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जानिए प्राचीनकालीन भवन निर्माण विज्ञान वास्तु शास्त्र क्या है ?

सृष्टि में होने वाली घटनाएँ अनायास ही घटित नहीं होती है बल्कि इनके पीछे सृष्टि के नैसर्गिक नियम कार्य करते है | ऐसे कुछ निश्चित नियम और सिद्धांत हैं, जो कि बड़ी प्राकृतिक घटनाओं को तो नियंत्रित करते ही है साथ ही हमारे मानव जीवन के सारे अनुभवों, परिस्थितियों और जीवन में होने वाली घटनाओं को भी नियंत्रित करते है | वास्तु शास्त्र ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण और बेहद प्रभावशाली नियमों पर आधारित विज्ञान है जिसे तार्किक दृष्टिकोण से समझे जाने की आवश्यकता है |

वास्तु का शाब्दिक अर्थ –

वास्तु शब्द के दो अर्थ हैं –
पहला अर्थ – वह जगह जहाँ लोग रहते है | यानि की वे सभी स्थान, जहाँ मनुष्य निवास या कार्य करता है |
दूसरा अर्थ – वस्तुओं का अध्ययन भी वास्तु शास्त्र कहलाता है |

वास्तु शब्द का साहित्यिक अर्थ –

वेद –
वेदों की ऋचाओं में ‘वास्तु’ को गृह निर्माण के योग्य उपयुक्त भूमि के रूप में परिभाषित किया गया है |

समरांगण सूत्रधार –
वास्तु के प्राचीनतम ग्रन्थों में से एक समरांगण सूत्रधार के अनुसार ‘वास्तु’ शब्द ‘वसु’ या प्रथ्वी से उत्पन्न है | पृथ्वी को मूलभूत वास्तु माना गया है और वे सभी रचनाएँ जो पृथ्वी पर स्थित हैं उनको भी वास्तु कहा जाता है |

मयमतम –
मयमतम चार प्रकार की वास्तु का उल्लेख करता है :– पृथ्वी, मंदिर, वाहन, और आसन | इन चारों में भी पृथ्वी मुख्य है |

वास्तु शास्त्र का उद्भव –

वास्तु शब्द का उद्भव संस्कृत के ‘वास’ से हुआ है | वास का अर्थ होता है रहने का स्थान | और इसी ‘वास’ से बने है दो अन्य शब्द – ‘आवास’ और ‘निवास’ |

भवन निर्माण के विज्ञान के रूप में प्रचलित वास्तु शास्त्र का पहला उल्लेख उपलब्ध लिखित साहित्य की दृष्टि से आज से कई हज़ार साल पहले रचित वेदों में मिलता हैं | उस समय वास्तु के विज्ञान की जानकारी समाज के कुछ लोगों तक ही सीमित थी और वे लोग इस ज्ञान को अपने उतराधिकारी के जरिये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाते थे | शुरुआत में वास्तु के सिद्धांत मुख्यत: इस बात पर आधारित थे की सूर्य की किरणें पूरे दिन में किस स्थान पर किस तरह का असर करती है | और इसका अध्ययन करने पर जो नतीजे निकले उन सिद्धांतो ने आगे चलकर वास्तु के अन्य नियमों के विकास की आधारशिला रखी |

उस समय के बाद से मानव सभ्यता के विकास के साथ साथ वास्तु विज्ञान ने भी बहुत विकास किया है | तो यह कहा जा सकता है की वास्तु शास्त्र के वर्तमान सिद्धांत हजारों सालो के विकास का परिणाम है | तो जहाँ वेद वास्तु के उद्भव के स्थान के रूप में जाने जाते है वही वास्तु शास्त्र का प्रणेता विश्वकर्मा को माना जाता है जिन्होंने ‘विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी | हालाँकि विधिवत रूप से ग्यारहवी शताब्दी में ही वास्तु शास्त्र अस्तित्व में आया जब महाराजा भोजराज द्वारा ‘समरांगण सूत्रधार’ नामक ग्रन्थ लिखा गया, जिसे वास्तु शास्त्र का प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है |

वास्तु शास्त्र मूल रूप से वेदों का ही एक हिस्सा रहा है | गौरतलब है कि हमारे चार वेदों के अलावा उपवेद भी लिखे गए हैं जिनमे से एक स्थापत्य वेद था| कालांतर में इसी उपवेद को आधार बनाकर वास्तुशास्त्र का विकास हुआ और इससे सम्बंधित कई साहित्य भारत के अलग अलग हिस्सों में लिखे गए | जैसे की दक्षिण भारत में मयमतम और मानासर शिल्प-शास्त्र की रचना हुई वही विश्वकर्मा वास्तु शास्त्र की रचना उत्तर भारत में हुई |

