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साधना व मंत्र सिद्धि में आने वाले छ: विघ्न और उसे दूर करने के उपाय।

साधना व मंत्र सिद्धिमें आते है यह छ: बड़े विध्न हैं । अगर ये विध्न न आयें तो हर मनुष्य भगवान के दर्शन कर ले ।

1. निद्रा,
2. तंद्रा, 
3. आलस्य,
4. मनोराज,
5. लय और 
6. रसास्वाद

कभी साधना करने बैठते हैं तो नींद आने लगती है और जब सोने की कोशिश करते है तो नींद नहीं आती । यह भी साधना का एक विघ्न है ।

तंद्रा भी एक विघ्न है । नींद तो नहीं आती किंतु नींद जैसा लगता है । यह सूक्ष्म निद्रा अर्थात तंद्रा है ।

साधना करने में आलस्य आता है । “अभी नहीं, बाद में करेंगे…” ऐसा सोचते हैं तो यह भी एक विघ्न है ।

“जब हम माला लेकर जप करने बैठते हैं, तब मन कहीं से कहीं भागता है । फिर ‘मन नहीं लग रहा…’ ऐसा कहकर माला रख देते हैं । घर में भजन करने बैठते हैं तो मंदिर याद आता है और मंदिर में जाते हैं तो घर याद आता है । काम करते हैं तो माला याद आती है और माला करने बैठते हैं तब कोई न कोई काम याद आता है |” ऐसा क्यों होता है? यह एक व्यक्ति का नहीं, सबका प्रश्न है और यही मनोराज है ।

कभी-कभी प्रकृति में मन का लय हो जाता है । आत्मा के दर्शन नहीं होते किंतु मन का लय हो जाता है और लगता है कि ध्यान किया । ध्यान में से उठते है तो जम्हाई आने लगती है । यह ध्यान नहीं, लय हुआ । वास्तविक ध्यान में से उठते हैं तो ताजगी, प्रसन्नता और दिव्य विचार आते हैं किंतु लय में ऐसा नहीं होता ।

कभी-कभी साधक को रसास्वाद परेशान करता है । साधना करते-करते थोड़ा बहुत आनंद आने लगता है तो मन उसी आनंद का आस्वाद लेने लग जाता है और अपना मुख्य लक्ष्य भूल जाता है ।

इन विघ्नों को जीतने के उपाय :

मनोराज एवं लय को जीतना हो तो दीर्घ स्वर से ॐ का जप करना चाहिए ।

स्थूल निद्रा को जीतने के लिए अल्पाहार और आसन करने चाहिए । सूक्ष्म निद्रा यानी तंद्रा को जीतने के लिए प्राणायाम करने चाहिए ।

आलस्य को जीतना हो तो निष्काम कर्म करने चाहिए । सेवा से आलस्य दूर होगा एवं धीरे-धीरे साधना में भी मन लगने लगेगा।
[: आइये समाज में फैले कु्छ षड्यंत्रों पर प्रकाश डालें :-

अर्धसत्य —फलां फलां तेल में कोलेस्ट्रोल नहीं होता है!

पूर्णसत्य — किसी भी तेल में कोलेस्ट्रोल नहीं होता ये केवल यकृत में बनता है । ✅

अर्धसत्य —सोयाबीन में भरपूर प्रोटीन होता है !

पूर्णसत्य—सोयाबीन सूअर का आहार है मनुष्य के खाने लायक नहीं है! भारत में अन्न की कमी नहीं है, इसे सूअर आसानी से पचा सकता है, मनुष्य नही ! जिन देशों में 8 -9 महीने ठण्ड रहती है वहां सोयाबीन जैसे आहार चलते है । ✅

अर्धसत्य—घी पचने में भारी होता है

पूर्णसत्य—बुढ़ापे में मस्तिष्क, आँतों और संधियों (joints) में रूखापन आने लगता है, इसलिए घी खाना बहुत जरुरी होता है !और भारत में घी का अर्थ देशी गाय के घी से ही होता है । ✅

अर्धसत्य—घी खाने से मोटापा बढ़ता है !

पूर्णसत्य—(षड्यंत्र प्रचार ) ताकि लोग घी खाना बंद कर दें और अधिक से अधिक गाय मांस की मंडियों तक पहुंचे, जो व्यक्ति पहले पतला हो और बाद में मोटा हो जाये वह घी खाने से पतला हो जाता है✅

अर्धसत्य—घी ह्रदय के लिए
हानिकारक है !

पूर्णसत्य—देशी गाय का घी हृदय के लिए अमृत है, पंचगव्य में इसका स्थान है । ✅

अर्धसत्य—डेयरी उद्योग दुग्ध
उद्योग है !

पूर्णसत्य—डेयरी उद्योग -मांस उद्योग है! यंहा बछड़ो और बैलों को, कमजोर और बीमार गायों को, और दूध देना बंद करने पर स्वस्थ गायों को कत्लखानों में भेज दिया जाता है! दूध डेयरी का गौण उत्पाद है । ✅

अर्धसत्य—आयोडाईज नमक से
आयोडीन की कमी पूरी
होती है !

पूर्णसत्य—आयोडाईज नमक का
कोई इतिहास नहीं है, ये
पश्चिम का कंपनी षड्यंत्र
है आयोडाईज नमक में
आयोडीन नहीं पोटेशियम
आयोडेट होता है जो भोजन
पकाने पर गर्म करते समय
उड़ जाता है स्वदेशी जागरण
मंच के विरोध के फलस्वरूप
सन्2000 में भाजपा सरकार
ने ये प्रतिबन्ध हटा लिया था,
लेकिन कांग्रेस ने सत्ता में आते
ही इसे फिर से लगा दिया ताकि
लूट तंत्र चलता रहे और विदेशी
कम्पनियाँ पनपती रहे । ✅

अर्धसत्य— शक्कर (चीनी ) का
कारखाना !

पूर्णसत्य— शक्कर (चीनी ) का
कारखाना इस नाम की आड़
में चलने वाला शराब का
कारखाना शक्कर इसका
गौण उत्पाद है । ✅

अर्धसत्य—शक्कर (चीनी ) सफ़ेद
जहर है !

पूर्णसत्य— रासायनिक प्रक्रिया के
कारण कारखानों में बनी
सफ़ेद शक्कर(चीनी) जहर
है ! पम्परागत शक्कर
एकदम सफ़ेद नहीं होती !
थोडा हल्का भूरा रंग लिए
होती है ! ✅

अर्धसत्य— फ्रिज में आहार ताज़ा
होता है !

पूर्णसत्य— फ्रिज में आहार ताज़ा
दिखता है पर होता नहीं है
जब फ्रिज का अविष्कार
नहीं हुआ था तो इतनी
देर रखे हुए खाने को
बासा / सडा हुआ खाना
कहते थे । ✅

अर्धसत्य— चाय से ताजगी आती है!

पूर्णसत्य— ताजगी गरम पानी से
आती है! चाय तो केवल
नशा(निकोटिन) है । ✅

अर्धसत्य—एलोपैथी स्वास्थ्य
विज्ञान है !

पूर्णसत्य—एलोपैथी स्वास्थ्य विज्ञानं
✅ नहीं चिकित्सा विज्ञान है!

अर्धसत्य—एलोपैथी विज्ञानं ने बहुत
तरक्की की है !

पूर्णसत्य— दवाई कंपनियों ने बहुत
तरक्की की है! एलोपैथी में
मूल दवाइयां 480-520 है
जबकि बाज़ार में 1 लाख
से अधिक दवाइयां बिक
रही है ।✅

अर्धसत्य— बैक्टीरिया वायरस के
कारण रोग होते हैं !

पूर्णसत्य— शरीर में बैक्टीरिया
वायरस के लायक
वातावरण तैयार होने पर
रोग होते हैं ! ✅

अर्धसत्य— भारत में लोकतंत्र है !
जनता के हितों का ध्यान
रखने वाली जनता द्वारा
चुनी हुई सरकार है !

पूर्णसत्य— भारत में लोकतंत्र नहीं
कंपनी तन्त्र है बहुत से
सांसद, मंत्री, प्रशासनिक
अधिकारी कंपनियों के
दलाल हैं उनकी भी
नौकरियां करते हैं उनके
अनुसार नीतियाँ बनाते
हैं, वे जनहित में नहीं
कंपनी हित में निर्णय लेते
हैं ! भोपाल गैस कांड से
बड़ा उदहारण क्या हो
सकता है !जंहा एक
अपराधी मुख्यमंत्री और
प्रधानमंत्री के आदेशानुसार
फरार हो सका ! लोकतंत्र
होता तो उसे पकड के
वापस लोटाते । ✅

अर्धसत्य— आज के युग में
मार्केटिंग का बहुत
विकास हो गया है !

पूर्णसत्य— मार्केटिंग का नहीं ठगी
का विकास हो गया है !
माल गुणवत्ता के आधार
पर नहीं विभिन्न प्रलोभनों
व जुए के द्वारा बेचा जाता
है ! जैसे क्रीम गोरा बनाती
है!भाई कोई भैंस को गोरा
बना के दिखाओ ! ✅

अर्धसत्य— टीवी मनोरंजन के लिए
घर घर तक पहुँचाया
गया है !

पूर्णसत्य— जब टी वी नहीं था तब
लोगों का जीवन देखो और
आज देखो जो आज इन्टरनेट
पर बैठे सुलभता से जीवन जी
रहे हैं !उन्हें अहसास नहीं होगा
कंपनियों का माल बिकवाने
और परिवार व्यवस्था को
तोड़ने
े के लिए टी वी घर घर
तक पहुँचाया जाता है ! ✅

अर्धसत्य— टूथपेस्ट से दांत साफ
होते हैं !

पूर्णसत्य— टूथपेस्ट करने वाले
यूरोप में हर तीन में से एक
के दांत ख़राब हैं दंतमंजन
करने से दांत साफ होते हैं
मंजन -मांजना, क्या बर्तन
ब्रश से साफ होते हैं ?
मसूड़ों की मालिश करने से
दांतों की जड़ें मजबूत भी
होती हैं ! ✅

अर्धसत्य— साबुन मैल साफ कर
त्वचा की रक्षा करता है !

पूर्णसत्य— साबुन में स्थित केमिकल
(कास्टिक सोडा, एस. एल.
एस.) और चर्बी त्वचा को
नुकसान पहुंचाते हैं, और
डाक्टर इसीलिए चर्म रोग
होने पर साबुन लगाने से
मना करते हैं ! साबुन में गौ
की चर्बी पाए जाने पर
विरोध होने से पहले
हिंदुस्तान लीवर हर साबुन
में गाय की चर्बी का
उपयोग करती थी। ✅

किडनी को साफ़ करें वह भी सिर्फ 5 रुपये में।

✅o हमारी किडनी एक बेहतरीन फिल्टर हैं जो सालों से हमारे खून की गंदगी को साफ़ करने का काम करती हैं मगर हर फिल्टर की तरह इसको भी साफ़ करने की जरूरत हैं ताकि ये और भी अच्छा काम करें।
आज हम आपको बता रहे हैं इसकी सफाई के बारे में और वह भी सिर्फ 5 रुपये में।

O✅ एक मुट्ठी भर धनिया लीजिए इसको छोटे छोटे टुकड़ों में काट लें और अच्छी तरह धुलाई कर ले। फिर एक बर्तन में १ लीटर पानी डाल कर इन टुकड़ों को डाल दे, 10 मिनट तक धीमी आँच पर पकने दे, बस अब इसको छान लें और ठंडा होने दो अब इस ड्रिंक को हर रोज़ एक गिलास खाली पेट पिएँ। आप देखेंगे के आपके पेशाब के साथ सारी गंदगी बाहर आ रही हैं। ✅
NOTE : – इसके साथ थोड़ी से अजवायन डाल लें तो सोने पे सुहागा हो जाए।

अब समझ आया कि हमारी माँ अक्सर धनिये की चटनी क्यों बनाती थी और हम आज उनको old fashion कहते हैं।

[ब्लॉक नसों को खोलने का उपाय

तेज रफ्तार में भागती जिंदगी ने हमारी जीवनशैली को पूरी तरह से बिगाड़ कर रख दिया है। खान-पान की गलत आदतों के चलते आज हम कम उम्र में सेहत से जुड़ी कई परेशानियों का सामना कर रहे हैं। डायबिटीज, हाई ब्लड प्रैशर, कोलेस्ट्रॉल, अस्थमा, हार्ट से जुड़ी समस्याएं आम हो गई है। इसी के साथ नसों की ब्लाकेज की समस्या भी काफी सुनने को मिल रही है।

आकड़ों की मानें तो उत्तरी भारत में लगभग 40 प्रतिशत लोगों की धमनियां कमजोर है। 20 प्रतिशत महिलाओं को गर्भावस्था के बाद यह परेशानी होती है। इसकी पहचान सही समय पर नहीं हो पाती, जिसका असर वैरिकाज वेंस (varicose veins) के रूप में सामने आता है। पैरों में सूजन व नसों के गुच्छे बनने शुरू हो जाते हैं।

दरअसल, नसों की कमजोरी और ब्लॉकेज होने का कारण हमारी डाइट में पोषक तत्वों की कमी है। संतुलित की बजाए बाहर का तला भूना व फास्ट फूड खाने से हमारे रक्त में अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा बढ़ जाती हैं जो नसों के ब्लड सर्कुलेशन में रूकावट डालना शुरू कर देते हैं।

इससे शरीर में बुरे कोलेस्ट्रॉल की मात्रा बढ़ने लगती है, जिससे नसों में खून का प्रवाह अच्छे से नहीं होता और थका जमना शुरू हो जाता है जो बाद में ब्लाकेज का रूप ले लेता है। हार्ट व शरीर के अन्य हिस्सों में ब्लॉकेज खोलने के लिए सर्जरी व दवाओं का सहारा लिया जाता है जो काफी महंगा इलाज है।

किन लोगों को होती है ब्लाकेज की परेशानी

वेन ब्लॉकेज की परेशानी तब होती है जब खून संचारित होकर दिल तक नहीं पहुंचता जो बाद में गांठों और गुच्छे के रूप में हमारे सामने आता है। यह परेशानी उन लोगों को होती हैं जो लगातार कई घटों रोजाना एक ही पोस्चर में बैठकर काम करते हैं। वैरिकॉज की परेशानी पैरों की धमनियों में अधिक होती हैं क्योंकि यहां खून के प्रवाह का भार अधिक होता है।

आहार जो करते हैं धमनियों की नैचुरल सफाई

मेडिटेरेनियन डाइट प्लान जिसमें कम मात्रा में कोलेस्ट्रॉल हो लेकिन फाइबर की मात्रा भरपूर हो। शुगर व नमक का कम सेवन करें और मक्खन की जगह आलिव ऑयल वसा का इस्तेमाल करें। धमनियों के अनुकूल खाद्य पदार्थ व हर्ब जैसे चने, अनार, जई, एवाकाडो, लहसुन, केसर, हल्दी, कैलामस, हरी सब्जियों व फलों का सेवन करें। खाना खाने के बाद गुनगुना गर्म पानी का सेवन जरूर करें क्योंकि इसे नसों में ब्लाकेज का खतरा काफी हद तक कम हो जाता है। मैटाबॉलिज्म को बढ़ाने के लिए एरोबिक एक्सरसाइज का सहारा लें।

इन घरेलू आहारों का ले सहारा

लहसुन : लहसुन कोलेस्ट्रॉल को घटाने में काफी लाभदायक है इसलिए अपने आहार में लहसुन को जरूर शामिल करें। बंद धमनियों की समस्या होने पर 3 लहसुन की कली को 1 कप दूध में उबाल कर पीएं।

एवोकाडो : एवोकाडो में मौजूद मिनरल्स, विटामिन A, E और C कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल में रखते है। इससे रक्त कोशिकाओं में कोलेस्ट्रॉल जमा नहीं होता और आप ब्लाकेज की समस्या से बचे रहते है।

ओट्स : ओट्स का रोजाना सुबह नाश्ते में सेवन भी ब्लाकेज की समस्या को दूर करता है। इसमें फाइबर भरपूर मात्रा में पाया जाता है।

अनार : एंटीऑक्सीडेंट, नाइट्रिक और ऑक्साइड के गुणों से भरपूर अनार के 1 गिलास जूस का रोजाना सेवन आपको धमनियों की ब्लोकेज के साथ कई हेल्थ प्रॉब्लम से दूर रखता है।

डार्इ फ्रूट्स : रोजाना कम से कम 50-100 ग्राम बादाम, अखरोट और पेकन (Pecan) का सेवन आपकी रक्त कोशिकाओं में कोलेस्ट्रॉल जमा नहीं होने देता। इससे आप ब्लाकेज की समस्या से बचे रहते है।

आयुर्वेदिक हर्ब्स : लहसुन, शहद, हल्दी, केसर, कैमलस और कुसुरा फूल को मिलाकर पीस लें। इसके रोजाना सेवन करने से आप ब्लाकेज की समस्या के साथ कई हेल्थ प्रॉब्लम से बच सकते
हैं।

मोटापे पर रखें कंट्रोल : मोटापे को बीमारियों की जड़ कहा जाता है। नसों की ब्लाकेज के लिए भी आपका बढ़ता वजन जिम्मेदार है इसलिए बटर, चीज, क्रीम, केक, रैड मीट जैसी फैटी डाइट का सेवन कम करें।

पर्याप्त नींद : इसके अलावा भरपूर नींद लें क्योंकि नींद लेने से हार्मोंनल संतुलन नहीं बिगड़ता।

धूम्रपान को कहें ना : धूम्रपान भी नसों की ब्लाकेज का मुख्य कारण है। इसलिए अगर आप स्मोकिंग करते हैं तो उसे आज ही ना कर दें।

व्यायाम : रोजाना 30 मिनट योग एरोबिक या हल्का फुल्का व्यायाम जरूर करें इससे नसों में हलचल होती रहती हैं जिससे ब्लाकेज का खतरा कम रहता है।

पूरे शरीर के ब्लॉकेज खोलने का उपाय

आज के समय में हार्ट ब्लॉकेज की समस्या आम बात हो गई है. गलत खानपान और मिलावटी खाना की वजह से ये समस्या बहुतायत से पाई जाने लगी है. इसलिए आज हम आपको ये घरेलु नुस्खा बताने जा रहे हैं इससे आपके शरीर में किसी भी प्रकार की एडी से चोटी तक शरीर की ब्लाक नसों को खोल देगा. अगर आपने बाई पास या एंजियोप्लास्टी करवा राखी हैं तब तो ये प्रयोग आपके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। क्यों के एंजियोप्लास्टी करवाने के बाद स्टंट के आस पास अधिक मात्रा में कोलेस्ट्रोल जमना शुरू हो जाता हैं और थोड़े समय के बाद दोबारा एंजियोप्लास्टी करवानी पड़ती हैं।

आवश्यक सामग्री

1gm दाल चीनी, 10 gm काली मिर्च साबुत, 10gm तेज पत्ता, 10gm मगज, 10 gm मिश्री डला, 10 gm अखरोट गिरी, 10gm अलसी।

टोटल वजन 61gm सभी सामान रसोई का ही है।

बनाने की विधि

सभी को मिक्सी में पीस के बिलकुल पाउडर बना ले और 6gm की 10 पुड़िया बन जायेगी एक पुड़िया हर रोज सुबह खाली पेट नवाये पानी से लेनी है और एक घंटे तक कुछ भी नही खाना है चाय पी सकते हो ऐड़ी से ले कर चोटी तक की कोई भी नस बन्द हो खुल जाएगी।

।। अहँकार ।।

अहँकार नही तो संसार नही , मेरे तेरे का यह संसार अहंकार के आधार पर ही चलता है । अहंकार के अनेकों रूप है अनेको वेश है – क्षण क्षण पल पल रूप बदलना , वेश धरना , इसका स्वभाव जो है । कभी तो वह स्वार्थ का चोला धारण करता है तो कभी धर्म का बाना पहनता है , यही अहँकार कभी हँसता है तो कभी रोता है ,कभी प्रेम करता है तो कभी द्वेष करता है , कभी जागता है तो कभी सोता है ।

जहां जहां पुरुष जाता है वहां वहां अहंकार उसके साथ ही साथ चलता है , कभी तो वह आगे आगे चलता है तो कभी पीछे पीछे , कभी दाँये तो कभी बाँये , कभी नीचे तो कभी ऊपर । सामान्य पक्षी तो अनजाने मे ही फँस जाता है परंतु अहँकार एक एैसा विचित्र पक्षी है जो जानते बूझते – देखते ही देखते फँसता है । व्याध के जाल मे फँस कर प्राणी रोता है परंतु अहँकार के जाल मे फँस कर प्राणी हँसता है । अहँकार के राज्य मे तो रोना ही रोना है , वह हँसना भी रोना ही है । अहँकार का रखवारा हाँकते हाँकते गिराता है और फिर गिरे हुये को उठा कर फिर हाँकता है । कौन मुक्त हो पाया है इस अहँकार से , जो मानता है स्वंय को ‘ निरहँकारी ‘ वास्तव मे तो उससे बडा अहँकारी इस संसार मे नही है ।

‘ अहँकार के ही देवता हैं “ महादेव “ ‘

           ।। महादेव ।।

सप्तम स्थान गत लग्नेश

   सप्तम स्थान को विशुद्ध केंद्र नहीं माना जाता | शास्त्रों  के अनुसार जब भी सप्तमेश कि दशा आती है, तो जातक को शांतिकर्म करवाने चाहिए अन्यथा उसे जीवन में सुख प्राप्त नहीं हो सकता | सप्तम स्थान को मारक स्थान माना जाता है | लग्न के उद्यम होने से सप्तम स्थान अस्तम होगा |

