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मोक्ष क्या है?????

प्रायः हमारे दिमाग में यह प्रश्‍न हमेशा उठता रहता है, जीवन का अर्थ क्या है? अथवा हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है, अथवा हम जन्म क्यों लेते हैं? जीवन के उद्देश्य के संदर्भ में अधिकतर हमारी अपनी योजना होती है, किंतु आध्यात्मिक दृष्टि से सामान्यतः जन्म के दो कारण हैं, ये दो कारण हमारे जीवन के उद्देश्य को मूलरूप से परिभाषित करते हैं।

पहला कारण है- विभिन्न लोगों के साथ अपना लेन-देन पूरा करने के (चुकाने के) उद्देश्य के लिये, तथा आध्यात्मिक प्रगति कर ईश्‍वर से एकरूप होने का अंतिम ध्येय साध्य करने के लिए, जिससे कि जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिले, और दूसरा कारण है- अनेक जन्मों में हुए हमारे कर्म एवं क्रियाआें के परिणामस्वरूप हमारे खाते में भारी मात्रा में लेन-देन इकट्ठा होता है।

ये लेन-देन हमारे कर्मों के स्वरूप के अनुसार अच्छे अथवा बुरे होते हैं, सर्वसाधारण नियमानुसार वर्तमान युग में हमारा ज्यादा जीवन प्रारब्धानुसार है, जो कि नियंत्रण में है और बहुत कम जीवन हमारे क्रियमाण कर्म अनुसार हैं जो इच्छानुसार नियंत्रित होता है, हमारे जीवन की सर्व महत्वपूर्ण घटनाएं अधिकतर प्राब्धानुसार ही होती हैं।

इन घटनाआें में जन्म, परिवार, विवाह, संतान, गंभीर व्याधियां तथा मृत्यु का समय आदि अंतर्भूत हैं, जो सुख और दुःख हम अपने परिजनों को तथा परिचितों को देते हैं अथवा उनसे पाते हैं, वे हमारे पिछले लेन-देन के कारण होता है, ये लेन-देन निर्धारित करते हैं कि जीवन में हमारे सम्बंधों का स्वरूप, तथा उनका आरंभ और अंत कैसे होगा ।

वर्तमान जन्म में हमारा जो प्रारब्ध है, वह वास्तव में हमारे संचित का मात्र एक अंश है, जो अनेक जन्मों से हमारे खाते में जमा हुआ है, हमारे जीवन में यद्यपि पूर्व निर्धारित इस लेन-देन और प्रारब्ध को हम पूरा करते भी हैं, तथापि जीवन के अंत में अपने क्रियमाण (ऐच्छिक) कर्मों द्वारा उसे बढाते भी हैं, जीवन के अंत में यह हमारे समस्त लेन-देन में संचित के रूप में जोडा जाता है ।

परिणामस्वरूप इस नये लेन-देन को चुकाने के लिए हमें पुनः जन्म लेना पडता है और हम जन्म-मृत्यु के चक्र में फंस जाते हैं, सज्जनों! जन्म-मृत्यु के चक्र में हम कैसे फंस जाते हैं? और इस जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति यानी मोक्ष की संक्षेप में कैसे प्राप्ति हो, यह हम जानने की कोशिश करें, वर्तमान जन्म में हमारा जो प्रारब्ध है, वह वास्तव में हमारे संचित का मात्र एक अंश है, जो अनेक जन्मों से हमारे खाते में जमा हुआ है।

हमारे जीवन में यद्यपि पूर्व निर्धारित इस लेन-देन और प्रारब्ध को हम पूरा करते भी हैं, तथापि जीवन के अंत में अपने क्रियमाण (ऐच्छिक) कर्मों द्वारा उसे बढाते भी हैं, जीवन के अंत में यह हमारे समस्त लेन-देन में संचित के रूप में जोडा जाता है, परिणामस्वरूप इस नये लेन-देन को चुकाने के लिए हमें पुनः जन्म लेना पडता है और हम जन्म-मृत्यु के चक्र में फंस जाते हैं ।

समाजके हितके लिए आध्यात्मिक साधना करनेपर प्राप्त हुआ आध्यात्मिक स्तर, जब कि व्यष्टि आध्यात्मिक साधनाका अर्थ है, व्यक्तिगत आध्यात्मिक साधना करनेपर प्राप्त आध्यात्मिक स्तर, वर्तमान समयमें समाजके हितके लिए आध्यात्मिक साधना प्रगति करनेका महत्त्व कुछ अधिक है, जबकि व्यक्तिगत आध्यात्मिक साधनाका महत्त्व बहुत कम है, किसी भी साधना पथ पर आध्यात्मिक विकास का चरम है- परमेश्‍वर में विलीन होना।

