्वाद लेने से दाम्पत्य- भविष्य को सुरक्षित करना सम्भव होगा।।

      रही बात, डराना और प्रतिकार नाम में पैसा लूट करना-- जो सर्वत्र नहीं, कुछ क्षेत्र में हो सकता है। ऐसे लूट से राहत पाने के लिये, सिर्फ विश्वस्त तथा अनुभवी विद्वान ज्योतिषी जी से सलाह लेना ही सही रास्ता है।।

      भारतीय ज्योतिष- शास्त्रीय- परम्परा में लग्न, 4, 7,  8, 12--- ये पांचों भावों से कोई एक भाव में भी जन्मकालीन मंगल स्थिति को विबाह में अड़चन/ क्ष्यतिकारी मांगलिक दोष रूप में लिया जाता है। द्वितीय भाव में मंगल स्थिति को भी कुछ ग्रन्थों ने दोषप्रद दर्शाया गया है। इसलिये विद्वानों ने बारह भावों से छह भावों में ही दोषप्रद मंगल स्थिति का विबेचना करते हैं। इसके साथ मंगल दोष क्या है, कबतक टिकता है, कैसे शांत होगा या नहीं होगा-- इस असली मुद्दे पर मूल शास्त्रोक्त सभी दोष-  परिहार संज्ञक श्लोकों को समझ कर, विबेचना करेंगे, तो सौ दोषप्रद कुंडली से लगभग दो/ तीन कुंडली ही दोषप्रद होने की स्पष्ट मालूम हो जाएगा।।

     शास्त्र के अनुसार, "एक कुंडली की दोष को दूसरे कुंडली की दोष भी परिहार करता है"। फिर भी जंहा ऐसे दोषप्रद दो कुंडली मिलाप के लिए नहीं मिलता, वंहा उन्हों के लिए बिबाह से पहिले ही शास्त्रीय बिधि-विधान युक्त प्रचलित प्रतिकार स्वरूप, कुम्भ/ अश्वत्थ बिबाह किया जाता है। फिर भी कुछ कारण वशः जंहा ये उपाय नहीं किया जाता है, वंहा कितने उम्र के बाद विबाह होने से ऐसी दोष की प्रभाव सामान्य या मलिन हो जाता है, ये तथ्य भी अनुभवी विद्वान ज्योतिषीओं से मिल सकता है।।

   परवर्त्ति एक पोस्ट में ऋषि- शास्त्र- प्रोक्त "मंगल दोष परिहार" के ऊपर विस्तार में एक स्वतंत्र लेख परिभाषित किया जाएगा।।

जय जगन्नाथ।। ॐ शांतिः।।

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ग्रह जनित रोगों का सामान्य विचार एवं ग्रहो द्वारा रोग विवरण एवं रोग मुक्ति का ज्योतिषीय गणना से सम्भावित समय एवं उपाय
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रोगों में शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार के रोग आते हैं. इसके अतिरिक्त दुर्घटना इत्यादि का सम्बन्ध भी रोग एवं पीड़ा से होता है. रोगादि एवं शारीरिक पीड़ा का प्रारम्भ जन्म से ही हो जाता है।

गोचर काल मे ग्रह जब भ्रमण करते हुए संवेदनशील राशियों के अंगों से होकर गुजरता है तो वह उनको नुकसान पहुंचाता है। नकारात्मक ग्रहों के प्रभाव को ध्यान में रखकर आप अपने भविष्य को सुखद बना सकते हैं।

वैदिक वाक्य है कि पिछले जन्म में किया हुआ पाप इस जन्म में रोग के रूप में सामने आता है। शास्त्रों में बताया है-पूर्व जन्मकृतं पापं व्याधिरूपेण जायते अत: पाप जितना कम करेंगे, रोग उतने ही कम होंगे। अग्नि, पृथ्वी, जल, आकाश और वायु इन्हीं पांच तत्वों से यह नश्वर शरीर निर्मित हुआ है। यही पांच तत्व 360 अंशों की राशियों का समूह है।