आत्मनुराग
लग्नेश सप्तम स्थान में तथा सप्मेश लग्न में होने पर जातक आत्मानुरागी अर्थात केवल अपने से प्यार करने वाला होगा | व्यक्ति में असामन्य व अत्यधिक निज प्रेम होता है, अतः उसके अविवाहित रहने कि सम्भावना है | विवाह कि स्थिति में भी जातक एकाकी सा एकांत को अधिमान देता है | अतः व्यक्ति विवाहित जीवन का आनंद नहीं ले पायेगा तथा दाम्पत्य जीवन का निर्वाह नहीं करेगा | ऐसे जातक के विचार से उनके समान या उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं हो सकता |
· नाढ़ीशास्त्र के सिद्धांतानुसार सप्तम स्थान गत लग्नेश अथवा लगन्गत सप्तमेश दर्शाते हैं कि जातक कुंवारा होगा | इसका कारण है कि लग्नेश, जो आत्मकारक है, सप्तम स्थान या कलत्र स्थान गत होता है | अतः जातक आत्मानुरागी है | उसके विचार में, कोई भी जातक उसका साथी बनने योग्य नहीं है | इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि व्यक्ति अपने पारिवारिक दायरे में ही विवाह करेगा | जातक दीर्घायु एवं सहोदरों के प्रति समर्पित होगा |
सामाजिक छवि
सप्तम स्थान सामाजिक छवि का सूचक है, अतः सप्तम स्थान गत लग्नेश जातक को श्रेष्ठ सामाजिक छवि प्रदान करता है | व्यक्ति कि सामाजिक छवि विलक्षण होगी, परन्तु उसका आत्मानुराग जातक को निजत्व एवं निज उपलब्धियों में इतना अनुरक्त बनाएगा कि अन्य जीवन मूल्यों कि उपेक्षा कर देगा |
सहयोग
यह सहयोग स्थान भी है इसलिए व्यक्ति में अन्यों कि भावनाओं या विचारो को धारण करने कि क्षमता नहीं होगी | वह कदाचित अपने विषय में वार्ता करेगा अथवा संवादहीन रहेगा |
विदेशवास
सप्तम स्थान विदेशी भूमि में वास का स्थान है | इससे यह संकेत भी मिलता है कि व्यक्ति विदेश में समृद्ध होगा तथा वहीँ वास करने का प्रयत्न करेगा | जातक विदेश में यश तथा अक्षय धन प्राप्त करेगा | अतः सप्तम स्थान में नवमेश व तृतीयेश युत लग्नेश दर्शाता है कि जातक विदेशवास करेगा | यदि इस योग का द्वादशेश से भी संबंध हो तो व्यक्ति अवश्यमेव परदेश या विदेशभूमि में वास करेगा तथा वहीँ सुयश व धन प्राप्त करेगा | व्यक्ति अत्यंत स्वेच्छाचारी होगा तथा निजोद्योग से जीवन में उन्नति करेगा |
सप्तम स्थान में लग्नेश व सूर्य से दशमेश या दशम स्थान के संबंध सहित युत हो तो व्यक्ति चिकित्सक बनेगा |
यदि सप्तम स्थान में लग्नेश का राहू-केतु रेखांश से सम्बद्ध हो, तो शल्य चिकित्सक दर्शाता है | इस योग में विवाह की संभावना नहीं है | इस योग में वैवाहिक जीवन सदैव तनावमय रहेगा, ऐसे जातक सनातन कुंवारे होंगे यदि यह विवाह करेंगे भी तो उनका दाम्पत्य जीवन सौहाद्रपूर्ण नहीं होगा अथवा दांपत्य सुख प्राप्त नहीं होगा |
विशेषतः सप्तम स्थान गत लग्नेश का सूर्य से संबंध व्यक्ति को यौनाचार रहित बनता है, व्यक्ति या तो यौनाचार में किंचित आनंद नहीं पायेगा अथवा आंशिक नपुंसक हो सकता है |
सप्तम स्थान गत लग्नेश का चन्द्र से संबंध जातक को गूढ़तत्व प्रदान करता है | यह व्यक्ति को प्रिय बनाएगा | यद्यपि जातक में किंचित नारीवत स्वाभाव होगा, तथापि जीवन के प्रति जातक के विचार विस्तृत होंगे तथा व्यक्ति रूढ़िवादी विचारों का अनुसरण नहीं करेगा अथवा दूसरों के प्रति रूढ़िवादी विचार पोषित नहीं करेगा |
यदि लग्नेश युत चन्द्र, सप्तम स्थान गत, नीच राशिगत हो तो जातक को मानसिक विचलन प्राप्त हो सकता है | यद्यपि जातक उत्तम सामाजिक छवि पर्येगा, तथापि जहाँ तक शारीरिक रूप का संबंध है, व्यक्ति सदैव वैचारिक शुन्यता ग्रस्त होगा तथा सदैव परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने में असफल रहेगा |
यदि यह राहू-केतु रेखांश से सम्बद्ध हो तो व्यक्ति आत्महत्या कर सकता है अथवा मात्र द्वतीय या बुध से संयोग हो तो व्यक्ति में आत्मघाती प्रवृत्ति होगी |
चन्द्र सप्तम स्थान में किसी भी परिस्थिति में नीचगत नहीं होना चाहिए | सप्तम स्थान में लग्नेश चन्द्र व मंगल से युत होने पर व्यक्ति अत्यंत शक्तिशाली, पुष्ट देहि व प्रलापी होगा तथा अपने आलोचनात्मक विश्लेषक स्वाभाव के कारण अल्पमित्रवान होगा | व्यक्ति अपनी जन्मभूमि से बाहर अत्याधिक व्यावसायिक उन्नति प्राप्त करेगा तथा वहां यश व धन अर्जित करेगा | व्यक्ति के परदेश गमन के समय नवमेश व तृतीयेश का सप्तमेश से अवश्यमेव संबंध बनेगा |
सप्तम स्थान गत लग्नेश कि बुध से युति दर्शाती है कि व्यक्ति कलाकार बनेगा तथा यदि बुध सुस्थित न हो तो प्रतिशोधी भी हो सकता है | व्यक्ति किसी से कभी अपमानित होने पर उग्र प्रतिशोध भावनाग्रस्त हो सकता है | व्यक्ति सदैव जीवन में घटित समस्त सुखद घटनाओं के स्थान पर अप्रिय घटनाओं को स्मरण रखेगा, जिसके परिणामवश, जीवन में सदैव हतोत्साहित व खिन्नचित रहेगा |
सप्तम स्थान में लग्नेश ब्रहस्पति युत होने से जातक को अत्यंत शुद्धचित्, पुण्यात्मा, सुदर्शन व धर्म कर्म में अनुरक्त बनता है | ऐसा व्यक्ति जो मुख्यतः ईश् निष्ठ होगा |
सप्तम स्थान गत लग्नेश शनि से युति जातक के भाग्यवान नेता, तथा अपने कार्यमंडल में अध्यक्ष या प्रबंध निदेशक होने कि सूचक है | शुद्ध कार्य क्षमता के कारण व्यक्ति उच्चतम पद प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा यद्यपि अविवाहित होगा, परन्तु यदि शनि स्वराशिगत हो तो व्यक्ति जीवन के उत्तरार्ध में अपनी पसंद कि कन्या से विवाह करेगा, परन्तु केवल संसर्ग हेतु न कि संतान हेतु |

आजकल कुछ बातें अंतर्जाल (मीडिया) में बहुत चल रहा है, जैसे ——

“बचपन में शिक्षा पर ध्यान दिया होता तो आज काँवड़ नही उठाना पड़ता ।”

“क्या अनपढ़ – गँवार या जाति – विशेष के लोग ही काँवड़ उठाते हैं ?” इत्यादि

पहली बात तो यह है कि विद्या (शिक्षा) से यदि सदाचार – विनम्रता – मानवता जागृत ना हो , तो वह शिक्षा नहीं है , उदरपूर्ति का एक साधन मात्र है , क्योंकि —

“विद्या ददाति विनयम्”

“सा विद्या या विमुक्तये”

सनातन धर्म में शिक्षा विनम्रता – स्वतन्त्रता देने वाली एवं प्रमाद व मृत्यु को भी हरने वाली , अमृतत्व को देने वाली है—– “अविद्यया मृत्युं तीर्त्वाविद्ययाऽमृतमश्नुते ।” 【ईशावास्योपनिषद्】

शिक्षित व श्रेष्ठ वही है जो विद्वान् होने के साथ विनम्र भी हो, दूसरों को अशिक्षित – अनपढ़ – गँवार कहने वाले विनम्र तो हो नही सकते ! अर्थात् वास्तव में मूर्ख वही हैं ।

दूसरी बात यह कि वर्ष भर में ३६५ दिन होते हैं, यदि एक दिन हमने परमात्मा के लिये निकाल दिया तो उससे परोक्ष एवं प्रत्यक्ष दोनों लाभ है ।

पैदल चलने के लाभ तो आप जानते ही हो, और भोलेनाथ की कृपा !
यदि ईश्वर है ऐसा मान ही लेते हैं तो हमारा क्या जाता है ?

थोड़ा सा जल – फूल – माला और थोड़ा सा परिश्रम !

तीसरी बात जो नास्तिक काँवड़ यात्रा को अनपढों के लिये बताते हैं , उनसे पूँछिये —-

आईपीएल के नाम पर हजारों करोड़ों रुपये भारत के जो डूब रहे हैं , और तुम हजारों रुपये के टिकट कटाकर , अपना अमूल्य समय व्यर्थ गंवाकर कौन सी शिक्षा का प्रदर्शन कर रहे हो ?

वैश्याओं का नृत्य , गन्दी फिल्मों – सिनेमाओं में व्यर्थ पैसे बहाकर , समय गँवाकर कौन से शिक्षा का प्रदर्शन कर रहे हो ?

शिक्षा के नाम पर नदियों को , वृक्षों को दूषित कर कौन सी शिक्षा का प्रदर्शन कर रहे हो ? (सबसे अधिक हानि इस शिक्षा ने ही प्रकृति का किया है)

सिगरेट – दारू पीकर कौन सी शिक्षा का प्रदर्शन कर रहे हो ?

यदि ये शिक्षित होने का लक्षण है , तो हम गँवार ही सही हैं ।

चौथी बात भगवान् ने कभी नही कहा कि तुम मेरे लिये पैसे खर्च करो , वो तो स्वयं देने वाले हैं —–

भगवान् तुमको सूर्य जैसा प्रकाश दिया कभी बिल (द्रव्य) माँगा ?

भगवान् ने तुमको जल , वायु , औषधि , वनस्पति , फल , अन्न दिया कभी पैसे माँगे ?

नहीं !

जो हमें देता है , उसको यदि एक लोटा जल हम प्रेम से देते हैं तो हम अनपढ़ पाखण्डी हो गये ?

भगवान् तो कहते हैं —— “पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।”

मुझे तेरा कुछ नही चाहिए , बस पत्र पुष्प जल के अलावा, और यह सब निःशुल्क है ।

हम तो कहेंगे कि अब प्रतिदिन दो – चार किलो मीटर पैदल चलकर काँवड़ यात्रा करनी चाहिए , जिससे ब्लड –
प्रेशर , शुगर भी समाप्त, और भोलेनाथ की कृपा भी !

और खर्च क्या ? “एक लोटा जल”
[ 🌹✍🏻    दिन चर्या   ✍🏻🌹

जासु कृपा कर मिटत सब आधि,व्याधि अपार

तिह प्रभु दीन दयाल को बंदहु बारम्बार

🌳🌺महिला संजीवनी 🌺🌳


आधुनिक जीवन शैली को छोड़ यदि आयुर्वेद के स्वस्थ रहने के आहार संबंधी इन महावाक्यों के अनुसार दिनचर्या अपनायी जाए तो हम पूर्ण स्वस्थ रहते हुए गैर संचारी रोगों से बच सकते हैं।अवश्य पढ़ें डॉ दीप नारायण जी पांडेय सर का यह आलेख—–

आयुर्वेद के आहार सबंधी 25 महावाक्य

जब भूख लगती है तब सिद्धांत नहीं भोजन चाहिये। भोजन एक व्यक्तिगत मसला है। परन्तु यदि हम आयुर्वेद के कुछ महावाक्यों को याद रखकर, और उस ज्ञान का उपयोग करते हुये भोजन करें तो स्वास्थ्य उत्तम स्वास्थ्य बने रहने की संभावना बनी रहती है। आज की चर्चा आयुर्वेद के आहार-विषयक महावाक्यों पर केन्द्रित है, जिनकी वैज्ञानिकता का लोहा दुनिया भर के वैज्ञानिक आज भी मानते हैं। तो आइये, आनंद लेते हैं इस ज्ञान का जो हमें बीमारी से बचाकर परिवार का लाखों रूपया व्यर्थ होने से बचाने में सक्षम हैं। और हाँ, आयुर्वेद में ज्ञान की सीमायें अनंत हैं। मेरे ध्यान में भोजन से संबंधित लगभग 1000 महावाक्य हैं। उनमें से यह केवल प्रारंभिक सूची है जिसके बिना हमारा काम ही नहीं चल सकता। आप इसमें अपने प्रिय सूत्र या प्रिय महावाक्य जोड़ते रहिये, स्वस्थ रहिये और प्रसन्न रहिये।

  1. आरोग्यं भोजनाधीनम्। (काश्यपसंहिता, खि. 5.9): सबसे पहले तो हमें यह जान लेना चाहिये, जैसा कि महर्षि कश्यप कहते हैं, कि आरोग्य भोजन के अधीन होता है। सारा खेल भोजन का है। इस महावाक्य का अर्थ यह मानिये कि खाने को खानापूर्ति की तरह मत लीजिये।
  2. नाप्रक्षालितपाणिपादवदनो (च.सू.8.20): महर्षि चरक ने कम से कम पांच हजार साल पहले यह महत्वपूर्ण सूत्र दिया था। आचार्य वाग्भट ने भी इसे सातवीं-आठवीं शताब्दी में धौतपादकराननः (अ.हृ.सू. 8.35-38) के रूप में पुनः लिखा। इसका साधारण अर्थ यह है कि भोजन करने के पूर्व हाथ, पाँव व मुंह धोना आवश्यक है। इसके वैज्ञानिक महत्त्व पर बड़ी शोध हुई है। उनमें से एक बात यह है कि लन्दन स्कूल ऑफ़ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के वैज्ञानिकों द्वारा की गयी एक शोध से पता लगा है कि हाथ धोये बिना भोजन लेने की आदत के कारण अनेक बीमारियाँ संक्रमित करती हैं। हाथ धोये बिना खाना खाने की आदत के कारण अकेले डायरिया से ही सालाना 23.25 अरब डॉलर की हानि भारत को हो रही है। यह हानि भारतीय अर्थव्यवस्था के कुल जीडीपी का 1.2 प्रतिशत है। हाथ धोने में लगने वाले कुल खर्च को समायोजित करने के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था को सालाना 5.64 अरब डॉलर की बचत हो सकती है। यह हाथ धोने में संभावित लागत का 92 गुना है। आयुर्वेद में भोजन के सम्बन्ध में अनेक महावाक्य हैं जिनका पालन कर परिवार, समाज और देश का बहुत धन बचाया जा सकता है।
  3. आहारः प्रीणनः सद्यो बलकृद्देहधारकः। आयुस्तेजः समुत्साहस्मृत्योजोऽग्निविवर्द्धनः। (सु.चि., 24.68): स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा और बीमारी को रोकने में भोजन का स्थान रसायन और औषधि से कम नहीं है। इस सूत्र का अर्थ यह है कि आहार से संतुष्टि, तत्क्षण शक्ति, और संबल मिलता है, तथा आयु, तेज, उत्साह, याददाश्त, ओज, एवं पाचन में वृद्धि होती है। सन्देश यह है कि साफ़-सुथरा, प्राकृतिक और पौष्टिक भोजन शरीर, मन और आत्मा की प्रसन्नता और स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है।
  4. नाशुद्धमुखो (च.सू.8.20): अशुद्ध मुंह से अर्थात मुंह की शुद्धता सुनिश्चित किये बिना भोजन नहीं लेना चाहिये। साफ़-सफाई के पश्चात ही भोजन का आनंद लेना उपयुक्त रहता है।
  5. न कुत्सयन्न कुत्सितं न प्रतिकूलोपहितमन्नमाददीत (च.सू.8.20): दूषित अन्न या भोजन या दुश्मन या विरोधियों द्वारा दिया गया भोजन नहीं खाना चाहिये।
  6. न नक्तं दधि भुञ्जीत (च.सू.8.20): रात में दही नहीं खाना चाहिये। असल में दही यदि ताज़ा न हो तो उसके लाभदायक गुण नष्ट हो जाते हैं। इसीलिये यह महावाक्य बहुत उपयोगी है।
  7. नसक्तूनेकानश्नीयान्न निशि न भुक्त्वा न बहून्न द्विर्नोदकान्तरितात् न छित्त्वा द्विजैर्भक्षयेत् (च.सू.8.20): सत्तू—भुने हुये अनाज का आटा—घी और चीनी के मिश्रण के बिना नहीं खाना चाहिये। सत्तू को रात में, भोजन के बाद, अधिक मात्रा में, दिन में दो बार, या पानी पी पी कर ठांस कर, या दांतों को किटकिटाते हुये भी नहीं खाना चाहिये।
  8. पूर्वं मधुरमश्नीयान् (सु.सू.46.460): भोजन में सबसे पहले मधुर या मीठे पदार्थ खाना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि भोजन पूरा करने के बाद मिठाई या आइसक्रीम में हाथ मारना नुकसानदायक है। भोजन का अंत सदैव कटु, तिक्त या कषाय रस से करना चाहिये।
  9. आदौ फलानि भुञ्जीत (सु.सू.46.461): फल भोजन के प्रारंभ में खाना चाहिये। भोजन के अंत में फल खाने की परंपरा अनुचित है।
  10. पिष्टान्नं नैव भुज्जीत (सु.सू.46.494): पीठी वाले भोजन प्रायः नहीं लेना चाहिये। अगर बहुत भूखे हैं तो कम मात्रा में पिष्टान्न लेकर उससे दुगनी मात्रा में पानी पीना चाहिये।
  11. हिताहितोपसंयुक्तमन्नं समशनं स्मृतम्। बहु स्तोकमकाले वा तज्ज्ञेयं विषमाशनम्।। अजीर्णे भुज्यते यत्तु तदध्यशनमुच्यते। त्रयमेतन्निहन्त्याशु बहून्व्याधीन्करोति वा।। (सु.सू.46.494): हितकर और अहितकर भोजन को मिलकर खाना (समशन), कभी अधिक कभी कम या कभी समय पर कभी असमय खाना (विषमाशन) या पहले खाये हुये भोजन के बिना पचे ही पुनः खाना (अध्यशन) शीघ्र ही अनेक बीमारियों को जन्म दे देते हैं। आज की स्थिति में बढ़ रही जीवन-शैली से जुड़ी बीमारियों का यही कारण है।
  12. प्राग्भुक्ते त्वविविक्तेऽग्नौ द्विरन्नं न समाचरेत्। पूर्वभुक्ते विदग्धेऽन्ने भुञ्जानो हन्ति पावकम्। (सु.सू.46.492-493): सुबह खाने के बाद जब तक तेज भूख न लगे तब तक दुबारा अन्न नहीं खाना चाहिये। पहले का खाया हुआ अन्न विदग्ध हो जाता है और ऐसी दशा में फिर खाने वाला इंसान अपनी पाचकाग्नि को नष्ट कर लेता है।
  13. भुक्त्वा राजवदासीत यावदन्नक्लमो गतः। ततः पादशतं गत्वा वामपार्श्वेन संविशेत्।। (सु.सू.46.487): भोजन के बाद राजा की तरह सीधा तन कर बैठना चाहिये ताकि भोजन का क्लम हो जाये। फिर सौ कदम चल कर बायें करवट लेट जाना चाहिये।
  14. भुक्त्वाऽपि यत् प्रार्थयते भूयस्तत् स्वादु भोजनम् (सु.सू.46.482): जिस भोजन को खाने के बाद पुनः माँगा जाये, समझिये वह स्वादिष्ट है।
  15. उष्णमश्नीयात् (च.वि.1.24.1): उष्ण आहार करना चाहिये। परन्तु ध्यान रखिये कि बहुत गर्म भोजन से मद, दाह, प्यास, बल-हानि, चक्कर आना व पित्त-विकार उत्पन्न होते हैं।
  16. स्निग्धमश्नीयात् (च.वि.1.24.2): स्निग्ध भोजन करना चाहिये। परन्तु घी में डूबे हुये तरमाल के रूप में नहीं। रूखा-सूखा भोजन बल, वर्ण, आदि का नाश करता है परन्तु बहुत स्निग्ध भोजन कफ, लार, दिल में बोझ, आलस्य व अरुचि उत्पन्न करता है।
  17. मात्रावदश्नीयात् (च.वि.1.24.3): मात्रापूर्वक भोजन करना चाहिये। भोजन आवश्यकता से कम या अधिक नहीं करना चाहिये।
  18. जीर्णेऽश्नीयात् (च.वि.1.24.4): पूर्व में ग्रहण किये भोजन के जीर्ण होने या पच जाने के बाद ही भोजन करना चाहिये।
  19. वीर्याविरुद्धमश्नीयात् (च.वि.1.24.5): वीर्य के अनुकूल भोजन करना चाहिये। अर्थात् विरुद्ध वीर्य वाले खाद्य-पदार्थों, जैसे दूध और खट्टा अचार आदि को मिलाकर नहीं खाना चाहिये।
  20. इष्टे देशे इष्टसर्वोपकरणं चाश्नीयात् (च.वि.1.24.6): मन के अनुकूल स्थान और सामग्री के साथ भोजन करना चाहिये। अभीष्ट सामग्री के साथ भोजन करने से मन अच्छा रहता है।
  21. नातिद्रुतमश्नीयात् (च.वि.1.24.7): बहुत तेज गति या जल्दबाज़ी में भोजन नहीं करना चाहिये।
  22. नातिविलम्बितमश्नीयात् (च.वि.1.24.8): अत्यंत विलम्बपूर्वक भोजन नहीं करना चाहिये।
  23. अजल्पन्नहसन् तन्मना भुञ्जीत (च.वि.1.24.9): बिना बोले बिना हँसे तन्मयतापूर्वक भोजन करना चाहिये। भोजन और तन्मयता का संबंध इतना प्रगाढ़ है कि भोजन के संबंध में आयुर्वेद में दी गई सम्पूर्ण सलाह निरर्थक जा सकती है, यदि भोजन तन्मयता के साथ न किया जाये।
  24. आत्मानमभिसमीक्ष्य भुञ्जीत (च.वि.1.25): पूर्ण रूप से स्वयं की समीक्षा कर भोजन करना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि शरीर के लिये हितकारी और अहितकारी, सुखकर और दुःखकर द्रव्यों का शरीर के परिप्रेक्ष्य में गुण-धर्म का ध्यान रखते हुये यहाँ दिये गये महावाक्यों के अनुरूप ही भोजन करने का लाभ है।
  25. अशितश्चोदकं युक्त्या भुञ्जानश्चान्तरा पिबेत् (सु.सू.46.482): भोजन के पश्चात युक्तिपूर्वक पानी की मात्रा लेना चाहिये। तात्पर्य यह है कि खाने के बाद गटागट लोटा भर जल नहीं चढ़ा लेना चाहिये।

स्वस्थ रहने के लिये खाद्य-पदार्थों के चयन एवं भोजन के संबंध में आयुर्वेद के इन महावाक्यों की भूमिका को स्वीकार करना और व्यवहार में लाना आवश्यक है। हाल ही में भोजन से जुड़े इन महावाक्यों पर रेण्डम सैम्पल के आधार पर चयनित 60 आयुर्वेदाचार्यों को एक लघु प्रश्नावली भेजी गई। उनके उत्तरों में से स्कोरिंग वाले हिस्से को दुनियाभर में स्वीकार्य लिकर्ट-स्केल पर सहमति या असहमति की तीव्रता को नापा गया। इसमें दृढ़-असहमति, असहमति, न-सहमति-न-असहमति, सहमति, दृढ़-सहमति के स्केल पर एक्सपर्ट-जजमेंट विधि से जानकारी ली गई। प्राप्त निष्कर्षों का सारांश यह था कि रोगियों तथा स्वस्थ व्यक्ति के संबंध में भोजन के इन तमाम आयुर्वेदिक सिद्धांतों की समकालीन उपयोगिता यथावत है। इन सिद्धांतों में सभी उपयोगी हैं अतः सभी का यथासंभव पालन करना चाहिये। परंतु यदि आप अति-विकट परिस्थिति में हैं तो भी तीन महावाक्यों की सलाह के साथ किसी कीमत पर कदापि समझौता नहीं किया जा सकता: पहले किये गये भोजन के जीर्ण होने (पच जाने) पर ही भोजन करना, समुचित मात्रा में भोजन करना, तथा तन्मयतापूर्वक होकर भोजन करना।
भोजन की खामी से होने वाली एसिडिटी या पेट की जलन के लिये ओमेज़, ओम्प्रजोल या प्रिलोसेक या ऐसी तमाम प्रोटोन पंप इन्हिबिटर्स का दीर्घकालिक प्रयोग बहुत हानिकारक है| प्रोटॉन पंप अवरोधक दवा उनमें से हैं जिनका लंबी अवधि के उपचार के लिए उपयोग विशेष रूप से बढ़ रहा है| अक्सर इनके निर्धारित मात्रा से ज्यादा और अनुचित उपयोग से भारी प्रतिकूल प्रभावों का पता चला है| इनमें संक्रमण का खतरा बढ़ना, विटामिन और खनिजों के आंतों में अवशोषण को कम करना, गुर्दे की क्षति और मनोभ्रंश या डेमेंशिया शामिल हैं। इसके अलावा, कुछ अध्ययनों में बृहदान्त्र कैंसर, गैस्ट्रिक कैंसर, हृदय जोखिम, विटामिन बी 12 की कमी, हाइपोमैग्नेसीमिया, हाइपोनैट्रीमिया और फ्रैक्चर का जोखिम बढ़ने का खतरा बताया गया है।

