Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

प्रकृति

  अनन्त आकाश के अनन्त शून्य में अनन्त कोटि ब्रह्मांड हैं। शुद्ध ज्ञानमय ज्योतिर्मय ब्रह्म-समुद्र में अनन्त ब्रह्मांडों का  लहरों की तरह उदय और लय हो रहा है तो कहीं पर विनाश का तांडव चल रहा है। किसी ब्रह्मांड पर प्रलय का समय आ गया है। कहीं पर विचित्र प्रकृति, विचित्र सृष्टि देखने में आ रही है। कहीं पर जीवशून्य भूमि दिखलाई पड़ रही है। अनन्त महाशून्य में अलग-अलग आवरण से अनेक ब्रह्मांड अनन्त काल से घूम रहे हैं। अगर विचार पूर्वक देखा जाय तो दश दिशा व्यापी अनंत आकाश का किस जगह जाकर अंत होगा--हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि दशों दिशाओं के आकाश की कहीं कोई परिधि है ? जिस प्रकार आकाश की सीमा का न तो किसी दिशा में आदि है और न तो है अंत ही, उसी प्रकार दृश्यमान ग्रह, उपग्रह, सूर्य नक्षत्र द्वारा व्याप्त ब्रह्मांड समूह भी संख्यातीत और अनन्त होंगे--इसमें कोई संदेह नहीं है।
  लेकिन उस विराट पुरुष या परब्रह्म के जो ब्रह्मांडों के रचयिता हैं, स्वरूप का ध्यान कर मन आश्चर्यचकित हो जाता है और हो जाता है मस्तिष्क जड़ और शून्य। सोचने की क्षमता खत्म हो जाती है उस विराट ब्रह्म की कल्पना मात्र करके। ईश्वर की #चितसत्ता और #सतसत्ता के आश्रय से महाप्रकृति का स्वाभाविक त्रिगुणात्मिका, तरंगमयी आध्यात्मिक सृष्टि का अनन्त विस्तार है और निरंतर हो रहा है जिसकी न तो उत्पत्ति दृष्टिगोचर होती है और न तो अन्त ही। परब्रह्म अनादि अनन्त होने से महाप्रकृति की : सृष्टि, स्थिति और प्रलय के रूप में क्रम भी अनन्त है।
 प्रकृति में चार प्रकार की सृष्टि है। पहली सृष्टि #अदृष्ट से उत्पन्न होती है। दूसरी सृष्टि उत्पन्न होती है #विवर्तभाव से। तीसरी सृष्टि #परिणात्मिका है और चौथी सृष्टि #प्रारंभ सृष्टि कहलाती है। इनमें से अदृष्ट सृष्टि और प्रारंभ सृष्टि #जीव #पिंड से सम्बन्ध रखती है। अदृष्ट सृष्टि जीव के पूर्ण कर्मों द्वारा होती है जिससे जीव का शरीर उत्पन्न होता है। इसके लिए जीव पराधीन है। आरम्भ सृष्टि जीव के कर्मों द्वारा होती है। विवर्त और परिणात्मिका सृष्टि #प्रकृति से सम्बन्ध रखती है। जीव-सृष्टि का प्रवाह ब्रह्मांड में सतत चलता रहता है। वही #परिणात्मिका सृष्टि कहलाती है।
 प्रकृति में सृष्टि के जो चार भेद हैं जब उन्हें हम पिण्ड और ब्रह्माण्ड के साथ मिलाकर देखें तो सृष्टि का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है।
 ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार स्थूल ब्रह्माण्ड का वर्णन मिलता है। प्रत्येक ब्रह्मांड का शक्ति-केंद्र सूर्य ही है। तदनुसार यह ब्रह्माण्डवर्ती सूर्य ही इस ब्रह्माण्ड का केंद्र है। समस्त ग्रह-उपग्रह उसी के आकर्षण और विकर्षण शक्ति के प्रभाव से उसी के चारों ओर प्रदक्षिणा करते हैं। समस्त ब्रह्मांड में ज्योतिष्मान कोई भी वस्तु नहीं है। समस्त ज्योति का आधाररूप सूर्य ही है। ब्रह्मांड के अंतर्गत समस्त ग्रह-उपग्रह में सूर्यरूपी ज्योति का संचार होता है। हमारे सौर मंडल में अब तक ऐसे 268 ग्रह-उपग्रह का पता चला है जो सूर्य के प्रकाश से प्रकाशमान होकर सूर्य का चक्कर लगाते रहते हैं। ग्रह सूर्य की प्रदक्षिणा करते हैं और उपग्रह ग्रहों की प्रदक्षिणा करते हैं। इन सब ग्रहों-उपग्रहों को लेकर हमारा सौर मंडल का सूर्य भी किसी अज्ञात सूर्यरूपी #ध्रुव की प्रदीक्षिणा करता रहता है।
 उन्हीं ग्रहों में से एक ग्रह त्रिआयामी हमारी पृथ्वी भी है जहां प्रकृति की अद्भुत छटा फैली पड़ी है। यह पंच महाभूतों से बनी हुई है। ग्रहों में किसी में एक तत्व प्रधान है, किसी में दो तत्व प्रधान हैं। जहां तक हमारी पृथ्वी का प्रश्न है तो इसमें पांचों तत्वों की प्रधनता है। समस्त ग्रहों-उपग्रहों में सूक्ष्म जीवों का वास है। कोई भी ग्रह-उपग्रह जीवशून्य नहीं है। अब यह अलग बात है कि अभी हमने ग्रहों पर सूक्ष्म जीवों की खोज नहीं कर पाई है।
 268 ग्रह-उपग्रहों में 8 ग्रह मुख्य हैं। छुद्र ग्रह 240 हैं और उपग्रह और चन्द्र 20 हैं। इसके अनुसार पृथ्वी का 1 चन्द्र, मंगल के 2, गुरु के 4, शनि के 8, युरेनस के 4 और नेप्च्यून के 1 चन्द्र का प्रमाण मिलता है।
 हम आप सभी जानते हैं कि हमारी पृथ्वी 365 दिनों में सूर्य का चक्कर लगाती है। इसी प्रकार अन्य ग्रह भी अपनी-अपनी गति से परिक्रमा करते हैं। नेप्च्यून के बाद शायद अभी किसी नए ग्रह का पता नहीं चल पाया है। अपने समस्त सौर परिवार सहित हमारा सूर्य द्रुत गति से महासूर्य रूपी ध्रुव के चारों ओर प्रदीक्षिणा कर रहा है। यही पंच महाभूतमय स्थूल ब्रह्मांड है। ऐसे अनन्त ब्रह्मांडों द्वारा ब्रह्म का विराट स्वरूप सुशोभित है। यही अनादि और अनन्त आध्यात्मिक चमत्कार है।
  आदि देव ब्रह्मा ने समस्त चराचर जगत की मानसिक सृष्टि की थी। ब्रह्मांड की सभी सृष्टियों में आदि देव ब्रह्मा की ही मानस सृष्टि है। इस सब सृष्टि को 10 भागों में विभाजित किया गया है। हमारे आदि ग्रन्थों में यह प्रमाण मिलता है।
  1- प्रकृति के गुण, स्वभाव से पहली सृष्टि #महत्तत्व की है। 2- दूसरी सृष्टि #अहमतत्व की है जो दृव्यात्मक, क्रियात्मक और ज्ञानात्मक सृष्टि उत्पन्न करने वाली है। 3- तीसरी सृष्टि सूक्ष्म तत्व अथवा सूक्ष्म तन्मात्राओं की है जिनमें दृव्य यानी स्थूल पंच महाभूत उत्पन्न करने की शक्ति निहित है। 4- चौथी सृष्टि ज्ञानेंद्रियों और कर्मेन्द्रियों की है। 5- पांचवीं सृष्टि इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवों की तथा 6- छठी सृष्टि मन की है।
 तम, मोह, महामोह, तामिस्र और अंध तामिस्र नामक #अविद्या की है जो अबुद्धि पूर्वक स्वतः उत्पन्न होती है। ये छः प्रकार की सृष्टि #प्रकृतिजन्य है। इसके बाद सातवीं, आठवीं और नवमीं सृष्टि है जिनमें उद्भिज, श्वेदज, अंडज, जरायुज, पशु जरायुज और मनुष्य है। यह सब #वैकृत सृष्टि है। #दैवीय सृष्टि दसवीं सृष्टि है।