इसका अर्थ है, हममें तथा हमारे सर्व ओर विद्यमान ईश्‍वर को अनुभव करना, जो हमारी पंचज्ञानेंद्रियों, मन तथा बुद्धि के परे है, यह शत प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर पर संभव होता है, वर्तमान युग में अधिकतर लोगों का आध्यात्मिक स्तर एक चौथाई से भी कम है, और आध्यात्मिक विकास हेतु साधना करने में कोई रूचि नहीं रहती, उनका अधिकाधिक तादात्म्य अपनी पंच ज्ञानेंद्रियों, मन और बुद्धि से रहता है।

इसका प्रभाव हमारे जीवन में व्यक्त होता है, उदाहरणार्थ, जब हम अपने सौंदर्य पर अधिक ध्यान देते हैं अथवा हमें अपनी बुद्धि अथवा सफलता का अहंकार होता है, साधना द्वारा हमारा जब समष्टि आध्यात्मिक स्तर कुछ बढ़ता है अथवा व्यष्टि आध्यात्मिक स्तर तीन चौथाई से कुछ ज्यादा हो जाता है, तब हम जन्म-मृत्यु के चक्रसे मुक्त हो सकते हैं।

इसके उपरांत हम अपने शेष लेन-देन को महर्लोक और आगे के उच्च सूक्ष्म लोकों में चुका सकते हैं, या पूर्ण कर सकते हैं, आधे से कुछ ज्यादा ‘समष्टि’ अथवा कुछ ज्यादा तीन चौथाई ‘व्यष्टि’ आध्यात्मिक स्तर के आगे पहुंचे कुछ जीव मानवता का आध्यात्मिक मार्गदर्शन करने के लिए पृथ्वी पर जन्म लेने में रूचि रखते हैं।

कभी-कभी लोग सोचते हैं कि बार-बार जन्म लेने में अनुचित क्या है? जैसे ही हम वर्तमान कलियुग में यानी संघर्ष के युग में आगे बढेंगे, वैसे जीवन समस्याआें तथा दुःखों से टकराना होगा, लेकिन कई लोग अध्यात्म के कभी के कई समस्याआें से घिर भी जाता हैं, हमारी अनुभव के मुताबिक बहुत ही कम मनुष्य खुश रहता है तथा ज्यादा समय वह दुखी ही रहता है, और उदासीन रहता है।

इस दशा में उसे सुख-दुख का अनुभव नहीं होता, जब कोई व्यक्ति रास्ते पर चल रहा होता है अथवा कोई व्यावहारिक कार्य कर रहा होता है, तब उसके मन में सुखदायक अथवा दुखदायक विचार नहीं होते, वह केवल कार्य करता है, इसका प्राथमिक कारण है कि अधिकतर व्यक्तियों का आध्यात्मिक स्तर अल्प होता है, इसलिये अनेकों बार हमारे निर्णय एवं आचरण से अन्यों को कष्ट होता है, साथ ही, वातावरण में रज-तम फैलाता है।

फलस्वरूप नकारात्मक कर्म और लेन-देन का हिसाब बढता है, इसीलिये अधिकतर मनुष्यों के लिए वर्तमान जन्म की अपेक्षा आगे के जन्म दुखदायी होते हैं, यद्यपि समाज ने आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति की है, तथापि सुख! जो हमारे जीवन का मुख्य ध्येय है, इसके संदर्भ में, हम पिछली पीढियों की अपेक्षा निर्धन हैं।

हम सब सुख चाहते हैं, परंतु प्रत्येक का अनुभव है कि जीवन में दुख आते ही हैं, ऐसे में अगले जन्म में और भविष्य के जीवन में सर्वोच्च तथा चिरंतन सुख प्राप्त होने की निश्‍चिति नहीं है, केवल आध्यात्मिक उन्नति और ईश्‍वर से एकरूपता ही हमें निरंतर और स्थायी सुख दे सकते हैं।

अध्यात्म के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार साधना करने पर ही आध्यात्मिक विकास संभव है, और आध्यात्मिक के विकास के नियमों का पालन करना होता है, आध्यात्मिक मार्ग इन छः मूलभूत सिद्धांतों का अवलंब नहीं करते, उनके अनुसार साधना करने वालों का विकास बाधित हो जाता है।

हममें से अधिकतर लोगों के जीवन के कुछ लक्ष्य होते हैं- जैसे डॉक्टर बनना, धनवान बनना और प्रतिष्ठा कमाना अथवा किसी विशिष्ट क्षेत्र में अपने समाज का प्रतिनिधित्व करना, लक्ष्य जो भी हो, अधिकांश लोगों के लिए वह प्राय: एवं प्रमुखत: सांसारिक ही होता है, हमारी संपूर्ण शिक्षा प्रणाली इस प्रकार से विकसित की गयीं है कि हम इन सांसारिक लक्ष्यों का अनुसरण कर सकें ।

अभिभावक होने के नाते हम भी अपने बच्चों के सामने ये सांसारिक लक्ष्य रखकर उन्हें शिक्षित करते हैं, तथा ऐसे व्यवसायों के लिए प्रोत्साहित करते हैं जिनसे उन्हें हमसे अधिक आर्थिक लाभ मिले, किसी के मन में यह प्रश्‍न उभर सकता है कि इन सांसारिक लक्ष्यों का, जीवन के आध्यात्मिक ध्येय एवं पृथ्वी पर जन्म लेने के कारणों के साथ सामंजस्य कैसे हो सकता है?