उम्र-आधारित रोग-जनन (ऐज-रिलेटेड पैथोजेनेसिस) का मुख्य कारण भोजन के संबंध में आयुर्वेद की सलाह को न मानना भी है। यदि भोजन, शरीर, मन, व पर्यावरण के अंतर्संबंध को समझ लें तो स्वस्थ रहना संभव है। तनाव-जनित अपक्षयी तथा गैरसंचारी रोग जैसे कैंसर, मधुमेह, उच्च-रक्तचाप आदि की समस्या से जूझ रहे विश्व का कल्याण आयुर्वेद में दी गयी सलाह के प्रयोग पर निर्भर है।

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स्वप्न दोष को खत्म करे

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[ अपने ऊपर तान्त्रिक प्रयोग का कैसे पता करें :
अक्सर लोग सोचते हैं की किसी ने उनपर कोई जादू टोना या तांत्रिक प्रयोग कर दी है तो आईये जानते हैं –
1) रात को सिरहाने एक लोटे मैं पानी भर कर रखे और इस पानी को गमले मैं लगे या बगीचे मैं लगे किसी छोटे पौधे मैं सुबह डाले । 3 दिन से एक सप्ताह मे वो पौधा सूख जायेगा है ।
2) रात्रि को सोते समय एक हरा नीम्बू तकिये के नीचे रखे और प्रार्थना करे कि जो भी नेगेटिव क्रिया हूई इस नीम्बू मैं समाहित हो जाये । सुबह उठने पर यदि नीम्बू मुरझाया या रंग काला पाया जाता है तो आप पर तांत्रिक क्रिया हुई है।
3) यदि बार बार घबराहट होने लगती है, पसीना सा आने लगता हैं, हाथ पैर शून्य से हो जाते है । डाक्टर के जांच मैं सभी रिपोर्ट नार्मल आती हैं।लेकिन अक्सर ऐसा होता रहता तो समझ लीजिये आप किसी तान्त्रिक क्रिया के शिकार हो गए है ।
4) आपके घर मैं अचानक अधिकतर बिल्ली,सांप, उल्लू, चमगादड़, भंवरा आदि घूमते दिखने लगे ,तो समझिये घर पर तांत्रिक क्रिया हो रही है।
5) आपको अचानक भूख लगती लेकिन खाते वक्त मन नही करता ।
6) भोजन मैं अक्सर बाल, या कंकड़ आने लगते है ।
7) घर मे सुबह या शाम मन्दिर का दीपक जलाते समय विवाद होने लगे या बच्चा रोने लगे ।
8) घर के मन्दिर मैं अचानक आग लग जाये ।
9) घर के किसी सदस्य की अचानक मौत ।
10) घर के सदस्यों की एक के बाद एक बीमार पढ़ना ।
11) घर के जानवर जैसे गाय, भैंस, कुत्ता अचानक मर जाना।
12) शरीर पर अचानक नीले रंग के निशान बन जाना ।
13) घर मे अचानक गन्दी बदबू आना ।
14) घर मैं ऐसा महसूस होना की कोई आसपास है ।
15) आपके चेहरे का रंग पीला पड़ना ये भी एक कारण हैं की जितना प्रबल तन्त्र प्रयोग होगा आपके मुह का रंग उतना ही पिला पड़ता जायेगा आप दिन प्रतिदिन अपने आपको कमज़ोर महसूस करेंगे।
16) आपके पहने नए कपड़े अचानक फट जाए, उस पर स्याही या अन्य कोई दाग लगने लग जाए, या जल जाए।
17) घर के अंदर या बाहर नीम्बू, सिंदूर, राई , हड्डी आदि सामग्री बार बार मिलने लगे।
18) चतुर्दशी या अमावस्या को घर के किसी भी सदस्य या आप अचानक बीमार हो जाये या चिड़चिड़ापन आने लग जाये ।
19) घर मैं रुकने का मन नही करे, घर मे आते ही भारीपन लगे,जब आप बाहर रहो तब ठीक लगे
[: 🌹त्रिभुज🌹

त्रिभुज को हथेली पर विशिष्ट और स्पष्ट चिन्ह के रूप में देखा जा सकता है और यह परस्पर दो रेखाओं के कटने से नहीं बनता। यह एक अच्छा व भाग्यशाली संकेत माना जाता है लेकिन यह तब अधिक महत्वपूर्ण है जब यह एक स्वतंत्र चिन्ह के रूप में स्थित हो। यह अच्छे विचारों को दर्शाता है तथा जिस स्थान पर यह स्थित होता है उस से संबंधित सफलता को प्रकट करता है।उदाहरण के लिए यदि यह गुरु पर्वत स्थित है, तो यह लोगों को प्रबंधन एवं संगठन में और रोजमर्रा के मामलों को उचित प्रकार से संचालित करने में सफलता का संकेत देता है। यदि त्रिकोण एक रेखा के बराबर स्थित हो, तो इसकी विशेषताएँ उस रेखा पर निर्भर करेगी। त्रिकोण के साथ हाथ वाले व्यक्ति को सफलता की ऊंचाइयां तो प्राप्त नहीं होती है लेकिन वह मानसिक संतोष व धैर्य के साथ एक जिम्मेदार व्यक्ति बनता है। ✍🙏🙏🙏🙏🙏. : घर के प्रेत या पितर रुष्ट हैं तो ये हैं लक्षण और उपाय

बहुत बार आप लोगों ने देखा होगा, सुना होगा कि ज्‍योतिषी के पास जब किसी विषय के संबंध में सलाह लेने के लिए जाते है तो वो आपको कहता है, बताता है कि आपकी कुंडली के ग्रह इत्‍यादि सब ठीक है परन्‍तु आपकी समस्‍या का कारण यह है कि आपकी कुंडली में पितृ दोष है।

वैदिक ज्‍योतिष के नियमों के हिसाब से यदि देखा जाए तो आप पाएंगे कि लगभग सभी व्‍यक्‍तियों की कुंडली में पितृ दोष पाया जाता है। परन्‍तु सब को समस्‍याएं नहीं आती केवल कुछ लोग महसूस करते है कि जैसा उन के साथ हो रहा है, वैसा सब लोगों के साथ नहीं होता। पितृदोष के संबंध में मैं अपने अनुभव के आधार पर इस लेख के माध्‍यम से कुछ आपको बताने जा रहा हूँ यदि आपको ये लक्षण दिखाई दें तो समझ जाएं कि आपके पितृ भी आपसे रूष्‍ट हैं।

सबसे पहले तो मैं आपको स्‍पष्‍ट करना चाहता हूँ कि पहले जान लें कि पितृ कौन है और उनकी नाराजगी का कारण क्‍या है। पितृों की श्रेणी में आपके सभी पूर्वज आते है लेकिन दोषकारक पितृों की श्रेणी में आपके ऐसे पितृ होते है जो इस लोक से परलोक में अतृप्‍त जाता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि परिवार के किसी एक सदस्‍य के साथ भेदभाव किया जाता है, संपत्ति का बंटवारा भेदभाव से किया जाता है। वो इसी भेदभाव को अपने दिल में लिए, याद करता हुआ परलोक में जाता है, परिणाम यह होता है कि ऐसी जायदाद के कारण पीढियों तक झगडे चलते रहते है, उस जायदाद के कारण किसी को भी संतुष्‍टि, खुशी प्राप्‍त नहीं होती।

जब परिवार के किसी सदस्‍य की स्वाभाविक मृत्यु न हो या परिवार का कोई सदस्‍य कुंवारा रहते हुए ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार के व्‍यक्‍ति अतृप्त आत्मा के रूप में विचरते है और परिवार से अपने लिए हक की मांग करते हैं। इस प्रकार की आत्‍मा के असर के कारण अनुभव के आधार पर मैंने देखा है कि घर में बालक जन्म लेने के कुछ समय पश्चात मृत्यु को प्राप्त हो जातें है।

परिवार में खुशी के अवसर वह अतृप्त आत्मा कुछ उम्मीद करती है कि उसे भी परिवार के अन्य सदस्यों के साथ सम्‍मानित किया जाए, खुशी में शामिल किया जाए। शायद इसीलिए दीपावाली त्‍यौहार के दिन पितरों के लिए सुबह के समय अन्य जल, कपड़ा आदि निकाल कर रखा जाता है, पूजा की जाती है। विवाह, शादी के अवसर पर पितृों के लिए वर पक्ष के लोग वधू पक्ष से कुछ वस्तुओं (जैसेकि सफेद कपडा इत्‍यादि) की मांग करते हैं और जहां पर यह रीति रिवाज होते है वहां पर दिक्कत नहीं होती है, जहां ऐसे रिवाजों को नहीं माना जाता, परेशानी वही होती देखी गई है।

पितृों के रूष्‍ट होने के लक्षण

पितरों के रुष्ट होने के कुछ असामान्‍य लक्षण जो मैंने अपने निजी अनुभव के आधार एकत्रित किए है वे आपको बताता हूँ:-

खाने में से बाल निकलना
Khaane me-se baal nikalna
अक्सर खाना खाते समय यदि आपके भोजन में से बाल निकलता है तो इसे नजरअंदाज न करें

बहुत बार परिवार के किसी एक ही सदस्य के साथ होता है कि उसके खाने में से बाल निकलता है, यह बाल कहां से आया इसका कुछ पता नहीं चलता। यहां तक कि वह व्यक्ति यदि रेस्टोरेंट आदि में भी जाए तो वहां पर भी उसके ही खाने में से बाल निकलता है और परिवार के लोग उसे ही दोषी मानते हुए उसका मजाक तक उडाते है।

बदबू या दुर्गंध
कुछ लोगों की समस्या रहती है कि उनके घर से दुर्गंध आती है, यह भी नहीं पता चलता कि दुर्गंध कहां से आ रही है। कई बार इस दुर्गंध के इतने अभ्‍यस्‍त हो जाते है कि उन्हें यह दुर्गंध महसूस भी नहीं होती लेकिन बाहर के लोग उन्हें बताते हैं कि ऐसा हो रहा है अब जबकि परेशानी का स्रोत पता ना चले तो उसका इलाज कैसे संभव है

पूर्वजों का स्वप्न में बार बार आना
मेरे एक मित्र ने बताया कि उनका अपने पिता के साथ झगड़ा हो गया है और वह झगड़ा काफी सालों तक चला पिता ने मरते समय अपने पुत्र से मिलने की इच्छा जाहिर की परंतु पुत्र मिलने नहीं आया, पिता का स्वर्गवास हो गया हुआ। कुछ समय पश्चात मेरे मित्र मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि उन्होंने अपने पिता को बिना कपड़ों के देखा है ऐसा स्‍वप्‍न पहले भी कई बार आ चुका है।

शुभ कार्य में अड़चन
कभी-कभी ऐसा होता है कि आप कोई त्यौहार मना रहे हैं या कोई उत्सव आपके घर पर हो रहा है ठीक उसी समय पर कुछ ना कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि जिससे रंग में भंग डल जाता है। ऐसी घटना घटित होती है कि खुशी का माहौल बदल जाता है। मेरे कहने का तात्‍पर्य है कि शुभ अवसर पर कुछ अशुभ घटित होना पितरों की असंतुष्टि का संकेत है।

घर के किसी एक सदस्य का कुंवारा रह जाना
बहुत बार आपने अपने आसपास या फिर रिश्‍तेदारी में देखा होगा या अनुभव किया होगा कि बहुत अच्‍छा युवक है, कहीं कोई कमी नहीं है लेकिन फिर भी शादी नहीं हो रही है। एक लंबी उम्र निकल जाने के पश्चात भी शादी नहीं हो पाना कोई अच्‍छा संकेत नहीं है। यदि घर में पहले ही किसी कुंवारे व्यक्ति की मृत्यु हो चुकी है तो उपरोक्त स्थिति बनने के आसार बढ़ जाते हैं। इस समस्‍या के कारण का भी पता नहीं चलता।

मकान या प्रॉपर्टी की खरीद-फरोख्त में दिक्कत आना
आपने देखा होगा कि कि एक बहुत अच्छी प्रॉपर्टी, मकान, दुकान या जमीन का एक हिस्सा किन्ही कारणों से बिक नहीं पा रहा यदि कोई खरीदार मिलता भी है तो बात नहीं बनती। यदि कोई खरीदार मिल भी जाता है और सब कुछ हो जाता है तो अंतिम समय पर सौदा कैंसिल हो जाता है। इस तरह की स्थिति यदि लंबे समय से चली आ रही है तो यह मान लेना चाहिए कि इसके पीछे अवश्य ही कोई ऐसी कोई अतृप्‍त आत्‍मा है जिसका उस भूमि या जमीन के टुकड़े से कोई संबंध रहा हो।

संतान ना होना
मेडिकल रिपोर्ट में सब कुछ सामान्य होने के बावजूद संतान सुख से वंचित है हालांकि आपके पूर्वजों का इस से संबंध होना लाजमी नहीं है परंतु ऐसा होना बहुत हद तक संभव है जो भूमि किसी निसंतान व्यक्ति से खरीदी गई हो वह भूमि अपने नए मालिक को संतानहीन बना देती है

उपरोक्त सभी प्रकार की घटनाएं या समस्याएं आप में से बहुत से लोगों ने अनुभव की होंगी इसके निवारण के लिए लोग समय और पैसा नष्ट कर देते हैं परंतु समस्या का समाधान नहीं हो पाता। क्या पता हमारे इस लेख से ऐसे ही किसी पीड़ित व्यक्ति को कुछ प्रेरणा मिले इसलिए निवारण भी स्पष्ट कर रहा हूं

पितर या घर के प्रेत को शांत करने का उपाय
त्रयोदशी के दिन किसी पीपल के वृक्ष के नीचे जाएं और मिट्टी के कुल्हड़ में दूध भर लें उस पर कुछ मीठा रख दें अर्थात ढक्कन लगाकर उस पर कुछ मीठा शक्कर गुड़ आदि रख दें एक दीपक जलाएं और संकल्प लें, प्रार्थना करें कि हे अदृश्य आत्मा, हे अदृश्य शक्ति यदि हमसे कुछ भूल हुई है तो हम उसका प्रायश्चित करते हैं और संकल्प लेते हैं कि जब कभी हमारा कार्य सिद्ध होगा, घर में खुशियां आएगी तब आपको आप का हिस्सा सम्मानपूर्वक हमारी ओर से दिया जाएगा।

यह संकल्प आप अपनी भाषा में किसी भी तरह से कर लें और उस स्थान से वापस जाकर अपने कुलपुरोहित को भोजन, वस्त्, दक्षिणा से संतुष्ट करें। आपको शीघ्र ही सकारात्‍मक परिणाम मिलने लगेंगे
[आपका जन्म किस गण में हुआ है और आपके पास कौनसी शक्तियां मौजूद हैं

शास्त्रों में तीन गणों देवगण, मनुष्यगण, और राक्षसगण में लोगों को विभाजित किया गया है। व्यक्ति के व्यवहार, आचरण और चरित्र के अनुसार व्यक्ति को गणों में विभाजित किया गया है। देवता के समान व्यवहार वाले लोग देवगण में पैदा होते है.साधारण मनुष्य के समान गुणों वाले लोग मनुष्यगण में पैदा होते है। और राक्षसों के समान गुणों वाले लोग राक्षसगण में पैदा होते है। दोस्तों आज हम आपको बताएंगे कि आप का जन्म किस गण में हुआ है और आपके पास कौनसी शक्तियां मौजूद हैं तो वह यह जान लेते हैं।
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देवगण :- देवगण में पैदा होने वाले लोग तेज दिमाग वाले और दयावान होते है। इस गण में पैदा होने वाले लोग दयावान, बुद्धिमान और बडे दिलवाले होते है। इनका दिमाग कंप्यूटर की तरह चलता है.. और अपने दिमाग से ही यह जीवन में उच्च सफलता प्राप्त करते है। जन्म समय यदी चंद्रमाँ – अश्विनी, अनुराधा, श्रावण, मृगशिरा, पुष्‍य, हस्‍त, स्‍वाति, पुर्नवासु, रेवती ईन ९ नक्षत्र के समय में जन्म लेने वाला व्यक्ति “देव-गण” का व्यक्ति होता है।
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मनुष्यगण :- मनुष्यगण में पैदा होने वाले लोगों के सामान्य मनुष्य की तरह गुण होते है। ऐसे लोग जीवन में आने वाले दुख-दर्द और समस्याओं से घबरा जाते है। और उनका सामना नहीं कर पाते है। इसके अलावा इनकी आंखें बड़ी होती है। और इनमें दूसरों को वश में करने की ताकत होती है। जिस जातक के जन्म समय.. यदी चंद्रमां.. यह ९ नक्षत्रमें – पू.फाल्गुनी, उत्तर फाल्गुनी, भरणी, रोहिणी, उत्तर षाढा, आर्दा, पू. षाढ़ा, पू. भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद में, जन्म समय हो तो जन्म लेने वाला व्यक्ति मनुष्यगण के अंतर्गत आता है।
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राक्षसगण :- राक्षसगण में पैदा होने वाले लोग भयंकर, डरावने, गुस्से वाले होते है। ऐसे लोगों के लिए लड़ाई-झगड़ा करना आम बात होती है। लेकिन इनकी अच्छाई यह है कि ये किसी भी परिस्थिति में डर कर भागते नहीं है। और डटकर सामना करते है। जन्म समय यदी चंद्रमाँ ईन ९ नक्षत्र, कृत्तिका, धनिष्ठा, चित्रा, मघा, अश्लेषा, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा नक्षत्र के समय जन्म लेने वाला व्यक्ति राक्षस-गण के अंतर्गत आता है ।