प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में वास्तु के कई सिद्धांत मिलते है | ऋग्वेद में वास्तोसपति नामक देवता का भी उल्लेख वास्तु के सन्दर्भ में किया गया है | इसके अतिरिक्त अन्य कई प्राचीन ग्रंथो और साहित्यों में वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है जैसे की मत्स्य पुराण, नारद पुराण और स्कन्द पुराण और यहाँ तक की बौद्ध साहित्यों में भी इसका जिक्र होता है | ऐसा माना जाता है की गौतम बुद्ध ने अपने शिष्यों को भवन निर्माण के सम्बन्ध में उपदेश भी दिए थे | बौद्ध साहित्यों में अलग-अलग प्रकार के भवनों का उल्लेख है | इन प्राचीन रचनाओं में स्कन्द पुराण काफी अहमियत रखता है | इसमें महानगरो के बेहतर विकास और समृद्धि के लिए वास्तु के सिद्धांत बताये गए हैं | वही नारद पुराण में मंदिरों के वास्तु के अलावा जलाशयों जैसे कि झील, कुएं, नहरें आदि किस दिशा में होनी चाहिए, घरों में पानी के स्त्रोत किस दिशा में होने चाहिए इस सम्बन्ध में जानकारी मिलती है |

वास्तु शास्त्र के अनिवार्य अंग –

  1. वास्तु कला
  2. स्थान का चयन
  3. सिविल इंजीनियरिंग
  4. ज्योतिष शास्त्र
  5. आन्तरिक सजावट
  6. भू परिदृश्य
  7. जीवन शैली

वास्तु शास्त्र का आपके जीवन पर सकारात्मक व नकारात्मक्र प्रभाव –

विज्ञान की एक विशेषता होती है कि चाहे आप इसे माने या ना माने लेकिन इसके नियम अपना कार्य करते है | वास्तु शास्त्र भी एक ऐसा ही विज्ञान है | संसार में किसी भी चीज के अस्तित्व के लिए या किसी घटना के घटित होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसकी हमें जानकारी हो | ब्रह्माण्ड में ऐसी अनगिनत घटनाएँ घट रही है जिनकी मानव को कोई जानकारी नहीं है और मानव की इस अज्ञानता से उन घटनाओं के अस्तित्व पर कोई फर्क नहीं पड़ता है | इसी सन्दर्भ में वास्तु शास्त्र भी भवन निर्माण का एक ऐसा विज्ञान है जो कि किसी भवन विशेष में मौजूद अदृश्य उर्जाओं और उनके द्वारा निवासियों पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में हमें जानकारी देता है | गौरतलब है कि हमारे चारों ओर उर्जाओं के क्षेत्र (energy fields) विद्यमान है जो कि हमें निरंतर प्रभावित कर रहे है | चाहे आपको जानकारी हो या नहीं, आप इसे स्वीकार करे या नहीं आपके घर में विद्यमान उर्जाये आपको निरंतर प्रभावित कर रही है |

अगर इसे हम विस्तार से समझे तो यह बात स्पष्ट होती है कि मानव की एक क्षमता होती है जिसके भीतर रहकर ही वह खुद पर पड़ने वाले विभिन्न प्रकार के प्रभावों का पता लगा सकता है | प्रकृति में बहुत सुक्ष्म और बहुत विशाल दोनों ही प्रकार की शक्तियां विद्यमान है | विज्ञान के अनुसार हमारे सुनने, देखने, सूंघने की क्षमताओं इत्यादि का एक सुनिश्चित दायरा है | उदाहरण के लिए जब अंतरिक्ष में कोई विशाल खगोलीय घटना घटती है जैसे कि किसी तारे का टूटना तो इस प्रकार की परिस्थिति में हमारे आसपास के वातावरण में भयंकर गर्जना वाली आवाजें चारों ओर से गुजरती है जिन्हें सुनने में हम सक्षम नहीं है | अगर हम इन आवाजों को सुन पाए तो तत्काल हमारे सुनने की क्षमता खो जायेगी |

भले ही हम बहुत सुक्ष्म या बहुत विशाल आवाज को सुनने या महसूस करने में असक्षम हो लेकिन इस बात से अप्रभावित प्रकृति में विद्यमान वह ध्वनियाँ हमारे चारों ओर से गुजर भी रही है और हमें प्रभावित भी कर रही है, बस फर्क इतना है कि हम बिना किसी उपकरण के उसका पता नहीं लगा सकते है | वास्तु शास्त्र में इसी प्रकार की अदृश्य प्राकृतिक शक्तियों में समन्वय को साधने का कार्य किया जाता है जिन्हें हम महसूस नहीं कर सकते है |

वास्तु शास्त्र के अनुसार इन अदृश्य नैसर्गिक शक्तियों में असंतुलन की स्थिति में ये नकारात्मक परिणाम प्रदान करती है और उचित तालमेल स्थापित होने पर यह व्यक्ति के लिए बेहद लाभदायक भी सिद्ध होती है |

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