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                      *चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ मानव योनि को प्राप्त करके जीव का परम लक्ष्य होता है आवागमन से मुक्ति अर्थात मोक्ष प्राप्त करना | मानव योनि इसलिए क्योंकि मानव योनि को छोड़कर शेष सभी भोग योनियां कही गयी हैं | इस मानव शरीर में आकर जीव भवसागर को पार करने अर्थात मोक्ष प्राप्त करने का उद्योग करता है | मोक्ष प्राप्त करने का अर्थ हुआ परमात्मा को प्राप्त कर लेना | परमात्मा को प्राप्त करने के अनेकों उद्योग मनुष्य द्वारा किया जाते रहे हैं परंतु परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कैसा होना चाहिए इसका वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने मुखारविन्द से किया है :-- "निर्मानमोहा जितसंगदोषा , अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा: ! द्वन्दैर्विमुक्ता सुखदु:खसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढ़ा: पद मव्ययं तत् !!" अर्थात :- जो मान और मोह से रहित हो गए हैं , जिन्होंने आसक्ति से होने वाले दोषों पर विजय प्राप्त कर ली है ,  जो नित निरंतर परमात्मा में ही लगे हुए है , जो संपूर्ण कामनाओं से रहित हो गए हैं , जो सुख-दुख नामक द्वंदों से मुक्त हो गए हैं ऐसे मोह रहित साधक उस अविनाशी परमात्मा को प्राप्त होते हैं | आदिकाल से ही ऋषियों ने इस सत्य को जान लिया था कि मनुष्य जब तक प्रकृति के गुणों के आधीन रहता है , जब तक वह अहंता , ममता व वासना की जड़ों द्वारा बंधा रहता है तब तक वह अपने मूल स्वरुप को , परम तत्व परमात्मा को उपलब्ध नहीं हो सकता है | इनसे मुक्ति का , मोक्ष का पथ एक ही है कि व्यक्ति निष्काम हो तथा उन बंधनों से स्वयं को काटे जो आवागमन का ,  इस संसार चक्र में बने रहने का कारण बनते हैं | क्योंकि उनसे मुक्ति के उपरांत इस संसार में लौटने की बाध्यता स्वयं समाप्त हो जाती है |*

आज के भौतिक काल में मनुष्य सुख-दुख , मान – अपमान , ईर्ष्या – द्वेष , काम , क्रोध , मद , लोभ , अहंकार के भंवर में इस प्रकार फंस गया है कि उसे परमात्मा को प्राप्त करने का , या उसके विषय में सोचने का अवसर ही नहीं मिल रहा है | कहने को तो ईश्वर की प्राप्ति करने के लिए मनुष्य अनेक उपाय कर रहा है परंतु भगवान श्री कृष्ण द्वारा बताए गए कितने दोषों का त्याग कर पा रहा है यह स्वयं में एक यक्षप्रश्न है | आधुनिकता की चकाचौंध में आज का मनुष्य स्वयं को भूलता जा रहा है | हमें यही लगता है कि इसका मुख्य कारण मनुष्यों द्वारा अपने सदग्रंथों का अध्ययन ना करना एवं निष्काम भाव का समाप्त होना ही हो सकता है | आज मनुष्य के द्वारा सकाम भाव को ही प्रधानता दी जा रही है | मनुष्य सुख एवं दुख के भंवर में डूबता एवं उतराता हुआ अपना जीवन यापन कर रहा है | मनुष्य उस परम तत्व को प्राप्त करने के लिए साधन करने का प्रयास तो करता है परंतु सांसारिकता में उसका मन फंस करके बार बार उसको भगवत पथ से विरक्त करने का प्रयास करता रहता है और सफल भी हो जाता है | मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने शायद इसीलिए लिखा है :- “इंद्री द्वार झरोखा नाना” इंद्रियों के वशीभूत होकर के मनुष्य वह कर्म नहीं कर पा रहा है जिसके द्वारा उसे इस भवसागर से मुक्ति प्राप्त हो सकती है |

जो मनुष्य मान , मोह से परे चला गया हो , कामनाओं की आशक्ति पर विजय प्राप्त करके बैठा हो , निरंतर परमात्मा की चिंतन में निमग्न हो , उसे कौन से सुख-दुख की परवाह होगी | उसे भला कौन सा द्वंद सताएगा | समझ लो उसके लिए मुक्ति के द्वार स्वयं खुल चुके हैं |

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