🚩 हर हर महादेव 🌷 जय महाकाल🚩

चतुर्थ स्थान गत लग्नेश
लग्नेश की चतुर्थ स्थान में स्थिति अत्यंत शुभ होती है क्योंकि यहाँ यह एक केंद्र का स्वामी होकर अन्य केंद्र में स्थित होता है |
चतुर्थ स्थान गत लग्नेश , व्यक्ति को अत्युत्तम वैभव प्रदान करता है | यह मात्र बल दर्शाता है, अतः व्यक्ति के अपनी माता से सौहार्दिक संबंध होंगे, यदि चतुर्थ स्थान में लग्नेश नीचगत अथवा पाप्युत न हो |
चतुर्थ स्थान गत लग्नेश का जातक भौतिक आनंद व सांसारिक सुखों का उपभोग करेगा | इसका कारण है कि चतुर्थ स्थान सुख-स्थान है एवं लग्नेश (जो जातक का सूचक है) सुख-स्थान में होने से जातक को इस जन्म में अधिकतम सुखों के उपभोग में सक्षम बनता है |
जातक निजोद्योग से सुख प्राप्त करेगा एवं निजाश्रय से व परावलंबन-विहीन जीवन में प्रगति करेगा; ऐसा चतुर्थ चतुर्थ स्थान से, लग्न स्थान दशम स्थान होने के कारण है | अतः लग्नेश चतुर्थ स्थान से दशमेश भी है | इस स्थिति के कारण जातक अपना सुख स्वयं अर्जित करेगा यद्यपि जीवन के किसी पल में अनुताप व विषद ग्रस्त होगा | व्यक्ति का जीवन के प्रति द्रष्टिकोण सफलता व संतोष प्राप्त करने तथा ऐश्वर्यपूर्ण जीवन यापन वाला होगा |
यह ऐसे जातक का भी सूचक है जो प्रायः भाग्यवान तथा जीवंन के समस्त भोगों व विलासों का उपभोग करने हेतु जन्मा है | व्यक्ति अपने परिवार में सर्वाधिक भाग्यवान व्यक्तियों में से एक माना जायेगा | इस जातक के जन्मोपरांत परिवार असाधारण उन्नति प्राप्त करेगा क्योंकि व्यक्ति परिवार में ऐश्वर्य लायेगा | व्यक्ति भ्रत्यों कि सेवा व वाहन का उपयोग करेगा तथा साथ ही प्रचुर अचल सम्पत्तिवान होगा |
व्यक्ति जन्म से ही धनि, नृप सद्रश गुणों से परिपूर्ण होगा | जातक अमात्य गुणयुक्त प्रतिष्ठित व्यक्ति होगा |
चतुर्थ स्थान संसद (राज्यसभा) का भी कारक है, अतः चतुर्थगत लग्नेश का जातक स्वभावतः सांसदीय (राजसी) गुणों से परिपूर्ण- जन्मजात नेता होगा | अतः जातक के प्रभुत्वाधीन अनेकों कर्मचारी होंगे अथवा वह शासक या कोई शासकीय अधिकारी हो सकता है | व्यक्ति निश्चित तौर पर शासन से सम्बद्ध होगा |
यदि लग्नेश, चतुर्थ स्थान में सुस्थित हो, तो जातक जन्म से ही तीक्ष्ण व चतुर बुद्धि होगा | यह स्थिति स्वयं में अत्यंत शुभ है क्योंकि चतुर्थ स्थान शिक्षा का सूचक है | लग्नेश का चतुर्थ स्थान में होना यह दर्शाता है कि जातक निजोपर्जित धन द्वारा स्वयं को शिक्षित करेगा क्योंकि लग्नेश चतुर्थ स्थान से दशमेश भी है |
लंगेश चतुर्थ स्थान में, उच्चतम ग्रहयुत हो, तो जातक के माता पिता से मधुर संबंध होंगे |
यदि बुद्धि का कारक बुध इस योग में सम्मिलित हो तो जातक कि शिक्षा अक्षुण्ण होगी | अन्य शब्दों में, जातक अपनी शिक्षा के आधार पर कोई ऐसा पुरस्कार प्राप्त करेगा जिसे उसके मरणोपरांत भी स्मरित किया जायेगा, जिससे व्यक्ति को अमरत्व प्राप्त होगा, परन्तु मिथुन लग्न के लिए यह यथार्थ नहीं होगा क्योंकि इस परिस्थिति में बुध चतुर्थेश होने से उस पर कारको भाव नाशय सिद्धांत लागू होगा | अतः यद्यपि जातक प्रखर बुद्धिमान होगा, तथापि वह अपनी शिक्षा के आधार पर ख्याति व यश प्राप्त करने में असमर्थ रहेगा | उसके द्वारा निष्पादित कार्यों का मान कोई अन्य व्यक्ति प्राप्त करेगा |
चतुर्थ स्थान गत लग्नेश, चतुर्थ स्थान से दशमेश की चतुर्थ स्थान में स्थिति के कारण माता से भौतिक सुखों की प्राप्ति सुनिशिचित करता है | इसका तात्पर्य यह भी है कि जातक माता के कर्मों व उपार्जन से सुख तथा कीर्ति भी प्राप्त करेगा |
परिस्थिति परिवर्तित होती हैं :-
· यदि लग्नेश नीचगत या दुःस्थित हो; तब जातक को माता से प्रत्यक्ष सुख प्राप्त नहीं होंगे | इस योग में मंगल का संबंध पर जातक माता से सदैव विद्वेष रखेगा | ऐसा नहीं है कि जातक माता से शत्रुता रखेगा, परन्तु दोनों के मध्य सदैव विवाद बना रहेगा |
· चन्द्र मंगल से युत होने पर भी जातक का माता से मतैक्य नहीं होगा | जातक सदैव यही अनुभव करेगा कि माता अन्य संतानों को जातक से अधिक स्नेह करती है | यह भावना इतनी प्रबल होगी कि व्यक्ति इसे मान भी लेगा और संभव हो सकता है कि माता को कह देगा कि वह उसे स्नेह नहीं करती | जातक पर माता जितना अधिक ध्यान देगी, उतना ही यह विचार, कि माता की नम्रता सद्भावना जनित न हो कर छदम है, द्रढता पूर्वक गहन होता जायेगा | जातक को सदैव यह हीनभावना रहेगी | इससे व्यक्ति प्रत्येक वयव्रद्ध नारी में मात्र-दर्शन करेगा, जिसके फल स्वरूप उसका अपनी जननी से भावनात्मक अपसरण हो जायेगा |
· चन्द्र के चतुर्थ स्थान में लग्नेश से युति या संबंध होने से जातक माता से सौहार्दिक संबंधो का उपभोग नहीं करेगा |
चतुर्थ स्थान में चन्द्र युत लग्नेश कारको-भाव-नाशय सिद्धांत के अनुसार जातक कि माता के अधम दरिद्रता से उबरने या अपने जीवनकाल में निश्चित तौर पर दरिद्रता का सामना करने की पूर्वसूचना देता है |
यद्यपि लग्नेश व चन्द्र जातक को जीवन में विलक्षण प्रेरणा व कलात्मक अभिलाषा प्रदान करता है तथापि जातक को परिवार में वह प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होगी जो जीवन के अन्य क्षेत्रों में उपलब्ध होगी |
यदि लग्नेश चतुर्थ स्थान में उच्चस्थ चन्द्र से सम्बद्ध हो तो परिस्थिति कदाचित विपरीत होगी क्योंकि यह जातक के माता से सौहार्दिक संबंधों का सूचक है तथा इसके अतिरिक्त जातक को मातृपक्ष से संपत्ति भी प्राप्त होगी |
लानेश के चतुर्थ स्थान में, स्थित होने से, जातक को उत्तम भवन प्राप्त होगा तथा यदि इसके मंगल से सम्बद्ध होने पर व्यक्ति को भूमिसुख प्राप्त होगा, परन्तु लग्नेश व मंगल चतुर्थ स्थान में समस्थित होने पर जातक को भुमिदोश भी प्रदान करेंगे | अतः जीवन में शाश्वतम दुष्प्रभावित होगा | व्यक्ति अपने जीवन में अतुल धन कीर्ति प्राप्त करेगा, परन्तु उसके जीवनकाल में ही इसका नाश भी हो जायेगा | शाश्वतम, मंगल व लानेश की चतुर्थ स्थान के सापेक्ष स्थिति से निर्धारित किया जायेगा | जातक अपने लिए जो भी कीर्ति, यश व ऐश्वर्य उपार्जित या प्राप्त करता है, इसके उपभोग या उक्त प्राप्ति विशेष का स्थायित्व चतुर्थ स्थान के बलाबल पर निर्भर करता है | यदि यह सभी यहाँ युत हों तो शाश्वतम (स्थायित्व) का अभाव होगा | यह फलादेश पूर्णतः मंगल पर निर्भर करता है, क्योंकि यह चतुर्थ स्थान के कारकों में से एक तथा भूमि-सुख व शाश्वतम का भी कारक है |
अतः मंगल की लग्नेश के साथ चतुर्थ स्थान में स्थितिमात्र ही जातक के जीवन के सर्वस्व अर्जन हेतु क्षयकारक होगी | सारी कमाई नष्ट हो जाएगी | इसे शाश्वतम करने हेतु चतुर्थ स्थान मे इस योग वाले जातक को अपने जीवनसाथी या संतान के नाम से व्यवसाय करना चाहिए या अचल परिसंपत्तियां बनवानी चाहिए |
यदि चतुर्थ स्थानगत लग्नेश चन्द्र हो तो जातक को भुमिदोष प्राप्त होगा | मंगल भूमि का कारक है, अतः कारको-भाव-नाशय सिद्धांत के अनुसार जातक को भुमिदोष प्राप्त होगा | इस उद्देश्य से, जातक को भगवान कार्तिकेय या भगवान् हनुमान की पूजा करके आवश्यक परिहार अथवा शांतिकर्म करवाने चाहिए, अन्यथा वह कभी अचल संपत्ति का स्वामी होने में समर्थ नहीं होगा तथा सतत प्रयत्नरत रहेगा |
उपरोक्त वर्णन के विपरीत मंगल की चतुर्थ स्थान पर द्रष्टि शुभ होती है तथा शास्वतम प्रदान करती है |
यदि लग्नेश चतुर्थ स्थान में सूर्य से युत हो, तो जातक को पित्र दोष प्राप्त होगा तथा व्यक्ति पितरों से प्राप्त श्राप से पीडित रहेगा | स्वयं को इन श्रापों से मुक्त करने के लिए काशी अथवा गया जाकर अपने पूर्वजों हेतु गृह शांति अनुष्ठान करवा कर पित्रदोष-निवारण करवाना चाहिए | केवल तभी व्यक्ति सरकारी क्षेत्रों में जहाँ कार्यरत है, उत्तम प्रतिष्ठा पाने में सक्षम होगा अन्यथा वह सौहाद्रपूर्ण संबंध नहीं बना पायेगा | इसके कारण व्यक्ति : __
· सदैव शासन अथवा उच्चाधिकारियों की भ्रांतबोध से पीडित रहेगा |
· वरिष्ठ सहकर्मियों से उसके उत्तम संबंध नहीं होंगे |
· सरकार अथवा शासन से उस पर किसी प्रकार का मिथ्यारोप लग सकता है |
· यदि चतुर्थ स्थान गत लग्नेश शत्रु राशि में सूर्य युत हो तो जातक के पिता का आयुष्य संदेहास्पद होगा |
चतुर्थ स्थान में, बुध युत लग्नेश शुभ होता है, क्योंकि जातक अत्यंत ज्ञानवान होगा | व्यक्ति अनुसन्धान अथवा अन्वेषण सम्बन्धी कार्य करेगा | ऐसा न होने पर जातक रसायनज्ञ बनेगा अथवा जीवन में रसायन सम्बन्धी कार्यों में संलग्न रहेगा | जीवन में मुख्य रुझान सदैव शिक्षा तथा सांसारिक विषयों को समझने व सुलझाने की ओर रहेगा |
बुध पर यहाँ कारको-भाव-नाशाय सिद्धांत नहीं लगेगा, क्योंकि चतुर्थ स्थान शिक्षा स्थान है एवं बुध शिक्षा का कारक है | चतुर्थ स्थान में लग्नेश के बुध से युत होने से कारको-भाव-नाशाय सिद्धांत नहीं लगेगा, क्योंकि अध्ययन द्वतीय स्थान तथा साथ ही पंचम स्थान से भी देखा जाता है | यह विशिशतः केवल चतुर्थ स्थान से ही सम्बद्ध नहीं है |
· द्वतीय स्थान अध्ययन (चिंतन) स्थान है, चतुर्थ स्थान शिक्षा स्थान तथा पंचम स्थान विद्या या ज्ञान स्थान है |
अध्ययन से अभिप्राय पारम्परिक पढाई है जो वर्तमान में व्यक्ति को करनी चाहिए | पूर्वकाल में यह वेद व वेदांग थे | वर्तमान परिद्रश्य में यह विभिन्न संकायों में स्नातक एवं स्नान्कोत्तर उपाधि की प्राप्ति है | यह अध्ययन माना जाता है |
द्वतीय स्थान का अध्ययन जातक द्वारा किये जा रहे पारंपरिक अध्ययन के प्राकृतिक क्रम के अधीन आता है |
चतुर्थ स्थान शिक्षा स्थान है | अध्ययन से व्यक्ति का शिक्षित होना अनिवार्य नहीं है | शिक्षा अनुभवों व व्यक्तिगत प्रयासों से प्राप्त होती है | व्यक्ति ने यद्यपि डॉक्टर की पढाई कीहो तथापि उसका यथार्थत शिक्षित होना अनिवार्य नहीं है | शिक्षा का संबंध व्यक्ति के मानसिक संतुलन व मनः स्थिति से है | इसका व्यक्ति के अध्ययन से कोई संबंध नहीं है | कई उत्तम शैक्षणिक योग्यता प्राप्त तथा उच्च पदासीन व्यक्ति मूढ़वत व्यवहार करते हैं | इसका कारण यही है कि उन्होंने अध्ययन तो किया है, परन्तु वे शिक्षित नहीं है |
पंचम स्थान विद्या या ज्ञान का स्थान है | वेद एवं वेदांग विद्याएँ हैं | ज्ञान की शिक्षा नहीं ली जा सकती | शास्त्रों, वेदों, वेदांगों, ज्योतिष की विद्या प्राप्त की जाती है, इनका अध्ययन नहीं किया जा सकता | शास्त्रों व मंत्रो का ज्ञान लिया जाता है | ये विद्याएँ हैं| इन्हें शिक्षा के साथ सम्बद्ध नहीं किया जा सकता है | कठोपनिषद के अनुसार, जीवन में कर्मों दे मर्म का बोध कर श्रेय(जीवनोद्धारक, जो रोच्य होने आवश्यक नहीं) व प्रेय (जिनके करने में आनंदानुभूति हो) कर्मों का अंतर समझ श्रेयकर्मों की धार्यता व प्रेयकर्मों का त्याग ही विद्या या ज्ञान है | अतः यथार्थ ही कहा गया है कि व्यवहार का परिष्करण ही ज्ञान है |
इन तीनों भावों में यह मौलिक अंतर है | किसी व्यक्ति की आध्यात्मिक, ईश्वरीय, धार्मिक या ज्योतिषीय प्रवृत्ति का वर्णन करते समय पंचम स्थान प्रमुख भूमिका निभाता है | इसमें द्वतीय अथवा चतुर्थ स्थान का कोई योगदान अथवा संबंध नहीं है | किसी व्यक्ति के सामान्य ज्ञान के विश्लेषण में यह जानने के लिए कि क्या व्यक्ति के जीवन में शिक्षा की कोई प्रासंगिकता होगी, चतुर्थ का निरिक्षण किया जायेगा | व्यक्ति की मौलिक शिक्षा- वह शिक्षा ग्रहण करेगा या नहीं, उसका जीवन वृत्त कैसा होगा-इसका बोध द्वतीय स्थान से होगा | यही तीनो स्थानों में मुख्य अंतर है |
अन्यतः वक्री बुध जातक को भौतिक पदार्थों के संग्रह की ओर अधिक रुझान प्रदान करता है | व्यक्ति का मनोयोग पूर्णतया इसी ध्येय पर केन्द्रित होगा तथा यौनसुख में उसकी कम आसक्ति होगी |
यदि यह बुध शनि से सप्तम स्थान से द्रष्ट होम तो व्यक्ति नपुंसक अथवा यौनाचार्य में अनासक्त हो सकता है |
यदि यह बुध शुक्र से युत हो, तो व्यक्ति अपने से निम्न वर्ग की स्त्रियों से कामलिप्त रहेगा |
चतुर्थ स्थान में ब्रहस्पति युत लग्नेश जातक को इस सीमा तक कामी बनाएगा कि व्यक्ति निर्जन स्थान में भी सरलता से स्त्री प्राप्त करने में सफल होगा | व्यक्ति की शारीरिक संरचना आकर्षक होगी |
चतुर्थ स्थान गत ब्रहस्पति युत लग्नेश जातक को शास्त्रादी में रुझान देता है तथा ईश्वरीय ज्ञानार्जन में जीवन व्यतीत करेगा |
चतुर्थ स्थान में लग्नेश युत होने से जातक को जीवनविलास का आनंद प्रदान करता है | व्यक्ति अत्यधिक आडम्बरी होगा तथा उत्तम भवन प्राप्त करेगा | व्यक्ति श्रंगार प्रिय होगा |
शुक्र युत लग्नेश के जातक को लोक संपर्क या संपर्क सम्बन्धी सेवाकर्म अपनाना चाहिए क्योंकि व्यक्ति का यौनाकर्षण अन्यों को आकर्षित करेगा जिससे व्यक्ति अन्यों से सरलता पूर्वक पूर्ण करवाने में समर्थ होगा | व्यक्ति में शारीरिक सुन्दरता भले न हो, परन्तु व्यक्ति का प्रस्तुतीकरण इतना सुंदर होगा कि लोग आकर्षित होने, अतः व्यक्ति अत्यंत प्रेरक रूप में निपुणता प्राप्त करने में समर्थ होगा |
यदि लग्नेश चतुर्थ स्थान में शनि युत हो, तो जातक भाग्यवान तथा ऐसे परिवार में जन्मा है जहाँ वह सभी भौतिक सुख-सुविधाएँ भोगेगा | व्यक्ति को अनेकों नौकरों पर प्रभुत्व प्राप्त होगा तथा अनेकों वाहन प्राप्त होंगे | यह व्यक्ति को कुटिल स्वाभाव भी प्रदान करेगा |
शनि की द्रष्टि उसकी स्थिति से किंचित दुर्बल होती है, अतः प्रभाव भी उसी अनुपात में कम होगा |
व्यक्ति विशाल जनसमूह को आकर्षित करेगा तथा राजनेता अथवा राजनैतिक व्यक्ति बनेगा | यदि श्नियुत लग्नेश बली सूर्य व मंगल से द्रष्ट या युत हो तो व्यक्ति अवश्यमेव राजनैतिक होगा |
चतुर्थ स्थान गत लग्नेश व्यक्ति को अनिवार्यतः मिथ्यावादी बनता है | जातक सत्यनिष्ठा धारण नहीं करेगा तथा उसे सार्वजानिक विश्वास प्राप्त नहीं होगा | व्यक्ति स्वयमेव सत्याचारी नहीं होगा | जातक के प्रसवपूर्व कष्टों के आधिक्य के कारण असामयिक प्रसव होने की संभावना है | इससे यह भी स्पष्ट होता है कि माता गर्भावस्था से सम्बंधित कष्टों से पीडित रही होगी |
यदि लग्नेश सहित, राहू चतुर्थ स्थान में, मंगल से नवम स्थान से द्रष्ट होम जातक शाल्याचिक्त्सा द्वारा जनित रंध्र शिशु होगा | यदि यह योग पापी शनि से सम्बद्ध हो तो विक्रतांग शिशु होगा | यदि चन्द्र के साथ साथ चतुर्थेश बलहीन हो तो जिस व्यक्ति को जातक का पिता माना जाता है वह उसका जन्मदाता नहीं है | अन्य शब्दों में, जो व्यक्ति पिता कहला रहा है, वह जातक का वास्तविक पिता नहीं है |
चतुर्थ स्थान में चन्द्र व राहू अपारम्परिक शिक्षा, जैसे वैवसाईट अभिकल्पन इत्यादि प्रदान करेंगे |
चतुर्थ स्थान में केतु युत लग्नेश, जातक को रुग्ण बनाएगा | ऐसे व्यक्ति मानसिक तौर पर जीवन में असफल सिद्ध होते हैं तथा जीवन में सम्भावित सुखों का आनंद नहीं ले पाते |

सप्तम स्थान गत लग्नेश

   सप्तम स्थान को विशुद्ध केंद्र नहीं माना जाता | शास्त्रों  के अनुसार जब भी सप्तमेश कि दशा आती है, तो जातक को शांतिकर्म करवाने चाहिए अन्यथा उसे जीवन में सुख प्राप्त नहीं हो सकता | सप्तम स्थान को मारक स्थान माना जाता है | लग्न के उद्यम होने से सप्तम स्थान अस्तम होगा |

आत्मनुराग
लग्नेश सप्तम स्थान में तथा सप्मेश लग्न में होने पर जातक आत्मानुरागी अर्थात केवल अपने से प्यार करने वाला होगा | व्यक्ति में असामन्य व अत्यधिक निज प्रेम होता है, अतः उसके अविवाहित रहने कि सम्भावना है | विवाह कि स्थिति में भी जातक एकाकी सा एकांत को अधिमान देता है | अतः व्यक्ति विवाहित जीवन का आनंद नहीं ले पायेगा तथा दाम्पत्य जीवन का निर्वाह नहीं करेगा | ऐसे जातक के विचार से उनके समान या उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं हो सकता |
· नाढ़ीशास्त्र के सिद्धांतानुसार सप्तम स्थान गत लग्नेश अथवा लगन्गत सप्तमेश दर्शाते हैं कि जातक कुंवारा होगा | इसका कारण है कि लग्नेश, जो आत्मकारक है, सप्तम स्थान या कलत्र स्थान गत होता है | अतः जातक आत्मानुरागी है | उसके विचार में, कोई भी जातक उसका साथी बनने योग्य नहीं है | इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि व्यक्ति अपने पारिवारिक दायरे में ही विवाह करेगा | जातक दीर्घायु एवं सहोदरों के प्रति समर्पित होगा |
सामाजिक छवि
सप्तम स्थान सामाजिक छवि का सूचक है, अतः सप्तम स्थान गत लग्नेश जातक को श्रेष्ठ सामाजिक छवि प्रदान करता है | व्यक्ति कि सामाजिक छवि विलक्षण होगी, परन्तु उसका आत्मानुराग जातक को निजत्व एवं निज उपलब्धियों में इतना अनुरक्त बनाएगा कि अन्य जीवन मूल्यों कि उपेक्षा कर देगा |
सहयोग
यह सहयोग स्थान भी है इसलिए व्यक्ति में अन्यों कि भावनाओं या विचारो को धारण करने कि क्षमता नहीं होगी | वह कदाचित अपने विषय में वार्ता करेगा अथवा संवादहीन रहेगा |
विदेशवास
सप्तम स्थान विदेशी भूमि में वास का स्थान है | इससे यह संकेत भी मिलता है कि व्यक्ति विदेश में समृद्ध होगा तथा वहीँ वास करने का प्रयत्न करेगा | जातक विदेश में यश तथा अक्षय धन प्राप्त करेगा | अतः सप्तम स्थान में नवमेश व तृतीयेश युत लग्नेश दर्शाता है कि जातक विदेशवास करेगा | यदि इस योग का द्वादशेश से भी संबंध हो तो व्यक्ति अवश्यमेव परदेश या विदेशभूमि में वास करेगा तथा वहीँ सुयश व धन प्राप्त करेगा | व्यक्ति अत्यंत स्वेच्छाचारी होगा तथा निजोद्योग से जीवन में उन्नति करेगा |
सप्तम स्थान में लग्नेश व सूर्य से दशमेश या दशम स्थान के संबंध सहित युत हो तो व्यक्ति चिकित्सक बनेगा |
यदि सप्तम स्थान में लग्नेश का राहू-केतु रेखांश से सम्बद्ध हो, तो शल्य चिकित्सक दर्शाता है | इस योग में विवाह की संभावना नहीं है | इस योग में वैवाहिक जीवन सदैव तनावमय रहेगा, ऐसे जातक सनातन कुंवारे होंगे यदि यह विवाह करेंगे भी तो उनका दाम्पत्य जीवन सौहाद्रपूर्ण नहीं होगा अथवा दांपत्य सुख प्राप्त नहीं होगा |
विशेषतः सप्तम स्थान गत लग्नेश का सूर्य से संबंध व्यक्ति को यौनाचार रहित बनता है, व्यक्ति या तो यौनाचार में किंचित आनंद नहीं पायेगा अथवा आंशिक नपुंसक हो सकता है |
सप्तम स्थान गत लग्नेश का चन्द्र से संबंध जातक को गूढ़तत्व प्रदान करता है | यह व्यक्ति को प्रिय बनाएगा | यद्यपि जातक में किंचित नारीवत स्वाभाव होगा, तथापि जीवन के प्रति जातक के विचार विस्तृत होंगे तथा व्यक्ति रूढ़िवादी विचारों का अनुसरण नहीं करेगा अथवा दूसरों के प्रति रूढ़िवादी विचार पोषित नहीं करेगा |
यदि लग्नेश युत चन्द्र, सप्तम स्थान गत, नीच राशिगत हो तो जातक को मानसिक विचलन प्राप्त हो सकता है | यद्यपि जातक उत्तम सामाजिक छवि पर्येगा, तथापि जहाँ तक शारीरिक रूप का संबंध है, व्यक्ति सदैव वैचारिक शुन्यता ग्रस्त होगा तथा सदैव परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने में असफल रहेगा |
यदि यह राहू-केतु रेखांश से सम्बद्ध हो तो व्यक्ति आत्महत्या कर सकता है अथवा मात्र द्वतीय या बुध से संयोग हो तो व्यक्ति में आत्मघाती प्रवृत्ति होगी |
चन्द्र सप्तम स्थान में किसी भी परिस्थिति में नीचगत नहीं होना चाहिए | सप्तम स्थान में लग्नेश चन्द्र व मंगल से युत होने पर व्यक्ति अत्यंत शक्तिशाली, पुष्ट देहि व प्रलापी होगा तथा अपने आलोचनात्मक विश्लेषक स्वाभाव के कारण अल्पमित्रवान होगा | व्यक्ति अपनी जन्मभूमि से बाहर अत्याधिक व्यावसायिक उन्नति प्राप्त करेगा तथा वहां यश व धन अर्जित करेगा | व्यक्ति के परदेश गमन के समय नवमेश व तृतीयेश का सप्तमेश से अवश्यमेव संबंध बनेगा |
सप्तम स्थान गत लग्नेश कि बुध से युति दर्शाती है कि व्यक्ति कलाकार बनेगा तथा यदि बुध सुस्थित न हो तो प्रतिशोधी भी हो सकता है | व्यक्ति किसी से कभी अपमानित होने पर उग्र प्रतिशोध भावनाग्रस्त हो सकता है | व्यक्ति सदैव जीवन में घटित समस्त सुखद घटनाओं के स्थान पर अप्रिय घटनाओं को स्मरण रखेगा, जिसके परिणामवश, जीवन में सदैव हतोत्साहित व खिन्नचित रहेगा |
सप्तम स्थान में लग्नेश ब्रहस्पति युत होने से जातक को अत्यंत शुद्धचित्, पुण्यात्मा, सुदर्शन व धर्म कर्म में अनुरक्त बनता है | ऐसा व्यक्ति जो मुख्यतः ईश् निष्ठ होगा |
सप्तम स्थान गत लग्नेश शनि से युति जातक के भाग्यवान नेता, तथा अपने कार्यमंडल में अध्यक्ष या प्रबंध निदेशक होने कि सूचक है | शुद्ध कार्य क्षमता के कारण व्यक्ति उच्चतम पद प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा यद्यपि अविवाहित होगा, परन्तु यदि शनि स्वराशिगत हो तो व्यक्ति जीवन के उत्तरार्ध में अपनी पसंद कि कन्या से विवाह करेगा, परन्तु केवल संसर्ग हेतु न कि संतान हेतु |
जानिए क्‍या होते हैं मंत्र जाप करने के नियम

मंत्रों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर चर्चा करने के बाद हम आपको बता रहे हैं कि मंत्र जाप करने के भी कुछ नियम होते हैं। यदि आप उन नियमों का पालन करेंगे तो आपके घर में न केवल सुख-शांति आयेगी, बल्कि आपका स्‍वास्‍थ्‍य भी अच्‍छा रहेगा- प्रस्‍तुत हैं मंत्र जाप के नियम:-

1- वाचिक जप। 2- उपांशु जप। 3- मानसिक जप।

1-वाचिक जप- वाणी द्वारा सस्वर मंत्र का उच्चारण करना वाचिक जप की श्रेणी में आता है।
2- उपांशु जप- अपने इष्ट भगवान के ध्यान में मन लगाकर, जुबान और ओंठों को कुछ कम्पित करते हुए, इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करें कि केवल स्वंय को ही सुनाई पड़े। ऐसे मंत्रोचारण को उपांशु जप कहते है।
3- मानसिक जप- इस जप में किसी भी प्रकार के नियम की बाध्यता नहीं होती है। सोते समय, चलते समय, यात्रा में एंव शौच आदि करते वक्त भी ’ मंत्र’ जप का अभ्यास किया जाता है। मानसिक जप सभी दिशाओं एंव दशाओं में करने का प्रावधान है।

इन नियमों का भी पालन करें
1- शरीर की शुद्धि आवश्यक है। अतः स्नान करके ही आसन ग्रहण करना चाहिए। साधना करने के लिए सफेद कपड़ों का प्रयोग करना सर्वथा उचित रहता है।
2- साधना के लिए कुश के आसन पर बैठना चाहिए क्योंकि कुश उष्मा का सुचालक होता है। और जिससे मंत्रोचार से उत्पन्न उर्जा हमारे शरीर में समाहित होती है।
3- मेरूदण्ड हमेशा सीधा रखना चाहिए, ताकि सुषुम्ना में प्राण का प्रवाह आसानी से हो सके।
4- साधारण जप में तुलसी की माला का प्रयोग करना चाहिए। कार्य सिद्ध की कामना में चन्दन या रूद्राक्ष की माला प्रयोग हितकर रहता है।
5- ब्रह्रममुहूर्त में उठकर ही साधना करना चाहिए क्योंकि प्रातः काल का समय शुद्ध वायु से परिपूर्ण होता है। साधना नियमित और निश्चित समय पर ही की जानी चाहिए।
6- अक्षत, अंगुलियों के पर्व, पुष्प आदि से मंत्र जप की संख्या नहीं गिननी चाहिए।
7- मं
: जानिए कैसे असर करते हैं मंत्र ?