इन्हीं में मेष, सिंह और धनु अग्नि तत्व, वृष, कन्या और मकर पृथ्वी तत्व, मिथुन, तुला और कुंभ वायु तत्व तथा कर्क, वृश्चिक और मीन जल तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। कालपुरुष की कुंडली में मेष का स्थान मस्तक, वृष का मुख, मिथुन का कंधे और छाती तथा कर्क का हृदय पर निवास है जबकि सिंह का उदर (पेट), कन्या का कमर, तुला का पेडू और वृश्चिक राशि का निवास लिंग प्रदेश है। धनु राशि तथा मीन का पगतल और अंगुलियों पर वास है।

इन्हीं बारह राशियों को बारह भाव के नाम से जाना जाता है। इन भावों के द्वारा क्रमश: शरीर, धन, भाई, माता, पुत्र, ऋण-रोग, पत्नी, आयु, धर्म, कर्म, आय और व्यय का चक्र मानव के जीवन में चलता रहता है। इसमें जो राशि शरीर के जिस अंग का प्रतिनिधित्व करती है, उसी राशि में बैठे ग्रहों के प्रभाव के अनुसार रोग की उत्पत्ति होती है। कुंडली में बैठे ग्रहों के अनुसार किसी भी जातक के रोग के बारे में जानकारी हासिल कर सकते हैं।

कोई भी ग्रह जब भ्रमण करते हुए संवेदनशील राशियों के अंगों से होकर गुजरता है तो वह उन अंगों को नुकसान पहुंचाता है।

सामान्य रुप से कुंडली में ग्रहों की स्थितियों से रोगों के कारण निम्नलिखित हैं-

  1. लग्न एवं लग्नेश का अशुभ स्थिति में होना.
  2. चंद्रमा का क्षीण अथवा निर्बल होना अथवा चन्द्रलग्न में पाप ग्रहों का उपस्थित होना.
  3. लग्न, चन्द्रमा एवं सूर्य तीनों पर ही पाप अथवा अशुभ ग्रहों का प्रभाव होना.
  4. जन्मपत्रिका में शनि, मंगल आदि पाप ग्रहों का गुरु, शुक्र आदि शुभ ग्रहों की अपेक्षा अधिक बलवान होना.
  5. अष्टमेश का लग्न में होना अथवा लग्नेश का अष्टम भाव में उपस्थित होना.
  6. लग्नेश की अपेक्षा षष्ठेश का अधिक बली होना.

उक्त सभी योगों के अतिरिक्त यदि किसी जातक की जन्मपत्रिका में अरिष्ट योग बनता हो, तो भी जन्म के पश्चात उसे अनेक कष्टों एवं रोगादि का सामना करना पड़ता है।