  ब्रह्मांडीय गति का प्रवाह चकरावर्त होने के कारण #व्यष्टि सृष्टि का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर होता है अर्थात तमोगुण से सत्वगुण की ओर चलता है। परंतु #समष्टि सृष्टि का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर चलता है। इसलिए ब्रह्मांड प्रकृति सृष्टि के समय सत्वगुण और सतयुग पहले आता है और सत्वगुण और रजोगुण अभिव्यक्त होकर त्रेतागुग आता है। रजोगुण और तमोगुण प्रधान द्वापर युग इसके बाद आता है। अंत में तमोगुण प्रधान कलियुग तममय होता है।यही ब्रह्मांड प्रकृति की #चक्रावर्त गति है। लेकिन देव जगत में ब्रह्मांडीय प्राकृतिक गति अधोमुख है जिस कारण तामसिक शक्ति पहले उत्पन्न होती है। मानव में यही कारण देखा गया है। पुराणों में देखने से पता चलता है कि आसुरी शक्ति जब प्रबल होती है तो उसके बाद ही दैवीय शक्ति प्रकट होती है।
  सृष्टि के विस्तार के लिए ब्रह्माजी ने सात्विक मन से निराकार ब्रह्म का ध्यान की अवस्था में मनन किया। मनन करते ही प्रथम मानस सृष्टि हुई जिससे चार पुत्र हुए--सनक, सनंदन, सनातन और सनत कुमार। ब्रह्मांड प्रकृति की यह प्रथम अभिव्यक्ति होने से चारों पुत्र #ऊर्ध्वरेता थे और कर्म से अनासक्त थे। जब ब्रह्माजी ने इनसे आगे सृष्टि चाही तो उन्होंने अस्वीकार कर मोक्ष धर्म परायण होकर वे परब्रह्म में रम गए। देखा जाय तो यह ब्रह्मांड में प्रथम सृष्टि थी ब्रह्मांड प्रकृति की। इसका वर्णन श्रीमद्भागवत में आता है।  इसके बाद ब्रह्मा ने पुनः ध्यान किया तो प्रकृति के संचालन हेतु दस  मानस पुत्रों का जन्म हुआ जिनके नाम इस।प्रकार हैं--मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष और नारद। ब्रह्मांड प्रकृति की गति नीचे की ओर होने से इन मानस पुत्रों की इच्छा हुई सृष्टि विस्तार की। इसीलिए ये #प्रजापति कहलाते हैं।
  इस प्रकार दस प्रजापतियों ने दूसरे स्तर में उत्पन्न होने के कारण सत्वगुण और रजोगुण मिश्रित होकर सृष्टि विस्तार में भाग लिया। उनके द्वारा तीसरे सृष्टि क्रम में जो मानवी सृष्टि हुई, वह थी--पूर्ण गुणसम्पन्न ब्राह्मण की। ब्राह्मण का मतलब जाति से नहीं, बल्कि सत्वगुण प्रधान व्यक्तित्व से है। कहते हैं कि जन्म के समय बालक ईश्वर का स्वरूप होता है। वह बालक पूर्ण सात्विक होता है उस समय। पहले समस्त जगत ब्रह्ममय होने से ब्राह्मण युक्त था। बाद में समयानुसार और युगानुसार प्रकृति निम्नमुखी होती गयी और उसमें रजोगुण, तमोगुण का मिश्रण होता गया। सत्त्वगुण प्रधान ब्राह्मण की जगह रजोगुण प्रधान क्षत्रिय वर्ण विकसित हुआ। फिर रज और तम मिलकर वैश्य वर्ण। इसी प्रकार अंत में  तमोगुण प्रधान होने से शूद्र व्यक्तित्व उत्पन्न हुआ।

         

Recommended Articles

Leave A Comment