मंत्र शब्दों का एक खास क्रम है जो उच्चारित होने पर एक खास किस्म का स्पंदन पैदा करते हैं, जो हमें हमारे द्वारा उन स्पंदनों को ग्रहण करने की विशिष्ट क्षमता के अनुरूप ही प्रभावित करते हैं।

हमारे कान शब्दों के कुछ खास किस्म की तरंगों को ही सुन पाते हैं। उससे अधिक कम आवृत्ति वाली तरंगों को हम सुन नहीं पाते।

हमारे सुनने की क्षमता 20 से 20 हजार कंपन प्रति सेकेंड हैं, पर इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य तरंगे प्रभावी नहीं है। उनका प्रभाव भी पड़ता है और कुछ प्राणी उन तरंगों को सुनने में सक्षम भी होते हैं।

जैसे- कुछ जानवरों और मछलियों को भूकंप की तरंगों की बहुत पहले ही जानकारी प्राप्त हो जाती है और इनके व्यवहार में भूकंप आने के पहले ही परिवर्तन दिखाई देने लगता है। इन्हीं सिद्वांतों पर आज की बेतार का तार प्रणाली भी कार्य करती है।

इसे इस उदाहरण के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है कि रेडियो तरंगे हमारे चारों ओर रहती है पर हमें सुनाई नहीं पड़ती, क्योंकि वे इतनी सूक्ष्म होती हैं कि हमारे कानों की ध्वनि ग्राह्म क्षमता उन्हें पकड़ ही नहीं पाती।

मंत्रों की तरंगे इनसे भी अधिक सूक्ष्म होती हैं और हमारे चारों ओर फैल जाती हैं। अब यह हम पर निर्भर है कि हम खुद को उसे ग्रहण करने के कितने योग्य बना पाते हैं।

मंत्रों से निकलने वाली स्थूल ध्वनि तरंगों के अलावा उसके साथ श्रद्धाभाव व संकल्प की तरंगे भी मिली होती हैं। स्थूल ध्वनि तरंगों के अलावा जो तरंगे उठती हैं, उन्हें हमारे कान ग्रहण नहीं कर पाते। वे केश-लोमों के जरिए हमारे अंदर जाकर हमें प्रभावित करती हैं।

मंत्रों के सूक्ष्म तरंगों को ग्रहण करने में केश-लोम बेतार का तार की तरंगे ग्रहण करने वालों की भांति काम करते हैं और उनके माध्यम से ग्रहण किए गए मंत्रों की सूक्ष्म तरंगे हमारी समस्याओं के शमन में सहायक होती हैं�
[ तंत्र, मंत्र, यंत्र और योग साधना का लाभ…

हिंदू धर्म में हजारों तरह की साधनाओं का वर्णन मिलता है। साधना से सिद्धियां प्राप्त होती हैं। व्यक्ति सिद्धियां इसलिए प्राप्त करना चाहता है, क्योंकि या तो वह उससे सांसारिक लाभ प्राप्त करना चाहता है या फिर आध्यात्मिक लाभ।

मूलत: साधना के चार प्रकार माने जा सकते हैं- तंत्र साधना, मंत्र साधना, यंत्र साधना और योग साधना। तीनों ही तरह की साधना के कई उप प्रकार हैं। आओ जानते हैं साधना के तरीके और उनसे प्राप्त होने वाला लाभ…

तांत्रिक साधना दो प्रकार की होती है- एक वाम मार्गी तथा दूसरी दक्षिण मार्गी। वाम मार्गी साधना बेहद कठिन है। वाम मार्गी तंत्र साधना में 6 प्रकार के कर्म बताए गए हैं जिन्हें षट् कर्म कहते हैं।

शांति, वक्ष्य, स्तम्भनानि, विद्वेषणोच्चाटने तथा।
गोरणों तनिसति षट कर्माणि मणोषणः॥

अर्थात शांति कर्म, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण ये छ: तांत्रिक षट् कर्म।

इसके अलावा नौ प्रयोगों का वर्णन मिलता है:-

मारण मोहनं स्तम्भनं विद्वेषोच्चाटनं वशम्‌।
आकर्षण यक्षिणी चारसासनं कर त्रिया तथा॥

मारण, मोहनं, स्तम्भनं, विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण, आकर्षण, यक्षिणी साधना, रसायन क्रिया तंत्र के ये 9 प्रयोग हैं।

रोग कृत्वा गृहादीनां निराण शन्तिर किता।
विश्वं जानानां सर्वेषां निधयेत्व मुदीरिताम्‌॥
पूधृत्तरोध सर्वेषां स्तम्भं समुदाय हृतम्‌।
स्निग्धाना द्वेष जननं मित्र, विद्वेषण मतत॥
प्राणिनाम प्राणं हरपां मरण समुदाहृमत्‌।

जिससे रोग, कुकृत्य और ग्रह आदि की शांति होती है, उसको शांति कर्म कहा जाता है और जिस कर्म से सब प्राणियों को वश में किया जाए, उसको वशीकरण प्रयोग कहते हैं तथा जिससे प्राणियों की प्रवृत्ति रोक दी जाए, उसको स्तम्भन कहते हैं तथा दो प्राणियों की परस्पर प्रीति को छुड़ा देने वाला नाम विद्वेषण है और जिस कर्म
[20/07, 20:27] Daddy: रोग नाशक देवी मन्त्र

“ॐ उं उमा-देवीभ्यां नमः”
‘Om um uma-devibhyaM namah’
इस मन्त्र से मस्तक-शूल (headache) तथा मज्जा-तन्तुओं (Nerve Fibres) की समस्त विकृतियाँ दूर होती है – ‘पागल-पन’(Insanity, Frenzy, Psychosis, Derangement, Dementia, Eccentricity)तथा ‘हिस्टीरिया’ (hysteria) पर भी इसका प्रभाव पड़ता है ।

“ॐ यं यम-घण्टाभ्यां नमः”
‘Om yaM yam-ghantabhyaM namah’
इस मन्त्र से ‘नासिका’ (Nose) के विकार दूर होते हैं ।

“ॐ शां शांखिनीभ्यां नमः”
‘Om shaM shankhinibhyaM namah”
इस मन्त्र से आँखों के विकार (Eyes disease) दूर होते हैं । सूर्योदय से पूर्व इस मन्त्र से अभिमन्त्रित रक्त-पुष्प से आँख झाड़ने से ‘फूला’ आदि विकार नष्ट होते हैं ।

“ॐ द्वां द्वार-वासिनीभ्यां नमः”
‘Om dwaM dwar-vasineebhyaM namah’
इस मन्त्र से समस्त ‘कर्ण-विकार’ (Ear disease) दूर होते हैं ।

“ॐ चिं चित्र-घण्टाभ्यां नमः”
‘Om chiM chitra-ghantabhyaM namah’
इस मन्त्र से ‘कण्ठमाला’ तथा कण्ठ-गत विकार दूर होते हैं ।

“ॐ सं सर्व-मंगलाभ्यां नमः”
‘Om saM sarva-mangalabhyaM namah’
इस मन्त्र से जिह्वा-विकार (tongue disorder) दूर होते हैं । तुतलाकर बोलने वालों (Lisper) या हकलाने वालों (stammering) के लिए यह मन्त्र बहुत लाभदायक है ।

“ॐ धं धनुर्धारिभ्यां नमः”
‘Om dhaM dhanurdharibhyaM namah’
इस मन्त्र से पीठ की रीढ़ (Spinal) के विकार (backache) दूर होते है । This is also useful for Tetanus.

“ॐ मं महा-देवीभ्यां नमः”
‘Om mM mahadevibhyaM namah’
इस मन्त्र से माताओं के स्तन विकार अच्छे होते हैं । कागज पर लिखकर बालक के गले में बाँधने से नजर, चिड़चिड़ापन आदि दोष-विकार दूर होते हैं ।

“ॐ शों शोक-विनाशिनीभ्यां नमः”
‘Om ShoM Shok-vinashineebhyaM namah’
इस मन्त्र से समस्त मानसिक व्याधियाँ नष्ट होती है । ‘मृत्यु-भय’ दूर होता है । पति-पत्नी का कलह-विग्रह रुकता है । इस मन्त्र को साध्य के नाम के साथ मंगलवार के दिन अनार की कलम से रक्त-चन्दन से भोज-पत्र पर लिखकर, शहद में डुबो कर रखे । मन्त्र के साथ जिसका नाम लिखा होगा, उसका क्रोध शान्त होगा ।

“ॐ लं ललिता-देवीभ्यां नमः”
‘Om laM lalita-devibhyaM namah’
इस मन्त्र से हृदय-विकार (Heart disease) दूर होते हैं
[ पुदीना का उपयोग से स्वास्थ्य लाभ

  1. पुदीने का उपयोग अधिकांशत चटनी या मसाले के रूप में किया जाता है। यह अपच को मिटाता है।
  2. पुदीना रूचिकर, वायु व कफ का नाश करने वाला है। यह खाँसी, अजीर्ण, अग्निमांद्य, संग्रहणी, अतिसार, हैजा, जीर्णज्वर और कृमि का नाशक है। यह पाचनशक्ति बढ़ाता है व उल्टी में फायदा करता है।
  3. पुदीना, तुलसी, काली मिर्च, अदरक आदि का काढ़ा पीने से वायु दूर होता है व भूख खुलकर लगती है।
  4. इसका ताजा रस कफ, सर्दी में लाभप्रद है।
  5. पुदीने का ताजा रस शहद के साथ मिलाकर, दो तीन घंटे के अंतराल से देते रहने से न्यूमोनिया से होने वाले अनेक विकारों की रोक-थाम होती है और ज्वर शीघ्रता से मिट जाता है।
  6. पुदीने का रस  पीने से खाँसी, उल्टी, अतिसार, हैजे में लाभ होता है, वायु व कृमि का नाश होता है।
  7. दाद-खाज पर पुदीने का रस लगाने से लाभ होता है। बिच्छू के काटने पर इसका रस पीने से व पत्तों का लेप करने से बिच्छू के काटने से होने वाले कष्ट दूर होता है।
  8. हरे पुदीने की चटनी पीसकर चेहरे पर सोते समय लेप करने से चेहरे के मुहाँसे, फुन्सियाँ समाप्त हो जायेंगी।
  9. हिचकी बन्द न हो रही हो तो पुदीने के पत्ते या नींबू चूसें।
  10. प्रातः काल एक गिलास पानी में 20-25 ग्राम शहद मिलाकर पीने से गैस की बीमारी में विशेष लाभ होता है।
  11. सूखा पुदीना व मिश्री समान मात्रा में मिलाकर दो चम्मच फंकी लेकर ऊपर से पानी पियो। इससे पैर दर्द ठीक होता है। 👉🏻विशेषः- पुदीने में विटामिन ए अधिक मात्रा में पाया जाता है। इसमें जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाले तत्त्व अधिक मात्रा में हैं। पुदीने के सेवन से भूख खुलकर लगती है।

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विटामिन संबंधी महत्वपूर्ण तथ्य
🔵 विटामिन – ‘A’
√रासायनिक नाम: रेटिनाॅल।
√कमी से रोग: रतौंधी।
√स्रोत (Source): गाजर, दूध, फल।

🔵 विटामिन- ‘B-1’
√रासायनिक नाम: थायमिन।
√कमी से रोग: बेरी-बेरी।
√स्त्रोत (Source): मुंगफली, आलू, सब्जियां।

🔵 विटामिन- ‘B-2’
√रासायनिक नाम: राइबोफ्लेबिन।
√कमी से रोग: त्वचा फटना, आँख का रोग।
√स्रोत (Source): दूध, हरी सब्जियाँ।

🔵 विटामिन- ‘B-3’
रासायनिक नाम: पैण्टोथेनिक अम्ल।
√कमी से रोग: पैरों में जलन, बाल सफेद।
√स्रोत (Source): दूध, टमाटर, मूंगफली।

🔵 विटामिन- ‘B-5’
√रासायनिक नाम: निकोटिनेमाइड (नियासिन)।
√कमी से रोग: मासिक विकार (पेलाग्रा)।
√स्रोत (Source): मूंगफली, आलू।

🔵 विटामिन- ‘B-6’
√रासायनिक नाम: पाइरीडाॅक्सिन।
√कमी से रोग: एनीमिया, त्वचा रोग।
√स्रोत (Source): दूध, सब्जी।

🔵 विटामिन-‘H’/’B-7’
√रासायनिक नाम: बायोटिन।
√कमी से रोग: बालों का गिरना , चर्म रोग।
√स्रोत (Source): गेहूँ।

🔵 विटामिन- ‘B-12’
√रासायनिक नाम: सायनोकोबालमिन।
√कमी से रोग: एनीमिया, पाण्डू रोग।
√स्रोत (Source): दूध।

🔵 विटामिन – ‘C’
√रासायनिक नाम: एस्कार्बिक एसिड।
√कमी से रोग: स्कर्वी, मसूड़ों का फुलना।
√स्रोत (Source): आँवला, नींबू, संतरा, नारंगी।

🔵 विटामिन – ‘D’
√रासायनिक नाम: कैल्सिफेराॅल।
√कमी से रोग: रिकेट्स।
√स्रोत (Source): सूर्य का प्रकाश, दूध।

🔵 विटामिन – ‘E’
√रासायनिक नाम: टेकोफेराॅल
√कमी से रोग: जनन शक्ति का कम होना
√स्रोत (Source): हरी सब्जी, मक्खन, दूध।

🔵 विटामिन – ‘K’
√रासायनिक नाम: फिलोक्वीनाॅन।
√कमी से रोग: रक्त का थक्का न बनना।
√स्रोत (Source): टमाटर, हरी सब्जियाँ, दूध।

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[ किशमिश(द्राक्ष) से उपचार

1. पेट की गैस: लगभग 30 से 40 ग्राम काली द्राक्ष को रात को ठण्डे पानी में भिगोकर सुबह के समय मसलकर छान लें। थोडे दिनों तक इस पानी को पीने से कब्ज (पेट की गैस) खत्म हो जाती है।

2. मूत्राशय की पथरी : कालीद्राक्ष का काढ़ा बनाकर पीने से मूत्रकृच्छ (पेशाब की जलन) का रोग खत्म होता है। इसका सेवन मूत्राशय की पथरी में लाभकारी होता है।

3. खांसी : बीज निकाली हुई द्राक्ष, शहद को एक साथ चाटने से क्षत कास (फेफड़ों में घाव उत्पन्न होने के कारण होने वाली खांसी) में लाभ होता है।

4. बलवर्द्धक : 20 ग्राम बीज निकाली हुई द्राक्ष को खाकर ऊपर से आधा किलो दूध पीने से भूख बढ़ती है, मल साफ होता है तथा यह बुखार के बाद की कमजोरी को दूर करता है और शरीर में ताकत पैदा करता है।

5. कब्ज : 10-10 ग्राम द्राक्ष, कालीमिर्च, पीपर और सैंधा नमक को लेकर पीसकर कपड़े में छानकर चूर्ण बना लें। फिर इसमें 400 ग्राम काली द्राक्ष ( draksh /kishmish)मिला लें और चटनी की तरह पीसकर कांच के बर्तन में भरकर सुरक्षित रख लें। इसकी चटनी `पंचामृतावलेह´ के नाम से प्रसिद्ध है। इसे आधा से 20 ग्राम तक की मात्रा में सुबह-शाम सेवन करने से अरुचि, गैस, कब्जियत, दर्द, मुंह की लार, कफ आदि रोग दूर होते है।

6. तृषा व क्षय रोग : लगभग 1200 मिलीलीटर पानी में लगभर 1 किलो शक्कर डालकर आग पर रखें। उबलने के बाद इसमें 800 ग्राम हरी द्राक्ष डालकर डेढ़ तार की चासनी बनाकर शर्बत तैयार कर लें। यह शर्बत पीने से तृषा रोग, शरीर की गर्मी, क्षय (टी.बी) आदि रोगों में लाभ होता है।

7. खांसी में खून आना : 10 ग्राम धमासा और 10 ग्राम द्राक्ष को लेकर उसका काढ़ा बनाकर पीने से उर:शूल के कारण खांसी में खून आना बंद हो जाता है।

8. पेशाब का बार- बार आना :
• अंगूर खाने से भी बहुमूत्रता पेशाब का बार- बार आने के रोग में पूरा लाभ होता है।
• बार-बार पेशाब जाने के रोग में 100 ग्राम अंगूर रोज खाने से आराम आता है।

9. सूतिका ज्वर : द्राक्षा, नागकेशर, काली मिर्च, तमाल पत्र, छोटी इलायची और चव्य का समान भाग चूर्ण बनाकर 3 से 6 ग्राम की मात्रा में 5 से 10 ग्राम शर्करा व पानी के साथ दिन में 2 बार खाने से सूतिका ज्वर ठीक हो जाता है।

10. दिल का रोग : द्राक्षाफल रस, परूषक एवं शहद के समान भार की 15 से 30 मिलीलीटर मात्रा, 1 से 3 ग्राम त्रिफला चूर्ण के साथ दिन में दो बार सेवन करने से दिल के रोग मे लाभ होता है। काल शक्ति

11. सिर की गर्मी : 20 ग्राम द्राक्ष को गाय के दूध में उबालकर रात को सोने के समय पीने से सिर की गर्मी निकल जाती है।

12. मूर्च्छा (बेहोशी) : द्राक्ष को उबाले हुए आंवले और शहद में मिलाकर रोगी को देने से मूर्च्छा (बेहोशी) के रोग में लाभ मिलता है।

13. सिर चकराना : लगभग 20 ग्राम द्राक्ष पर घी लगाकर रोजाना सुबह इसको सेवन करने से वात प्रकोप दूर हो जाता है। यदि कमजोरी के कारण सिर चकराता हो तो वह भी ठीक हो जाता है।

14. आंखों की गर्मी व जलन : लगभग 10 ग्राम द्राक्ष को रात में पानी में भिगोकर रखे। इसे सुबह के समय मसलकर व छानकर और चीनी मिलाकर पीने से आंखों की गर्मी और जलन में लाभ मिलता है।

15. अम्लपित : 20 ग्राम सौंफ व 20 ग्राम द्राक्ष ( draksh /kishmish)को छानकर और 10 ग्राम चीनी मिलाकर थोड़े दिनों तक सेवन करने से अम्लपित, खट्टी डकारें, खट्टी उल्टी, उबकाई, आमाशय में जलन होना, पेट का भारीपन के रोग में लाभ पहुंचता हैl

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[पुस्तक का नाम – वेदविज्ञान – आलोकः (महर्षि ऐतरेय महीदास प्रणीत – ऐतरेय ब्राह्मण की वैज्ञानिक व्याख्या)

व्याख्याकार का नाम – आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

वेदों में समस्त ज्ञान – विज्ञान मूलरूप से विद्यमान है। जिसे समझने और समझाने के लिए, उसका मानव हितार्थ उपयोग करने के लिए अनेकों ऋषियों – महर्षियों और विद्वानों देवों ने अपना – अपना योगदान दिया है। वेदों पर अनुसंधान और मनुष्यों में उसके विज्ञान का प्रसार – प्रचार का कार्य महर्षि ब्रह्मा से लेकर महर्षि दयानन्द तक चला है। इन सबने वेदों के व्याख्यान किए है। जिससे कि वेदों का रहस्य सभी मानव जाति के लिए बोधगम्य हो। इनमें वेदों के व्याख्यान ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रन्थ वेदों के साक्षात् व्याख्यान ग्रन्थ होने के कारण वेदों के सर्वाधिक निकट और वेदों की विद्या के प्रकाशक है। इन ग्रन्थों के अध्ययन के बिना वर्तमान में वेद विद्या को समझना असाध्य कार्य है। इन ब्राह्मण ग्रन्थों में भी सर्वाधिक प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थ ऋग्वेद का महर्षि ऐतरेय महीदास जी द्वारा रचित ऐतरेय ब्राह्मण है। इस ग्रन्थ में अनेकों वैज्ञानिक रहस्य हैं, किन्तु वे सभी वैज्ञानिक तत्त्व अति गूढ़ भाषा में विद्यमान है। इस भाषा को न समझ पाने के कारण ही कई विद्वानों ने इस ग्रन्थ का अश्लीलता और हिंसात्मक अर्थ, व्याख्यादि की। उन्हीं विद्वानों की व्याख्याओं को देखकर बिना कुछ गम्भीर विचार किए कुछ आर्य विद्वानों ने इन ग्रन्थों में प्रक्षिप्त की कल्पना भी कर ली। जबकि ये स्थल न तो अश्लील है और न ही हिंसक बल्कि ये विशुद्ध वैज्ञानिक सिद्धान्तों से ओत – प्रोत है।

इस ग्रन्थ पर लगने वाले हिंसक और अश्लील तथा प्रक्षेप के आरोपात्मक कलङ्कों को आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक जी ने अपने प्रस्तुत भाष्य “वेदविज्ञान आलोक” से मुक्त करने का एक उत्तम प्रयास किया है। इस ग्रन्थ द्वारा आचार्य जी ने लगभग हजारों वर्षों से लुप्त वैदिक विज्ञान को खोज निकाला है जिससे आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों की अनेकों समस्याओं का समाधान हो जाता है तथा गलत और काल्पनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों की निवृत्ति हो जाती है। इस ग्रन्थ से जहां महान वैज्ञानिक सिद्धान्त प्रस्फुटित होते हैं वहीं यह ग्रन्थ ईश्वर के वैज्ञानिक स्वरूप और उसकी सृष्टि निर्माण में कार्यशैली को जानने में भी अत्यन्त सहायक है अर्थात् यह ग्रन्थ भौत्तिकवेत्ताओं और अध्यात्मवेत्ताओं के लिए अत्यन्त उपयोगी है। जहां इस ग्रन्थ के भाष्य में सायण आदि भाष्यकारों ने इसे बूचड़खाना सा बना दिया था वहीं प्रस्तुत भाष्य के द्वारा आप जानेंगे –

1) Force, Time, Mass, Charge, Space, Energy, Gravity, Graviton, Dark Energy, Dark Matter, Mass, Vacuum Energy, Mediator Particles आदि का विस्तृत विज्ञान क्या है? इनका स्वरूप क्या है? सृष्टि प्रक्रिया में इनका योगदान है?
2) जिन्हें संसार मूल कण मानता है, उनके मूल कण न होने का कारण तथा इनके निर्माण की प्रक्रिया क्या है?
3) अनादि मूल पदार्थ से सृष्टि कैसे बनी? प्रारम्भ से लेकर तारों तक के बनने की विस्तृत प्रक्रिया क्या है? Big Bang Theory क्यों मिथ्या है? क्यों universe अनादि नहीं है, जबकि इसका मूल पदार्थ अनादि है?
4) वेद मन्त्र इस ब्रह्माण्ड में सर्वत्र व्याप्त विशेष प्रकार की तरंगों के रूप में ईश्वरीय रचना है। ये कैसे उत्पन्न होते हैं?
5) इस ब्रह्माण्ड़ में सर्वाधिक गतिशील पदार्थ कौनसा है?
6) गैलेक्सी और तारामंडलों के स्थायित्व का यथार्थ विज्ञान क्या है?
7) वैदिक पंचमहाभूतों का स्वरूप क्या है?
8) संसार में सर्वप्रथम भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है?
9) भौत्तिक और आध्यात्मिक विज्ञान, इन दोनों का अनिवार्य सम्बन्ध क्या व क्यों है?
10) ईश्वर सृष्टि की प्रत्येक क्रिया को कैसे संचालित करता है?
11) “ओम” ईश्वर का मुख्य नाम क्यों हैं? इसकी ध्वनि इस ब्रह्माण्ड में क्या भूमिका निभाती है?