कौन सा ग्रह किस रोग का कारक
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  1. सूर्य : पित्त, वर्ण, जलन, उदर, सम्बन्धी रोग, रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी, न्यूरोलॉजी से सम्बन्धी रोग, नेत्र रोग, ह्रदय रोग, अस्थियों से सम्बन्धी रोग, कुष्ठ रोग, सिर के रोग, ज्वर, मूर्च्छा, रक्तस्त्राव, मिर्गी इत्यादि.
  2. चन्द्रमा : ह्रदय एवं फेफड़े सम्बन्धी रोग, बायें नेत्र में विकार, अनिद्रा, अस्थमा, डायरिया, रक्ताल्पता, रक्तविकार, जल की अधिकता या कमी से संबंधित रोग, उल्टी किडनी संबंधित रोग, मधुमेह, ड्रॉप्सी, अपेन्डिक्स, कफ रोग,मूत्रविकार, मुख सम्बन्धी रोग, नासिका संबंधी रोग, पीलिया, मानसिक रोग इत्यादि.
  3. मंगल : गर्मी के रोग, विषजनित रोग, व्रण, कुष्ठ, खुजली, रक्त सम्बन्धी रोग, गर्दन एवं कण्ठ से सम्बन्धित रोग, रक्तचाप, मूत्र सम्बन्धी रोग, ट्यूमर, कैंसर, पाइल्स, अल्सर, दस्त, दुर्घटना में रक्तस्त्राव, कटना, फोड़े-फुन्सी, ज्वर, अग्निदाह, चोट इत्यादि.
  4. बुध : छाती से सम्बन्धित रोग, नसों से सम्बन्धित रोग, नाक से सम्बन्धित रोग, ज्वर, विषमय, खुजली, अस्थिभंग, टायफाइड, पागलपन, लकवा, मिर्गी, अल्सर, अजीर्ण, मुख के रोग, चर्मरोग, हिस्टीरिया, चक्कर आना, निमोनिया, विषम ज्वर, पीलिया, वाणी दोष, कण्ठ रोग, स्नायु रोग, इत्यादि.
  5. गुरु : लीवर, किडनी, तिल्ली आदि से सम्बन्धित रोग, कर्ण सम्बन्धी रोग, मधुमेह, पीलिया, याददाश्त में कमी, जीभ एवं पिण्डलियों से सम्बन्धित रोग, मज्जा दोष, यकृत पीलिया, स्थूलता, दंत रोग, मस्तिष्क विकार इत्यादि.
  6. शुक्र : दृष्टि सम्बन्धित रोग, जननेन्द्रिय सम्बन्धित रोग, मूत्र सम्बन्धित एवं गुप्त रोग, मिर्गी, अपच, गले के रोग, नपुंसकता, अन्त:स्त्रावी ग्रन्थियों से संबंधित रोग, मादक द्रव्यों के सेवन से उत्पन्न रोग, पीलिया रोग इत्यादि.
  7. शनि : शारीरिक कमजोरी, दर्द, पेट दर्द, घुटनों या पैरों में होने वाला दर्द, दांतों अथवा त्वचा सम्बन्धित रोग, अस्थिभ्रंश, मांसपेशियों से सम्बन्धित रोग, लकवा, बहरापन, खांसी, दमा, अपच, स्नायुविकार इत्यादि.
  8. राहु : मस्तिष्क सम्बन्धी विकार, यकृत सम्बन्धी विकार, निर्बलता, चेचक, पेट में कीड़े, ऊंचाई से गिरना, पागलपन, तेज दर्द, विषजनित परेशानियां, किसी प्रकार का रियेक्शन, पशुओं या जानवरों से शारीरिक कष्ट, कुष्ठ रोग, कैंसर इत्यादि.
  9. केतु : वातजनित बीमारियां, रक्तदोष, चर्म रोग, श्रमशक्ति की कमी, सुस्ती, अर्कमण्यता, शरीर में चोट, घाव, एलर्जी, आकस्मिक रोग या परेशानी, कुत्ते का काटना इत्यादि.

कब होगी रोग मुक्ति
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किसी भी रोग से मुक्ति रोगकारक ग्रह की दशा अर्न्तदशा की समाप्ति के पश्चात ही प्राप्त होती है. इसके अतिरिक्त यदि कुंडली में लग्नेश की दशा अर्न्तदशा प्रारम्भ हो जाए, योगकारक ग्रह की दशा अर्न्तदशा-प्रत्यर्न्तदशा प्रारम्भ हो जाए, तो रोग से छुटकारा प्राप्त होने की स्थिति बनती हैं. शनि यदि रोग का कारक बनता हो, तो इतनी आसानी से मुक्ति नही मिलती है,क्योंकि शनि किसी भी रोग से जातक को लम्बे समय तक पीड़ित रखता है और राहु जब किसी रोग का जनक होता है, तो बहुत समय तक उस रोग की जांच नही हो पाती है. डॉक्टर यह समझ ही नहीं पाता है कि जातक को बीमारी क्या है और ऐसे में रोग अपेक्षाकृत अधिक अवधि तक चलता है।