भाई-बहनों हम सांसारिक लक्ष्यों के पीछे इसलिए भागते रहते हैं कि हमें संतोष एवं आनंद यानी सुख प्राप्त हो, सामन्यतः अप्राप्य ऐसे सर्वोच्च और सुख की और सुख की अभिलाषा ही हमारे प्रत्येक कृत्य की अंगभूत प्रेरणा होती है, किंतु वास्तव में सांसारिक लक्ष्यों की पूर्ति होने पर भी प्राप्त सुख और संतोष अल्पकाल के लिये ही टिकता है, हम कोई अन्य सुख पाने का स्वप्न देखने लगते हैं।

परम और चिरस्थायी सुख की प्राप्ति केवल साधना द्वारा ही संभव है, जो छः मूल सिद्धांतों पर आधारित है, सर्वोच्च श्रेणी के सुख को आनन्द कहते हैं, जो ईश्‍वर का गुणधर्म है, जब हम ईश्‍वर से एकरूप हो जाते हैं तब हमें भी उस चिरस्थायी आनंद की अनुभूति होती है, इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने दैनिक जीवन में जो कुछ कर रहे हैं, वह छोडकर केवल साधना पर ही ध्यान केंद्रित करें।

अपितु इसका आशय यह है कि सांसारिक जीवन के साथ साधना के संयोजन से परम और चिरस्थायी सुख की प्राप्ति भी संभव है, साधना के लाभ का संक्षिप्त विवेचन चिरस्थायी सुख के लिए आध्यात्मिक शोध के स्तंभ में दिया है, जो आराम से पढ़े, और समझने की कोशिश करें, संक्षेप में हमारे जीवन के लक्ष्य, आध्यात्मिक प्रगति के आशय से जितने अनुरूप होंगे, उतना ही हमारा जीवन अधिक समृद्ध होगा,और उतना ही हमें कष्ट अल्प होगा।

आध्यात्मिक अनुभव भी यही कहता है कि पदार्थ और ऊर्जा आपस में रूपान्तरित होते हैं, मानव जीवन भी इसी रूपान्तरण का परिणाम है, जिसे हम देह, प्राण एवम मन, अन्तःकरण एवं अन्तरात्मा के संयोग से बना व्यक्तित्व कहते हैं, वह दरअसल कुछ विशिष्ट ऊर्जा तरंगों का सुखद संयोग है, कर्म, इच्छा एवं भावना के अनुसार इन ऊर्जा तरंगों में न्यूनता व अधिकता होती रहती है।

स्थिति में होने वाले इस परिवर्तन के लिए वर्तमान जीवन के साथ अतीत में किए गए कर्म, इच्छाएँ व भावनाएँ जिम्मेदार होती हैं, इन्हीं की उपयुक्त एवं अनुपयुक्त स्थिति के अनुसार जीवन में सुखद एवं दुःखद परिवर्तन आते हैं, किसी विशिष्ट ऊर्जा तरंग की न्यूनता जब जीवन में होती है, तो स्वास्थ्य, मानसिक स्थिति, पारिवारिक एवं सामाजिक परिस्थिति में तदानुरूप परिवर्तन आ जाते हैं।

इस स्थिति को तप, योग, मंत्रविद्या आदि प्रयासों से ठीक भी किया जा सकता है, हम सभी, सृष्टि एवं स्रष्टा के साथ एक दूसरे से गहराई में गुँथे हैं, कर्म चक्र ही हम सबके जीवन को प्रवर्तित, परिवर्तित कर रहा है, इन दो बातों के साथ दो बातें और भी हैं- पहली- इच्छा, संकल्प, साहस एवं श्रद्धा के द्वारा हम सभी अपनी अनन्त शक्तियों को जाग्रत् कर सकते हैं।

और दूसरी- आध्यात्मिक चिकित्सा ही मानव व्यक्तित्व का एक मात्र समाधान है, इसे आस्तिकता के अस्तित्त्व में अनुभव किया जा सकता है, आध्यात्मिक उन्नति से के अगले कई जन्मों का लेनदेन एक दम चुकता करने के लिये हमारे ऋषि-मुनि योग साधना के बल पर हजारों वर्ष की उम्र बढ़ा लेते थे, ताकि सभी लेन देन इसी जन्म में पूरा हो जायें, ताकि पुनः जन्म न लेना पड़े, यहीं मोक्ष की अवस्था है।

जय महादेव!

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