ऐसे ही अनेकों प्रश्नों के उत्तर आपको इस ग्रन्थ में मिलेंगे। इस ग्रन्थ से –

1) ब्रह्माण्ड के सबसे जटिल विषय Force, Time, Space, Gravity, Graviton, Dark Energy, Dark Matter, Mass, Vacuum Energy, Mediator Particles आदि के विज्ञान को विस्तार से समझा सकेंगे।
2) ब्रह्माण्ड के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए एक नई Theory दे सकेंगे। Vedic Rashmi Theory में वर्तमान की सभी Theories के गुण तो होंगे परन्तु उनके दोष नहीं होंगे।
3) आज Partical Physics असहाय स्थिति में है। हम वर्तमान सभी Elementary Particles व Photons की संरचना व उत्पत्ति प्रक्रिया को समझा सकेंगे।
4) वैज्ञानिक के लिए 100 – 200 वर्षों के लिए अनुसंधान सामग्री दे सकेंगे।
5) इस ग्रन्थ से सुदूर भविष्य में एक अद्भूत भौत्तिकी का युग प्रारम्भ हो सकेगा, जिसके आधार पर विश्व के बड़े – बड़े टैक्नोलॉजिस्ट नवीन व सूक्ष्म टैक्नोलॉजी विकास कर सकेंगे।
6) प्राचीन आर्यावर्त्त में देवों, गन्धर्वों आदि के पास जिस टैक्नोलाँजी के बारे में पढ़ा व सुना जाता है, उसकी ओर वैज्ञानिक अग्रसर हो सकेंगे।
7) हम जानते हैं कि विज्ञान की विभिन्न शाखाओं यथा – रसायन विज्ञान, जीव – विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान, आयुर्विज्ञान आदि का मूल भौत्तिक विज्ञान में ही है। इस कारण वैदिक भौत्तिकी के इस अभ्युदय से विज्ञान की अन्य शाखाओं के क्षेत्र में भी नाना अनुसंधान के क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन आ सकेगा।
8) वैदिक ऋचाओं का वैज्ञानिक स्वरूप एवं इससे सृष्टि के उत्पन्न होने की प्रक्रिया ज्ञात हो सकेगी।
9) वेद विज्ञान अनुसंधान की जो परम्परा महाभारत के पश्चात् लुप्त हो गयी थी, वह इस भाष्य से पुनर्जीवित हो सकेगी।
10) संस्कृत भाषा विशेषकर वैदिक संस्कृत को ब्रह्माण्ड़ की भाषा सिद्ध किया जा सकेगा।
11) भारत विश्व के एक सर्वथा नयी परन्तु वस्तुतः पुरातन, अद्भूत वैदिक फीजिक्स दे सकेगा, इसके साथ ही वेद एवं अन्य आर्ष ग्रन्थों के पठन – पाठन परम्परा को भी नयी दिशा मिल सकेगी।
12) इससे वेद तथा ऋषियों की विश्व में प्रतिष्ठा होकर भारत वास्तव में जगद्गुरु बन सकेगा।
13) हमारा अपना विज्ञान अपनी भाषा में ही होगा, इससे भारत बौद्धिक दासता से मुक्त होकर नये राष्ट्रीय स्वाभिमान से युक्त हो सकेगा।
14) इस कारण भारतीयों में यथार्थ देशभक्ति का उदय होकर भारतीय प्रबुद्ध युवाओं में राष्ट्रीय एकता का प्रबल भाव जगेगा।
15) यह सिद्ध हो जाएगा कि वेद ही परमपिता परमात्मा का दिया ज्ञान है तथा यही समस्त ज्ञान विज्ञान का मूल स्त्रोत है।

आशा है कि विद्वतजन इस गम्भीर ग्रन्थ का गम्भीरता से अध्ययन करेगें और अन्य ग्रन्थों पर भी इसी प्रकार अनुसंधान की ओर अग्रसर होंगे।

वेदविज्ञान – आलोकः (महर्षि ऐतरेय महीदास प्रणीत – ऐतरेय ब्राह्मण की वैज्ञानिक व्याख्या)

vedrishi.com

वेदऋषि

विज्ञान

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[21/07, 12:04] Daddy: हम अग्नि का आह्वान करने वाले सनातनी हैं । अग्नि का मूल अर्थ और भाव “ आगे बढ़ने से है “ । जो शक्तियाँ आपसे द्वेष करती हैं और आपके ” आगे” बढ़ने में बाधा उत्पन्न करती हैं , उन्हें मसल दिया जाय ।
✍🏻राज शेखर तिवारी

#India_That_is_Bharat

अनुवादों के #कूटबुद्धिजीवियों के माया जाल से जकड़ा गुलाम मानसिक भारत और भारतीय।

“Man is social animal” . किसी भी डॉक्टरेट की डिग्री से उपाधित बेहतर समझ वाला व्यक्ति से भी ये पूंछो कि क्या आप इस नारे से सहमत हैं तो वो तत्काल बोलता है कि – हाँ सहमत हूँ ।
उससे पुनः पूँछिये कि इसका हिंदी में अनुवाद क्या है तो वो बोलता है कि “मनुष्य एक सामजिक प्राणी है”।

लेकिन फिर उसी से पूँछिये कि animal का अनुवाद जानवर होता है प्राणी नही , इसलिए सही अनुवाद है कि “मनुष्य एक सामाजिक जानवर है” ।
क्योंकि प्राण जिसके भी अंदर है वो प्राणी होता है।
अर्थात कुकुर बिलार चमगादड़ नेउर बिच्छू सांप चींटी बिस्तुइया आदि आदि सभी प्राणी है , लेकिन क्या ये सब जानवर है ?
नहीं न ।
ये सब जीव जंतु है ।

Greek Philosopher Aristotle wrote it ” A man is social animal . One who lives without society is either beast or God”.
चूंकि अरस्तू ने ये बोला कि “मनुष्य एक सामाजिक जानवर है और जो समाज में निवास नहीं करता वो या तो हिंसक पशु है या फिर ईश्वर” इसलिए औपनिवेशिक गुलामी में जकड़े कूट बुद्धि प्रवंचको के लिए ब्रम्ह वाक्य हो गया ।
और उन्होंने अनुवादों के जरिये प्रत्येक भारतीय के मस्तिष्क में शिक्षा संस्थानों के माध्यम से प्रत्येक शिक्षित नौजवान के मस्तिष्क में कॉपी पेस्ट कर रहे हैं।

http://www.preservearticles.com/201104306137/why-man-is-called-as-a-social-animal.html

मूल प्रश्न ये है कि अरस्तू जैसा विद्वान इस नारे को देने पर मजबूर क्यों हुवा ?
इसका उत्तर आपको विश्व के 2000 के आर्थिक इतिहास की विवेचना करने वाले अंगुस मैडिसन की खोजी पुस्तक में मिलेगा।
उसने बताया कि रोमन साम्राज्य का आधार था।
1-slavery यानि गुलामी
2- Military पावर यानि जिसकी लाठी उसकी भैंस अर्थात मत्सन्याय अर्थात जंगल राज ।
( इतने दृष्टान्त इसलिए दे रहा हूँ क्योंकि तीसरे आधार में जिस शक्ति का प्रयोग होता था उसको सैन्य शक्ति नही करती। बल्कि मिलिट्री पावर करती थी । आप हो सकता है भूलवश मिलिट्री पावर का अनुवाद सैन्य शक्ति में कर लेते)
3- Plunder यानि लूट हत्या बलात्कार और नगर और गाँव का विध्वंस।

और जब ईसाइयत पनपी और भारत तक आयी तो वो सभ्यता और संस्कृति उनकी वंशजो के गुणसूत्रों के माध्यम से उनके साथ भारत की धरती पर भी अवतरित हुई अन्यथा विल दुरंत जैसा विद्वान उनको pirate यानि समुद्री डकैत घोसित न करता।

अनुवादोंकीसमस्या : भाग -1

डकैत और बाहुबली आतंकवादी माफिया डॉन आदि आदि नए नए नाम है जिनका चरित्र क्या है ?

उसका मोडस ऑपरेंडी क्या है ?

येन केन प्रकारेण निहत्थे शारीरिक बल से कमजोर लेकिन उच्च नैतिक आदर्शों वाले लोगों को जान का भय दिखाकर भय का राज्य कायम करते हुए अपना साम्राज्य स्थापित करना।

लेकिन जिन लोगों ने आसमानी किताब के वॉर मंनुअल की वार तकनीक अपनाते हुए यदि हथियार बन्द लोगों से लड़ाई कर अपना शासन स्थापित किया होता तो कोई बात भी होती ।

आज UNO ने भी नियम बनाया है कि Non Combatants यानि जो योद्धा नही है उसके ऊपर युद्ध में वॉर नही किया जाय।

ये भारत की परंपरा थी ।

लेकिन जिन महान शासकों ने निहत्थे नागरिकों की गर्दन काटी हो, और उनका धन संपत्ति लूटकर औरतों को अपनी हरमो में सेक्स स्लेव बनाया हो , फिर भी इतिहासकारों ने उसको अकबर महान घोसित किया हो ,उनको क्या कहा जाना चाहिए ?

आज भी इराक में यही इतिहास दुहराया जा है यजीदियों के साथ। उनकी औरतो को वॉर मंनुअल आज भी सेक्स स्लेव बनाया जा रहा है ।

इनको बर्बर या beast ही कहा जा सकता है। पशु भी इनसे श्रेष्ठ चरित्र के होते हैं ।

जाति का अर्थ है – #सामान्य #जन्म ।

अब इसमें अनुसूचित जाति का अर्थ बताएं ?

मनुस्मृति में #अनुसूचित जाति दर्ज है क्या ?
कौन इसका विरोधी है ?
क्या असामान्य जन्म चाहते हो ?

है कोई जो इस चुनौती को स्वीकार कर सकता है ?

अनुवादों की समस्या ।
कास्ट का अनुवाद जाति और धर्म का अनुवाद रिलिजन।
तो हाफ कास्ट , क्वार्टर कास्ट का अर्थ मनुवादी बताएँगे या दोगले इसाई ।
शूद्र , वैश्य , क्षत्रिय और ब्राम्हण #वर्ण है ।

द्रविड़ क्षेत्रीय पहचान है जैसे – बनारसी या कानपुरिया या कन्नौजिया।

डॉ त्रिभुवन सिंह की पोस्ट और कॉमेंट से संकलित।

ईश्वर = अजाति
मनुष्य और पशु = जाति भेद
( अर्थात मनुष्य जाति , गऊ जाति , मत्स्य जाति )
पुरूष , महिला = लिङग भेद
शैव , शाक्त , वैष्णव = सम्प्रदाय भेद
गृहस्थ और सन्यासी = आश्रम भेद
बाभन बनिया = वर्ण भेद
——————————————

जाति का अर्थ ध्यान से समझिये , शास्त्रों के अनुसार । जाति का निरूक्त , सादृश्य होता है । सादृश्य का अर्थ होता है जो आपको आँख से दिखे । फिर से समझ लीजिए , मैकाले के गिटपिट बेटों और चूमंडलों के चक्कर में मत पड़िए । जिसका आँख देख कर आप भेद कर सकें , वही जाति होती है ।

ईश्वर, चूँकि सादृश्य नहीं होता अत: अजाति होता है ।

फिर से ध्यान दीजिये , आप आँख से देखकर , ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य या शूद्र का भेद नहीं कर सकते अत: इनमें जाति भेद आपके शास्त्रों के अनुसार नहीं हो सकता ।

हाँ भौगोलिक अन्तर से आप पहाड़ी , या दक्षिण भारतीय व्यक्ति में अन्तर आप देखकर बता सकते हैं की अमुक व्यक्ति मद्रासी दिखता है पर आप अपनी आँख से देखकर यह नहीं बता सकते की अमुक व्यक्ति मद्रासी बनिया है ।

जाति का दूसरा अर्थ शास्त्रों में “ आकृति गृहणा” भी बताया है , और आकृति गृहणा से भी उपर लिखी हुई बात ही सिद्ध होती है ।

अब तत्व दृष्टि से समझिये ..

मनुषत्व का अभिप्राय , सभी मनुष्यों के लिए होता है ।
अश्वत्व का अभिप्राय सभी अश्वों से होता है ।

गजत्व , सभी हाथियों में एक ही होता है । अर्थात पशु होने पर भी चूँकि आप आकृति भेद से हाथी , गाय , घोड़े और गधे में अन्तर कर सकते है अत: गाय एक जाति है । हाथी एक जाति है ।घोड़ा एक जाति है । गधा एक जाति है ।

शुकत्व का अभिप्राय में सभी “ तोते “ आ जाते हैं । पर पक्षियों में आप मोर तोते कौव्वे कबूतर में आकृति भेद देख सकते हैं अत: सनातन धर्म के नियमानुसार आप कह सकते हैं की मोर तोता कौव्वा कबूतर इत्यादि जातियाँ हैं।

वांछनीय कामनाओं को कन्या कहते है ।

इस शब्द का कोई पुल्लिंग नहीं है । यह वांछनीय कामनाओं को ही आप ही छोड़ते है वही आपके मुक्ति का द्वार है ।

आप नवरात्र में कन्याभोज कराते है । आप कन्या को पूजते हैं । आप पुत्री भोज या बेटी भोज नहीं कराते । आप पुत्री दान या बेटी दान नहीं करते विवाह में , आप केवल कन्या दान करते हैं क्योकि एक गृहस्थ जबतक अपनी वांछित कामनाओं का दान नहीं कर सकता वह मुक्त हो ही नहीं सकता ।

तो वॉलीवुड के प्रभाव में रत सनातनियों , यदि तुम्हें बेटी नहीं हुई है तब भी कन्यादान करना पड़ेगा , चाहे वह भतीजी का करना पड़े या किसी और की बेटी का ।

सनातन धर्म के “कन्या” शब्द का समानार्थी भी कोई शब्द दुनिया की किसी और संस्कृति या मजहब में नही है । वामपन्थी “ कन्या” शब्द का अर्थ डॉटर या बेटी या साहिबज़ादी से करेंगे जो की नितांत व्यर्थ है ।

अपनी संस्कृति को समझिए और उस पर गर्व करिए ।

Please don’t put your words in my mouth”

वामपन्थी और भौतिकवादियों , आप लोग अपने शब्द हमारे मुह में न डाले ।

पिछली कड़ी में एक भौतिकवादी वामपन्थी सज्जन का कमेंट्स था आपका षडदर्शन सृष्टि की उत्पत्ति पर क्या कहता है ?

मैने कहा की आप सृष्टि और उत्पत्ति दोनो शब्द एक साथ क्यो लिख रहे है ? क्योकि हमारे षडदर्शन तो सृष्टि स्थिति और संहार और तीनों हर क्षण हो रहे है ऐसा होता है कहते हैं ।

ख़ैर , कुछ देर कुतर्क करने के बाद भाई ने अपना कमेंट डीलिट करके मुझे ब्लॉक कर दिया ।

तो मैने सोचा की जो विषय उन्होंने छेड़ा था उस पर कुछ स्पष्टीकरण दे ही दूँ ।

तो देखिए, संस्कृत भाषा में, सृष्टि का अर्थ ही उत्पत्ति होता है । सृष्टि हुई , इतना कहना ही पर्याप्त है । जैसे हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं ( जिन जिन पर आंग्ल भाषा का प्रभाव पड़ा हुआ है ) में आप लोग Morning time को प्रात:काल कहते और लिखते हैं पर संस्कृत भाषा में समय को अलग से काल में नहीं डाला जात । प्रात: का अर्थ प्रात:काल ही होता है ।
हालाँकि आजकल हिन्दी भाषा अनुवाद करने वाले वीर प्रात: काल के समय , अर्थात एक ही बात को कहने के लिए तीन शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं ।और ऐसे ही व्यर्थ के शब्द प्रयोग करने वाले आजकल विद्वान भी कहे जा रहे हैं ।

फिर से समझ लीजिए , डॉर्विन के मूर्खो के चक्कर में मत पड़िए , जो सृष्टि है वही उत्पत्ति है और उत्पत्ति होती है वही सृष्टि होती है ।और उत्पत्ति का निरूक्त जहाँ तक मुझे याद आता है “ उत् उर्ध्वनम् पत्तनम् या उत्व उर्धनम् उतपद्नम् “ अर्थात छिपी हुई वस्तु का उपर उठ आना ही उत्पत्ति है । यहाँ पर “छिपी हुयी” पर ध्यान दीजिए । आपके शास्त्रों ने भाषा के द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है की सृष्टि में जो कुछ भी आपको आभास हो रहा है या दिख रहा है वह किसी न किसी रूप में पहले भी था , जब वह आपको दिखने लग गया , उसे सृष्टि बोल दिया गया ।

तो, वैज्ञानिकों द्वारा किसी थ्योरी पर और आपके शास्त्रों द्वारा करी हुई गूढ़ व्याख्या में कोई अन्तर नहीं है । अन्तर का कारण , शास्त्रों को ठीक से न समझना है ।

आप सृष्टि को ऐसे समझिए । एक बीज को आपने भूमि में डाला और वह बीज मोटा होकर फूल गया । बीज का मोटा होने में मूल बीज का नाश हुआ , फिर भी बीज का बीजत्व बना रहा पर उसकी नई उत्पत्ति फूले हुए बीज के रूप में हो गई ।

यहाँ ध्यान दीजिये उत्पत्ति , स्थिति और नाश , तीनों एक साथ हो रहे हैं । उसी फूले बीज में अंकुर फूटा , अर्थात पौधे की उत्पत्ति , फूले हुए बीज का नाश हुआ । और इसी क्रम में छोटा पौधा , बड़ा पेड़ , फूल , फल इत्यादि नाश स्थिति और उत्पत्ति साथ साथ चलते रहते हैं ।

अद्भुत सनातन ( अधिकारी क्या होता है समझें )
बिना पढ़े कमेंट न करें
17.07.2019

“अधिकार”का अर्थ वीकेपीडिया या गूगल बताता है ; अधिकार, किसी वस्तु को प्राप्त करने या किसी कार्य को संपादित करने के लिए उपलब्ध कराया गया किसी व्यक्ति की कानूनसम्मत संविदासम्मत सुविधा, दावा विशेषाधिकार है। कानून द्वारा प्रदत्त सुविधाएँ अधिकारों की रक्षा करती हैं। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के बिना संभव नहीं। जहाँ कानून अधिकारों को मान्यता देता है वहाँ इन्हें लागू करने या इनकी अवहेलना पर नियंत्रण स्थापित करने की व्यवस्था भी करता है।

पर अधिकार का अर्थ यह नही होता संस्कृत भाषा में । संस्कृत भाषा में “ अधिकार” का अर्थ होता है ; योग्यता और आकांक्षा का मिलन ।

अब एक दृष्टांत समझिए । मान लीजिए आप JNU में पढ़ते है और आपका प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन है पर अमर्त्य सेन , सनातन धर्म के ज्ञान का अधिकारी नही है । अब इसको उपर अधिकारी की दी हुई परिभाषा से समझिए , अमर्त्य सेन में योग्यता तो है पर आकांक्षा ही ब्रह्म ज्ञान की नही है क्योकि वह नास्तिक है अत: वह ज्ञान का अधिकारी ही नहीं है ।

JNU से वापस आते समय ओला टैक्सी वाला आपको मिला जिसके अन्दर ईश्वर को जानने की आकांक्षा तो है पर उसकी बुद्धि अभी इस योग्य नहीं हुई है अत: वह भी अधिकारी नहीं है ।

अपनी योग्यता बढ़ाइये और इश्वर को जानने की आकांक्षा तब जाकर आप अधिकारी बनेंगे ।

और जो आप लोग IAS को अधिकारी कहते हैं संस्कृत भाषा में उनके काम को और उनको अनाधिकारी ही कहा जा सकता है ।

तो फ़ॉरमूला ध्यान रखिएगा, योग्यता +आकांक्षा = अधिकार

नोट : यह फ़ॉरमूला गूगल में नही मिलेगा ।

अपने बच्चो को भी यह फ़ॉरमूला बताइए । वे जो भी बनना चाहते है उसकी आकांक्षा हृदय से करें और योग्यता प्राप्त करें । किसी एक वस्तु की कमी होगी तो वे लौकिक जीवन में भी अधिकारी नहीं बन पाएँगे ।
✍🏻राज शेखर तिवारी जी की पोस्टों से संग्रहित

व्रह्मांड और समय की धारणा(ASTRO QUANTUM PHYSICS , time and space ) PART-2
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ध्यान से पड़े अच्छा लगेगा ईश्वर की अद्भुत सृष्टि को जानकर और ये वैदिक ”समय का सही निर्णय” आपको हमारे प्राचीन सनातन धर्म की प्रति श्रद्धा और आस्था को वनाये रखेगा।

आपको गर्व अनुभव होगा के हम अति प्राचीन ज्ञान के एकमात्र धारक सनातन धर्मीय परिवार में जन्म लिए है।

भारतवर्ष में जन्म लिए है।

आज के वैज्ञानिक समय कैसे नाप ते है?

पिकोसेकेण्ड
नैनो सेकेण्ड
माईक्रो सेकेण्ड,
सेकेण्ड
60 सेकेण्ड मे 1 मिनट,
60 मिनट मे 1 घन्टा,
24 घन्टे मे 1 दिन,(पृथ्वी के आपनी धुरी पर घुमना)
30 दिन मे 1 माह
12 माह मे 1 साल या वर्ष ।(पृथ्वी का सुर्य को एक वार परिक्रमण करना)

वस?