मंत्र जाप, व्रत एवं ग्रह सम्बन्धी वस्तुओं के दान से ग्रह जनित रोगों का निवारण
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ग्रहों की शुभता और अशुभता जन्म कुंडली में भावगत स्थित ग्रहों के अनुसार होती है। जन्म कुंडली में भावगत ग्रह शुभ स्थिति में हैं, तो व्यक्ति को परिणाम भी अच्छे मिलते हैं। यदि अशुभ स्थिति में हैं, तो बनते हुए काम भी बिगड़ जायेंगे प्रतिकूल ग्रहों को अनुकूल बनाने के लिए ग्रह सम्बन्धी मंत्र का जप या व्रत करें। यह उपाय इतने सरल और सुगम हैं, जिन्हें कोई भी साधारण व्यक्ति आसानी से कर सकता है।

सूर्य के लिए👉 सूर्य की प्रतिकूलता दूर करने के लिए रविवार का व्रत रखें। भोजन नमक रहित करें। सूर्य सम्बन्धी वस्तुओं- गुड, गेहूं, या ताम्बे का दान किसी औसत उम्र वाले व्यक्ति को दें। दान रविवार को सांयकाल करें। यदि चाहें तो गाय या बछड़े को गुड-गेहूं खिलाएं| अपने पिताजी की सेवा करें। यह नहीं कर सकें तो प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करके आदित्य ह्रदयस्त्रोत का पाठ करें।

चंद्रमा के लिए👉 यदि कुंडली में चंद्रमा, प्रतिकूल चल रहा हो तो सोमवार का उपवास शुरू कर दें। अपनी माँ की सेवा करें। सोमवार को शाम किसी युवती को शंख, सफ़ेद वस्त्र, दूध, चावल व चांदी का निरंतर दान करते रहें। गाय को सोमवार को सना हुआ आता खिलाएं। चंद्रमा यदि दोषप्रद हो तो व्यक्ति दूध का प्रयोग नहीं करें।

मंगल के लिए👉 मंगल की प्रतिकूलता से बचाव के लिए मंगलवार का व्रत रखें। अपने छोटे भाई-बहन का विशेष ख्याल रखें। मंगल की वस्तुओं – लाल कपडा, गुड, मसूर की दाल, स्वर्ण, ताम्बा, तंदूर पर बनी मीठी रोटी का यथा-शक्ति दान करते रहें। आवेश पर हमेशा नियंत्रण रखने का प्रयास करें। हिंसात्मक कार्य से दूर रहें।

बुध के लिए👉 बुध दोष निवारणार्थ बुधवार का उपवास करें। इस दिन उबले हुए मूंग गरीब व्यक्ति को खिलाएं। गणेशजी की अभ्यर्थना दूर्वा से करें। हरे वस्त्र, मूंग की दाल का दान बुधवार मध्याह्न करें। बुध के दोष दूर करने के लिए अपने वजन के बराबर हरी घांस गायों को खिलाएं। बहिन व बेटियों का हमेशा सम्मान करें।

गुरु के लिए👉 देवगुरु बृहस्पति यदि दशावाश या गोचरवश प्रतिकूल परिणाम दे रहे हों तो गुरूवार का उपवास करें। इसके अलावा केले की पूजा, पीपल में नित्य जल चढ़ाना, गुरुजनों व विद्वान व्यक्तियों का सम्मान करने से भी गुरु की प्रतिकूलता दूर होती है।

शुक्र के लिए👉 शुक्र की प्रतिकूलता दूर करने के लिए शुक्रवार का व्रत किसी शुक्लपक्ष से प्रारम्भ करें। फैशन सम्बन्धी वस्तुओं इत्र, फुलेल, डियोडरेंट इत्यादि का प्रयोग ना करें। रेशमी वस्त्र, इत्र, चीनी, कर्पूर, चन्दन, सुगन्धित तेल इत्यादि का दान किसी ब्राह्मन युवती को दें।

शनि/राहू- केतु के लिए👉 शनि राहू – केतु मुख्यतया जप-तप की बजाय दान दक्षिणा से ज्यादा प्रसन्न होते हैं। इनके द्वारा प्रदत्त दोष निवारणार्थ शनिवार का व्रत रखें। सुबह पीपल को जल से सींचे व सांयकाल गृत का दीपक जलाएं। काले वस्त्र व काली उड़द, लौह, तिल, सरसों का तेल, गाय आदि का दान करें।


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