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।। श्रीहरिः ।।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

कामनाओंकी निवृत्ति ही परमशान्तिका उपाय है।


    वास्तवमें शरीर आदिका वियोग तो प्रतिक्षण हो ही रहा है। साधकको प्रतिक्षण होनेवाले इस वियोगको स्वीकारमात्र करना है। इन वियुक्त होनेवाले पदार्थोंसे संयोग माननेसे ही कामनाएँ पैदा होती हैं। जन्मसे लेकर आजतक निरन्तर हमारी प्राणशक्ति नष्ट हो रही है और शरीरसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है। जब एक दिन शरीर मर जायगा, तब लोग कहेंगे कि आज यह मर गया। वास्तवमें देखा जाय तो शरीर आज नहीं मरा है, प्रत्युत प्रतिक्षण मरनेवाले शरीरका मरना आज समाप्त हुआ है अतः कामनाओंसे निवृत्त होनेके लिये साधकको चाहिये कि वह प्रतिक्षण वियुक्त होनेवाले शरीरादि पदार्थोंको स्थिर मानकर उनसे कभी अपना सम्बन्ध न माने।
    वास्तवमें कामनाओंकी पूर्ति कभी होती ही नहीं। जबतक एक कामना पूरी होती हुई दीखती है, तबतक दूसरी अनेक कामनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। उन कामनाओंसे जब किसी एक कामनाकी पूर्ति होनेपर मनुष्यको सुख प्रतीत होता है, तब वह दूसरी कामनाओंकी पूर्तिके लिये चेष्टा करने लग जाता है। परन्तु यह नियम है कि चाहे कितने ही भोगपदार्थ मिल जायँ, पर कामनाओँकी पूर्ति कभी हो ही नहीं सकती। कामनाओंकी पूर्तिके सुखभोगसे नयी-नयी कामनाएँ पैदा होती रहती हैं -- जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई। संसारके सम्पूर्ण व्यक्ति, पदार्थ एक साथ मिलकर एक व्यक्तिकी भी कामनाओंकी पूर्ति नहीं कर सकते, फिर सीमित पदार्थोंकी कामना करके सुखकी आशा रखना महान् भूल ही है। कामनाओंके रहते हुए कभी शान्ति नहीं मिल सकती --
     स शान्तिमाप्नोति न कामकामी (गीता २/७०)।
  अतः कामनाओंकी निवृत्ति ही परमशान्तिका उपाय है। इसलिये कामनाओंकी निवृत्ति ही करना चाहिये, न कि पूर्तिकी चेष्टा।सांसारिक भोगपदार्थोंके मिलनेसे सुख होता है -- यह मान्यता कर लेने से ही कामना पैदा होती है। यह कामना जितनी तेज होगी, उस पदार्थके मिलनेमें उतना ही सुख होगा। वास्तवमें कामनाकी पूर्तिसे सुख नहीं होता। जब मनुष्य किसी पदार्थके अभावका दुःख मानकर कामना करके उस पदार्थका मनसे सम्बन्ध जोड़ लेता है, तब उस पदार्थके मिलनेपर अर्थात् उस पदार्थका मनसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर (अभावकी मान्यताका दुःख मिट जानेपर) सुख प्रतीत होता है। यदि वह पहलेसे ही कामना न करे तो पदार्थके मिलनेपर सुख और न मिलनेपर दुःख होगा ही नहीं। मूलमें कामनाकी सत्ता है ही नहीं क्योंकि जब काम्यपदार्थकी ही स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, तब उसकी कामना कैसे रह सकती है इसलिये सभी साधक निष्काम होनेमें समर्थ हैं।

॥नारायण नारायण ॥

गीताप्रेस गोरखपुरसे प्रकाशित ‘श्रीमद्‌भगवद्गीता साधक-संजीवनी’में परम पूज्य स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके प्रवचनोंसे।

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