अव वेद मे आते है।
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

*1 परमाणु = काल की सबसे सूक्ष्मतम अवस्था
*2 परमाणु = 1 अणु
*3 अणु = 1 त्रसरेणु
*3 त्रसरेणु = 1 त्रुटि
*10 ‍त्रुटि = 1 प्राण
*10 प्राण = 1 वेध
*3 वेध = 1 लव या 60 रेणु
*3 लव = 1 निमेष
*1 निमेष = 1 पलक झपकने का समय
*2 निमेष = 1 विपल (60 विपल एक पल होता है)
*3 निमेष = 1 क्षण
*5 निमेष = 2 सही 1 बटा 2 त्रुटि

*2 सही 1 बटा 2 त्रुटि = 1 सेकंड या 1 लीक्षक से कुछ कम।
*20 निमेष = 10 विपल, एक प्राण या 4 सेकंड
*5 क्षण = 1 काष्ठा
*15 काष्ठा = 1 दंड, 1 लघु, 1 नाड़ी या 24 मिनट
*2 दंड = 1 मुहूर्त
*15 लघु = 1 घटी=1 नाड़ी
*1 घटी = 24 मिनट, 60 पल या एक नाड़ी
*3 मुहूर्त = 1 प्रहर
*2 घटी = 1 मुहूर्त= 48 मिनट
*1 प्रहर = 1 याम
*60 घटी = 1 अहोरात्र (दिन-रात) (पृथ्वी के आपनी धुरी पर घुमना )

*15 दिन-रात = 1 पक्ष
*2 पक्ष = 1 मास (पितरों का एक दिन-रात)
*कृष्ण पक्ष = पितरों का एक दिन और शुक्ल पक्ष = पितरों की एक रात।
*2 मास = 1 ऋतु
*3 ऋतु = 6 मास

*6 मास = उत्तरायन (देवताओं का एक दिन-)वाकि 6 मास दक्षिणायण(देवता की रात)

*2 अयन = 1 वर्ष (पृथ्वी के सुर्य की परिक्रमा करना)

*मानवों का एक वर्ष = देवताओं का एक दिन जिसे दिव्य दिन कहते हैं।

*1 वर्ष = 1 संवत्सर=1 अब्द
*10 अब्द = 1 दशाब्द
*100 अब्द = शताब्द

*360 अब्द = 1 दिव्य वर्ष अर्थात देवताओं का 1 वर्ष।

  • 12,000 दिव्य वर्ष = एक महायुग (चारों युगों को मिलाकर एक महायुग) =43,20,000 मानव वर्ष

सतयुग : 4800 देवता वर्ष ×360(17,28,000मानव वर्ष)
त्रेतायुग : 3600 देवता वर्ष× 360(12,96000मानव वर्ष)
द्वापरयुग : 2400 देवता वर्ष×360 (8,64000मानव वर्ष)
कलियुग : 1200 देवता वर्ष×360 (4,32000 मानव वर्ष)

  • 71 महायुग = 1 मन्वंतर
  • चौदह मन्वंतर = एक कल्प।
  • एक कल्प = ब्रह्मा का एक दिन। (ब्रह्मा का एक दिन बीतने के बाद महाप्रलय होती है और फिर इतनी ही लंबी रात्रि होती है)। इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु 100 वर्ष होती है। उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है।
  • ब्रह्मा का वर्ष यानी 31 खरब 10 अरब 40 करोड़ वर्ष। ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु अथवा ब्रह्मांड की आयु- 31 नील 10 अरब 40 अरब वर्ष (31,10,40,00,00,00,000 वर्ष)

अव एक अहोरात्र (24 घंटे) पृथ्वी आपनी धुरी पर घुमती है।
एक वर्ष ( 365 दिन) मे जैसे पृथ्वी सुर्य की चारो तरफ घुमती है।

ठीक उसी तरह सुर्य भी सारे ग्रहो के साथ आकाशगंगा नाम के निहारिका की (पुराणो में आकाश गंगा शिशुमार चक्र नाम से प्रसिद्ध है) परिक्रमा कर रहै।

सिर्फ हमारे सुर्य ही नही और भी सुर्य आपने ग्रह मण्डल को लेकर इसकी परिक्रमा करते है । वेद के अनुसार हमारे आकाश गंगा में (शिशुमार चक्र में) 7 सुर्य है।

और मेरु रेखा में कश्यप नाम के एक वहुत वड़ा सुर्य है जिनको शिशुमार चक्र परिक्रमा करते है। हमारे सप्तर्षि मंडल केे ऋषि कश्यप है।

सात सुर्य

1)आरोग
2)भाज
3)पटर
4)पतंग
5)स्वर्णर
6)ज्योतिषीमान
7)विभास

ऋषि कश्यप (मेरुरेखा में अवस्थित सप्तर्षि केे एक ऋषि)

हमारे सुर्य का नाम आरोग है।

रुको रुको अभी भी वाकी है सुर्य को आकाश गंगा(शिशुमार चक्र) की एक चक्कर लगाने मे जितना समय लगता है उसे ही एक मनवंतर काल कहते है (4 युग मिलाकर 1 दिव्य युग 71 दिव्य युग मे एक मनवंतर पहले वता चुकी ) ये करने मे
4320000×71=30,84,48000 मानव वर्ष लगते है।
आधुनिक विज्ञान इसे मानते है और उनके हिसाब से 25,00,00000 मानव वर्ष समय लगता है।

आधुनिक विज्ञान इस से आगे नही जा पाये।

मगर हमारे ऋषिऔ ने खोज कर लिये

अभी भी वाकि है आकाशगंगा के जैसा कई निहारिका है जिसके अन्दर वहुतो सुर्य मण्डल और पृथ्वी जैसे ग्रह है।

ये सारी निहारिका सप्त ऋषि के एक ऋषि मंडल की परिक्रमा कर रहे। जिसके लिए एक कल्प (14 मन्वंतर मे एक कल्प) लग जाते हे। समय 4320000000 मानव वर्ष

ऐसे सात ऋषि है अंतरिक्ष में (सबके शिशुमार चक्र जैसा कई चक्र है जो आपने अंदर अपना सुर्य और उसके ग्रह को लिये है) ये 7 ऋषिगण ध्रुव मण्डल की परिक्रमा कर रहे।
इस परिक्रमा में ब्रह्मा की 100 वर्ष (31,10,40,00,00,00,000 मानव वर्ष )समय लगता है

ये वात तब की है जब भगवान ने ध्रुव जी को ये मण्डल प्रदान करते हुए कहे थे सारे ब्रह्माण्ड लय होने पर भी ध्रुव लोक नष्ट नही होगा तुम मेरे गोद मे सदा सुरक्षित रहो गे।
सप्त ॠषि आपने ग्रह नक्षत्र के साथ सदैव तुमको प्रदक्षिणा करेंगे ।(भागवतपुराण )

अतएव आपको पता चला हमारे सुर्य का नाम आरोग है जो और 6 सुर्य केे साथ शिशुमार चक्र नाम केे निहारिका को परिक्रमण कर रहे और हमारे निहारिका कश्यप नामक सप्तर्षि मंडल केे एक वड़े नक्षत्र के चक्कर काट रहे है और सप्तर्षि ध्रुव मंडल की परिक्रमण कर रहे।

सबसे अद्भुत वात ये हे ये सव परस्पर आकर्षण वल के प्रभाव से एक नियम अनुसार आपने में निर्दिष्ट दुरी रख कर युगो से प्ररिक्रमा करके चल रहे।

क्या अब भी भगवान पर विश्वास नही?
क्या अब भी सोच रहे है इये सिस्टम आपने आप वना है?

राष्ट्र के रूप में हमारी समस्या और उसका समाधान

बंधुओ, राष्ट्र के रूप में हमारी समस्या और उसके समाधान पर बहुत कुछ लिखा गया है, लिखा जाता रहेगा। मेरी दृष्टि में सबसे पहले हमें समस्या के पूरे स्कैन, उसकी निष्पत्ति और कारण को भली प्रकार से ध्यान में रखना होगा। तभी इसका समाधान सम्भव होगा।

आपने पूजा, यज्ञ करते समय कभी संकल्प लिया होगा। उसके शब्द ध्यान कीजिये। ऊँ विष्णुर विष्णुर विष्णुर श्रीमद भगवतो महापुरुषस्य विष्णुराज्ञा प्रवर्तमानस्य श्री ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्री श्वेत वराहकलपे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेशे पुण्यप्रदेशे ……यह संकल्प भारत ही नहीं सारे विश्व भर के हिंदुओं में लिया जाता है और इसके शब्द लगभग यही हैं। आख़िर यह जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेशे है क्या ? धर्मबंधुओ! जम्बू द्वीप सम्पूर्ण पृथ्वी है। भारत वर्ष पूरा यूरेशिया है। भरत खंड एशिया है। आर्यावर्त वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान है। आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्त बचाखुचा वर्तमान भारत है। आसिंधु सिंधु पर्यन्ता की परिभाषा आज गढ़ी गयी है। यह परिभाषा मूल भरतवंशियों के देश की परिचायक नहीं है।

वस्तुतः जम्बू द्वीप यानी सम्पूर्ण पृथ्वी ही षड्दर्शन को मानने वाली थी और इस ज्ञान का केंद्र ब्रह्मावर्त अर्थात वर्तमान भारत था। काल का प्रवाह आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व ज्ञान और संस्कृति के केंद्र वर्तमान भारत में भयानक युद्ध हुआ। जिसे हम आज महाभारत के नाम से जानते हैं और उसके बाद सारी व्यवस्थायें ध्वस्त हो गयीं। ज्ञानज्योति ऋषि वर्ग, पराक्रमी राजा कालकवलित हुए। परिणामतः ब्राह्मणों, आचार्यों, ज्ञानियों का केंद्र से सारी पृथ्वी का प्रवास रुक गया। धीरे-धीरे संस्कृति की भित्तियां ढहने लगीं। चतुर्दिक धर्म ध्वज फहराने वाले लोग भृष्ट हो कर वृषल हो गए। परिणामस्वरूप इतने विशाल क्षेत्र में फैला षड्दर्शन की महान देशनाओं का धर्म नष्ट हो गया। अनेकानेक प्रकार के मत-मतान्तर फ़ैल गये। टूट-बिखर कर बचे केवल ब्रह्मावर्त का नाम भारत रह गया। कृपया सोचिये कि सम्पूर्ण योरोप, एशिया में भग्न मंदिर, यज्ञशालाएं क्यों मिलती हैं ? ईसाइयत और इस्लाम के अपने से पहले इतिहास को जी-जान से मिटाने की कोशिश के बावजूद ताशक़न्द के एक शहर का नाम चार्वाक क्यों है ? वहां की झील चार्वाक क्यों कहलाती है ?

इस टूटन-बिखराव में पीड़ित आर्यों { गुणवाचक संज्ञा } का अंतिम शरणस्थल सदैव से आर्यावर्त के अन्तर्गत आने वाला ब्रह्मावर्त यानी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान और अब वर्तमान भारत रहा है। इसी लिए इस क्षेत्र को पुण्यभूमि कहा जाता है। जिज्ञासु मित्रों को दिल्ली के हिंदूमहासभा भवन के हॉल को देखना चाहिये। उसमें राजा रवि वर्मा की बनायी हुई पेंटिंग लगी है जिसका विषय महाराज विक्रमादित्य के दरबार में यूनानियों का आना और आर्य धर्म स्वीकार करना { हिन्दू बनना } है। ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए ही नहीं अपितु विपत्ति में भी सदैव से भरतवंशी केंद्र की ओर लौटते रहे हैं।

बंधुओ ! सदैव स्मरण रखिये कि राष्ट्र, देश से धर्म बड़ा होता है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारत के अंदर और बाहर 60-70 से अधिक देशों का हिन्दू राष्ट्र होना सम्भावित था। जिसकी केंद्र भूमि भारत को होना था। नेपाल के प्रधानमंत्री राणा शमशेर बहादुर जंग, महामना मदनमोहन मालवीय, लाल लाजपतराय, स्वातन्त्र्यवीर सावरकर इत्यादि ने इसके लिये प्राण-प्रण से प्रयास किया था। उस समय भारत के दो हिस्सों में बंटने की कल्पना नहीं थी बल्कि प्रिंसली स्टेटों के अलग-अलग राष्ट्रों के रूप में होने की कल्पना थी। कल्पना कीजिये कि यह प्रयास साकार हो गया होता तो भारत के अतिरिक्त श्रीलंका, सिंगापुर, बर्मा, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, मॉरीशस, पाकिस्तान का वर्तमान उमरकोट और न जाने कितने हिन्दू राष्ट्र विश्व पटल पर जगमगा रहे होते।

कृपया नेट पर Yazidi डालिये। आपको ईराक़-सीरिया के बॉर्डर पर रहने वाली, मोर की पूजा करने वाली जाति के बचे-खुचे लोगों का पता चलेगा। कार्तिकेय के वाहन मोर की पूजा कौन करता है ? Kafiristan डालिये। आपको पता चलेगा कि इस क्षेत्र के हिंदुओं को 1895 में मुसलमान बना कर इसका नाम nuristan नूरिस्तान रख दिया गया है। kalash in pakistan देखिये। आप पाएंगे कि आज भी कलश जनजाति के लोग जो दरद मूल के हैं पाकिस्तान के चित्राल जनपद में रहते हैं। इस दरद समाज की चर्चा महाभारत, मनुस्मृति, पाणिनि की अष्टाध्यायी में है। जिस तरह लगातार किये गए इस्लामी धावों ने अफ़ग़ानिस्तान केवल 150 वर्ष पहले मुसलमान किया, हमें क्यों अपने ही लोगों को वापस नहीं लेना चाहिए ? एक-एक कर हमारी संस्कृति के क्षेत्र केवल 100 वर्ष में धर्मच्युत कर वृषल बना दिए गये। होना तो यह चाहिये था कि हम केंद्रीय भूमि से दूर बसे अपने समाज के लोगों को सबल कर धर्मभष्ट हो गए अपने लोगों को वापस लाने का प्रयास करते। भारत के टूटने का कारण सैन्य पराजय नहीं है बल्कि धर्मांतरण है। हमने अपने समाज की चिंता नहीं की। इसी पाप का दंड महाकाल ने हमारे दोनों हाथ काट कर दिया और हम भारत के दोनों हाथ पाकिस्तान, बांग्लादेश की शक्ल में गँवा बैठे।

जो वस्तु जहाँ खोयी हो वहीँ मिलती है। हमने अपने लोग, अपनी धरती धर्मांतरण के कारण खोयी थी। यह सब वहीँ से वापस मिलेगा जहाँ गंवाया था। इसके लिए अनिवार्य शर्त अपने समाज को समेटना, तेजस्वी बनाना और योद्धा बनाना है। यह सत्य है कि विगत 200 से भी कम वर्षों में इस्लाम की आक्रमकता के कारण राष्ट्र, देश सिकुड़ा है। इस कारण अनेकों भारतीयों को स्वयं को ऊँची दीवारों में सुरक्षित कर लेना एकमात्र उपाय लगता है। इस विचार पर सोचने वाली बात यह है कि इस्लाम की आक्रमकता ने भारत वर्ष जो पूरा यूरेशिया था, के केंद्रीय भाग यानी आर्यावर्त { वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान } से पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान ही नहीं हड़पा बल्कि शेष बचे देश में हमारे करोड़ों बंधुओं को धर्मान्तरित कर लिया है। आख़िर हम कब तक और क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे ? पराक्रम ही एकमेव उपाय है और यही हमारे प्रतापी पूर्वज करते आये हैं। इस हेतु आवश्यक है कि वास्तविक इतिहास का सिंहावलोकन किया जाये। सिंहावलोकन अर्थात जिस तरह सिंह वीर भाव से गर्दन मोड़ कर पीछे देखता है।

महाभारत में तत्कालीन भारत वर्ष का विस्तृत वर्णन है। जिसमें आर्यावर्त के केंद्रीय राज्यों के साथ उत्तर में काश्मीर, काम्बोज, दरद, पारद, पह्लव, पारसीक { ईरान }, तुषार { तुर्कमेनिस्तान और तुर्की }, हूण { मंगोलिया } चीन, ऋचीक, हर हूण तथा उत्तर-पश्चिम में बाह्लीक { वर्तमान बल्ख़-बुख़ारा }, शक, यवन { ग्रीस }, मत्स्य, खश, परम काम्बोज, काम्बोज, उत्तर कुरु, उत्तर मद्र { क़ज़्ज़ाक़िस्तान, उज़्बेकिस्तान } हैं। पूर्वोत्तर राज्य प्राग्ज्योतिषपुर, शोणित, लौहित्य, पुण्ड्र, सुहाय, कीकट पश्चिम में त्रिगर्त, साल्व, सिंधु, मद्र, कैकय, सौवीर, गांधार, शिवि, पह्लव, यौधेय, सारस्वत, आभीर, शूद्र, निषाद का वर्णन है। यह जनपद ढाई सौ से अधिक हैं और इनमें उपरोक्त के अतिरिक्त उत्सवसंकेत, त्रिगर्त, उत्तरम्लेच्छ, अपरम्लेच्छ, आदि हैं। {सन्दर्भ:-अध्याय 9 भीष्म पर्व जम्बू खंड विनिर्माण पर्व महाभारत }

भीष्म पर्व के 20वें अध्याय में कौरवों और पांडवों की सेनाओं का वर्णन है। जिसमें कौरव सेना के वाम भाग में आचार्य कृपा के नेतृत्व में शक, पह्लव { ईरान } यवन { वर्तमान ग्रीस } की सेना, दुर्योधन के नियंत्रण में गांधार, भीष्म पितामह के नियंत्रण में सिंधु, पंचनद, सौवीर, बाह्लीक { वर्तमान बल्ख़-बुख़ारा } की सेना का वर्णन है। सोचने वाली बात यह है कि महाभारत तो चचेरे-तयेरे भाइयों की राज्य-सम्पत्ति की लड़ाई थी। उसमें यह सब सेनानी क्या करने आये थे ? वस्तुतः यह सब सम्बन्धी थे और इसी कारण सम्मिलित हुए थे। स्पष्ट है कि महाभारत काल में चीन, यवन, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, ईराक़, सम्पूर्ण रूस इत्यादि सभी भारतीय क्षेत्र थे। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चीन, त्रिविष्टप, यवन { ग्रीस / हेलेनिक रिपब्लिक } हूण, शक, बाह्लीक, किरात, दरद, पारद, आदि क्षेत्रों के राजा भेंट ले कर आये थे। महाभारत में यवन नरेश और यवन सेना के वर्णन दसियों जगह हैं।

पौराणिक इतिहास के अनुसार इला के वंशज ऐल कहलाये और उन्होंने यवन क्षेत्र पर राज्य किया। यवन या वर्तमान ग्रीस जन आज भी स्वयं को ग्रीस नहीं कहते। यह स्वयं को हेलें, ऐला या ऐलों कहते हैं। आज भी उनका नाम हेलेनिक रिपब्लिक है। महाकवि होमर ने अपने महाकाव्य इलियड में इन्हें हेलें या हेलेन कहा है और पास के पारसिक क्षेत्र को यवोन्स कहा है जो यवनों का पर्याय है { सन्दर्भ:-निकोलस ऑस्टर, एम्पायर्स ऑफ़ दि वर्ड, हार्पर, लन्दन 2006, पेज 231 } होमर ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी के कवि हैं अतः उनका साक्ष्य प्रामाणिक है।

सम्राट अशोक के शिला लेख संख्या-8 में यवन राजाओं का उल्लेख है। वर्तमान अफगानिस्तान के कंधार, जलालाबाद में सम्राट अशोक के शिलालेख मिले हैं जिनमें यावनी भाषा तथा आरमाइक लिपि का प्रयोग हुआ है। इन शिलालेखों के अनुसार यवन सम्राट अशोक की प्रजा थे। यवन देवी-देवता और वैदिक देवी देवताओं में बहुत साम्य है। सम्राट अशोक के राज्य की सीमाएं वर्तमान भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, ग्रीस तक थीं { सन्दर्भ:- पृष्ठ 26-28 भारतीय इतिहास कोष सच्चिदानंद भट्टाचार्य } सम्राट अशोक के बाद सम्राट कनिष्क के शिलालेख अफ़ग़ानिस्तान में मिलते हैं जिनका सम्राज्य गांधार से तुर्किस्तान तक था और जिसकी राजधानी पेशावर थी। सम्राट कनिष्क के शिव, विष्णु, बुद्ध के साथ जरथुस्त्र और यवन देवी-देवताओं के सिक्के भी मिलते हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 26-28, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार, चंद्रगुप्त वेदालंकार, दूसरा संस्करण 1969 }

ज्योतिष ग्रन्थ ज्योतिर्विदाभरण { समय-ईसा पूर्व 24 } में उल्लिखित है कि विक्रमादित्य परम पराक्रमी, दानी और विशाल सेना के सेनापति थे जिन्होंने रूम देश { रोम } के शकाधिपति को जीत कर फिर उनके द्वारा विक्रमादित्य की अधीनता स्वीकार करने के बाद उन्हें छोड़ दिया { सन्दर्भ:-पृष्ठ 8, डॉ भगवती लाल पुरोहित, आदि विक्रमादित्य स्वराज संस्थान 2008 }। 15वीं शताब्दी तक चीन को हिन्द, भारत वर्ष या इंडी ही कहा जाता रहा है। 1492 में चीन और भारत जाने के लिए निकले कोलम्बस के पास मार्गदर्शन के लिये मार्कोपोलो के संस्मरण थे। उनमें रानी ईसाबेल और फर्डिनांड के पत्र भी हैं। जिनमें उन्होंने साफ़-साफ़ सम्बोधन ” महान कुबलाई खान सहित भारत के सभी राजाओं और लॉर्ड्स के लिए ” लिखा है। {सन्दर्भ:-पृष्ठ 332-334 जॉन मेन, कुबलाई खान: दि किंग हू रिमेड चाइना, अध्याय-15, बैंटम लन्दन 2006 }15वीं शताब्दी में यूरोप से प्राप्त अधिकांश नक़्शों में चीन को भारत का अंग दिखाया गया है।

ऐसे हज़ारों वर्णन मिटाने की भरसक कोशिशों के बावजूद सम्पूर्ण विश्व में मिलते हैं। केंद्रीय भूमि के लोग सदैव से राज्य, ज्ञान, शौर्य और व्यापार के प्रसार के लिये सम्पूर्ण जम्बू द्वीप यानी पृथ्वी भर में जाते रहे हैं। अजन्ता की गुफाओं में बने चित्रों में सम्राट पुलकेशिन द्वितीय की सभा में पारसिक नरेश खुसरू-द्वितीय और उनकी पत्नी शीरीं दर्शाये हैं { सन्दर्भ:- पृष्ठ 238, वृहत्तर भारत चन्द्रकान्त वेदालंकार } इतिहासकार तबारी ने 9वीं शताब्दी में भारतीय नरेश के फ़िलिस्तीन पर आक्रमण का वर्णन किया है। उसने लिखा है कि बसरा के शासक को सदैव तैयार रहना पड़ता है चूँकि भारतीय सैन्य कभी भी चढ़ आता है { सन्दर्भ:- पृष्ठ 639, वृहत्तर भारत चन्द्रकान्त वेदालंकार }

इतने बड़े क्षेत्र को सैन्य बल से प्रभावित करने वाले, विश्व भर में राज्य स्थापित करने वाले, ज्ञानसम्पन्न बनाने वाले, संस्कारित करने वाले लोग दैवयोग ही कहिये शिथिल होने लगे। मनुस्मृति के अनुसार पौंड्रक, औंड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव , चीन, किरात, दरद और खश इन देशों के निवासी क्रिया { यज्ञादि क्रिया } के लोप होने से धीरे-धीरे वृषल हो गए { मनुस्मृति अध्याय 10 श्लोक 43-44 } अर्थात जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेश के ब्रह्मवर्त यानी तत्कालीन भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान के ब्राह्मणों, आचार्यों, ज्ञानियों का संस्कृति के केंद्र से सारी पृथ्वी का प्रवास थमने लगा। हज़ारों वर्षों से चली आ रही यह परम्परा मंद पड़ी फिर भी नष्ट नहीं हुई मगर लगातार सम्पर्क के अभाव में ज्ञान, धर्म, चिंतन की ऊष्मा कम होती चली गयी। सम्पूर्ण यूरेशिया में फैले आर्य वृषल होते गये।

इसी समय बुद्ध का अवतरण हुआ। महात्मा बुद्ध की देशना निजी मोक्ष, व्यक्तिगत उन्नति पर थी। स्पष्ट था कि यह व्यक्तिवादी कार्य था। समूह का मोक्ष सम्भव ही नहीं है। यह किसी भी स्थिति में राजधर्म नहीं हो सकता था मगर काल के प्रवाह में यही हुआ। शुद्धि-वापसी का कोई प्रयास करने वाला नहीं था। उधर एक अल्लाह के नाम पर हिंस्र दर्शन फैलना शुरू हो गया फिर भी इसकी गति धीमी ही थी। फ़रिश्ता के अनुसार 664 ईसवीं में गंधार क्षेत्र में पहली बार कुछ सौ लोग मुसलमान बने {सन्दर्भ:-पृष्ठ-16 तारीख़े-फ़रिश्ता भाग-1, हिंदी अनुवाद, नवल किशोर प्रेस }

अरब में शुरू हो गयी उथल-पुथल से आँखें खुल जानी चाहिए थीं मगर निजी मोक्ष के चिंतन, शांति, अहिंसा के प्रलाप ने चिंतकों, आचार्यों, राजाओं, सेनापतियों को मूढ़ बना दिया था।अफ़ग़ानिस्तान में परिवर्तन के समय तो निश्चित ही चेत जाना था कि अब घाव सिर पर लगने लगे थे। दुर्भाग्य, दुर्बुद्धि, काल का प्रवाह कि सम्पूर्ण पृथ्वी को ज्ञान-सम्पन्न बनाने वाला, संस्कार देने वाला प्रतापी समाज सिमट कर आत्मकेंद्रित हो गया। वेद का आदेश है “कृण्वन्तो विश्वमार्यम” अर्थात विश्व को आर्य बनाओ। आर्य एक गुणवाचक संज्ञा है। वेदों में अनेकों बार इसका प्रयोग हुआ है। पत्नी अपने पति को हे आर्य कह कर पुकारती थी। ब्रह्मवर्त अर्थात वर्तमान भारत के लोगों का दायित्व विश्व को आर्य बनाना, बनाये रखना था। इसका तात्पर्य उनमें ज्ञान का प्रसार, नैतिक मूल्यों की स्थापना, जीवन के शाश्वत नियमों का बीजारोपण, व्यक्तिनिरपेक्ष नीतिसंहिता के आधार पर समाज का संचालन था। स्पष्ट है यह समूहवाची काम थे। महात्मा बुद्ध के व्यक्तिवादी मोक्ष-प्रदायी, ध्यान के पथ पर चलने के कारण समाज शान्त, मौन और अयोद्धा होता चला गया।

