Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

नाथ संप्रदाय और योग की दिव्य परंपरा 🔱

हम आज जितने भी आसन, प्राणायाम, षट्कर्म, मुद्राएं, ध्यान की विधियां, नादानुसंधान, सोऽहं का अजपाजाप, कुण्डलिनी शक्ति की साधना, चक्र साधना, नाड़ी विज्ञान, शिव साधना, शक्ति साधना, गुरु के प्रति भक्ति, पिंड ब्रह्माण्ड विवेचन आदि साधनाएं करते हैं, ये सब नाथयोग की देन हैं। योग द्वारा चिकित्सा और मन की शांति के लिए ध्यान भी नाथयोग से आया है। आज जितना भी योग का फैलाव है उसका आधार नाथयोग ही है। जिसको हम कपालभाति प्राणायाम के नाम से जानते हैं, वह प्राणायाम नहीं है, बल्कि षट्कर्म का अभ्यास है, इसके अतिरिक्त धौति, बस्ती, नेति, नौलि, त्राटक ये सभी क्रियाएं भी हठयोग की ही साधना हैं। ताड़ासन, चक्रासन, हलासन, सर्वांगासन, भुजंगासन, धनुरासन, मंडूकासन, बकासन, मयूरासन, शीर्षासन, वृक्षासन, पद्मासन, शवासन आदि जितने भी आसन हम करते हैं ये सभी हठयोग के हैं। अनुलोम-विलोम, नाड़ीशोधन, उज्जायी, शीतली, सीत्कारी, भस्त्रिका, भ्रामरी आदि प्राणायाम हठयोग के हैं। मूलबन्ध, उड्डियान बंध और जालंधर बंध भी हठयोग के हैं।

लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि हठयोग की साधना और कुछ नहीं, बल्कि नाथयोग की ही साधना का एक अंग है। अतः आज हम जो भी योगाभ्यास कर रहे हैं, वह सब असल में नाथयोग की परंपरा का ही अभ्यास है। नाथ में ‘ना’ का अर्थ होता है शिव और ‘थ’ का अर्थ है शक्ति। नाथयोग शक्ति को शिव से मिलाने की प्रक्रिया है। इसमें साधक विभिन्न योगाभ्यासों से शरीर को हल्का, मजबूत व निरोगी बनाकर मन को एकाग्र व शांत करते हैं, चक्र साधना से कुण्डलिनी शक्ति को जगाते हैं, जिससे वह शक्ति सहस्रार चक्र अर्थात शिव के साथ ‘एक’ हो जाती है और साधक मुक्ति को प्राप्त होता है। इन क्रियाओं के जरिये मुक्ति मरने के बाद नहीं, बल्कि जीते जी होती है।

नाथ संप्रदाय आदिनाथ भगवान शिव की परंपरा से चला आ रहा है। इसमें समय-समय पर अनेक सिद्ध योगी हुए हैं।
इनमें नौ नाथ प्रमुख हैं, इसके अलावा चौरासी नाथ सिद्धों का भी वर्णन है।
लेकिन इन सभी में आदिनाथ शिव
दादा गुरु मत्स्येन्द्रनाथ और उनके
शिष्य नाथ शिरोमणि गुरु गोरक्षनाथ प्रमुख रहे हैं।
योगी मत्स्येंद्र नाथ जी भगवान शिव के मानस पुत्र माने जाते हैं।
और परमगुरू गोरक्षनाथजी स्वयं शिव ही है,
जिन्होंने गुरू शिष्य परंपरा को आगे बढ़ाने हेतु,
बालजती स्वरूप धारण किया,
इस रहस्य का उद्घाटन करते हुए
स्वयं गुरू गोरक्षनाथ जी अपने वचनामृत में कहते है,

अवधू मच्छिंदर हमरै चेला भणीजै ,
ईश्वर बोलिये नाती ||
निगुरी पिरथी परलै जाती,
ताथै हम उलटी थापना थापी ||

अर्थात – यहाँ इस शब्दी में गोरक्षनाथ जी कहते हैं –
हे अवधूत, यहाँ मच्छिंद्रनाथ हमारे चेले जानें और
ईश्वर हमारे नाती हैं, याने चेले के भी चेले हैं।
हम ही स्वयं परम शिव है, परमात्मा है,
फिर हमें गुरू धारण करने की क्या आवश्यकता ?
किंतु हमनें इस विचार से अज्ञानी लोग बिना गुरूके ही योगी होनेका दम न भरें,घोषणा न करें।
क्योंकि एेसी घोषणाओं से पूरी पृथ्वी निगुरी याने बगैर गुरूजी के होकर रहेगी और अग्यान रूपी प्रलय होगा।
इसलिए हमने याने हमारे परमात्म स्वरूपनें, गोरखनाथजीने उल्टा काम शुरू किया याने
“उलटी थापना थापी”,
अपने ही शिष्य के शिष्य बनकर सिद्धो की परंपरा आगे बढाई |

उनके सिर पर भुरी बावरी जटाएं,
माथे पर भस्म,
कानों में दिव्य कुंडल तथा शरीर सुडौल और बड़ा आकर्षक था वे अजरामार और सदाही बाल रूप में ही माने गए है,
ऐसे कम ही महापुरुष होंगे, जिनके साथ सौंदर्य का इतना गहरा भाव चित्रित किया गया हो।
गोरक्षनाथ जी भारतीय परंपरा में सबसे सुंदर योगी थे,
अपितु उन्हें निर्गुण और निराकार ही माना गया है,
गोरक्षनाथ जी परम तेजस्वी, ओजस्वी, उदारवादी, कवि, लोकनायक, चतुर व दार्शनिक योगी थे।
नाथ संप्रदाय में उनको आदि पुरुष, ब्रह्म तुल्य, अमर, एवं शिवावतार माना जाता है, उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें अमनस्कयोग, गोरक्ष पद्धति, गोरक्ष चिकित्सा, महार्थ मंजरी, योग बीज, हठयोग, सबदी, पद आदि साठ से ज्यादा हिंदी और संस्कृत ग्रंथों का वर्णन आता है।

परमपद का मार्ग : –
जगतगुरू गुरु गोरक्षनाथ कहते हैं- संयमित जीवन में शारीरिक सुख ही स्वर्ग है, जीवन में रोग व दुख की अवस्था ही नरक है, कर्म ही बंधन है और इच्छा रहित सहज स्वाभाविक अवस्था ही मुक्ति है। गोरखनाथ ने यत्पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे का विवेचन भी बड़े विस्तार से किया है।
नाथ परंपरा में दो तरह की दीक्षा होती है ! एक गृहस्थ जिसमें साधक गृहस्थ जीवन में रहकर भी अपने दायित्वों को निभाते हुए गुरु प्रदत्त मंत्र की साधना कर स्वकल्याण कर सकते है ! और दूसरा सन्यास दीक्षा ‘ जिसमें संसार के समस्त बंधनो को त्यागकर गुरु शरण में रहकर गुरु द्वारा बताये मार्ग पर चलकर परम् पद की प्राप्ति की जाती है ‘ यह मार्ग अत्यंत कठिन और दुष्कर है ! दोनों में गुरु द्वारा शिष्य को मंत्र दीक्षा दी जाती है। इस मंत्र का जप ही शिष्य को परमपद तक पहुंचाने में सहायक होता है।
ॐ शिव गोरक्ष आदेश !! अलख निरंजन !!

Recommended Articles

Leave A Comment