मानव अपने मूल स्वभाव में उद्दंड, अधिकारवादी, वर्चस्व स्थापित करने वाला है। आप घर में बच्चों को देखिये, थोड़ा सा भी ताकतवर बच्चा कमजोर बच्चों को चिकोटी काटता, पैन चुभाता, बाल खींचता मिलेगा। कुत्ते, बिल्लियों को सताता, कीड़ों को मारता मिलेगा। माचिस की ख़ाली डिबिया, गुब्बारे, पेंसिल पर कभी बच्चों को लड़ते देखिये। ये वर्चस्वतावादी, अहमन्यतावादी सोच हम जन्म से ही ले कर पैदा होते हैं। इन्हीं गुणों और दुर्गुणों का समाज अपने नियमों से विकास और दमन करता है। यदि ये भेड़ियाधसान चलता रहे और इसकी अबाध छूट दे दी जाये तो स्वाभाविक परिणाम होगा कि सामाजिक जीवन संभव ही नहीं रह पायेगा। लोग अंगुलिमाल बन जायेंगे। समाज के नियम इस उत्पाती स्वभाव का दमन करने के लिए ही बने हैं। ब्रह्मवर्त के आचार्यों, राजाओं, ज्ञानियों का यही दायित्व था कि वह सम्पूर्ण समाज में न्याय का शासन स्थापित रखें। इसके लिए प्रबल राजदंड चाहिए और इसकी तिलांजलि बौद्ध मत के प्रभाव में ब्रह्मवर्त यानी वर्तमान भारत के लोगों ने दे दी।

महात्मा बुद्ध के जीवन में जेतवन का एक प्रसंग है। उसमें बुद्ध अपने 10 हज़ार शिष्यों के साथ विराजे हुए थे। एक राजा अपने मंत्रियों के साथ उनके दर्शन के लिये गये। वहां पसरी हुई शांति से उन्हें किसी अपघात-षड्यंत्र की शंका हुई। 10 हज़ार लोगों का निवास और सुई-पटक सन्नाटा ? उनके लिये यह सम्भव ही नहीं था। बुद्ध ही आर्यावर्त में अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिनके साथ 10 हज़ार शिष्य थे। केवल बिहार में महावीर स्वामी, अजित केशकम्बलिन, विट्ठलीपुत्त, मक्खली गोसाल इत्यादि जैसे 10 और महात्मा ऐसे थे जिनके साथ 10-10 हज़ार भिक्षु ध्यान करते थे। बुद्ध और इनके जैसे लोगों के प्रभाव में आ कर 1 लाख लोग घर-बार छोड़ कर व्यक्तिगत मोक्ष साधने में जुट गये। यह समूह तो आइसबर्ग की केवल टिप है। इससे उस काल के समाज में अकर्मण्यता का भयानक फैलाव समझ में आता है। व्यक्तिगत मोक्ष के चक्कर में समष्टि की चिंता, समाज के दायित्व गौण हो गए। शिक्षक, राजा, सेनापति, मंत्री, सैनिक, श्रेष्ठि, कृषक सभी में सिर घुटवा कर भंते-भंते पुकारने, बुद्धम शरणम गच्छामि जपने की होड़ लगेगी तो राष्ट्र, राज्य, धर्म की चिंता कौन करेगा ? परिणामतः राष्ट्र के हर अंग में शिथिलता आती चली गयी।

इसी काल से अरब सहित पूरा यूरेशिया जो अब तक केंद्रीय भाग की सहज पहुँच और सांस्कृतिक प्रभाव का क्षेत्र था, विस्मृत होने लगा। अरब में कुछ शताब्दी बाद मक्का के पुजारी परिवार में मुहम्मद का जन्म हुआ। उसने अपने पूर्वजों के धर्म से विरोध कर अपने मत की नींव डाली। भरतवंशियों के लिये यह कोई ख़ास बात नहीं थी। उनके लिये जैसे और पचीसों मत चल रहे थे, यह एक और मत की बढ़ोत्तरी थी। भरतवंशियों के स्वाभाविक चिंतन “सारे मार्ग उसी की ओर जाते हैं” के विपरीत मुहम्मद ने अपने मत को ही सत्य और अन्य सभी चिंतनों को झूट माना। अपनी दृष्टि में झूटे मत के लोगों को बरग़ला कर, डरा-धमका कर, पटा कर अपने मत इस्लाम में लाना जीवन का लक्ष्य माना। इस सतत संघर्ष को जिहाद का नाम दिया। जिहाद में मरने वाले लोगों को जन्नत में प्रचुर भोग, जो उन्हें अरब में उपलब्ध नहीं था, का आश्वासन दिया। 72 हूरें जो भोग के बाद पुनः कुंवारी होने की विचित्र क्षमता रखती थीं, 70 छरहरी देह वाले हर प्रकार की सेवा करने के लिये किशोर गिलमां (ग़ुलाम लड़के/लौंडे) शराब की नहरें जैसे लार-टपकाते, कमर लपलपाते वादों की आश्वस्ति, ज़िंदा बच कर जीतने पर माले-ग़नीमत के नाम पर लूट के माल के बंटवारे का प्रलोभन ने अरब की प्राचीन सभ्यता को बर्बर नियमों वाले समाज में बदला। यहाँ हस्तक्षेप होना चाहिये था। संस्कार-शुद्धि होनी चाहिये थी। आर्यों ने अपने सिद्धांतों के विपरीत चिन्तन का अध्ययन ही छोड़ दिया। परिणामतः बर्बरता नियम बन गयी। उसका शोधन नहीं हो सका।

यह विचार-समूह अपने मत को ले कर आगे बढ़ा। अज्ञानी लोग इन प्रलोभनों को स्वीकार कर इस्लाम में ढलते गये। इस्लामियों ने जिस-जिस क्षेत्र में वह गए, जहाँ-जहाँ धर्मांतरण करने में सफलता पायी, इसका सदैव प्रयास किया है कि वहां का इस्लाम से पहले का इतिहास नष्ट कर दिया जाये। कारण सम्भवतः यह डर रहा होगा कि धर्मान्तरित लोगों के रक्त में उबाल न आ जाये और वो इस्लामी पाले से उठ कर अपने पूर्वजों की पंक्ति में न जा बैठें। इसके लिये सबसे ज़ुरूरी यह था कि धर्मान्तरित समाज में अपने पूर्वजों, अपने पूर्व धर्म, समाज के प्रति उपेक्षा, घृणा का भाव उपजे। इसके लिए इतिहास को नष्ट करना, तोडना-मरोड़ना, उसका वीभत्सीकरण अनिवार्य था। आज यह जानने के कम ही सन्दर्भ मिलते हैं कि जिन क्षेत्रों को इस्लामी कहा जाता है वह सारे का सारा भरतवंशियों की भूमि है। फिर भी मिटाने के भरपूर प्रयासों के बाद ढेरों साक्ष्य उपलब्ध हैं। आइये कुछ सन्दर्भ देखे जायें।

7वीं शताब्दी के मध्य में तुर्क मुसलमानों की सेना ने बल्ख़ पर आक्रमण किया। वहां के प्रमुख नौबहार मंदिर को जिसमें वैदिक यज्ञ होते थे, को मस्जिद में बदल दिया। यहाँ के पुजारियों को बरमका { ब्राह्मक या ब्राह्मण का अपभ्रंश } कहा जाता था। इन्हें मुसलमान बनाया और बगदाद ले गये। वहां के ख़लीफ़ा ने इनसे भारतीय चिकित्सा शास्त्र, साहित्य, ज्योतिष, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि का अनुवाद करने को कहा। इसी क्रम में अहंब्रह्मास्मि से अनल हक़ आया। भारतीय अंकों के हिन्दसे बने, जिन्हें बाद में योरोप के लोग अरब से आया मान कर अरैबिक कहने लगे। पंचतन्त्र के कर्कट-दमनक से कलीला-दमना बना। आर्यभट्ट की पुस्तक आर्यभट्टीयम का अनुवाद अरजबंद, अरजबहर नाम से हुआ {सन्दर्भ:- सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 173-174, 167-168, 170-172 वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार }

9वीं शताब्दी में महान समन (श्रमण ) साम्राज्य जो बौद्ध था और सम्पूर्ण मध्य एशिया में फैला हुआ था, के राजवंश ने इस्लाम को अपना लिया { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 14-15, द न्यू पर्नेल इंग्लिश इनसाइक्लोपीडिया } बग़दाद, दमिश्क, पूरा सीरिया, ईराक़, और तुर्की 11वीं शताब्दी तक बहुत गहरे बौद्ध प्रभाव में थे। इस्लाम ने उनकी स्मृतियाँ नोच-पोंछ कर मिटाई हैं फिर भी 9वीं,10वीं शताब्दी के तुर्की भाषा के अनेकों ग्रन्थ मिले हैं जो बौद्ध ग्रन्थ हैं।{ सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 302-311, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार } सीरिया से हित्ती शासकों के { सम्भवतः यह क्षत्रिय से खत्रिय फिर खत्ती फिर हित्ती बना } के सिक्के मिले हैं जो भगवान शिव, जगदम्बा दुर्गा, कार्तिकेय के चित्र वाले हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 80-90, अरब और भारत के संबंध, रामचंद्र वर्मा, काशी 1954 }

आगे बढ़ते-बढ़ते यह लहर ब्रह्मवर्त के केंद्र की ओर बढ़ी। चीन के दक्षिण-पश्चिम और भारत के पश्चिमोत्तर कोने में तारीम घाटी के मैदानी भाग को खोतान कहा जाता है। 5वीं शताब्दी में फ़ाहियान खोतान भी गया था। उसने खोतान की समृद्धि का बयान करते हुए उसे भारतवर्ष के एक राज्य की तरह बताया है। वहां उसने जगन्नाथ जी की यात्रा की तरह की ही रथयात्रा उत्सव का वर्णन किया है। (सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या-5 तथा 51, चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण, नेशनल बुक ट्रस्ट 1996 ) 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में यहाँ तुर्की के मुसलमानों ने आक्रमण कर उन पर 25 वर्ष तक शासन किया। तब से यहाँ के लोग मुसलमान हो गये।

यह लहर चूँकि प्रारम्भ में ही रोकी न गयी अतः एक दिन इसे भारत के केंद्रीय भाग को स्पर्श करना ही था और यह तत्कालीन भारत के स्कंध यानी ख़ुरासान, अफ़ग़ानिस्तान पहुंची। ख़ुरासान शताब्दियों से भारतीय राज्य था। यहाँ के शासक बाह्लीक क्षत्रियों के वंशज थे। 9वीं शताब्दी में वह मुसलमान बन गए। इन्हीं के साथ धर्मभ्रष्ट हुए सेवकों में से एक अलप्तगीन गज़नी का शासक बना। गज़नी बाह्लीक राज्य का एक अंग थी। अलप्तगीन के बाद उसका दामाद सुबुक्तगीन यहाँ का शासक बना। इसने आस-पास के क्षेत्र में लूटमार की। यह क्षेत्र राजा जयपाल का था। उन्होंने सेना भेजी। लामघन नामक स्थान पर सुबुक्तगीन को पीटपाट कर भगा दिया गया। इसी सुबुक्तगीन का बेटा महमूद ग़ज़नवी था। इसकी मां क्षत्राणी थी। यह सारे धर्मभष्ट हुए क्षत्रिय थे। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 36-37, 40-42, भाग-1, द हिस्ट्री ऑफ़ हिंदुस्तान, अलेक्ज़ेंडर दाऊ } इसी तरह मुहम्मद गोरी उत्तरी-पश्चिम हिंदुओं की एक जाति गौर से था। इसी जाति के धर्मभ्रष्ट लोगों में मुहम्मद ग़ौरी था। उसने अपने गांव ग़ौर के बाद सबसे पहले गज़नी की छोटी सी रियासत हथियाई। इसके बाद 1175 में इस्माइलियों के क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया। इसके बाद इसने पड़ौस के भट्टी राजपूतों के ठिकाने उच्च पर आक्रमण किया। राजपूतों ने इसे पीट दिया। परिणामतः सन्धि में इसने अपनी बेटी ठिकानेदार को दी। इसने भट्टियों से सहायता ले कर गुजरात के अन्हिलवाड़े पर 1178 में हमला किया। वहां भी धुनाई हुई। भाग कर यह वापस आ गया { सन्दर्भ:- खंड-6, सावरकर समग्र, स्वतंत्रवीर विनायक दामोदर सावरकर }

हमें इतिहास में पढ़ाया जाता है कि 7वीं से 17वीं शताब्दी का काल भारत में मुस्लिम शासन का काल है। स्वाभाविक रूप से इसका अर्थ होना चाहिये कि इस काल में सम्पूर्ण वर्तमान भारत के अधिपति इस्लामी थे। वास्तविक स्थिति यह है कि उस काल-खंड में आर्यावर्त यानी वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान में बड़े-बड़े हिन्दू राज्य थे। केवल दिल्ली से आगरा के बीच और शेष भारत में ही छोटी-छोटी मुस्लिम जागीरें थीं। वर्तमान इतिहास में इन्हीं जागीरों को महान सल्तनत बताया जाता है।

विश्वविजय करने वाले सबसे बड़े हिंदू योद्धाओं में से एक पूज्य चंगेज़ ख़ान ने अपनी विश्व-विजय के लिए विवाह सम्बन्धों का सहारा लिया था। वो जिस क्षेत्र को जीतते थे, वहां के पराधीन राजा की पुत्रियों से विवाह करते थे। इससे वह निश्चित कर लेते थे कि अब वह राजा उनके ख़िलाफ़ कभी सिर नहीं उठाएगा। उस राजा की सेना का बड़ा भाग वह अपनी सेना में भर्ती कर लेते थे। जो अगले सैन्य अभियान में उनका हरावल दस्ता होती थी। हरावल दस्ता यानी युद्ध में बिलकुल आगे और केंद्र में रहने वाले लोग। स्वभाविक है यह लोग अधिकाधिक घायल होते थे या मरते थे। मंगोल सेना अक्षुण्ण बचती थी और परकीय सेना के विरोध में कभी उठ खड़े होने का कांटा भी निकल जाता था। यह तकनीक इस्लामी शासकों ने चंगेज़ ख़ान और उनके प्रतापी वंशजों से सीखी थी चूँकि इन महान योद्धाओं ने ही इन मध्य एशिया के लोगों का कचूमर निकाला था। यही तकनीक मध्य एशिया के इस्लामी अपने साथ लाये। भारत के राजाओं से इसी प्रकार की सन्धियाँ की गयीं। उन्हें सेना का प्रमुख अंग बनाया गया। इस्लाम के धावे वस्तुतः एक हिन्दू शासक की सेनाओं की दूसरे हिन्दू शासक पर हुई विजय हैं। यह इस्लामी पराक्रम नहीं था।

13वीं शताब्दी में बख़्तियार ख़िलजी ने 10 हज़ार घुड़सवारों के साथ बंगाल के प्रसिद्द विद्याकेन्द्र नदिया पर आक्रमण कर 50 हज़ार बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला। पुस्तकालय जल डाला। हज़ारों लोग जान बचाने के लिये मुसलमान हो गए। { सन्दर्भ:- खंड-5, एन एडवांस हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, मैकमिलन, लन्दन, रमेश चंद्र मजूमदार } यह समाचार पा कर कामरूप नरेश सेना ले कर बख़्तियार पर टूट पड़े और उसकी सेना नष्ट कर दी केवल 100 घुड़सवार बचे। दो साल बाद बख़्तियार मर गया। इस मार-काट में बहुधा भरतवंशी विजयी होते रहे मगर एक बहुत चिंतायोग्य बात विस्मृत होती रही कि धर्मभ्रष्ट लोगों की संख्या बढ़ती रही। भरतवंशी समाज एवं देश अपने विद्वानों, आचार्यों, राजाओं के आर्य-नियमन के अभाव में उस रीति-नीति अपनाते गए जो उनकी मूल चिन्तन की घोरद्रोही थी और इस्लामी होते गये। इसे बदला जाना अनिवार्य था।

इसे इस तथ्य से समझ जा सकता है कि अपने वैभव के चरम शिखर पर सम्पूर्ण पंजाब, उसकी राजधानी लाहौर महाराजा रंजीत सिंह का राज्य, उनकी राजधानी थी। 1947 के देश के विभाजन के समय आधा पंजाब और लाहौर पाकिस्तान का हिस्सा बना। कल्पना कीजिये कि महाराजा रंजीत सिंह जी ने अपने राज्य के सभी मुसलमानों को इस्लाम की ही तरह धर्मपरिवर्तन करने के लिये बाध्य किया होता और हिन्दू बना दिया होता तो क्या यह क्षेत्र पाकिस्तान बनता ? इस संघर्ष में विजय के लिये अनिवार्य रूप से पौरुष चाहिये था। पौरुष की अभिव्यक्ति शस्त्रों के माध्यम से होती है। इस्लामियों को भरतवंशियों ने ढेर कर दिया। मराठे, सिक्ख, राजपूतों ने सत्ता वापस छीन ली।

दैवयोग तब कुटिल अंग्रेज़ आ गये। अंग्रेज़ों ने सचेत रूप से हमें निशस्त्र किया। उन्होंने समझ लिया कि भारत में राज्य चलाने के लिये अनिवार्य रूप से हिंदुओं को दुर्बल करना होगा। इसके लिये उन्होंने 1878 में आर्म्स एक्ट बनाया और हमारे हथियार छीन लिये। स्वयं कोंग्रेस ने 1930 के लाहौर अधिवेशन में निष्ट्रीकरण के विरोध में प्रस्ताव पारित किया था। यहाँ यह प्रश्न स्वयं से पूछने का है। अंग्रेज़ सिक्खों, गोरखों, पठानों से तो शस्त्र नहीं ले पाये। सिक्ख सार्वजनिक रूप से तलवार, भाले, कृपाण ले कर चलते हैं। गोरखे आज भी कमर में खुकरी बांधे रहते हैं। आज भी अफ़ग़ानिस्तान में पठान के बिस्तर में बीबी हो या न हो राइफ़ल अवश्य होती है। इन पर निशस्त्रीकरण का क़ानून नहीं लग सका तो हमने शस्त्र क्यों छोड़ दिये ? धर्मबंधुओ, पौरुष का कोई विकल्प नहीं होता। हम सामाजिक, सामूहिक रूप से निर्बल, हततेज फलस्वरूप आत्मसम्मानहीन हो गए। इस हद तक कि कभी कोई न्याय की बात भी हो तो हमारी कोशिश झगड़ा शांत करने, बीचबचाव करने की होती है। हम शताब्दियों से अहिंसा के नाम पर कायर, नपुंसक बनने पर तुले हुए हैं। इस सोच, व्यवहार का कलंक व्यक्तिगत मोक्ष, अहिंसा, त्याग, शांति के दर्शन के माथे पर है। यह गुण व्यक्तिवाचक हो सकते थे मगर हमने इन्हें समाज का गुण बना दिया। परिणामतः गुण कलंक में बदल गये।

यही डरी हुई मासिकता हमारे लोगों को अपनी ज़िम्मेदारी से दूर कर रही है। हम परमप्रतापी योद्धाओं के वंशज, महान संस्कृति के लोग हैं। हमारा कर्तव्य विश्व को आर्य बनाना है। प्रत्ये हिन्दू की रक्षा ही नहीं सम्पूर्ण विश्व के वृषल हो गए लोगों को शुद्ध कर उन्हें वापस आर्य बनाने का महती दायित्व वेद का आदेश है। इसके लिये साम, दाम, दंड, भेद जैसे हो काम करना ही पड़ेगा। इस लक्ष्य को साधना हमारा कर्तव्य है। विजुगीष वृत्ति के लिये पौरुष आवश्यक है। शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र चिन्ताम् प्रवर्तते। अपने ही एक शेर से बात समाप्त करता हूँ।

तेरी हालत बदल जायेगी तय है
अगर आँखों में सपना जाग
[: सावधान, आंखों की समस्या भी हो सकती है आंख फड़कने का कारण

1 आंखों की समस्या – आंखों में मांस पेशियों से संबंधित समस्या होने पर भी आंख फड़क सकती है। अगर लंबे समय से आपकी आंख फड़क रही है, तो एक बार आंखों की जांच जरूर करवा लें। हो सकता है आपको चश्मा लगाने की जरूरत हो या आपके चश्मे का नंबर बलने वाला हो।
2 तनाव – तनाव के कारण भी आपकी आंख फड़क सकती है। खास तौर से जब तनाव के कारण आप चैन से सो नहीं पाते और आपकी नींद पूरी नहीं होती, तब आंख फड़कने की समस्या हो सकती है। 
3 थकान – अत्यधिक थकान होने पर आंखों में भी समस्याएं होती हैं। इसके अलावा आंखों में थकान या कम्यूटर, लैपटॉप पर ज्यादा देर काम करते रहने से भी यह समस्या हो सकती है। इसके लिए आंखों को आराम देना जरूरी है।
4 सूखापन – आंखों में सूखापन होने पर भी आंख फड़कने की समस्या होती है। इसके अलावा आंखों में एलर्जी, पानी आना, खुजली आदि समस्या होने पर भी ऐसा हो सकता है।
5 पोषण – शरीर में मैग्नीशियम की कमी होने पर आंख फड़कने की समस्या पैदा सकती है। इसके अलवा अत्यधिक कैफीन का शराब का सेवन र्भी इस समस्या को जन्म देता है. : अगर इन 6 चीजों को रातभर भिगोकर खाएंगे, तो बीमारियों से रहेंगे कोसों दूर

  1. मुनक्का -इसमें मैग्नीशियम, पोटेशियम और आयरन काफी मात्रा में होते हैं। मुनक्के का नियमित सेवन कैंसर कोशिकाओं में बढ़ोतरी को रोकता है। इससे हमारी स्किन भी हेल्दी और चमकदार रहती है। एनीमिया और किडनी स्टोन के मरीजों के लिए भी मुनक्का फायदेमंद है। 
  2. काले चने -इनमें फाइबर्स और प्रोटीन की पर्याप्त मात्रा होती हैं जो कब्ज दूर करने में सहायक होते है। 
  3. बादाम -इसमें मैग्नीशियम होता है जो हाई बीपी के रोगियों के लिए फायदेमंद होता है। कई अध्ययनों में पाया गया है कि नियमित रूप से भीगी हुई बादाम खाने से खराब कोलेस्ट्रॉल का लेवल कम हो जाता है। 
  4. किशमिश -किशमिश में आयरन और एंटीऑक्सीडेंट्स भरपूर मात्रा में होते हैं। भीगी हुई किशमिश को नियमित रूप से खाने से स्किन हेल्दी और चमकदार बनती है। साथ ही शरीर में आयरन की कमी भी दूर होती है। 
  5. खड़े मूंग -इनमें प्रोटीन, फाइबर और विटामिन बी भरपूर मात्रा में होता है। इनका नियमित सेवन कब्ज दूर करने में बहुत फायदेमंद होता है। इसमें पोटेशियम और मैग्नेशियम भी भरपूर मात्रा में होने की वजह से डॉक्टरस हाई बीपी के मरीजों को इसे रेगुलर खाने की सलाह देते है। 
  6. मेथीदाना -इनमें फाइबर्स भरपूर मात्रा में होते हैं जो कब्ज को दूर कर आंतों को साफ रखने में मदद करते हैं। डायबिटीज के रोगियों के लिए भी मेथीदाने फायदेमंद हैं। साथ ही इनका सेवन महिलाओं में पीरियड्स के दौरान होने वाले दर्द को भी कम करता हैं।

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